जातिवादी अस्मिता वाला दलित आंदोलन किसी सेक्यूलर और धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए नहीं, बल्कि हिन्दुत्व के ढांचे में समाहित हो सम्मानजनक स्थान पाने के लिए लड़ता है। अपने विचार में वह पहले हिन्दू है फिर दलित है। इसीलिए मौका पाने पर 'हिन्दुत्व’ की गोद में जा बैठता है...
हरे राम मिश्र
यूपी चुनाव में अपनी शर्मनाक हार के बाद अंबेडकर जयंती के मौके पर मायावती ने अपने समर्थकों को राजधानी लखनऊ में संबोधित किया। मायावती का यह पूरा संबोधन स्पष्टीकरणों और कई स्तरों पर 'कन्फ्यूजन’ से भरा हुआ था। फिर भी, दो बातें बहुत महत्वपूर्ण थीं जो कि उनके भविष्य की राजनीतिक दिशा का इशारा कर रही थीं। पहला यह कि वह यूपी में सौ मुसलमानों को विधानसभा के टिकट बांटने पर बीजेपी के यूपी को पाकिस्तान बनाने के आरोप पर सफाई दे रही थीं और उपस्थित समर्थकों को यह बता रही थीं कि वह उत्तर प्रदेश को पाकिस्तान नहीं बनने देंगी। दूसरा, ट्रिपल तलाक के मामले में उनका रुख अब एकदम बदला हुआ दिख रहा था।
गौरतलब है कि ट्रिपल तलाक पर अब तक के अपने रुख से पलटते हुए उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड तीन तलाक के मामले को हल करने में नाकामयाब रहा है। मायावती का तीन तलाक के मसले पर अपने पहले के रुख से इस तरह पलट जाना कई इशारे करता है। चुनाव के दौरान तीन तलाक के मामले पर मोदी सरकार की मुखालफत करते हुए वे इसे शरिया कानून और मुसलमानों के धार्मिक जीवन में सीधा हस्तक्षेप बताती थीं।
अपने चुनावी भाषणों में इसमें किसी संशोधन के खिलाफ उन्होंने सड़क पर उतरने की बात भी कही थी। लेकिन अब, जबकि चुनाव हो चुके हैं- इस मामले में पर्सनल लाॅ बोर्ड पर ही सवाल उठाना यह संकेत करता है कि मायावती अपनी दिशा को बदल चुकी हैं और मुसलमानों के सवाल अब उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। ट्रिपल तलाक के मसले पर मायावती की इस पलटी ने यह साफ कर दिया है कि उन्होंने सौ मुसलमानों को टिकट देकर जो प्रयोग किया, वह एक राजनीतिक गलती थी। अब वे उस गलती को पहले दुरुस्त करेंगी। यूपी को पाकिस्तान बनाने के आरोपों पर उनकी सफाई भी इसी का स्पष्टीकरण था।
हालांकि, पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती ने दलित-मुस्लिम समाज की एकता के आधार पर सूबे की सत्ता में भागीदारी का सपना देखा था। उन्हें यह लगता था कि अगर हम मुसलमानों को बहका लें तो बाइस फीसदी दलित वोट के बदौलत बसपा उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ सकती है। लेकिन वे भ्रम में थीं कि दलितों का बेस वोट उनके साथ है। मुसलमान मतदाताओं को साधने के लिए मायावती ने बहुत प्रयास किया। उन्होंने चुनाव के दौरान कट्टरपंथी मुसलमानों को खुश करने के लिए ट्रिपल तलाक का मुद्दा उठाया। लेकिन इस प्रयास में उनका दलित वोटर उनसे दूर चला गया। उनके चुनावी भाषणों में मुसलमानों पर ज्यादा फोकस से उनके जमीनी नेता कई बार असहज भी दिखे।
दरअसल सिर्फ वोट के लिए, दलित-मुस्लिम एकता के नाम पर सत्ता में वापसी का सपना देखने वाली मायावती ने अपने पिछले शासनकाल में इन दोनों समुदायों को सिवाय उत्पीड़न के कुछ नहीं दिया। मुजफ्फरनगर दंगों में बेघर मुसलमानों को मायावती कभी देखने तक नहीं गईं। उन्हें यह लगता था कि सपा के घर में मचे संग्राम से मुसलमान बसपा में खुद ही शिफ्ट हो जाएगा। उनके लिए यह गृहयुद्ध दलित-मुस्लिम एकता का प्रयोग काल बनकर निकला। लेकिन भाजपा के सहयोग के उनके पिछले चरित्र को देखते हुए मुसलमानों ने मायावती पर कोई यकीन नहीं किया और बीजेपी को हराने के लिए ’टैक्टिकल’ वोटिंग कर बैठे।
वास्तव में दलित मुस्लिम एकता का विचार एकदम अव्यावहारिक है। यह मायावती भी जानती थीं। उनकी समझ में यह एक जुआ था, जिसमें बसपा हार गई। अब मायावती घोर सांप्रदायिक दलित समाज को फिर से जातिगत रूप से इकट्ठा करके अपनी खोई ताकत और जोश पाने का शर्तिया और पुराना 'हकीमी’ नुस्खा आजमाएंगी। यह नुस्खा खुद उनकी सांप्रदायिकता को भी बेनकाब करेगा। क्योंकि एक सेक्यूलर व्यक्ति किसी सांप्रदायिक समाज को संतुष्ट ही नही कर सकता। दलितों की सांप्रदायिकता का खात्मा मायावती के कुव्वत में नहीं है। चुनावी हार के बाद मुसलमानों से उनकी दूरी इस बात को साफ करती है कि अब वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट गई हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश में मायावती का फेल होना 'बुर्जुआ’ राजनीतिक सेटअप में दलित मुस्लिम एकता के विचार का 'गर्भपात’ होना है। यह 'असफलता’ एकदम स्वाभाविक है। दलित और मुस्लिम के बीच कोई स्वाभाविक एकता हो ही नहीं सकती। जातिवादी अस्मिता वाला दलित आंदोलन किसी सेक्यूलर और धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए नहीं, बल्कि हिन्दुत्व के ढांचे में समाहित होने और सम्मानजनक स्थान पाने के लिए लड़ता है। अपने विचार में वह पहले हिन्दू है फिर दलित है। इसीलिए वह मौका पाने पर 'हिन्दुत्व’ की गोद में जा बैठता है।
जहां तक मायावती में आए इस बदलाव का मामला है, वह यह साबित करता है कि मायावती की राजनीति केवल मुस्लिम वोट लेने और उन्हें इस्तेमाल करने के 'विचार’ पर टिकी थी। दलित—मुस्लिम एकता के अवसरवादी प्रयोग के आधार पर वह उत्तर प्रदेश में अपना राजनीतिक उत्थान देख रही थीं जो कि फेल हो गया। इस प्रयोग में वह अपने परंपरागत वोटर्स पर बनी पकड़ भी खो बैठीं। मायावती अब यह मान गयी हैं कि दलित सांप्रदायिकता एक वास्तविक विचार है और अब हमें इसी रूप में उसका इस्तेमाल करना है। यही वजह है कि अब उन्होंने अपने रुख से पलटी मारते हुए मुसलमानों से दूरी बनानी शुरू की है।
लेकिन क्या उनका यह प्रयास उन्हें राजनीति के केन्द्र में वापस ला पाएगा? इस बात की संभावना बहुत कम है। राजनीति एक फुलटाइम और डायनमिक प्रक्रिया है। मायावती ने अपने वोटर्स को दिमागी स्तर पर विकसित नहीं किया। अगर भाजपा फासीवाद के साथ जाति और अस्मिता के सवाल को 'एड्रेस’ करती रहेगी तो फिर दलित मायावती के पास किसलिए लौटेगा? जब तक मायावती के पास भाजपा के खिलाफ कोई ठोस योजना नहीं होगी, तब तक दलितों का भाजपा से मोहभंग नहीं होगा। मायावती में ऐसी क्षमता नहीं है और न ही अभी ऐसी कोई योजना ही है। इसीलिए मायावती का भविष्य संकटग्रस्त है।
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