Jan 28, 2011

समर्थन की यह तहजीब घातक होगी कामरेड


विनायक सेन के उन पक्षकारों की चालबाजी तो नहीं जो विनायक को हीरो बनाकर काले कानूनों को ढंग से उठने ही न दें,जिनका इस्तेमाल कर राज्य ने इतने लोगों को भारतीय जेलों में तो बंद किया ही है,जिनकी संख्या विनायक सेन के पक्ष में आयोजित किसी भी धरने से कई गुना है...

अजय प्रकाश

माओवादियों के सहयोगी होने का आधार बताकर भारतीय राज्य ने छत्तीसगढ़ की अदालत के जरिये सामाजिक और मानवाधिकार नेता विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है।

इस मुकदमें में विनायक सेन के साथ माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यापारी पीयुष गुहा को भी बराबर की सजा सुनायी गयी है। 24 दिसंबर से सजा भुगत रहे विनायक सेन के विशेष अपराध के बारे में अदालत ने माना है कि वे जेल में बंद नारायण सान्याल के संवदिया का काम करते थे,जिसके एक दूसरे जरिया पीयुष गुहा थे।

मुल्क में बने कानूनों के मुताबिक माओवादी होना देशद्रोही होना है। इस अपराध में पुलिस हत्या,मुठभेड़,फर्जी गिरफ्तारी, लूटपाट, बलात्कार आदि कर सकती है, जबकि अदालत आजीवन कारावास से लेकर फांसी की सजा देने का अधिकार रखती है। यह तथ्य थानों के अधिकारियों और जानकारों के बीच पिछले कई वर्षों से दर्ज है। इसलिए नारायण सान्याल के संपर्क में विनायक सेन का आना कानूनन जुर्म है। कानून की ही स्वस्थ परंपरा को बरकरार रखते हुए रायपुर के जिला और सत्र न्यायधीश पीबी वर्मा की अदालत ने विनायक सेन को सजा मुकर्रर की है।

हालांकि अभी यह तथ्य उजागर नहीं हो पाया है कि विनायक सेन की रिहाई के लिए संघर्षरत हजारों लोग इस फैसले से हतप्रभ क्यों हैं। ओह, आह, आश्चर्य, शर्मनाक है, ऐसा पहले नहीं हुआ, हद है, यह कोई फैसला है, गश खा गया, विश्वास ही न हुआ, लोकतंत्र से खिलवाड़ है जैसे अनगिनत शब्द विनायक सेन के पक्ष में लगातार लिखे जा रहे हैं,आखिर क्यों। फैसला तो उसी कानून का सिर्फ अमल है जो जनता की चुनी हुई सरकार बना चुकी है,जिस सरकार के भागीदार विनायक सेन के बहुतेरे पक्षकार भी हैं। यानी जिस फैसले का सीधा मायने है,उसको जलेबी बनाने की कोशिश ये बेचारे पक्षकार, क्यों कर रहे हैं?

कहीं यह विनायक सेन के उन पक्षकारों की चालबाजी तो नहीं जो विनायक को हीरो बनाकर उन काले कानूनों को ढंग से उठने ही न दें,जिनका इस्तेमाल कर राज्य ने इतने लोगों को भारतीय जेलों में तो बंद किया ही है,जिनकी संख्या विनायक सेन के पक्ष में आयोजित किसी भी धरने से कई गुना है।

 ऐसे में फैसले से ऐतराज जताने वालों की यह उम्मीद क्या मुगालता नहीं कि वे जिला और सत्र न्यायधीश से उम्मीद करें कि वह छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा कानून(2004),आंतकवाद गतिविधी निरोधक कानून (1967)जैसे आपराधिक उपबंधों को पलट देगा,जो कि सिर्फ और सिर्फ सरकार के तय राष्ट्रीय हितों के खिलाफ बगावत करने वाले लोगों,संगठनों और समूहों पर लागू करने के लिए बना है। अरे जज ने तो विनायक सेन की पत्नी इलीना सेन,छत्तीसगढ़ की वकील सुधा भारद्वाज,वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की शिक्षिका शोमा सेन,पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ महासचिव राजेंद्र सायल और कुछ अन्य लोगों का नाम मुकदमे में लपेटकर भविष्य का सह-अभियुक्त बना दिया है।

जाहिर तौर पर अब असल सवाल उस कानून का है (छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून और आतंकवाद गतिविधी निरोधक कानून),जो माओवाद के हर हरफ को अपराध बनाने के लिए बना है और माओवादियों को अछूत। दरअसल विनायक सेन माओवादी नहीं हैं,पक्षकारों के बहुतायत जमात की यह कोशिश मूंह के बल गिर चुकी है और सरकार ने साबित कर दिया है कि विनायक सेन अंततः माओवादी हैं।

 विनायक सेन ने छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के आपसी मारकाट के लिए सरकार के बनाये सलवा-जूडुम अभियान का विरोध किया और राष्ट्रीय स्तर पर उजागर करने में महत्वपूर्ण रहे और इसीलिए सजायाफ्ता किये गये यह बात अधूरी है। साथ ही विनायक सेन के किये कामों को छोटा करके आंकना है और उस शिरे को छोड़ना है जिसके कारण सरकार की निगाह में विनायक सेन खलनायक बनते गये और माओवादियों के नजदीकी।

मुझे याद है कि विनायक सेन के खिलाफ चार्जशीट दाखिल किये हुए कुछ ही दिन बीते थे और मैं छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के उन गांवों में पहुंचा था जहां विनायक सेन अस्पताल और स्कूल चलाते थे। मई 2007 में विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद से बगरूमनाला गांव के सुनसान पड़े अस्पताल को देख गांव की ओर आगे बढ़े और विनायक सेन को वहां के लोगों से जानना चाहा।

तो गांव के किसान जनक कुमार ने अपनी बात एक सवाल से शुरू किया था, ‘हम घर में ईंट बनायें, शराब बनायें, खाद-बीज बनायें या जंगल से लकड़ी काटें तो पुलिस हमें उठा ले जाती है। मगर ईंट भट्ठे से ले आयें,शराब दूकान से खरीदें,खाद बीज चैराहे के व्यापारी से लायें और अपनी ही लकड़ी ठेकेदार से खरीदें तो पुलिस वाले कहते हैं कि यह काम का जायज तरीका है और तुम अब नक्सली नहीं हो। डॉक्टर साहब उन कामों को सही कहते रहे जिनको पुलिस, सीआरपीएफ और व्यापारी नक्सली क्राइम कहते हैं, तो फिर डॉक्टर साहब पुलिस की निगाह में नक्सली हुए कि नहीं।’

जाहिर है विनायक सेन के इन कामों को समझे बगैर उस सरकारी डोर को समझना मुश्किल होगा जिसका विस्तार विनायक सेन को माओवादी करार दिये जाने में हुआ है। उस विस्तार ने हिंसा और अहिंसा के बीच के शब्दकोशिय मायने पलट दिये हैं और विनायक को उस प्रक्रिया का हिस्सा साबित किया है जिससे माओवादी राजनीति को बल मिलता है। 1992से लेकर 2007तक हमेशा ही विनायक सेन ने अहिंसक तौर पर राज्य के विनाशी विकास के मुकाबले जनविकास के ढांचे पर बल दिया, मुनाफे और पूंजी केंद्रीत व्यवस्था के सामानांतर उन्होंने सामूहिक उत्पादन प्रक्रिया पर जोर दिया। जनविकास का यही ढांचा माओवादियों के उस सुरक्षित क्षेत्र से मेल खाता है जो कि उनके आधार इलाके हैं। माओवादी इसी तरह से जन केंद्रीत विकास के ढांचे को लागू करने की बात कहते हैं।

इसलिए जज ने जिन घटनाओं की निरंतरता को आधार बनाकर फैसला सुनाया है उन पर गौर करें तो बात दो कदम और आगे जाती है और साफ हो जाता है कि माओवादी साबित किये जाने का जो सैद्धांतिक घेरा सरकार ने तैयार किया था, उसका व्यावहारिक अमल अब जोरों पर है। जोरों पर इसलिए कि पहले भी हजारों लोग इस तरह के हवाई अपराध में बंद हैं, जिसके लिए सबूत पुलिस की जुबान होती है और अपराध पुलिस की वह डायरी जिसमें भुक्तभोगी का नाम दर्ज होता है।

जिन्हें अभी भी सरकार की इस तय नियत पर भरोसा नहीं है और मुगालतों की पक्षकारी ही उनका पक्ष है तो वे एक बार छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में चल रही गतिविधियों पर जरूर गौर करें। रायपुर में राज्य के करीब सभी नामचीन मीडिया माध्यमों के प्रतिनिधियों ने बैठक कर मांग रखी है कि विनायक सेन की पत्नी को गिरफ्तार किया जाये। गिरफ्तारी की मांग का आधार जज का वह फैसला है जिसमें रूपांतर संस्था की निदेशक होने के नाते इलीना को भी अभियुक्त करार दिया गया है।

ऐसे में सिर्फ हम विनायक सेन पर बात करें और उन्हें नायक बनाकर संभव है 24दिसंबर की बिलासपुर उच्च न्यायालय में होने वाली सुनवायी में रिहा भी करा लें,मगर सवाल तो उन कानूनों का है जो कि आगे से हर मुकम्मिल विपक्ष के खिलाफ आजमाया जाना तय है। तो फिर बेहतर होगा कि हम अपनी बात कमसे कम नोबल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन के उस वक्तव्य से शु रू करें कि ‘अगर विनायक ने चिट्ठियां किसी विप्लवी को पहुंचायी भी तो यह कोई जुर्म नहीं है।’

(तीसरी दुनिया से साभार व संपादित)