विस्तार से जानिए क्यों मोदी ने क्यों उठाए होंगे कदम। पढ़िए युवा पत्रकार महेंद्र मिश्र का बिंदुवार विश्लेषण
बाजार से 500 और 1000 के नोटों को वापस लेने का फैसला स्वागत योग्य है। पहली नजर में इसमें फायदा होता जरूर दिख रहा है। लेकिन एक तरह का अतिरेक भी है कि काला धन सिर्फ 500 और 1000 के नोटों के रूप में है। यह मानना कालेधन को नहीं समझने जैसा है।
देश में काले धन का बड़ा हिस्सा अब रीयल स्टेट, जमीन, सोना और बेनामी संपत्तियों के तौर पर है। कारपोरेट, नौकरशाह और राजनेताओं के बड़े हिस्से का काला धन विदेशी बैंकों में जमा है। अगर कुछ देश में है तो वो कैश की जगह दूसरी संपत्तियों के रूप में है। एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंकों का धन को विदेशी खातों में जमा करने में सहयोग का पहले ही खुलासा हो चुका है।
अगर नोटों के बदलने से काला धन समाप्त होता तो यह प्रयोग एक नहीं दो बार हो चुका है। 16 जनवरी 1978 को मोरारजी देसाई सरकार ने 500, 1000, पांच हजार और 10 हजार के नोटों को बंद करने का काम किया था। लेकिन उसका क्या नतीजा निकला? क्या उससे भ्रष्टाचार रुक गया या फिर कालाधन खत्म हो गया?
यूपीए के शासन के दौरान भी 500 के नोटों में बदलाव किया गया था। हां उसके लिए इतना हो-हल्ला नहीं मचाया गया। इस मामले में भी बताया जा रहा है कि 500 और 1000 के नोटों को बदलने की तैयारी रिजर्व बैंक ने चार साल पहले ही शुरू कर दी थी। और अब जब उसका काम पूरा हो गया और उसे लागू करने का समय आया तो मोदी जी ने उसे इंवेट में बदल दिया, जिसके वो माहिर खिलाड़ी हैं। यूपीए के शासन में इस तरह के फैसलों की घोषणा रिजर्व बैंक के गर्वनर करते थे। यहां गर्वनर की बात तो दूर वित्तमंत्री तक कहीं नहीं दिखे। सारा श्रेय मोदी लेने सामने आ गए।
फैसले का बड़ा असर परंपरागत व्यवसायियों पर पड़ेगा जिन्होंने अपने घरों या ठिकानों में नोटों की गड्डियां जमा कर रखी थीं। लेकिन उससे ज्यादा मार उस हिस्से पर पड़ेगा जो अभी भी बैंक की पहुंच से दूर है। या उसका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है। रकम के तौर पर उसके पास बड़ी नोटे हैं। उसके लिए जिंदगी उजड़ने जैसी बात है। बाकी आम जनता के लिए अगले आने वाले कई महीने दुश्वारियों से भरे होंगे। जिनको अपने रोजमर्रा के जीवन में इसके चलते तमाम संकटों का सामना करना पड़ेगा।
लिक्विड मनी या फिर कैश के तौर पर पैसे की कमी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों इसके बड़े हिस्से का निवेश रियल स्टेट और नये चैनलों में हुआ था। लेकिन ये दोनों सेक्टर भी अब संकट के दौर से गुजर रहे हैं। उनमें मंदी है। यानी बाजार में लिक्विड मनी है ही नहीं। अगर बिल्डरों के पास पैसा होता तो वो निर्माण की प्रक्रिया जारी रखते और ब्लैक मनी रखने वाले भी फ्लैटों की बेनामी खरीदारी कर रहे होते।
समझने की बात यह है कि इस पूरी कवायद में सबसे ज्यादा नुकसान उस हिस्से की होने की आशंका है जो अभी तक बीजेपी का परंपरागत आधार रहा है। यानी देश का वैश्य समुदाय। लेकिन पूरे कारपोरेट क्लास की मोदी के पक्ष में गोलबंदी ने इस घाटे की भरपाई कर दी है। और मोदी जी को पता है कि देश की हवा के रुख को मोड़ने में कारपोरेट सक्षम है। ऐसे में भविष्य के एक बड़े लाभ के लिए छोटी कुर्बानी कोई मायने नहीं रखती है।
अगर तात्कालिक लाभ के तौर पर देखा जाए। तो उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनावों में बीजेपी को इसका फायदा हो सकता है। दरअसल तमाम दूसरी पार्टियां जो कारपोरेट फंडिंग से ज्यादा स्थानीय कैश और छोटे व्यापारियों की सहायता पर निर्भर होती हैं। उनके लिए बड़ा संकट खड़ा होने जा रहा है। जबकि बीजेपी ने या तो इसकी पहले से तैयार कर रखी है। या फिर किसी लिक्विड कैश की जरूरत से ज्यादा उसे कारपोरेट का सहयोग हासिल है। अडानी और अंबानी के हेलीकाप्टर और जहाज उनकी सेवा में होंगे। और पैसे के लिहाज से भी उनकी एक नेटवर्किंग है। जो धन को गंतव्य स्थानों तक पहुंचाने का काम करेंगे।
नरेंद्र मोदी अगर सचमुच में गंभीर होते तो उनके पास विदेशी बैंकों के खाताधारकों की सूची है और उनके खिलाफ सीधे कार्रवाई कर उस रकम को वापस लाया जा सकता है। लेकिन वो हिस्सा कारपोरेट का है या फिर उनके अपने सबसे ज्यादा करीबियों का। इसलिए सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं कर पा रही है।
ऊपर से 2000 के नोट जारी करने की बात कुछ समझ में नहीं आयी। इससे अगर ब्लैक मनी के बनने के स्रोत बने रहे तो फिर जितना पैसा किसी शख्स ने 20 सालों में बनाया होगा उतना अगले चार सालों में बना लेगा। यानी कालाधनधारियों के लिए एक नई संभावना भी खोल दी गई है। ऐसे में पूरी कवायद का नतीजा ढाक के तीन पात सरीखा होगा। तात्कालिक तौर पर भले ही इसमें वाहवाही मिल जाए लेकिन आखिरी तौर पर यही आशंका है कि यह एक और एक और जुमला न साबित हो।
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देश में काले धन का बड़ा हिस्सा अब रीयल स्टेट, जमीन, सोना और बेनामी संपत्तियों के तौर पर है। कारपोरेट, नौकरशाह और राजनेताओं के बड़े हिस्से का काला धन विदेशी बैंकों में जमा है। अगर कुछ देश में है तो वो कैश की जगह दूसरी संपत्तियों के रूप में है। एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंकों का धन को विदेशी खातों में जमा करने में सहयोग का पहले ही खुलासा हो चुका है।
अगर नोटों के बदलने से काला धन समाप्त होता तो यह प्रयोग एक नहीं दो बार हो चुका है। 16 जनवरी 1978 को मोरारजी देसाई सरकार ने 500, 1000, पांच हजार और 10 हजार के नोटों को बंद करने का काम किया था। लेकिन उसका क्या नतीजा निकला? क्या उससे भ्रष्टाचार रुक गया या फिर कालाधन खत्म हो गया?
यूपीए के शासन के दौरान भी 500 के नोटों में बदलाव किया गया था। हां उसके लिए इतना हो-हल्ला नहीं मचाया गया। इस मामले में भी बताया जा रहा है कि 500 और 1000 के नोटों को बदलने की तैयारी रिजर्व बैंक ने चार साल पहले ही शुरू कर दी थी। और अब जब उसका काम पूरा हो गया और उसे लागू करने का समय आया तो मोदी जी ने उसे इंवेट में बदल दिया, जिसके वो माहिर खिलाड़ी हैं। यूपीए के शासन में इस तरह के फैसलों की घोषणा रिजर्व बैंक के गर्वनर करते थे। यहां गर्वनर की बात तो दूर वित्तमंत्री तक कहीं नहीं दिखे। सारा श्रेय मोदी लेने सामने आ गए।
फैसले का बड़ा असर परंपरागत व्यवसायियों पर पड़ेगा जिन्होंने अपने घरों या ठिकानों में नोटों की गड्डियां जमा कर रखी थीं। लेकिन उससे ज्यादा मार उस हिस्से पर पड़ेगा जो अभी भी बैंक की पहुंच से दूर है। या उसका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है। रकम के तौर पर उसके पास बड़ी नोटे हैं। उसके लिए जिंदगी उजड़ने जैसी बात है। बाकी आम जनता के लिए अगले आने वाले कई महीने दुश्वारियों से भरे होंगे। जिनको अपने रोजमर्रा के जीवन में इसके चलते तमाम संकटों का सामना करना पड़ेगा।
लिक्विड मनी या फिर कैश के तौर पर पैसे की कमी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों इसके बड़े हिस्से का निवेश रियल स्टेट और नये चैनलों में हुआ था। लेकिन ये दोनों सेक्टर भी अब संकट के दौर से गुजर रहे हैं। उनमें मंदी है। यानी बाजार में लिक्विड मनी है ही नहीं। अगर बिल्डरों के पास पैसा होता तो वो निर्माण की प्रक्रिया जारी रखते और ब्लैक मनी रखने वाले भी फ्लैटों की बेनामी खरीदारी कर रहे होते।
समझने की बात यह है कि इस पूरी कवायद में सबसे ज्यादा नुकसान उस हिस्से की होने की आशंका है जो अभी तक बीजेपी का परंपरागत आधार रहा है। यानी देश का वैश्य समुदाय। लेकिन पूरे कारपोरेट क्लास की मोदी के पक्ष में गोलबंदी ने इस घाटे की भरपाई कर दी है। और मोदी जी को पता है कि देश की हवा के रुख को मोड़ने में कारपोरेट सक्षम है। ऐसे में भविष्य के एक बड़े लाभ के लिए छोटी कुर्बानी कोई मायने नहीं रखती है।
अगर तात्कालिक लाभ के तौर पर देखा जाए। तो उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनावों में बीजेपी को इसका फायदा हो सकता है। दरअसल तमाम दूसरी पार्टियां जो कारपोरेट फंडिंग से ज्यादा स्थानीय कैश और छोटे व्यापारियों की सहायता पर निर्भर होती हैं। उनके लिए बड़ा संकट खड़ा होने जा रहा है। जबकि बीजेपी ने या तो इसकी पहले से तैयार कर रखी है। या फिर किसी लिक्विड कैश की जरूरत से ज्यादा उसे कारपोरेट का सहयोग हासिल है। अडानी और अंबानी के हेलीकाप्टर और जहाज उनकी सेवा में होंगे। और पैसे के लिहाज से भी उनकी एक नेटवर्किंग है। जो धन को गंतव्य स्थानों तक पहुंचाने का काम करेंगे।
नरेंद्र मोदी अगर सचमुच में गंभीर होते तो उनके पास विदेशी बैंकों के खाताधारकों की सूची है और उनके खिलाफ सीधे कार्रवाई कर उस रकम को वापस लाया जा सकता है। लेकिन वो हिस्सा कारपोरेट का है या फिर उनके अपने सबसे ज्यादा करीबियों का। इसलिए सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं कर पा रही है।
ऊपर से 2000 के नोट जारी करने की बात कुछ समझ में नहीं आयी। इससे अगर ब्लैक मनी के बनने के स्रोत बने रहे तो फिर जितना पैसा किसी शख्स ने 20 सालों में बनाया होगा उतना अगले चार सालों में बना लेगा। यानी कालाधनधारियों के लिए एक नई संभावना भी खोल दी गई है। ऐसे में पूरी कवायद का नतीजा ढाक के तीन पात सरीखा होगा। तात्कालिक तौर पर भले ही इसमें वाहवाही मिल जाए लेकिन आखिरी तौर पर यही आशंका है कि यह एक और एक और जुमला न साबित हो।
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