Nov 24, 2016
Nov 22, 2016
ये है वो अर्थशास्त्री जिसने मोदी को दिया था नोटबंदी का आइडिया
मोदी को नोटबंदी का मंत्र देने वाले खफा, कहा- सरकार ने पसंद के सुझाव माने, बाकी छोड़ दिए
प्रधानमंत्री मोदी और अनिल बोकिल |
नोजिया सैयद, मुंबई
नोटबंदी की घोषणा हुई और लोग इसे प्रधानमंत्री नरेंद्री मोदी का काले धन पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' बता रहे हैं। हालांकि, पीएम के इस बड़े कदम के पीछे आइडिया पुणे निवासी अनिल बोकिल और उनके थिंक टैंक अर्थक्रांति प्रतिष्ठान का है। जुलाई महीने में बोकिल को मोदी से मिलने के लिए महज नौ मिनट का वक्त मिला था। लेकिन जब मोदी ने बोकिल को सुना तो दोनों के बीच बातचीत दो घंटों तक खिंच गई। इस बातचीत का परिणाम नोटबंदी के रूप में सामने आया।
अब जब देशवासी बैंकों और एटीएमों के सामने लाइन लगा कर खड़े हैं, बोकिल इसका दोष सरकार पर मढ़ रहे हैं। उनका आरोप है कि सरकार ने उनके सुझाव को पूरा-पूरा मानने के बजाय अपनी पसंद को तवज्जो दी। उन्होंने मुंबई मिरर से कहा कि मंगलवार को वह प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली जा रहे थे। हालांकि, मुलाकात को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से कोई कन्फर्मेशन नहीं आया था।
बकौल बोकिल उन्होंने सरकार से कहा-
1. केंद्र या राज्य सरकारों के साथ-साथ स्थानीय निकायों द्वारा वसूले जाने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, सभी करों का पूर्ण खात्मा।
2. ये टैक्सेज बैंक ट्रांजैक्शन टैक्स (बीटीटी) में तब्दील किए जाने थे जिसके अंतर्गत बैंक के अंदर सभी प्रकार के लेनदेन पर लेवी (2 प्रतिशत के करीब) लागू होती। यह प्रक्रिया सोर्स पर सिंगल पॉइंट टैक्स लगाने की होती। इससे जो पैसे मिलते उसे सरकार के खाते में विभिन्न स्तर (केंद्र, राज्य, स्थानीय निकाय आदि के लिए क्रमशः 0.7%, 0.6%, 0.35% के हिसाब से) पर बांट दिया जाता। इसमें संबंधित बैंक को भी 0.35% हिस्सा मिलता। हालांकि, बीटीटी रेट तय करने का हक वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पास होता।
3. कैश ट्रांजैक्शन (निकासियों) पर कोई टैक्स नहीं लिया जाए।
4. सभी तरह की ऊंचे मूल्य की करंसी (50 रुपये से ज्यादा की मुद्रा) वापस लिए जाएं।
5. सरकार निकासी की सीमा 2,000 रुपये तक किए जाने के लिए कानूनी प्रावधान बनाए।
अगर ये सभी सुझाव एकसाथ मान लिए गए होते, तो इससे ना केवल आम आदमी को फायदा होता बल्कि पूरी व्यवस्था ही बदल गई होती। हम सबकुछ खत्म होता नहीं मान रहे। हम सब देख रहे हैं। लेकिन, सरकार ने बेहोशी की दवा दिए बिना ऑपरेशन कर दिया। इसलिए मरीजों को जान गंवानी पड़ी। हम इस प्रस्ताव पर 16 सालों से काम कर रहे हैं जब अर्थक्रांति साल 2000 में स्थापित हुई।
काले धन पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' में क्या गड़बड़ी हुई, इस बारे में अनिल बोकिल का कहना है कि उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने एक व्यापक प्रस्ताव रखा था जिसके पांच आयाम थे। हालांकि, सरकार ने इनमें सिर्फ दो को ही चुना। यह अचानक उठाया गया कदम था, ना कि बहुत सोचा-समझा। इस कदम का ना ही स्वागत किया जा सकता है और ना ही इसे खारिज कर सकते हैं। हम इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं। हमने सरकार को जो रोडमैप दिए थे, उससे ऐसी परेशानियां नहीं होतीं।
बोकिल ने बताया कि 16 सदस्यों की एक तकनीकी समिति ने यह प्रस्ताव दिया जिसने गारंटी दी कि इससे एक भी व्यक्ति प्रभावित नहीं होगा। इस कदम का सिर्फ और सिर्फ ब्लैक मनी, आतंकवाद और फिरौती से जुड़े अपराधों पर प्रहार होता। इससे प्रॉपर्टी की कीमतें कम होतीं और जीडीपी का विस्तार होता। सरकार ने 2,000 रुपये के नोट ला दिए जिसे हम वापस लेने का प्रस्ताव रख रहे हैं। यह तो सिर्फ शुरुआत है। मुख्य अभियान का आगाज तो अभी होना है।
नवभारत टाइम्स डॉट कॉम से साभार
मूल खबर के लिए देखें — http://mumbaimirror.indiatimes.com/mumbai/cover-story/The-man-who-gave-Modi-the-idea-of-demonetisation-slams-implementation/articleshow/55551131.cms
नोटबंदी की घोषणा हुई और लोग इसे प्रधानमंत्री नरेंद्री मोदी का काले धन पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' बता रहे हैं। हालांकि, पीएम के इस बड़े कदम के पीछे आइडिया पुणे निवासी अनिल बोकिल और उनके थिंक टैंक अर्थक्रांति प्रतिष्ठान का है। जुलाई महीने में बोकिल को मोदी से मिलने के लिए महज नौ मिनट का वक्त मिला था। लेकिन जब मोदी ने बोकिल को सुना तो दोनों के बीच बातचीत दो घंटों तक खिंच गई। इस बातचीत का परिणाम नोटबंदी के रूप में सामने आया।
अब जब देशवासी बैंकों और एटीएमों के सामने लाइन लगा कर खड़े हैं, बोकिल इसका दोष सरकार पर मढ़ रहे हैं। उनका आरोप है कि सरकार ने उनके सुझाव को पूरा-पूरा मानने के बजाय अपनी पसंद को तवज्जो दी। उन्होंने मुंबई मिरर से कहा कि मंगलवार को वह प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली जा रहे थे। हालांकि, मुलाकात को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से कोई कन्फर्मेशन नहीं आया था।
बकौल बोकिल उन्होंने सरकार से कहा-
1. केंद्र या राज्य सरकारों के साथ-साथ स्थानीय निकायों द्वारा वसूले जाने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, सभी करों का पूर्ण खात्मा।
2. ये टैक्सेज बैंक ट्रांजैक्शन टैक्स (बीटीटी) में तब्दील किए जाने थे जिसके अंतर्गत बैंक के अंदर सभी प्रकार के लेनदेन पर लेवी (2 प्रतिशत के करीब) लागू होती। यह प्रक्रिया सोर्स पर सिंगल पॉइंट टैक्स लगाने की होती। इससे जो पैसे मिलते उसे सरकार के खाते में विभिन्न स्तर (केंद्र, राज्य, स्थानीय निकाय आदि के लिए क्रमशः 0.7%, 0.6%, 0.35% के हिसाब से) पर बांट दिया जाता। इसमें संबंधित बैंक को भी 0.35% हिस्सा मिलता। हालांकि, बीटीटी रेट तय करने का हक वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पास होता।
3. कैश ट्रांजैक्शन (निकासियों) पर कोई टैक्स नहीं लिया जाए।
4. सभी तरह की ऊंचे मूल्य की करंसी (50 रुपये से ज्यादा की मुद्रा) वापस लिए जाएं।
5. सरकार निकासी की सीमा 2,000 रुपये तक किए जाने के लिए कानूनी प्रावधान बनाए।
अगर ये सभी सुझाव एकसाथ मान लिए गए होते, तो इससे ना केवल आम आदमी को फायदा होता बल्कि पूरी व्यवस्था ही बदल गई होती। हम सबकुछ खत्म होता नहीं मान रहे। हम सब देख रहे हैं। लेकिन, सरकार ने बेहोशी की दवा दिए बिना ऑपरेशन कर दिया। इसलिए मरीजों को जान गंवानी पड़ी। हम इस प्रस्ताव पर 16 सालों से काम कर रहे हैं जब अर्थक्रांति साल 2000 में स्थापित हुई।
काले धन पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' में क्या गड़बड़ी हुई, इस बारे में अनिल बोकिल का कहना है कि उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने एक व्यापक प्रस्ताव रखा था जिसके पांच आयाम थे। हालांकि, सरकार ने इनमें सिर्फ दो को ही चुना। यह अचानक उठाया गया कदम था, ना कि बहुत सोचा-समझा। इस कदम का ना ही स्वागत किया जा सकता है और ना ही इसे खारिज कर सकते हैं। हम इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं। हमने सरकार को जो रोडमैप दिए थे, उससे ऐसी परेशानियां नहीं होतीं।
बोकिल ने बताया कि 16 सदस्यों की एक तकनीकी समिति ने यह प्रस्ताव दिया जिसने गारंटी दी कि इससे एक भी व्यक्ति प्रभावित नहीं होगा। इस कदम का सिर्फ और सिर्फ ब्लैक मनी, आतंकवाद और फिरौती से जुड़े अपराधों पर प्रहार होता। इससे प्रॉपर्टी की कीमतें कम होतीं और जीडीपी का विस्तार होता। सरकार ने 2,000 रुपये के नोट ला दिए जिसे हम वापस लेने का प्रस्ताव रख रहे हैं। यह तो सिर्फ शुरुआत है। मुख्य अभियान का आगाज तो अभी होना है।
नवभारत टाइम्स डॉट कॉम से साभार
मूल खबर के लिए देखें — http://mumbaimirror.indiatimes.com/mumbai/cover-story/The-man-who-gave-Modi-the-idea-of-demonetisation-slams-implementation/articleshow/55551131.cms
Nov 19, 2016
चीन के लिए अपने नागरिकों को उजाड़ेगा पाकिस्तान
बिजली व्यवस्था के नाम पर पाकिस्तान चीन से महंगे दाम पर बिजली खरीदेगा। साथ ही यहां के स्थानीय उद्योगों को तबाह कर देगा...
प्रदीप श्रीवास्तव
जनज्वार। पाकिस्तान के गिलगिट क्षेत्र में 46 सौ करोड़ रुपए की लागत से चाइना पाक इकोनाॅमिक काॅरिडोर का निर्माण किया जा रहा है। निर्माण कार्य 2018 तक में पूरा हो जाएगा। इससे चीन पाक के पश्चिमी हिस्से के बंदरगाह ग्वादर से जुड़ जाएगा। माना जा रहा है कि इससे पाक का तेजी से विकास होगा। लेकिन, इसके निर्माण को लेकर विरोध तेज हो गया है। स्थानीय निवासी अपने व्यापार व संस्कृति के तबाह होने के खतरे से डरे हुए हैं।
पाकिस्तान के बंदरगार से जोड़ने के लिए चीन 3,218 किलोमीटर लंबी सड़क का निर्माण कर रहा हैं। इसे नया सिल्क रूट भी माना जा रहा है। इस सड़क से झिंगजियांग पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से जुड़ जाएगा। पूरा कवायद इसलिए की जा रही है कि वर्तमान में चीन को तेल पाने के लिए 16,000 किलोमीटर लंबा सफर तय करना पड़ता हैं, जिसमें खर्च के साथ ही समय बहुत लगता है।
कई बार तीन माह से ज्यादा समय बाद तेल देश में पहुंचता है। जबकि नए रास्ते से यह दूरी पांच हजार से भी कम हो जाएगी। इसमें समय व खर्च की बहुत बचत होगी। तेल सहित दूसरे माल की लागत भी बहुत कम हो जाएगी। इसके लिए दोनों देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में 21 प्रकार के समझौते हुए हैं।
चीन सीधे इस्लामाबाद के रास्ते कतर, दुबई और अबुधाबी से जुड़ जाएगा। एशियन डेवलपमेंट बैंक के अनुसार नए रूट देश में उद्योगों व व्यापार का तेजी से विकास होगा। लेकिन द डाॅन में छपी दनार्थपोल डाटा काॅम की रिपोर्ट के अनुसार इससे पूरा क्षेत्र उजड़ जाएगा। सबसे ज्यादा नुकसान यहां के स्थानीय निवासियों को होगा। इस रोड पर बिजली की व्यवस्था के नाम पर पाकिस्तान चीन से महंगे दाम पर बिजली खरीदेगा। साथ ही यहां के स्थानीय उद्योगों को तबाह कर देगा।
सांस्कृतिक परिवेश भी चीन के आवाजाही के कारण समाप्त हो जाएंगे। 73 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में लोगों को विस्थापित किया जाएगा। पाक की आर्थिक हालात ऐसी है कि विस्थापित लोगों को बसाने की कोई योजना नहीं बनाई गई है।
Nov 18, 2016
प्रधानमंत्री मोदी को जो 55 करोड़ मिला, क्या वह कालाधन नहीं है?
सबूत पहुंचा जांच एजेंसियों के पास, पर सरकार समर्थित पत्रकारों ने साधा मौन, एक ही सवाल कि कौन बांधे बिल्ली की गले में घंटी
देश की प्रमुख पांच जांच एजेंसियों को स्वराज अभियान के अध्यक्ष और वकील प्रशांत भूषण ने भेजा पत्र, पर सभी जगह छायी है चुप्पी। सबूतों के आधार पर वकील का दावा कि पार्टी कोषाध्यक्ष और भाजपा मुख्यमंत्रियों को मिला है करोड़ों का कालाधन
प्रधानमंत्री मोदी जब 8 नवंबर को 500 और 1000 रुपए के नोट बंद करने की देश को सूचना दे रहे थे, उससे बहुत पहले सु्प्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण देश की प्रमुख आधा दर्जन से अधिक सरकारी जांच एजेंसियों को लिखकर बता चुके थे कि न सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ने बल्कि देश के अन्य तीन और मुख्यमंत्रियों ने करोड़ों का कैश उद्योगपतियों से वसूला है। प्रशांत भूषण ने जिन एजेंसियों को डाक्यूमेंट्स भेजे हैं, उनमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा कालेधन को लेकर बनाई गई दो सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की स्पेशल इंवेस्टीगेशन टीम, निदेशक सीबीआई, निदेशक ईडी, निदेशक सीबीडीटी और निदेशक सीवीसी शामिल हैं।
मासिक अंग्रेजी पत्रिका कारवां में छपी रिपोर्ट के अनुसार, भारत सरकार के इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की ओर से किए गए रेड के जो डाक्यूमेंट्स दिल्ली के पत्रकारों और नौकरशाहों के दायरे में घूम रहे हैं उनके मुताबिक, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी को सुब्रत राय के सहारा इंडिया ग्रुप से जुड़े किसी 'जायसवाल जी' ने करोडों रुपए कैश में दिए।
पत्रिका को हाथ लगे डाक्यूमेंट्स से साफ है कि 30 अक्टूबर 2013 और 29 नवंबर 2013 को गुजरात सीएम, मोदी जी के नाम से 13 ट्रांजेक्शन हुए। इन ट्रांजेक्शन से पता चलता है कि 13 ट्रांजेक्शन में 55.2 करोड़ रुपए मोदी जी और गुजरात सीएम के नाम से दिए गए। हालांकि पत्रिका का यह भी मानना है कि यह बहुत साफ नहीं हो पा रहा है कि ट्रांजेक्शन 13 हुए या 9 ट्रांजेक्शन में 40.1 करोड़ रुपए जमा किए गए।
इसके अलावा सहारा ग्रुप से जुड़े जायसवाल ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी करोड़ों के रुपए कैश में दिए। करोड़ों का कैश लेने वालों में भारतीय जनता पार्टी की कोषाध्यक्ष शायना एनसी भी शामिल हैं।
इस रिपार्ट का विस्तृत खुलासा करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रणोंजॉय गुहा ठाकुरता का कहना है कि कारवां और इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली पत्रिका ने इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से मिले सबूतों के आधार पर सभी नेताओं को सफाई के लिए ईमेल किया है। पर 17 नवंबर को किए गए ईमेल का जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी कोषाध्यक्ष शायना एनसी, छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री रमन सिंह, मध्यप्रदेश मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित में से किसी ने अबतक नहीं दिया है।
प्रधानमंत्री से लेकर तीन—तीन मुख्यमंत्रियों द्वारा कैश में करोडों का कालाधन लेने के इस मामले का खुलासा इनकम टैक्स की डिप्टी डाइरेक्टर अंकिता पांडेय ने किया था। इन कागजातों पर उनके अलावा भारत सरकार के दूसरे अधिकारियों के भी दस्तखत हैं। इस मामले में जब पत्रिका ने 3 नवंबर को संपर्क किया तो अंकिता पांडेय का जवाब था, 'मैं लंबी छुट्टी पर हूं और मैं वह आधिकारित व्यक्ति नहीं हूं जो डाक्यूमेंट्स की सत्यता को लेकर कोई बयान दे।' फिलहाल यह डाक्यूमेंट देश के तमाम पत्रकारों और सरकार अधिकारियों के पास है।
असल में कहानी है क्या
वेबसाइट 'जनता का रिपोर्टर' का दावा है कि अक्टूबर 2013 से नवम्बर 2014 में क्रमशः सहारा और आदित्य बिड़ला के ठिकानों पर इनकम टैक्स के छापे पड़े थे ।
यहां से आयकर अधिकारियों को दो महत्वपूर्ण दस्तावेज मिले थे । जिनमें सरकारी पदों पर बैठे कई लोगों को पैसे देने का जिक्र था। इसमें प्रधानमंत्री मोदी का नाम भी शामिल था ।
बिड़ला के यहां से जब्त दस्तावेज में सीएम गुजरात के नाम के आगे 25 करोड़ रुपये लिखा गया था। इसमें 12 करोड़ दे दिया गया था । बाकी पैसे दिए जाने थे ।
इसी तरह से सहारा के ठिकानों से हासिल दस्तावेजों में लेनदारों की फेहरिस्त लम्बी थी । जिसमें सीएम एमपी, सीएम छत्तीसगढ़, सीएम दिल्ली और बीजेपी नेता सायना एनसी के अलावा मोदी जी का नाम भी शामिल था ।
मोदी जी को 30 अक्टूबर 2013 से 21 फ़रवरी 2014 के बीच 10 बार में 40.10 करोड़ रुपये की पेमेंट की गई थी । खास बात ये है कि तब तक मोदी जी बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार घोषित किए जा चुके थे ।
सहारा डायरी की पेज संख्या 89 पर लिखा गया था कि 'मोदी' जी को 'जायसवाल जी' के जरिये अहमदाबाद में 8 पेमेंट किए गए ।
डायरी की पेज संख्या 90 पर भी इसी तरह के पेमेंट के बारे में लिखा गया है । बस अंतर केवल इतना है कि वहां 'मोदी जी' की जगह 'गुजरात सीएम' लिख दिया गया है, जबकि देने वाला शख्स जायसवाल ही थे।
मामला तब एकाएक नाटकीय मोड़ ले लिया जब इसकी जांच करने वाले के बी चौधरी को अचानक सीवीसी यानी सेंट्रल विजिलेंस कमीशन का चेयरमैन बना दिया गया । प्रशांत भूषण ने उनकी नियुक्ति को अदालत में चुनौती दी ।
इस साल 25 अक्टूबर को प्रशांत भूषण ने सीवीसी समेत ब्लैक मनी की जांच करने वाली एसआईटी को सहारा मामले का अपडेट जानने के लिए पत्र लिखा । ख़ास बात यह है कि उसी के दो दिन बाद यानी 27 अक्टूबर को दैनिक जागरण में 500-1000 की करेंसी को बंद कर 2000 के नोटों के छपने की खबर आयी । बताया जाता है कि के बी चौधरी ने वित्तमंत्री अरुण जेटली को इसके बारे में अलर्ट कर दिया था।
उसके बाद सहारा ने इनकम टैक्स विभाग के सेटलमेंट कमीशन में अर्जी देकर मामले के एकमुश्त निपटान की अपील की । जानकारों का कहना है कि कोई भी शख्स इसके जरिये जीवन में एक बार अपने इनकम टैक्स के मामले को हल कर सकता है । और यहां लिए गए फैसले को अदालत में चुनौती भी नहीं दी जा सकती है । साथ ही इससे जुड़े अपने दस्तावेज भी उसे मिल जाते हैं । जिसे वह नष्ट कर सकता है । अदालत या किसी दूसरी जगह जाने पर यह लाभ नहीं मिलता । चूंकि मामला पीएम से जुड़ा था इसलिए सहारा इसको प्राथमिकता के आधार पर ले रहा था ।
बताया जाता है कि सेटलमेंट कमीशन में भी मामला आखिरी दौर में था । भूषण ने 8 नवम्बर को फिर कमीशन को एक पत्र लिखा । जिसमें उन्होंने मामले का अपडेट पूछा था ।
शायद पीएम को आने वाले खतरे की आशंका हो गई थी । जिसमें उनके ऊपर सीधे-सीधे 2 मामलों में पैसे लेने के दस्तावेजी सबूत थे । उनके बाहर आने का मतलब था पूरी साख पर बट्टा । मामले का खुलासा हो उससे पहले ही उन्होंने ऐसा कोई कदम उठाने के बारे में सोचा जिसकी आंधी में यह सब कुछ उड़ जाए । नोटबंदी का फैसला उसी का नतीजा था ।
इसे अगले साल जनवरी-फ़रवरी तक लागू किया जाना था । लेकिन उससे पहले ही कर दिया गया । यही वजह है कि सब कुछ आनन-फानन में किया गया । न कोई तैयारी हुई और न ही उसका मौका मिला । यह भले ही 6 महीने पहले कहा जा रहा हो लेकिन ऐसा लगता है उर्जित पटेल के गवर्नर बनने के बाद ही हुआ है । क्योंकि नोटों पर हस्ताक्षर उन्हीं के हैं । छपाई से लेकर उसकी गुणवत्ता में कमी पूरी जल्दबाजी की तरफ इशारा कर रही है ।
Nov 16, 2016
7 हजार करोड़ की कर्जमाफी का मजा मार रहे पूंजीपतियों की सूची हुई सरेआम
पढ़िए एक—एक नाम, जानिए कौन —कौन पूंजीपति हैं भाजपा सरकार की निगाहों में कर्जमाफी के जरूरतमंद। जरूरतमंदों में सबसे ऊपर विजय माल्या, भक्तों की सरकार ने भगोड़े का माफ किया 12 सौ करोड़
ये सिर्फ दस बड़े सुरसा हैं, शेष को नीचे देखिये साभार - डीएनए |
भारत सरकार के प्रमुख बैंक स्टेट बैंक आॅफ इंडिया ने जिन 63 पूंजीपतियों की 7 हजार 16 करोड़ रुपए कर्ज के माफ किए हैं, उनकी विधिवत सूची मीडिया में आ गयी है। इस खबर का सबसे पहले अंग्रेजी अखबार डीएनए ने खुलासा किया है। मीडिया में आई सूची में भारत सरकार ने सबसे ज्यादा कर्ज भगेडू और भ्रष्ट पूंजीपति विजय माल्या का माफ किया है। स्टेट बैंक ने जिन पूंजीपतियों के कर्ज माफ किए हैंं, उनकी कुल संख्या 100 है, पर 63 की माफी कुल कर्ज का 80 प्रतिशत है।
गौरतलब है कि भारत सरकार के सबसे ख्याति प्राप्त बैंक ने जून 2016 में बैड लोन के नाम पर कर्ज के 48 हजार करोड़ रुपए नहीं वसूलने या उन्हें माफ करने का आदेश दिया। इस आदेश के बाद विपक्षी पार्टियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और किसान संगठनों ने सवाल भी उठाया कि एक तरफ तो सरकार और निजी क्षेत्र के बैंक हजार—चार हजार बकाए पर वसूली का दबाव बनाकर किसानों को आत्महत्या तक मजबूर करते हैं, जबकि सरकार जनता की गाढ़ी कमाई का 48 हजार करोड़ रुपए माफ कर रही है।
स्टेट बैंक ने इसी क्रम में भारतीय पूंजीपतियों के भी कर्ज माफ किए थे जो दशकों से चुका नहीं पा रहे थे। उस समय सूची नहीं आई थी पर लोगों को लग रहा था कि सरकार अपने चहतों की कर्जमाफी सबसे पहले करेगी। हालांकि जिन पूंजीपति घरानों के कर्ज माफ किए गए हैं, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो दिवालिया घोषित हो चुका है।
7 हजार करोड़ की कर्जमाफी वाली सूची आने के बाद भाजपा की केंद्र सरकार पर पहला सवाल यही उठ रहा है कि क्या सरकार के पहले पसंदीदा पूंजीपति शराब व्यापारी विजय माल्या ही थे, जिनका सबसे ज्यादा 12 सौ करोड़ भारत सरकार के बैंक ने माफ किया है।
अरबों की सरकारी लूट और टैक्स चोरी के आरोपी और भगोड़ा विजय माल्या को देश से भगाने का आरोप पहले ही मोदी सरकार पर लगता रहा है। माना जाता है कि सरकार की ओर से मिले लूप होल के जरिए ही विजय माल्या जेल जाने की बजाए देश से भाग गया।
63 पूंजीपतियों के 7 हजार करोड़ की कर्जमाफी मौजूदा संसद सत्र में सरकार के लिए गले की फांस बन सकती है। वैसे भी सरकार ने आम जनता को कालेधन पर अंकुश की उम्मीद दिखाकर पिछले हफ्ते भर से एटीएम और बैंकों के गेटों पर लाइन में खड़ा कर रखा है।
देश को ईमानदार बनाने की उम्मीद में जनता सौ—दो सौ के लिए लाइन में खड़ी है और यहां सरकार लाइन लगाकर पूंजीपतियों की कर्जमाफी कर रही है. |
Nov 15, 2016
सोनम गुप्ता की बेवफाई का इतिहास
सोनम गुप्ता के बेवफाई का इतिहास बहुत पुराना है। वह दशकों से भारतीय मर्दों का दिल तोड़ते चली आ रही है। हद तो यह है कि उसकी बहनें भी इस काम में एक के बाद एक लगी रहीं और बेचारा मासूम मर्द मोहब्बत की कटोरी लिए लहूलुहान होता रहा है...
इस बार सोनम गुप्ता नए नोट पर अवतरित हुई। उसकी बेवफाई के चर्चे बिल्कुल नए और ताजे नोट पर हुए। घंटों की लंबी लाईन और कई दिनों के प्रयास के बाद मिल रहे नए 2 हजार वाले नोट पर 'सोनम गुप्ता बेवफा है', लिखना किसी के प्यार में गहरे गिरने से कम नहीं है। शायद यही वजह थी कि ऐतिहासिक रूप से सोनम गुप्ता अपनी बेवफाई के लिए इस बार चर्चित हुई। इससे पहले उसकी चर्चा कभी नहीं हुई। देखते ही देखते लाखों लोगों ने सोनम गुप्ता का हैशटैग लगाना शुरू कर दिया, सोशल मीडिया पर संदेश शेयर करने लगे, किस्से—कहानियां कहने लगे, तंज कसने लगे और कहकहे भी खूब लगे।
पर हर बार की तरह अबकी भी सोनम गुप्ता मौन ही रही। चुपचाप अपने बेवफाई के किस्से चौक—चौराहों, गलियों—नुक्कड़ों, घरों—दफ्तरों और स्कूलों—कॉलेजों में सुनती रही। सुनाकर आनंद लेने वालों को देखती रही। बिल्कुल भी बोल नहीं सकी, क्योंकि उसका इतिहास ही बदनामी, बेवफाई और चुप्पी का रहा है।
इस बार जो नया था वह यह कि सोनम गुप्ता, शीला या मुन्नी की तरह किसी फिल्म या गाने में रचित चरित्र नहीं थी, बल्कि अबकी समाज ने ही उसकी फिल्म बना दी। एक-एक से स्क्रिप्टिंग हुई, तरह- तरह का अंदाजे बयां आजमाया गया।
ऐसे में वह अपनी उन बहनों पर तरश खा रही थी, जो उससे पहले बेवफाई या वफाई के लिए चौक—चौराहों पर चर्चा का विषय बनी, मर्दवादी मजावाद का केंद्र बनीं। मगर उन्होंने एक बार भी ऐतराज नहीं किया, बल्कि चुपचाप और बचके बेवफा—बेवफा की छेड़खानी देखते—सुनते रहीं।
सोनम को याद है 'मोनिका माई डार्लिंग' के बाद का दृश्य। एक फिल्म के गाने में यह बोल आने के बाद मोनिका नाम की लड़कियां मोहल्ले की प्रेमिकाएं हो गयीं। सबकी उनपर बराबर की दावेदारी हो गयी। जो मुँह उठाया वही स्कूल, कॉलेज, मंदिर या कहीं भी आते—जाते कुछ छींटाकशी कर दिया। उसे सुनने में अच्छा लगे या बुरा सबने उसे अपना डार्लिंग बना लिया।
उसके बाद 'मीरा की मोहन' की बारी आई । यह फिल्म 1990 के दशक में आई थी। मीरा नाम की लड़कियों का निकलना दूभर हो गया था। मौका पाते और हल्की छूट देखते ही मर्द बोल पड़ते 'मीरा को मोहन कब मिलेगा।' परिवार के बाहर के मर्दों के लिए यह बहुत सामान्य कमेंट था, पर परिवार और खुद मीरा नाम की लड़कियों पर क्या गुजरती थी, यह हमारा संस्कृतिवान समाज खूब समझता होगा।
राज कपूर 'बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं' गाकर लाखों का धंधा कर ले गए, पर गांवों से लेकर शहरों तक में जन्मीं राधाओं को लोगों ने धंधा करने वाली लड़कियों से बहुत अलग नहीं संबोधित किया। संगम को संभोग की उपमा दी और राधा नाम होना ही शर्मिंदगी का सबब बन गया ।
शीला की जवानी, मुन्नी बदनाम हुई और चिकनी चमेली तो सबको याद होगी कि ऐसे गानों के बाद इन नामों को लड़कियों को सार्वजनिक रूप से कितना शर्मशार होना पड़ता था। यह गाने हाल ही में आए थे और 'शीला की जवानी', गाने को लेकर महिला संगठनों ने विरोध भी जताया था। इसी तरह भोजपुरी गाना 'पिंकिया के दीदी हमके प्यार करे द', गाना बजने पर कई शादियों में मारपीट और गोली चलने तक कि खबरें आईं।
इन सारे सिलसिलों के बाद अबकी बारी सोनम गुप्ता की है। ऐसे में सवाल है कि क्या सिनेमा के गानों या फिल्मों में नाम लेकर कहानियां लिखना या गाने बनाना गलत है। क्या ऐसे गानों पर प्रतिबंध लगना चाहिए, जैसा कि कई बार प्रयास भी हुए हैं?
लेकिन यह गड़बड़ी अगर सिनेमा से आती है तो सोनम गुप्ता का गुनहगार कौन है। उसे कौन नोट पर लिख—लिख लाखों में शेयर और करोड़ों में चर्चा कर रहा है। कौन है जो उन नामों की लड़कियों को बिना वजह परेशान कर रहा है, मजाक और छींटाकशी का साधन बनाकर उन्हें तनाव और निराशा में डाल रहा है। आखिर कौन है वह।
क्या आप नहीं चाहेंगे कि उन्हें पहले ताकिद की जाए, उनका विरोध हो? अगर हां तो इसकी शुरुआत सिनेमा हाल से हो या अपने 10 बाई 10 के कमरे से, जहां से हमारे अपने लोग इस कदर यौन कुंठा की गंदगी में डूबे हैं कि उन्हें सोनम गुप्ता की बेवफाई के कहकहे मनोरंजन का साधन जान पड़ रहा है और आनंद पाने के इस महामार्ग पर हम और हमारे सभी अपने चल पड़े हैं।
सोचना तो होगा हमें कि 'सोनम गुप्ता बेवफा है' के हैशटैग और वायरल संदेश के पीछे हमारी कौन से महान संस्कृति काम कर रही है, जहां हममें से किसी को कुछ बुरा नहीं लग रहा है? साथ ही सवाल यह भी है कि क्या इस रोगी मन और मनोरंजन के रहते हम भारत को स्वस्थ्य सांस्कृतिक देश बना पाएंगे?
सोनम को याद है 'मोनिका माई डार्लिंग' के बाद का दृश्य। एक फिल्म के गाने में यह बोल आने के बाद मोनिका नाम की लड़कियां मोहल्ले की प्रेमिकाएं हो गयीं। सबकी उनपर बराबर की दावेदारी हो गयी। जो मुँह उठाया वही स्कूल, कॉलेज, मंदिर या कहीं भी आते—जाते कुछ छींटाकशी कर दिया। उसे सुनने में अच्छा लगे या बुरा सबने उसे अपना डार्लिंग बना लिया।
उसके बाद 'मीरा की मोहन' की बारी आई । यह फिल्म 1990 के दशक में आई थी। मीरा नाम की लड़कियों का निकलना दूभर हो गया था। मौका पाते और हल्की छूट देखते ही मर्द बोल पड़ते 'मीरा को मोहन कब मिलेगा।' परिवार के बाहर के मर्दों के लिए यह बहुत सामान्य कमेंट था, पर परिवार और खुद मीरा नाम की लड़कियों पर क्या गुजरती थी, यह हमारा संस्कृतिवान समाज खूब समझता होगा।
राज कपूर 'बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं' गाकर लाखों का धंधा कर ले गए, पर गांवों से लेकर शहरों तक में जन्मीं राधाओं को लोगों ने धंधा करने वाली लड़कियों से बहुत अलग नहीं संबोधित किया। संगम को संभोग की उपमा दी और राधा नाम होना ही शर्मिंदगी का सबब बन गया ।
शीला की जवानी, मुन्नी बदनाम हुई और चिकनी चमेली तो सबको याद होगी कि ऐसे गानों के बाद इन नामों को लड़कियों को सार्वजनिक रूप से कितना शर्मशार होना पड़ता था। यह गाने हाल ही में आए थे और 'शीला की जवानी', गाने को लेकर महिला संगठनों ने विरोध भी जताया था। इसी तरह भोजपुरी गाना 'पिंकिया के दीदी हमके प्यार करे द', गाना बजने पर कई शादियों में मारपीट और गोली चलने तक कि खबरें आईं।
इन सारे सिलसिलों के बाद अबकी बारी सोनम गुप्ता की है। ऐसे में सवाल है कि क्या सिनेमा के गानों या फिल्मों में नाम लेकर कहानियां लिखना या गाने बनाना गलत है। क्या ऐसे गानों पर प्रतिबंध लगना चाहिए, जैसा कि कई बार प्रयास भी हुए हैं?
लेकिन यह गड़बड़ी अगर सिनेमा से आती है तो सोनम गुप्ता का गुनहगार कौन है। उसे कौन नोट पर लिख—लिख लाखों में शेयर और करोड़ों में चर्चा कर रहा है। कौन है जो उन नामों की लड़कियों को बिना वजह परेशान कर रहा है, मजाक और छींटाकशी का साधन बनाकर उन्हें तनाव और निराशा में डाल रहा है। आखिर कौन है वह।
क्या आप नहीं चाहेंगे कि उन्हें पहले ताकिद की जाए, उनका विरोध हो? अगर हां तो इसकी शुरुआत सिनेमा हाल से हो या अपने 10 बाई 10 के कमरे से, जहां से हमारे अपने लोग इस कदर यौन कुंठा की गंदगी में डूबे हैं कि उन्हें सोनम गुप्ता की बेवफाई के कहकहे मनोरंजन का साधन जान पड़ रहा है और आनंद पाने के इस महामार्ग पर हम और हमारे सभी अपने चल पड़े हैं।
सोचना तो होगा हमें कि 'सोनम गुप्ता बेवफा है' के हैशटैग और वायरल संदेश के पीछे हमारी कौन से महान संस्कृति काम कर रही है, जहां हममें से किसी को कुछ बुरा नहीं लग रहा है? साथ ही सवाल यह भी है कि क्या इस रोगी मन और मनोरंजन के रहते हम भारत को स्वस्थ्य सांस्कृतिक देश बना पाएंगे?
Nov 9, 2016
पहले कालेधन को समझिए फिर फैसले पर उछलिए
विस्तार से जानिए क्यों मोदी ने क्यों उठाए होंगे कदम। पढ़िए युवा पत्रकार महेंद्र मिश्र का बिंदुवार विश्लेषण
बाजार से 500 और 1000 के नोटों को वापस लेने का फैसला स्वागत योग्य है। पहली नजर में इसमें फायदा होता जरूर दिख रहा है। लेकिन एक तरह का अतिरेक भी है कि काला धन सिर्फ 500 और 1000 के नोटों के रूप में है। यह मानना कालेधन को नहीं समझने जैसा है।
देश में काले धन का बड़ा हिस्सा अब रीयल स्टेट, जमीन, सोना और बेनामी संपत्तियों के तौर पर है। कारपोरेट, नौकरशाह और राजनेताओं के बड़े हिस्से का काला धन विदेशी बैंकों में जमा है। अगर कुछ देश में है तो वो कैश की जगह दूसरी संपत्तियों के रूप में है। एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंकों का धन को विदेशी खातों में जमा करने में सहयोग का पहले ही खुलासा हो चुका है।
अगर नोटों के बदलने से काला धन समाप्त होता तो यह प्रयोग एक नहीं दो बार हो चुका है। 16 जनवरी 1978 को मोरारजी देसाई सरकार ने 500, 1000, पांच हजार और 10 हजार के नोटों को बंद करने का काम किया था। लेकिन उसका क्या नतीजा निकला? क्या उससे भ्रष्टाचार रुक गया या फिर कालाधन खत्म हो गया?
यूपीए के शासन के दौरान भी 500 के नोटों में बदलाव किया गया था। हां उसके लिए इतना हो-हल्ला नहीं मचाया गया। इस मामले में भी बताया जा रहा है कि 500 और 1000 के नोटों को बदलने की तैयारी रिजर्व बैंक ने चार साल पहले ही शुरू कर दी थी। और अब जब उसका काम पूरा हो गया और उसे लागू करने का समय आया तो मोदी जी ने उसे इंवेट में बदल दिया, जिसके वो माहिर खिलाड़ी हैं। यूपीए के शासन में इस तरह के फैसलों की घोषणा रिजर्व बैंक के गर्वनर करते थे। यहां गर्वनर की बात तो दूर वित्तमंत्री तक कहीं नहीं दिखे। सारा श्रेय मोदी लेने सामने आ गए।
फैसले का बड़ा असर परंपरागत व्यवसायियों पर पड़ेगा जिन्होंने अपने घरों या ठिकानों में नोटों की गड्डियां जमा कर रखी थीं। लेकिन उससे ज्यादा मार उस हिस्से पर पड़ेगा जो अभी भी बैंक की पहुंच से दूर है। या उसका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है। रकम के तौर पर उसके पास बड़ी नोटे हैं। उसके लिए जिंदगी उजड़ने जैसी बात है। बाकी आम जनता के लिए अगले आने वाले कई महीने दुश्वारियों से भरे होंगे। जिनको अपने रोजमर्रा के जीवन में इसके चलते तमाम संकटों का सामना करना पड़ेगा।
लिक्विड मनी या फिर कैश के तौर पर पैसे की कमी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों इसके बड़े हिस्से का निवेश रियल स्टेट और नये चैनलों में हुआ था। लेकिन ये दोनों सेक्टर भी अब संकट के दौर से गुजर रहे हैं। उनमें मंदी है। यानी बाजार में लिक्विड मनी है ही नहीं। अगर बिल्डरों के पास पैसा होता तो वो निर्माण की प्रक्रिया जारी रखते और ब्लैक मनी रखने वाले भी फ्लैटों की बेनामी खरीदारी कर रहे होते।
समझने की बात यह है कि इस पूरी कवायद में सबसे ज्यादा नुकसान उस हिस्से की होने की आशंका है जो अभी तक बीजेपी का परंपरागत आधार रहा है। यानी देश का वैश्य समुदाय। लेकिन पूरे कारपोरेट क्लास की मोदी के पक्ष में गोलबंदी ने इस घाटे की भरपाई कर दी है। और मोदी जी को पता है कि देश की हवा के रुख को मोड़ने में कारपोरेट सक्षम है। ऐसे में भविष्य के एक बड़े लाभ के लिए छोटी कुर्बानी कोई मायने नहीं रखती है।
अगर तात्कालिक लाभ के तौर पर देखा जाए। तो उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनावों में बीजेपी को इसका फायदा हो सकता है। दरअसल तमाम दूसरी पार्टियां जो कारपोरेट फंडिंग से ज्यादा स्थानीय कैश और छोटे व्यापारियों की सहायता पर निर्भर होती हैं। उनके लिए बड़ा संकट खड़ा होने जा रहा है। जबकि बीजेपी ने या तो इसकी पहले से तैयार कर रखी है। या फिर किसी लिक्विड कैश की जरूरत से ज्यादा उसे कारपोरेट का सहयोग हासिल है। अडानी और अंबानी के हेलीकाप्टर और जहाज उनकी सेवा में होंगे। और पैसे के लिहाज से भी उनकी एक नेटवर्किंग है। जो धन को गंतव्य स्थानों तक पहुंचाने का काम करेंगे।
नरेंद्र मोदी अगर सचमुच में गंभीर होते तो उनके पास विदेशी बैंकों के खाताधारकों की सूची है और उनके खिलाफ सीधे कार्रवाई कर उस रकम को वापस लाया जा सकता है। लेकिन वो हिस्सा कारपोरेट का है या फिर उनके अपने सबसे ज्यादा करीबियों का। इसलिए सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं कर पा रही है।
ऊपर से 2000 के नोट जारी करने की बात कुछ समझ में नहीं आयी। इससे अगर ब्लैक मनी के बनने के स्रोत बने रहे तो फिर जितना पैसा किसी शख्स ने 20 सालों में बनाया होगा उतना अगले चार सालों में बना लेगा। यानी कालाधनधारियों के लिए एक नई संभावना भी खोल दी गई है। ऐसे में पूरी कवायद का नतीजा ढाक के तीन पात सरीखा होगा। तात्कालिक तौर पर भले ही इसमें वाहवाही मिल जाए लेकिन आखिरी तौर पर यही आशंका है कि यह एक और एक और जुमला न साबित हो।
सम्बंधित खबर - तुगलकी फैसला पर स्वागतयोग्य
बाजार से 500 और 1000 के नोटों को वापस लेने का फैसला स्वागत योग्य है। पहली नजर में इसमें फायदा होता जरूर दिख रहा है। लेकिन एक तरह का अतिरेक भी है कि काला धन सिर्फ 500 और 1000 के नोटों के रूप में है। यह मानना कालेधन को नहीं समझने जैसा है।
देश में काले धन का बड़ा हिस्सा अब रीयल स्टेट, जमीन, सोना और बेनामी संपत्तियों के तौर पर है। कारपोरेट, नौकरशाह और राजनेताओं के बड़े हिस्से का काला धन विदेशी बैंकों में जमा है। अगर कुछ देश में है तो वो कैश की जगह दूसरी संपत्तियों के रूप में है। एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंकों का धन को विदेशी खातों में जमा करने में सहयोग का पहले ही खुलासा हो चुका है।
अगर नोटों के बदलने से काला धन समाप्त होता तो यह प्रयोग एक नहीं दो बार हो चुका है। 16 जनवरी 1978 को मोरारजी देसाई सरकार ने 500, 1000, पांच हजार और 10 हजार के नोटों को बंद करने का काम किया था। लेकिन उसका क्या नतीजा निकला? क्या उससे भ्रष्टाचार रुक गया या फिर कालाधन खत्म हो गया?
यूपीए के शासन के दौरान भी 500 के नोटों में बदलाव किया गया था। हां उसके लिए इतना हो-हल्ला नहीं मचाया गया। इस मामले में भी बताया जा रहा है कि 500 और 1000 के नोटों को बदलने की तैयारी रिजर्व बैंक ने चार साल पहले ही शुरू कर दी थी। और अब जब उसका काम पूरा हो गया और उसे लागू करने का समय आया तो मोदी जी ने उसे इंवेट में बदल दिया, जिसके वो माहिर खिलाड़ी हैं। यूपीए के शासन में इस तरह के फैसलों की घोषणा रिजर्व बैंक के गर्वनर करते थे। यहां गर्वनर की बात तो दूर वित्तमंत्री तक कहीं नहीं दिखे। सारा श्रेय मोदी लेने सामने आ गए।
फैसले का बड़ा असर परंपरागत व्यवसायियों पर पड़ेगा जिन्होंने अपने घरों या ठिकानों में नोटों की गड्डियां जमा कर रखी थीं। लेकिन उससे ज्यादा मार उस हिस्से पर पड़ेगा जो अभी भी बैंक की पहुंच से दूर है। या उसका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है। रकम के तौर पर उसके पास बड़ी नोटे हैं। उसके लिए जिंदगी उजड़ने जैसी बात है। बाकी आम जनता के लिए अगले आने वाले कई महीने दुश्वारियों से भरे होंगे। जिनको अपने रोजमर्रा के जीवन में इसके चलते तमाम संकटों का सामना करना पड़ेगा।
लिक्विड मनी या फिर कैश के तौर पर पैसे की कमी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों इसके बड़े हिस्से का निवेश रियल स्टेट और नये चैनलों में हुआ था। लेकिन ये दोनों सेक्टर भी अब संकट के दौर से गुजर रहे हैं। उनमें मंदी है। यानी बाजार में लिक्विड मनी है ही नहीं। अगर बिल्डरों के पास पैसा होता तो वो निर्माण की प्रक्रिया जारी रखते और ब्लैक मनी रखने वाले भी फ्लैटों की बेनामी खरीदारी कर रहे होते।
समझने की बात यह है कि इस पूरी कवायद में सबसे ज्यादा नुकसान उस हिस्से की होने की आशंका है जो अभी तक बीजेपी का परंपरागत आधार रहा है। यानी देश का वैश्य समुदाय। लेकिन पूरे कारपोरेट क्लास की मोदी के पक्ष में गोलबंदी ने इस घाटे की भरपाई कर दी है। और मोदी जी को पता है कि देश की हवा के रुख को मोड़ने में कारपोरेट सक्षम है। ऐसे में भविष्य के एक बड़े लाभ के लिए छोटी कुर्बानी कोई मायने नहीं रखती है।
अगर तात्कालिक लाभ के तौर पर देखा जाए। तो उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनावों में बीजेपी को इसका फायदा हो सकता है। दरअसल तमाम दूसरी पार्टियां जो कारपोरेट फंडिंग से ज्यादा स्थानीय कैश और छोटे व्यापारियों की सहायता पर निर्भर होती हैं। उनके लिए बड़ा संकट खड़ा होने जा रहा है। जबकि बीजेपी ने या तो इसकी पहले से तैयार कर रखी है। या फिर किसी लिक्विड कैश की जरूरत से ज्यादा उसे कारपोरेट का सहयोग हासिल है। अडानी और अंबानी के हेलीकाप्टर और जहाज उनकी सेवा में होंगे। और पैसे के लिहाज से भी उनकी एक नेटवर्किंग है। जो धन को गंतव्य स्थानों तक पहुंचाने का काम करेंगे।
नरेंद्र मोदी अगर सचमुच में गंभीर होते तो उनके पास विदेशी बैंकों के खाताधारकों की सूची है और उनके खिलाफ सीधे कार्रवाई कर उस रकम को वापस लाया जा सकता है। लेकिन वो हिस्सा कारपोरेट का है या फिर उनके अपने सबसे ज्यादा करीबियों का। इसलिए सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं कर पा रही है।
ऊपर से 2000 के नोट जारी करने की बात कुछ समझ में नहीं आयी। इससे अगर ब्लैक मनी के बनने के स्रोत बने रहे तो फिर जितना पैसा किसी शख्स ने 20 सालों में बनाया होगा उतना अगले चार सालों में बना लेगा। यानी कालाधनधारियों के लिए एक नई संभावना भी खोल दी गई है। ऐसे में पूरी कवायद का नतीजा ढाक के तीन पात सरीखा होगा। तात्कालिक तौर पर भले ही इसमें वाहवाही मिल जाए लेकिन आखिरी तौर पर यही आशंका है कि यह एक और एक और जुमला न साबित हो।
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तुगलकी फैसला पर स्वागतयोग्य
बाकि पार्टियों की तरह भ्रष्ट भक्तों और कालाबाजारी के समर्थन वाली बीजेपी के नेता भी अंदरखाने में मोदी को वही कह रहे हैं जो कॉमरेड और कांग्रेसी लोग कह रहे हैं। सब कम समय की दुहाई दे रहे हैं और मोदी को तुगलक बता रहे हैं।
तरुण शर्मा
मंगलवार की शाम प्रधानमंत्री मोदी जब सेना के तीनों प्रमुखों के साथ बैठे तो एकबारगी लगा कि ये बेमौसम बरसात क्यों? मुल्क पर ऐसी क्या इमरजेंसी आ गयी कि देश के मुखिया को सेना प्रमुखों के साथ बैठना पड़े। फिर लगा कि संभव है मोदी सरकार की तमाम मोर्चों पर जारी असफलताओं के मद्देनजर वह पाकिस्तान पर हमले का कोई नया जुमला छोड़ें।
भक्तों को छोड़ व्यापक जनता में यह पूर्वग्रह इसलिए भी है कि सरकार और भाजपा हर वादे के बाद उसे जुमला, कहानी या ऐवें ही बोल दिया था, कह देती है।
लेकिन इन तमाम अटकलों और आकलनों को परे ढकेलते हुए जब मोदी ने 500 और 1000 के नोट बंद करने की अचानक घोषणा कर दी तो देश हतप्रभ रह गया। यह एक फैसला ऐसा था जिसकी खबर मोदी कैबिनेट तक को नहीं थी, यहां तक कि बैंकों को भी नहीं। यही वजह है कि बीजेपी के छोटे—बड़े नेता अभी भी हैंगओवर में हैं कि ये क्या हुआ कि जिसकी उनको भनक ही नहीं थी।
बाकि पार्टियों की तरह भ्रष्ट भक्तों और कालाबाजारी के समर्थन वाली बीजेपी के नेता भी अंदरखाने में मोदी को वही कह रहे हैं जो कॉमरेड और कांग्रेसी लोग कह रहे हैं। सब कम समय की दुहाई दे रहे हैं और मोदी को तुगलक बता रहे हैं।
आप इस फैसले को तुगलकी कह सकते हैं। पर बेहद गोपनीयता और सही समय पर लिए गए इस फैसले के बाद उत्साह और बेहतरी की उम्मीद से जिस तरह देश भर गया वह जरूर 'ऐतिहासिक' था। ऐसे में किसी के पास कुछ ठोस कहने को नहीं है पर आम आदमी खुश है कि चलो एक फैसला मोदी सरकार ने ऐसा किया है जिसके साथ हमारी भी बराबर की भागीदारी बनती है।
अब बात संशय पर। हो सकता है कि सरकार जैसा अभी कालेधन योजना पर नकेल कसने के जो कसीदे पढ़ रही है, वैसा कल को न हो। यह भी दिखावा मात्र बनकर रह जाए। दूसरी योजनाओं और सुधारों की तरह फेल हो जाए और कागजी साबित हो। पर हमारा सवाल यह है कि अभी से इस नकारात्मक चाह में खुद को पतले क्यों करते जाना है? अभी तो गलत नहीं लग रहा है। हां, गरीबों-मजदूरों की व्यापक आबादी को जरूर कुछ दिन मुश्किल के गुजारने होंगे, क्योंकि उनका जीवन कैश पर ही चलता है।
पर आप यह भी तो देखिए कि कौन-सा ऐसा सुधार होता है जिसमें लोगों को मुश्किल नहीं झेलनी पड़ती है। याद है न आपको दिल्ली मेट्रो। कितनी मुश्किल झेलनी पड़ी दिल्ली वालों को। बहुत लोग अपने घरों से उजड़े, उन्हें दूसरी जगह शिफ्ट होना पड़ा। पर आज सुविधा कौन उठा रहा है, घंटों की उमस और जाम से भरी दूरियों को मिनटों में कौन पूरा कर रहा है।
इस फैसले पर तमाम तरह की बहस और चर्चाएं मीडिया और समाज में चल रही है आम आदमी व मध्यमवर्ग इस मुद्दे पर पुरजोर समर्थन के साथ मोदी की पीठ ठोकता नजर आ रहा है वहीं हैरत की बात यह है कि व्यवसाय के तमाम कालेधन के गढ़ शिक्षा व सवास्थ्य माफिया, प्रॉपर्टी व रियल एस्टेट कारोबारी, राजनीति से जुड़े हुए दलाल इस पर खामोश हैं। वहीं कुछ वामपंथी जिसके पास कालाधन तो क्या अपना खर्चा उठाने लायक पैसे नहीं है बिना तथ्य व जानकारी के फेसबुक पर मोदी विरोध व आलोचना की अपनी दैनिक दिनचर्या को जारी रखे हुए हैं.
सरकार के इस फैसले से उम्मीद है प्रॉपर्टी व रियल एस्टेट जिसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कालेधन से गतिमान और संचालित होती है पर नकेल लगेगी और जनता को अपेक्षाकृत सस्ता आवास उपलब्ध होगा। घरेलू व्यापार जिसका एक बड़ा हिस्सा कालेधन से चलता है व्यापार में नकदी की कमी दूर करने के लिए कीमतें कम करने के लिए मजबूर होगा और कालाबाजारी पर रोक लगेगी।
इस फैसले के अलग-अलग पहलू हैं जिनकी आलोचनात्मक समीक्षा की जानी चाहिए. इसमें एक बड़ा सवाल है कि कुछ दिनों के लिए आम आदमी को इससे असुविधा होगी. नकदी संकट के चलते उसे दैनिक लेनदेन व रोजमर्रा की जरुरी चीजों की खरीद में परेशानी आएगी। आम आदमी की नकदी समस्या पर .ध्यान देने के बजाए धैर्य से काम ले। मीडिया के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह जनता में फ़ालतू की हड़बड़ी और खलबली पैदा करने कि बजाए कालाधन सफ़ेद करने के तरीके खोज रहे कालाधन सरगनाओं की तिड़कमों का पर्दाफ़ाश करे और ये सुनिश्चित करे कि भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व और कालेधन के व्यापारी बैंकिंग व्यवस्था में सांठ गाँठ से न दिखने वाला कोई सेफ पैसेज खोज लें।
Nov 8, 2016
यह भाजपा की परिवर्तन रैली का वीडियो है, किसी मुजरे का नहीं
वीडियो देख सोशल मीडिया पर लोग पूछ रहे हैं कि मोदी जी क्या ठुमकों के सहारे उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाएंगे। लोग यह भी जानना चाह रहे हैं कि पाकिस्तानी मुजरे वाले डांस स्टाइल से आरएसएस के लोगों को इतना लगाव क्यों है
समाजवादी पार्टी की ओर से 3 नवंबर को जो रथयात्रा शुरू हुई है उसको चुनौती
देने के लिए कल से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश
भाजपा ने परिवर्तन यात्रा शुरु की। कल परिवर्तन यात्रा का पहला दिन था। पर
यात्रा के पहले ही दिन स्थानीय नेताओं को मनोबल इस कदर गिरा हुआ था कि
नेताओं को भीड़ जुटाने के लिए बार डांसरों के ठुमकों का सहारा लेना पड़ा।
संबंधित खबर - भाजपा की परिवर्तन यात्रा बार डांसरों के भरोसे
घर में दाना नहीं और आप थाली की पूछते हो
बांदा से आशीष सागर दीक्षित की रिपोर्ट
शोभा देवी : भाजपा जीतने के बाद इन्हें कार देगी ! फोटो : आशीष सागर |
शोभा देवी कहती हैं, 'जब घर में अन्न ही नहीं तो थाली—परात का क्या कहूं। हमने सीमेंट के बोरे को ही बर्तन मान लिया है। 10 साल पहले पति की आत्महत्या के बाद बेटियों की शादी के बीच कभी इतना हुआ ही नहीं कि एक परात खरीद सकूं। यह चावल स्कूल वाले दे देते हैं, वह न दें तो हम खाए बिना ही मर जाएं।'
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के पड़ोई गांव की शोभा देवी के पति किशोरी ने 6 जुलाई 2006 को अवसाद के कारण आत्महत्या कर ली थी। किशोरी साहू की आत्महत्या का कारण तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट नंदन चक्रवती द्वारा किशोरी की बेटी पर बदचलनी का आरोप लगाना था। सिटी मजिस्ट्रेट के इस वाहियात बयान के बाद लोग किशोरी के परिवार पर छींटाकशी करने लगे थे, जिससे वह अवसाद पीड़ित हो गया और निराशा में आत्महत्या कर ली थी।
गांव वाले कहते हैं कि कर्ज और फांकाकशी में मरे किसान किशोरी की हाय ऐसी लगी कि सिटी मजिस्ट्रेट खुद एड्स की बीमारी से मरा। यह अधिकारी किसानों के राहत चेक भी खा जाता था।
शोभा देवी के मुताबिक, 'गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे कई बार कम आते हैं या खाना नहीं खाते हैं। फिर मिड डे मिल में बना खाना बच जाता है तो वे लोग हमें बुला लेते हैं। चावल मेरा परिवार तभी खा पाता है जब मिड डे मिल वाले देते हैं।'
शोभा के पति किशोरी को मरे दस वर्ष हो चुके हैं पर उनकी पत्नी शोभा की माली हालत में तनिक भी सुधार नहीं आया है. उनकी 6 बेटियां थीं। उनमें से पांच की शादी उन्होंने कर दी है। एक उन्हीं के साथ गांव में ही रहती है।
उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड में किसान आत्महत्या नई बात नहीं है. ये अंतहीन कहानी अपने स्याह पन्नों से हर रोज एक नया अध्याय लिख रही है. पिछले एक दशक में 5 हजार किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं और ये हालात तब हैं जब सरकारें मुआवजे और पैकेज से बुन्देली किसान को खुशहाल करने का दंभ भरती है.
12 नवम्बर को लगने वाली लोक अदालत में बैंकों ने लामबंद होकर 13 हजार किसानों को चुनौती देने की रणनीति तैयार कर ली है। अगर इस धमकी आयोजन के बाद कुछ किसान डरके,या निराश हो के आत्महत्या कर लें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। इन किसानों पर 22 करोड़ रुपया कर्जा बकाया है।
Nov 7, 2016
भाजपा की परिवर्तन यात्रा बार डांसरों के भरोसे
स्थानीय नेताओं का मानना था कि अगर भीड़ रोकनी है तो मंत्री—सांसद के भाषण से जरूरी बार डांसरों की अदाएं और ठुमके हैं।
समाजवादी पार्टी की ओर से 3 नवंबर को जो रथयात्रा शुरू हुई है उसको चुनौती देने के लिए कल से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश भाजपा ने परिवर्तन यात्रा शुरु की। कल परिवर्तन यात्रा का पहला दिन था। पर यात्रा के पहले ही दिन स्थानीय नेताओं को मनोबल इस कदर गिरा हुआ था कि नेताओं को भीड़ जुटाने के लिए बार डांसरों के ठुमकों का सहारा लेना पड़ा।
स्थानीय नेताओं का मानना था कि अगर भीड़ रोकनी है तो मंत्री—सांसद के भाषण से जरूरी बार डांसरों के फूहड़ गीत और ठुमके हैं। गौरतलब है कि अभी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा सोमवार को बुंदेलखंड में किए चुनावी वादे, कि भाजपा जीतेगी तो हर बुंदेली को कार देंगे, को लेकर सोशल मीडिया पर मजाक बनना बंद भी नहीं हुआ था कि परिवर्तन यात्रा को लेकर यह खबर आ गयी।
सुचिता की राजनीति का दंभ भरने वाली भाजपा को भी उत्तर प्रदेश के बागपत में भीड़ जुटाने के लिए अपने नेताओं से अधिक बार डांसरों पर भरोसा करना पड़ा। एबीवी की वेबसाइट पर छपे खबर के मुताबिक स्थानीय नेताओं को मंत्री और सांसद के आने से पहले भीड़ को रोकने के लिए डांस कराना पड़ा।
वेबसाइट के मुताबिक बागपत में बीजेपी की परिवर्तन यात्रा के मंच पर नेताओं के आने में जरा सी देर हुई तो मंच संभाल लिया एक डांसर ने. दरअसल यूपी में बीजेपी की परिवर्तन यात्रा के कैराना से बागपत के तुगाना पहुंचने पर ये कार्यक्रम किया गया था, केंद्रीय राज्य मंत्री संजीव बालियान और बीजेपी सांसद सत्यपाल सिंह के इंतजार में लोग बैठे थे…भीड़ कहीं भाग ना जाए इसलिए आयोजकों ने मंच पर बार बाला को उतार दिया.
गांधी के आगे—आगे चलने वाला यह बालक आज नहीं रहा
नमक सत्याग्रह 'दांडी मार्च' के पहले दिन समुद्र किनारे गांधी के साथ डंडा पकड़कर चलते कनू गांधी |
महात्माा गांधी के पोते कनू गांधी का निधन
महात्मा गांधी की इस ऐतिहासिक महत्व की तस्वीर को आपने कई दफा देखी होगी। पर आज इस तस्वीर के लिए खास महत्व का दिन है। इस तस्वीर में डंडा थामे आगे—आगे चल रहा बालक रामदास कनू गांधी हैं, जिनकी सोमवार को सूरत के एक निजी अस्पताल में मृत्यु हो गयी।
रामदास कनू गांधी की यह तस्वीर उस समय की है जब महात्मा गांधी ने गुजरात में नमक सत्याग्रह 'दांडी मार्च' की शुरुआत की थी। कनू के साथ की यह तस्वीर गुजरात के दांडी में समुद्र के किनारे की है। गांधी ने मार्च—अप्रैल 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था।
87 वर्षीय कनू गांधी प्रसिद्ध संस्था नासा के वैज्ञानिक रह चुके थे। कनु ने अमेरिका के प्रतिष्ठित संस्थान एमआईटी से पढ़ाई की थी और नासा में भी काम किया था। उनकी पत्नी शिवलक्ष्मी गांधी पेशे से प्रोफेसर थीं और इन दिनों उनकी सेहत भी ठीक नहीं चल रही।
कनू गांधी पिछले दिनों तब चर्चा में आए थे जब वह अपनी पत्नी संग दिल्ली के वृद्धाश्रम में रहने लगे थे। हालांकि उन्होंने इसके लिए किसी को जिम्मेदार नहीं बताया था। पर कहा भी था कि वह किसी के आगे हाथ नहीं फैला सकते। मीडिया ने कनू गांधी की हालत को प्रमुखता से उठाया था। बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने उनका हाल—चाल लिया था।
बागों में बहार है, बैकफुट पर सरकार है
पीछे हटी सरकार, एनडीटीवी पर बैन स्थगित
जनज्वार ने चलाई थी मुहित, एनडीटीवी प्राइम टाइम में रवीश कुमार ने कहा था शुक्रिया, अब हम अपने हजारों पाठकों को कहते हैं दिल से शुक्रिया कि आप अभिव्यक्ति के पक्ष में जनज्वार के साथ खड़े हुए।
जनज्वार ने चलाई थी मुहित, एनडीटीवी प्राइम टाइम में रवीश कुमार ने कहा था शुक्रिया, अब हम अपने हजारों पाठकों को कहते हैं दिल से शुक्रिया कि आप अभिव्यक्ति के पक्ष में जनज्वार के साथ खड़े हुए।
ब्रॉडकास्टिंग कानून-उल्लंघन के लिये दंडित किए गए NDTV इंडिया पर से केंद्र की भाजपा सरकार ने फिलहाल 9 नवंबर को एक दिन के लिए ऑफ एयर करने का प्रतिबंध स्थगित कर दिया है। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने यह फैसला किया है।
गौरतलब है कि मीडिया को बैन किए जाने के इस तानाशाहीपूर्ण फैसले के खिलाफ एडिटर्स गिल्ड, पत्रकार संगठनों, राजनीतिक पार्टियों और मीडिया माध्यमों ने बड़े स्तर पर अपना विरोध दर्ज कराया था। लगातार मांग की जा रही थी कि सरकार अपने इस तानाशाही पूर्ण फैसले को तत्काल वापस ले और ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्ट्री को सख्त हिदायत दे कि वह पूर्वग्रह ग्रसित और राजनीति परस्त कार्रवाही से भविष्य में बाज आए। सरकार के इस फैसले को लगातार गैरकानूनी और असंवैधानिक करार ठहराया जा रहा था।
चैनल पर इस बैन की वजह इस साल जनवरी में पंजाब के पठानकोट स्थित एयरबेस पर हुए आतंकी हमले के दौरान प्रसारण नियमों का उल्लंघन बताई गई थी। सरकार के इस फैसले के खिलाफ NDTV इंडिया कोर्ट में पहुंच गया था।
Nov 6, 2016
जनज्वार 'पोस्टर श्रृंखला' आज से शुरू
शुरुआत पत्रकारिता के मूल्यों से
आपको पसंद आए तो कीजिए साझा।
जनपक्षधर पत्रकारिता की जिम्मेदारी किसी पूंजीपति के जिम्मे नहीं ठेली जा सकती।
लेना होगा हमें मोर्चा, संभालनी होगी देश के हर जनपक्षधर साक्षर को कलम, लिखनी होगी खबर, बनाना होगा वीडियो—आॅडियो
क्योंकि
अभी कहना बाकि है
हमारे बहरे हो चुके हुक्मरानों को सुनाना बाकि है
अभी कहना बाकि है
हमारे बहरे हो चुके हुक्मरानों को सुनाना बाकि है
Nov 5, 2016
एनडीटीवी के बाद एक और चैनल को किया प्रतिबंधित
NDTV के बाद अब सरकार की उच्च स्तरीय समिति ने अपने फैसले को जायज ठहराते हुए असम के प्रमुख न्यूज चैनल न्यूज टाइम असम पर भी 9 नवम्बर को एक दिन की पाबंदी लगाने की सिफारिश की है। 2 नवंबर को जारी अपने आदेश में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चैनल द्वारा से एक से अधिक बार कार्यक्रम नियमों का उल्लंघन करने पर यह कार्रवाई की है।
सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने चैनल द्वारा एक खबर में नाबालिग घरेलू नौकर को जघन्यतम तरीके से प्रताड़ित किये जाने के मामले में उसकी पहचान सार्वजनिक कर देने का दोषी मानते हुए चैनल को एक दिन के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। सरकार की उच्चस्तरीय समिति ने तर्क दिया है कि घरेलू नौकर के तौर पर काम कर रहे बच्चे की पहचान उजागर करने से उसकी गोपनीयता और गरिमा को ठेस पहुंची है।
दिलचस्प यह है कि सरकार ने चैनल को यह कारण बताओ नोटिस अक्तूबर 2013 में दिया था। मगर कार्रवाई अब की है जबकि NDTV को एक दिन के लिए प्रतिबंधित किये जाने के मामले में एडिटर्स गिल्ड, पत्रकार संगठनों, राजनीतिक पार्टियों और मीडिया माध्यमों ने बड़े स्तर पर विरोध दर्ज कराया है और सरकार की थूकम—फजीहत हुई है।
गौरतलब है कि 'न्यूज टाइम असम' को सरकार पहले भी अन्य दो मामले में कारण बताओ नोटिस दे चुकी है।
सिमी फेक इनकाउंटर मामले में प्रदर्शन करने पर सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिठाया थाने में
विनीत तिवारी
भोपाल एनकाउंटर मामले में इंदौर पुलिस ने निष्पक्ष जांच की मांग करने वाले इंदौर के सामाजिक कार्यकर्ताओं को पुलिस ने थाने में बिठाया। गौरतलब है कि इसी घटना का विरोध करने पर दो दिन पहले रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव पर पुलिस ने हमला किया था।
जानकारी के मुताबिक इंदौर में आज भोपाल एनकाउंटर मामले की निष्पक्ष जांच की मांग लेकर वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद मोहन माथुर के आह्वान पर शाम 5 बजे रीगल चौराहे, इंदौर में मानव श्रृंखला बनाकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया जाना था। सुबह से ही पुलिस ने सीपीआई एम के ज़िला सचिव कॉमरेड कैलाश लिम्बोदिया को घर से उठा लिया और थाने ले जाकर समझाइश दी कि ये प्रदर्शन निरस्त कर दो। उन्होंने कहा कि शांतिपूर्वक हम निष्पक्ष जांच की मांग करना चाहते हैं और करेंगे। उन्हें 3-4 घंटे थाने बिठाये रखा।
इसी तरह आनंद मोहन माथुर के पास भी पुलिस से संदेश आया जिसका उन्होंने भी कॉमरेड कैलाश की ही तरह का जवाब दिया। प्राप्त जानकारी के मुताबिक शाम 5 बजे आनंद मोहन माथुर के घर पर पहुंचे पुलिस वालों ने उन्हें अपने घर से निकलने ही नहीं दिया। जो लोग भी रीगल चौराहे पहुंचे, उन्हें डंडे वर्दी से लैस पुलिस वालों नेे डराया धमकाया और पुलिस की गाड़ी में बिठाकर कहीं ले गए। बड़ी संख्या में महिला पुलिस भी वहां तैनात की गयी थीं। वहाँ पहुंची कल्पना मेहता और जया मेहता को भी महिला पुलिस ने अपने साथ चलने के लिए कहा, जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस डंडे लेकर बड़ी तादाद में मौजूद है और प्रदर्शन के लिए आये हुए लोगों को धमकाकर थाने ले जा रही है। अभी अभी खबर मिली है कि गिरफ्तार किये अनेक लोगों को पुलिस तुकोगंज थाने लेकर गयी है।
न्याय की मांग करना भी मध्य प्रदेश में गुनाह की श्रेणी में आने लगा है और निष्पक्ष जाँच की मांग करने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक प्रदर्शन में शरीक होने पहुंचे सीपीआई के ज़िला सचिव कॉमरेड रुद्रपाल यादव, एटक के नेता कॉमरेड सोहनलाल शिंदे, सीपीएम के ज़िला सचिव कॉमरेड कैलाश लिम्बोदिया, कॉमरेड परेश टोकेकर और श्रमिक नेता श्यामसुन्दर यादव को भी पुलिस ने ज़बरदस्ती प्रदर्शन से रोका और उन्हें पुलिस के वाहन में बिठाकर कहीं ले जाया गया। इन लोगों के मोबाइल भी बंद आ रहे हैं।
पता चला है कि पुलिस ने दोपहर से ही बड़ी संख्या में सिविल ड्रेस में अपने लोग रीगल चौराहे पर तैनात कर रखे थे। आनंद मोहन माथुर जी ने बताया कि उनके घर से निकलने के पहले ही करीब 100 पुलिस प्रशासन के लोग वहां पहिंच गए और उनके ड्राईवर से कार की चाबी ले ली। जब उन्होंने ऑटो से जाने के लिए घर के बाहर से ऑटो रिक्शा रोक तो पुलिस ने उसे भी डपटकर भगा दिया और उन्हें प्रदर्शन के लिए नहीं जाने दिया। यहां ये बताना मुनासिब होगा कि श्री आनंद मोहन माथुर की आयु 90 वर्ष से अधिक है।
इसी तरह आनंद मोहन माथुर के पास भी पुलिस से संदेश आया जिसका उन्होंने भी कॉमरेड कैलाश की ही तरह का जवाब दिया। प्राप्त जानकारी के मुताबिक शाम 5 बजे आनंद मोहन माथुर के घर पर पहुंचे पुलिस वालों ने उन्हें अपने घर से निकलने ही नहीं दिया। जो लोग भी रीगल चौराहे पहुंचे, उन्हें डंडे वर्दी से लैस पुलिस वालों नेे डराया धमकाया और पुलिस की गाड़ी में बिठाकर कहीं ले गए। बड़ी संख्या में महिला पुलिस भी वहां तैनात की गयी थीं। वहाँ पहुंची कल्पना मेहता और जया मेहता को भी महिला पुलिस ने अपने साथ चलने के लिए कहा, जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस डंडे लेकर बड़ी तादाद में मौजूद है और प्रदर्शन के लिए आये हुए लोगों को धमकाकर थाने ले जा रही है। अभी अभी खबर मिली है कि गिरफ्तार किये अनेक लोगों को पुलिस तुकोगंज थाने लेकर गयी है।
न्याय की मांग करना भी मध्य प्रदेश में गुनाह की श्रेणी में आने लगा है और निष्पक्ष जाँच की मांग करने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक प्रदर्शन में शरीक होने पहुंचे सीपीआई के ज़िला सचिव कॉमरेड रुद्रपाल यादव, एटक के नेता कॉमरेड सोहनलाल शिंदे, सीपीएम के ज़िला सचिव कॉमरेड कैलाश लिम्बोदिया, कॉमरेड परेश टोकेकर और श्रमिक नेता श्यामसुन्दर यादव को भी पुलिस ने ज़बरदस्ती प्रदर्शन से रोका और उन्हें पुलिस के वाहन में बिठाकर कहीं ले जाया गया। इन लोगों के मोबाइल भी बंद आ रहे हैं।
पता चला है कि पुलिस ने दोपहर से ही बड़ी संख्या में सिविल ड्रेस में अपने लोग रीगल चौराहे पर तैनात कर रखे थे। आनंद मोहन माथुर जी ने बताया कि उनके घर से निकलने के पहले ही करीब 100 पुलिस प्रशासन के लोग वहां पहिंच गए और उनके ड्राईवर से कार की चाबी ले ली। जब उन्होंने ऑटो से जाने के लिए घर के बाहर से ऑटो रिक्शा रोक तो पुलिस ने उसे भी डपटकर भगा दिया और उन्हें प्रदर्शन के लिए नहीं जाने दिया। यहां ये बताना मुनासिब होगा कि श्री आनंद मोहन माथुर की आयु 90 वर्ष से अधिक है।
दिल्ली! हम दिल से शर्मिंदा हैं
अब दिल्ली—एनसीआर की हालत देख रोना आ रहा है। पटाखों का धुआं इतना ज्यादा है सूरज तक नहीं दिख रहा। आंखों में जलन हो रही है, सांस लेने में दिक्कत हो रही है।
गलती हो गयी, बहुत बड़ी गलती हो गयी। हमसे भी और आपसे भी। शर्मिंदगी भी महससू हो रही है।
हम बॉर्डर पर पाकिस्तान को सबक सिखाने की लंबी—लंबी हांकते हैं पर अपने ही शहर को अपने ही हाथों से बर्बाद करते जा रहे हैं। हम किस मूंह से खुद को देशभक्त बोलें। बहुत शर्मिंदगी महससू हो रही है।
दोस्तों, इस शर्मिंदगी को अगले साल हम सबको नहीं भूलना है और आज ही संकल्प लेना है कि कभी जिंदगी में दीपावली पर प्रदूषण नहीं करेंगे।
फिर भी मन न माने तो एक बार छोटे बच्चों, बुढ़ी मांओं, सांस के मरीजों, एलर्जी ग्रस्त लोगों, पेट में पल रहे बच्चों की परेशानी को याद कर लीजिए, आप अपना संकल्प कभी नहीं भूलेंगे और न ही हमें भूलने देंगे।
गलती हो गयी, बहुत बड़ी गलती हो गयी। हमसे भी और आपसे भी। शर्मिंदगी भी महससू हो रही है।
हम बॉर्डर पर पाकिस्तान को सबक सिखाने की लंबी—लंबी हांकते हैं पर अपने ही शहर को अपने ही हाथों से बर्बाद करते जा रहे हैं। हम किस मूंह से खुद को देशभक्त बोलें। बहुत शर्मिंदगी महससू हो रही है।
दोस्तों, इस शर्मिंदगी को अगले साल हम सबको नहीं भूलना है और आज ही संकल्प लेना है कि कभी जिंदगी में दीपावली पर प्रदूषण नहीं करेंगे।
फिर भी मन न माने तो एक बार छोटे बच्चों, बुढ़ी मांओं, सांस के मरीजों, एलर्जी ग्रस्त लोगों, पेट में पल रहे बच्चों की परेशानी को याद कर लीजिए, आप अपना संकल्प कभी नहीं भूलेंगे और न ही हमें भूलने देंगे।
Nov 4, 2016
एनडीटीवी को लेकर वायरल हो रहा है यह प्रस्ताव, सहमत हों तो कीजिए शेयर
हम देशवासी एनडीटीवी पर थोपे गए 9 नवंबर के प्रतिबंध के खिलाफ हैं और इस बात से सहमत हैं कि एनडीटीवी अन्य सामाचार चैनलों से बेहतर, तार्किक और सही खबरें देता है। हम करोड़ों दर्शकों की मांग है कि सरकार अपने इस तानाशाही पूर्ण फैसले को तत्काल वापस ले और ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्ट्री को सख्त हिदायत दे कि वह पूर्वग्रह ग्रसित और राजनीति परस्त कार्रवाही से भविष्य में बाज आए।
सरकार अगर ऐसा नहीं करती है तो
हम करोड़ो देशवासी आज फैसला लेते हैं कि एनडीटीवी को प्रतिबंधित किए जाने के दिन 9 नवंबर को देश का कोर्इ चैनल नहीं देखेंगे, अपनी टीवी नहीं खोलेंगे।
दोस्तो, ध्यान रखिए आज आप नहीं खड़े होंगे तो कल कोई डटकर मुकाबला करने वाला नहीं बचेगा।
Nov 3, 2016
धज्जियां रोज उड़ती हैं तो एनडीटीवी ही क्यों
सरकार ने कानून-उल्लंघन के लिये दंडित करने का फैसला भी किया तो हिन्दी के एक अपेक्षाकृत बेहतर और संतुलित चैनल को! ऐसी भी क्या 'इमर्जेेन्सी' थी....
उर्मिलेश, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार
'इमर्जेन्सी' की याद दिलाने के लिये 'इमर्जेेन्सी' जैसा कुछ न कुछ किया जाता रहेगा! NDTV-India के प्रसारण पर एक दिन की रोक लगाने का केंद्र सरकार का फैसला कुछ इसी प्रकार का है। 4 जनवरी,2016 को पठानकोट एयर बेस में सुरक्षा बलों के काउंटर-आपरेशन के कवरेज में राष्ट्रीय़ सुरक्षा से कथित समझौता करते प्रसारण के लिये सरकार ने NDTV-India को दंडित करने का फैसला किया है।
मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक उस दिन सुरक्षा बल आतंकी हमले के खिलाफ आपरेशन चला रहे थे। सरकार को चैनल के 6 मिनट के एक खास प्रसारण पर गहरी आपत्ति है। सवाल है, उस दिन तो सारे चैनलों ने उस तरह का कवेरज किया। एक दर्शक के तौर पर मेरा आकलन है कि NDTV-India का कवेरज अन्य चैनलों जैसा ही था, उसमें कुछ भी अलग नहीं था। ऐसे में सिर्फ एक चैनल को क्यों दंडित किया जा रहा है?
जहां तक केबल TV नेटवर्क एक्ट-1994 और अन्य सम्बद्ध सरकारी कानूनों के उल्लंघन का सवाल है, हिन्दी-अंगरेजी के कई चैनल उसके प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते रहते हैं। कइयों पर अंध-विश्वास बढ़ाते कार्यक्रमों की झड़ी लगी हुई है। विज्ञापन-प्रसारण के मामले में भी रोजाना उल्लंघन होते हैं? क्या यह सब सरकारी कानून का उल्लंघन नहीं है? सरकार को ऐसे उल्लंघनों पर कोई आपत्ति नहीं!
कैसी विडम्बना है, सरकार ने कानून-उल्लंघन के लिये दंडित करने का फैसला भी किया तो हिन्दी के एक अपेक्षाकृत बेहतर और संतुलित चैनल को! ऐसी भी क्या 'इमर्जेेन्सी' थी? ज्यादा नाराजगी थी तो एक नोटिस देकर चेतावनी दी जा सकती थी। पर यहां तो प्रसारण रोकने का फैसला आ गया। एक पत्रकार और नागरिक के रूप में मैं इसकी निन्दा करता हूं क्योंकि इस फैसले में किसी एक को चुनकर दंडित करने का पूर्वाग्रह दिखता है।
एनडीटीवी पर लगा प्रतिबंध, पहली बार किसी चैनल के खिलाफ हुई ऐसी कार्यवाही
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से गठित कई मंत्रालयों के प्रतिनिधियों ने आज सुझाव दिया है कि एनडीटीवी पर एक दिन के लिए प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। देश के इस मुख्य चैनल पर प्रतिबंध का फैसला मंत्रालय प्रतिनिधियों की समिति ने इसलिए लिया है कि चैनल ने पठानकोट हमला मामले में देश विरोधी रिपोर्टिंग की थी। समिति में शामिल मंत्रालय प्रतिनिधियों के मुताबिक चैनल द्वारा की गयी रिपोर्टिंग से देश सुरक्षा और संप्रभुता खतरे में पड़ी। चैनल 9 नवम्बर को दिन भर प्रसारित नहीं होगा।
गौरतलब है कि पत्रकारिता के इतिहास में यह पहली घटना है जब किसी सरकार ने किसी चैनल को प्रतिबंधित किया है. एनडीटीवी अधिकारियों ने इस बारे में कोई टिप्पणी करने से मनाही की है. आउटलुक अंग्रेजी की वेबसाइट के अनुसार एनडीटीवी पर यह कार्यवाही जनवरी में हुए पठानकोट हमले में मामले में की गयी है.
गौरतलब है कि पत्रकारिता के इतिहास में यह पहली घटना है जब किसी सरकार ने किसी चैनल को प्रतिबंधित किया है. एनडीटीवी अधिकारियों ने इस बारे में कोई टिप्पणी करने से मनाही की है. आउटलुक अंग्रेजी की वेबसाइट के अनुसार एनडीटीवी पर यह कार्यवाही जनवरी में हुए पठानकोट हमले में मामले में की गयी है.
रिहाई मंच पदाधिकारी पर हमले की असल वजह बने ये 10 सवाल
फर्जी मुठभेड़ों और गिरफ्तारियों के मामले में पुलिस और प्रशासन की नाक में दम किए रहने वाले रिहाई मंच ने सिमी कार्यकर्ताओं की हत्या को लेकर मध्य प्रदेश पुलिस पर दोटूक सवाल उठाए थे। 31 अक्टूबर को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर मंच ने पांच सवाल उठाए, जिसके बाद से मुठभेड़ की कहानी पहले से अधिक बेपर्द हुई।
मंच ने भोपाल सेन्ट्रल जेल में कैद अमजद, जाकिर हुसैन सादिक, मोहम्मद सालिक, मुजीब शेख, महबूब गुड्डू, मोहम्मद खालिद अहमद, अकील और माजिद के जेल से फरार होने और पुलिस द्वारा मुठभेड़ के दावे पर कुछ जो अहम सवाल उठाए, वह इस प्रकार से हैं और पुलिस द्वारा उन पर हमले की असल वजह भी यही सवाल हैं।
1. भोपाल सेन्ट्रल जेल को अंतरराष्ट्रीय मानक आईएसओ-14001-2004 का दर्जा प्राप्त है, जिसमें सेक्यूरिटी भी एक अहम मानक है। ऐसे में वहां से फरार होने की पुलिसिया पटकथा अकल्पनीय है।
2. पुलिस जिन कैदियों को मुठभेड़ में मारने का दावा कर रही है उसमें से तीन कैदियों को वह खंडवा के जेल से फरार होने वाले कैदी बता रही है। इस साबित होता है कि मध्य प्रदेश सरकार आतंक के आरोपियों की झूठी फरारी और फिर गिरफ्तारी या फर्जी मुठभेड़ में मारने की आड़ में दहशत की राजनीति कर रही है।
3. यहां पर अहम सवाल है कि जिन आठ कैदियों के भागने की बात हो रही है वह जेल के ए ब्लाक और बी ब्लाक में बंद थे। मंच को प्राप्त सूचना अनुसार मारे गए जाकिर, अमजद, गुड्डू, अकील खिलजी जहां ए ब्लाक में थे तो वहीं खालिद, मुजीब शेख, माजिद बी ब्लाक में थे। इन ब्लाकों की काफी दूरी है। ऐसे में सवाल है कि अगर किसी एक ब्लाक में कैदियों ने एक बंदी रक्षक की हत्या की तो यह कैसे संभव हुआ कि दूसरे ब्लाक के कैदी भी फरार हो गए।
4. पुलिस चादर को रस्सी बनाकर सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने का दावा कर रही है। जबकि चादर को रस्सी बनाकर ऊपर ज्यादा ऊंचाई तक फेंका जाना संभव ही नहीं है यदि फेंका जाना संभव भी मान लिया जाए तो इसकी संभावना नहीं रहती कि वह फेंकी गई चादर कहीं फंसकर चढंने के लिए सीढ़ी का काम करे।
5. जेल के पहरेदार सिपाही को चम्मच से चाकू बनाकर गला रेतना बताया जा रहा है, जिसके कारण यह संभवना समाप्त हो जाती है कि उनके पास हथगोला और हथियार था जिसका प्रयोग मुठभेड़ में किया गया। दूसरे एक आदमी को मारकर कोई पुलिस चौकी की कस्टडी से नहीं भाग सकता किसी सेन्ट्रल जेल से भागना अकल्पनीय है।
6. एक संभावना और बनती है कि जेल से निकलने बाद उनको किसी ने विस्फोटक तथा हथियार मुहैया कराए हों लेकिन पुलिस की कहानी में ऐसा कोई तथ्य अभी तक सामने नहीं आया है।
7. जेल में लगे सीसीटीवी कैमरे के फुटेज के बारे में अब तक कोई बात क्यों सामने नहीं आई।
8. पुलिस के दावे के अनुसार जिन आठों कैदियों की मुठभेड़ में मारने की बात कही जा रही है उसमें से कुछ के मीडिया में आए फोटोग्राफ्स, जिसमें उनके हाथों में घड़ी, पैरों में जूते आदि हैं, से यह भी संभावना है कि कहीं उन्हें किसी दूसरे जेल में शिफ्ट करने के नाम पर तैयार करवाया गया हो और फिर ले जाकर पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ को अंजाम दे दिया हो।
9. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने अपने बयान में यह कहा है कि इस मामले में जनता का सहयोग मिला, लोगों से सूचना मिली और लोकेशन का पता लगा लेकिन मुख्यमंत्री जी को यह बताना चाहिए कि इतनी जल्दी आम लोग को जेल से फरार अभियुक्तों को कैसे पहचान गए।
10. पुलिस के दावे अनुसार फरार आठों अभियुक्तों की मुठभेड़ के दौरान हत्या यह भी सवाल उठाती है कि इतनी पुलिस की ‘बहादुराना’ कार्रवाई पर किसी ने क्या सरेंडर करने का प्रयास नहीं किया होगा। या फिर उन्हें उठाकर वहां ले जाकर आठों को मारकर पुलिस इस मामले कोई सुबूत नहीं छोड़ना चाहती थी।
इस मसले पर रिहाई मंच महासचिव और लखनऊ पुलिस के हमले के शिकार हुए राजीव यादव ने भोपाल जेल इनकाउंटर में मारे गए जाकिर हुसैन के पिता बदरुल हुसैन से इस घटना के संबन्ध में बात की। राजीव के मुताबिक वे इस घटना से काफी स्तब्ध थे और उन्होंने बताया कि उनका एक और बेटा अब्दुल्ला उर्फ अल्ताफ हुसैन भी जेल में बंद है। उसकी सुरक्षा को लेकर वह बेहद चिंतित हैं।
रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने कहा कि भोपाल में हुई घटना के बाद देश के विभिन्न जेलों में कैद आतंक के आरोपियों के परिजन काफी डरे हुए हैं कि कहीं इंसाफ मिलने से पहले ही उनके बच्चों का कत्ल न कर दिया जाए, जिस तरह से यर्वदा जेल में कतील सिद्दीकी और लखनऊ में खालिद मुजाहिद का पुलिस ने हिरासत में कत्ल कर दिया था। ऐसे में रिहाई मंच ने देश के विभिन्न जेलों में बंद आतंक के आरोपियों की सुरक्षा की गांरटी की मांग की है ताकि टेरर पाॅलिटिक्स का असली चेहरा सामने आ सके न कि बेगुनाहों की लाशें। मंच जल्द मध्य प्रदेश का दौरा करेगा।
एसटीएफ के पूर्व मुखिया ने कहा, थाली—चम्मच से बन सकते धारदार हथियार, लकड़ी की चाबी में भी कुछ नया नहीं
मध्यप्रदेश पुलिस के कई दावों को माना सच तो कुछ पर उठाए सवाल
कहा, वाहवाही पाने के लिए हुई हत्या
हरियाणा पुलिस के पूर्व एसटीएफ मुखिया और आईपीएस अधिकारी रहे विकास नारायण राय ने अपने लंबे अनुभव के आधार पर सोशल मीडिया में भोपाल जेल से भागे सिमी आरोपियों और उनकी हुई कथित हत्या को लेकर 8 महत्वपूर्ण प्वाइंट गिनाए हैं। ये प्वाइंट आपको पुलिसिया दावेदारी के सच और झूठ के बीच फर्क करने में मदद देंगे। साथ ही पूर्वग्रह के आधार पर बन रही आपकी समझदारी को भी दुरुस्त करेंगे कि पुलिस सबकुछ झूठ ही नहीं बोलती।
विकास नारायण राय अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखते हैं, भोपाल जेल से फरार हुए आठ सिमी कैदियों की पुलिस मुठभेड़ पर अटकलबाजियां स्वाभाविक हैं| पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कहना चाहूँगा कि -
- थाली, चम्मच से धारदार हथियार बनाना जेल जीवन में आम है, कोई अजूबा नहीं | लकड़ी की चाभी भी | कम्बलों व चादरों की मदद से दीवार फांदना भी |
- जाहिर है कि जेल की सुरक्षा व्यवस्था में गंभीर लापरवाही रही होगी जिसका लाभ इन कैदियों ने उठाया | जेल रक्षक यादव की हत्या भी इन्होने की होगी अन्यथा वे चाभियाँ हथिया कर गुप-चुप निकल नहीं सकते थे |
- यह भी स्पष्ट है कि गाँव वालों ने उन्हें देख लिया होगा और एसटीएफ को इससे उन्हें घेरने में मदद मिली
- कैदियों के पास पिस्तौल वगैरह जैसे हथियार नहीं थे | तभी उन्होंने घिरने पर पत्थर का इस्तेमाल किया |
- एसटीएफ का उन्हें गोलियों के आदान-प्रदान में मार गिराना एक गढ़ी हुयी कहानी है | सही छान-बीन और मेडिकल व फॉरेंसिक सबूतों से सच्चाई जानना मुश्किल नहीं | वे हर तरह से घिर गए थे अन्यथा सभी नहीं मारे जाते, कुछ बच भी निकलते | ऐसे में उन्हें गिरफ्तार किया जाना चाहिए था |
- भारत में कानून से भागनेवालों को जान से मारने की व्यवस्था नहीं है | लिहाजा उनकी मौत, प्रतिशोध और वाह-वाही के लिए की गयी हत्या है |
- अब तक का सरकारी रवैया लीपा-पोती का है और इससे क़ानून-न्याय व्यवस्था पर प्रश्न-चिन्ह लगना स्वाभाविक है |
- इन कैदियों के आपराधिक इतिहास को देखते हुए इन्हें आतंकवादी ही कहा जायेगा, उसी तरह जैसे समझौता, माले गाँव इत्यादि मामलों में ट्रायल भुगत रहे असीमानंद, प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित आतंकवादी कहलाते हैं | इन आठ में से तीन पहले भी एक अन्य जेल से एक और जेल रक्षक की हत्या कर इसी तरीके से फरार हो चुके थे |
Nov 2, 2016
राजीव यादव पर हमले का वीडियो आया सामने, देखिए पुलिसिया गुंडई का नंगा नाच
आतंकवाद के नाम पर फर्जी गिरफ्तारियों और मुठभेड़ों को लेकर करीब 5 वर्षों से सक्रिय रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव और शकील कुरैशी इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते रहे और पुलिस लात—घूसे और लाठियां बरसाती रही।
इस संगठन के अध्यक्ष और लखनऊ हाईकोर्ट के वकील मोहम्मद सोएब ने पिछले वर्षों में दर्जनों ऐसे बेगुनाह युवाओं को जेलों से बाहर निकाला और बाइज्जत बरी कराया है, जिनको पुलिस ने फर्जी तरीके से आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार किया था।
शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर उत्तर प्रदेश पुलिस का बर्बर हमला
राजीव यादव पर पुलिस द्वारा किए जानलेवा हमले में दर्ज हुई एफआईआर
दोपहर 3 बजे लखनउ के हजरतगंज चौराहे पर स्थित गांधी प्रतिमा पर धरना देने पहुंचे रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव और शकील कुरैशी पर पुलिस द्वारा जो जानलेवा हमला किया गया, उस मामले में पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर ली है। मुकदमा धारा 323 के तहत दर्ज हुआ है जबकि पुलिस की मार में राजीव यादव बुरी तरह जख्मी हैं, उनका सिर फट गया है और उन्हें ट्रामा सेंटर में भरती कराया गया है।
ये रीयल राष्ट्रवादी पॉलिटिक्स है पार्टनर!
ऐसे तमाम लोग जो हमारे बीच हैं चाहे वह क़र्ज़ से पीड़ित किसान हो या बॉर्डर पर बैठा सैनिक या पुलिस का कोई जवान या आदिवासी या कि कोई मजदूर या कोई स्त्री या कोई भी जिसके साथ अन्याय हो रहा है अगर हम समय से अपनी आवाज़ बुलंद करते तो हम हर साल हज़ारों लोगों को बचा सकते हैं...
अभिषेक प्रकाश
राजा राम मोहन रॉय की एक कविता है जिसमें वह लिखते हैं कि-
'जरा विचार कीजिये
वह दिन कितना भयानक होगा जब आपकी मृत्यु होगी।
दूसरे बोलेंगे और आप चुप होने को अभिशप्त होंगे।'
सोचिए उन्नीसवीं शताब्दी में बैठा एक व्यक्ति अभिव्यक्ति के महत्व की बात कर रहा है और आज हम प्रश्न से ही डरने लगे हैं। जबकि लोकतंत्र सार्वजनिक बहसों और पारस्परिक तर्कों के सहारे ही वयस्क होता है। प्रश्न पूछना हमारे समाज में गुनाह होता जा रहा है। कॉपरनिकस याद हैं न, उस समय राजतंत्र था जब उसने यह बात उठायी थी कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है और इसके कारण उसे धर्मगुरुओं का भारी विरोध झेलना पड़ा थी। लेकिन तर्क करने की यह परम्परा क़ैद नहीं की जा सकी। मानव सभ्यता आज जहाँ तक पहुँची है उसके पीछे ऐसे तर्कशील लोगों द्वारा प्रश्न उठाने की इस निर्भीक परम्परा का महत्वपूर्ण योगदान है।
आज जो भी प्रश्न उठाए जाते है निश्चित ही कोई न कोई व्यक्ति, समुदाय या व्यवस्था उससे आहत होता है। पर क्या हमें चुप रहना चाहिए या प्रश्न का जवाब देना चाहिए। बात लोकतंत्र की हो तो हम यह पाते है कि नागरिक इन प्रश्नों के बहाने राजनीतिक बहसों में शामिल होते हैं और इन बहसों से वह अपनी एक राय बनाते हैं। इस क्रम में उन्हें नई नई सूचनाएं मिलती हैं। जो हमारी प्राथमिकताओं को तय करती हैं। हमारे निर्णय में काफी सहयोगी होती है। बात भारत की हो तो यह वाद-विवाद की परम्परा काफ़ी प्राचीन रही है।
नेल्सन मंडेला ने अपनी आत्मकथा 'लॉन्ग वॉक टू फ्रीडम' लिखा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की यह शुरुआत मेरे घर से शुरू हुई। स्थानीय मीटिंग में मैं जाता था वहां चाहे कोई किसी भी तरह का काम करने वाला हो या किसी भी वर्ग का हो उसको अपनी बात रखने की स्वतंत्रता थी।स्वशासन की नींव में महत्वपूर्ण है कि सभी लोग अपने मतों को रख सके और नागरिक के रूप में उनकी वैल्यू समान हो। इसको हमने देखा कि जब वह दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने श्वेत-अश्वेत दोनों को अपने साथ रखा। उनके प्रश्नों को उनकी चिंताओं को समझा और लोकतंत्र में उनकी सहभागिता को सुनिश्चित किया। वहीं हम आज देखते हैं कि बहुत सारे देशों ने अपने डेमोक्रेसी में सहभागिता को तवज़्ज़ो नहीं दिया जिसके परिणामस्वरूप उस देश को गृहयुद्ध से लेकर विभाजन तक का चक्र झेलना पड़ा।
आज हमारे देश में जो प्रश्न उठ रहें है उसको लेकर कुछ लोग शंका के शिकार हैं। वह प्रश्नों को सरकार के पक्ष-विपक्ष के रूप में देखने लगे हैं। जबकि मेरा मानना है कि हमें प्रश्नों के पीछे के वाज़िब तर्क को ढूढ़ना चाहिए, न कि प्रश्नों को वर्ग,जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्रीयता की राजनीतिक नाकाबंदी के रूप में। कुछ उदाहरण लीजिए जैसे पिछले दिनों हमारे प्रधानमंत्री ने ट्रिपल तलाक का मुद्दा उठायाए लेकिन शरीयत के नाम पर मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग उसका विरोध करते नज़र आया। तब इस मुद्दे पर उठे बहसों ने, याद कीजिए,किस तरह तमाम सूचनाओं ने हमारे ज्ञान को बढ़ाया और हमारी कई भ्रांतियों को दूर किया। हमें यह भी मालूम चला कि यह कई देशों में वैध नहीं है।
हिना सिद्धू ने ईरान में चल रहे शूटिंग प्रतियोगिता में हिज़ाब पहनने से मना किया और इस मुद्दे ने हमारा ध्यान खींचा। इसका इस्तेमाल राजनीतिक प्रोपगैंडा रचने के लिए किया जा रहा है। हमने देखा कि ईरान में भी ऐसे सुधारवादी लोगों की कमी नहीं है जो अपने समाज की अज्ञानता दूर करने का लगातार संघर्ष कर रहे हैं।
पिछले दिनों हजारीबाग में कुछ किसान मारे गए, छत्तीसगढ़ में भी कुछ लोग (कुछ के लिए आदिवासी तो कुछ लोगों के लिए नक्सली) मारे गए। दोनों जगहों पर पुलिस व राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न उठाया गया। इस पर भी काफी ऐतराज किया गया। हालांकि एक अन्य उदाहरण में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में यह बयान दिया कि आदिवासियों के गांव को जलाने में पुलिस का हाथ था। नया बवाल सर्जिकल स्ट्राइक और मध्य प्रदेश में कैदियों के एनकाउंटर पर उठा।
इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में हम जब लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे गंभीर मुद्दों की पड़ताल करें तो हमें उस शंकालु वर्ग जो प्रश्नों को सरकार या व्यवस्था की आलोचना के रूप में देखते हैं या जो प्रश्नों को सपाट रूप में देखते हैं कि ओर से कुछ ऐसे प्रश्न सुनने को मिलते हैं-
-क्या सेना व पुलिस के लोगों का मानवाधिकार नहीं होता?
-क्या केवल आतंकवादियों व नक्सलियों के लिए ही मानवाधिकार हैं?
-आतंकवादियों को बैठा कर खिलाने की जरुरत क्या है, उन्हें मार देने में क्या बुराई है?
-अगर आपको राष्ट्र की चिंता है तो आपको इन लोगों के मरने पर इतना दुःख क्यों होता है?
ऐसे तमाम प्रश्न आज हमारे सामने तैर रहे हैं। आज प्रश्न न उठाना आपकी राष्ट्रभक्ति को प्रमाणित करती है। हां, यह जरूर है कि ये प्रश्न भी एक प्रतिक्रिया की पैदाइश है जिसकी जड़ों में तुष्टिकरण,छद्म पंथनिरपेक्षता व तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवियों का खोखलापन है। लेकिन क्या यह देश, यहाँ के लोग वाम-दक्षिणपंथी विचारधारा के गुलाम हैं। आज इन राजनीतिक दंगल के बीच हम कुछ संकल्पनाओं को छोड़ते जा रहे हैं, जो इस इंडियन रिपब्लिक के लिए प्राणवायु की तरह है। जैसे कि—
-सर्वोच्च क्या है 'संविधान' कि सत्ता में पदासीन लोग?
-क्या हम क़ानून के प्रति प्रतिबद्ध हैं और क्या विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया हमारे कार्य व्यवहार और समाज को गतिमान करनी चाहिए या कि धर्म, जाति ही निर्णायक होना चाहिए?
-क्या इक्कीसवीं सदी का भारत वैज्ञानिकता की नींव पर नहीं टिका होना चाहिए?
-न्यायपालिका और सेना को क्या पवित्रता के चश्मे से ही देखना चाहिए?
-लोकतंत्र के लिए व्यक्तिवादी राजनीति क्या भयावह नहीं हैं?
इन प्रश्नों को हमें विश्लेषण करना होगा यदि हम चाहते हैं कि भारत एक महान राष्ट्र के रूप में उभरे तो हमें इन संदेह के बादलों को घनीभूत नहीं करना चाहिए। उसके समाधान की ओर बढ़ना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि इन प्रश्नों से उन घटनाओं पर क्या असर पड़ा। उदाहरण के लिए आप कैदियों के एनकाउंटर को ही लीजिए अगर इस पर प्रश्न नहीं उठाए जाते तो हमको अपनी कमियां दिखाई ही न देतीं।
जेल का सीसीटीवी कैमरा ख़राब था और उतने कैदियों की निगरानी में केवल एक सिपाही था। और कि हमारे जेल से निकलने के लिए एक दातून और चादर की जरुरत पड़ती है!और भी बहुत कुछ जिसकी जानकारी आपको मिल चुकी होगी। आप इससे पहले भी देख चुके होंगे की लोग बीसियों साल बाद जेल से बेगुनाह साबित होकर निकलते हैं जब उनकी ज़िन्दगी पूरी तरह तबाह हो चुकी होती है। क्या इन प्रश्नों से हमें यह नहीं मालूम होता कि हमारी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम उतनी प्रभावकारी नहीं है जितनी होनी चाहिए। क्या हमारी इन्वेस्टीगेशन सिस्टम इतना सक्षम है जो मामलों का समय से निस्तारण कर सके। व्यवस्था के हर पाये में आपको दक्षता, कार्यकुशलता, पारदर्शिता का अभाव मिलेगा, नौकरशाही में कई लूपहोल आपको दिखेगा।
अंत में एक बात और जिस सिपाही की जेल में हत्या हुई, क्या वह बच नहीं सकता था! शायद बच सकता था या बचाया जा सकता था अगर ऐसे प्रश्न पहले किए जाते! ऐसे तमाम लोग जो हमारे बीच हैं चाहे वह क़र्ज़ से पीड़ित किसान हो या बॉर्डर पर बैठा सैनिक या पुलिस का कोई जवान या आदिवासी या कि कोई मजदूर या कोई स्त्री या कोई भी जिसके साथ अन्याय हो रहा है अगर हम समय से अपनी आवाज़ बुलंद करते तो हम हर साल हज़ारों लोगों को बचा सकते हैं।
आज वह सिपाही भी बच सकता था अगर पुलिस रिफार्म होता, वो तमाम लोग जो फ़र्ज़ी मामलों में जेलों में क़ैद हैं अगर न्याय प्रणाली में सुधार हुआ होता तो निर्दोष लोग बाहर होते और दोषी को सजा हो सकती थी। पर ऐसा नहीं है। क्योंकि हम आवाज़ उठाना नहीं चाहते। और कुछ ताकतें है जो यह नहीं चाहती की आपके लब आज़ाद हों। हम अपनी प्राचीन भारतीय परम्परा जो वाद- विवाद से समृद्ध है, उसको भूलते जा रहे हैं। ऐसे में मुझे शेक्सपीयर का वह वाक्य याद आता है जिसमे वह कहते हैं कि, ''अगर आप उसे पराजित करना चाहते हैं तो आपको उसके यादाश्त को मिटा देना होगा, उसके भूत को नष्ट कर देना होगा, उसकी कहानियों को समाप्त कर देना होगा।''
तो हमें इस परम्परा को बचाना ही होगा क्योंकि पार्टनर यही पॉलिटिक्स है! रीयल राष्ट्रवादी पॉलिटिक्स।
भगवान की इस आरती से खुश हैं भक्त, 23 लाख मिले हिट्स और शेयर हुआ 71 हजार से अधिक
आप भी इस आरती को सुनिये, सुनाइए और आनंद लीजिए
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