Apr 12, 2011

आदमी की कीमत पर बाघ


आधा दर्जन लोगों पर हमला करने और कई मवेशियों को अपना शिकार बनाने वाले एक बाघ की मौत से सरकार इतनी आहत हुयी है कि उसने दो महिलाओं समेत सात लोगों को जेल में डाल दिया है... 

कमल भट्ट

आदमी की कीमत पर बाघ की सुरक्षा को महत्वपूर्ण मानने वाली सरकार और प्रशासन ने बाघों के मामले में जो रवैया अपनाया है उससे लोग न केवल डरे हैं, बल्कि उनके लिए इधर कुंआ, उधर खाई वाली स्थिति है। एक  तरफ ग्रामीणों को बाघ के हमले का डर है तो दूसरी तरफ अपनी बात कहने पर जेल का रास्ता तैयार है।

पिंजरे में जलता हुआ बाघ
पिछले महीने उत्तराखण्ड के पौड़ी जनपद के धामधार गांव में बाघ को जिन्दा जलाने का मामला तूल पकड़ता जा रहा है और वन विभाग की कार्यवाही के खिलाफ लोगों का गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है।आधा दर्जन लोगों पर हमला करने और कई मवेशियों को अपना शिकार बनाने वाले एक बाघ की मौत से सरकार इतनी आहत हुयी है कि उसने दो महिलाओं समेत सात लोगों को जेल भेजा है। इन लोगों की जमानत जिला न्यायालय पौड़ी से खारिज हो चुकी है। गांव में लगी पीएसी फिलहाल हटा दी गयी है,लेकिन ग्रामीण और मवेशी अपनी-अपनी जगह पर कैदी बने हैं।


गौरतलब है कि सरकार के लिए बाघ को बचाना प्राथमिकता में है। जितने बाघ बचेंगे,सरकार को ईनाम मिलेगा। पिछले महीने 22 -23 मार्च को पौड़ी जनपद का एक सुदूरवर्ती गांव अचानक स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बन गया। कोटद्वार से सत्तर किलोमीटर दूर रिखणीखाल विकासखण्ड के धामधार गांव में ग्रामीणों ने एक बाघ को इसलिये जिन्दा जला दिया कि उसने एक सप्ताह तक उनके मवेशियों को अपना निवाला बना दिया और तीन लोगों को जख्मी कर दिया।

घटना को देखने-सुनने वालों को लगा कि इस गांव के लोगों ने किस क्रूरता  के साथ तमाम कायदे-कानूनों को ताक में रखकर एक निरीह प्राणी को मार डाला। उत्तराखण्ड जैसे राज्य में जहां की सरकार बाघ के संरक्षण पर ही जिन्दा है उसके लिये इस ‘पवित्र काम’ में व्यवधान डालने वाले लोग किसी राष्ट्रद्रोही से कम नहीं हो सकते। परिणामस्वरूप दो महिलाओं सहित सात लोगों को संगीन धाराओं में जेल में डाल दिया गया। उनकी जमानत किसी अदालत में नहीं हो पा रही है। गांव के लोगों से प्रशासन को इतना खतरा हुआ कि गांव के बाहर पीएसी का पहरा लगा दिया गया।

बाघ को मारने की सरकारी कहानी का यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष इस बात को उद्घाटित करता है कि वन विभाग और सरकारी नुमाइंदों के लिए आम आदमी का जीवन कितना सस्ता है। बाघ मारने की यह कहानी धामधार गांव की है। यहां पिछले महीने 22 मार्च को एक गुलदार शेखर चंद्र की गौशाला में घुस आया।

इससे पहले एक अन्य ग्रामीण नरेंद्र कुमार की गाय को बाघ ने मार डाला था, इसलिये लोग सतर्क थे। गौशाला में जानवरों की आवाज सुनकर ग्रामीणों को पता चला कि गुलदार गौशाला में घुस आया है। उन्होंने गौशाला के दरवाजे को बाहर से बंद कर ताला लगा दिया। ग्रामीणों ने चाबी रथुआढाब के रेंजर को सौंप दी। उन्हें उम्मीद थी कि वन विभाग वाले बाघ को ऐसी जगह छोडक़र आयेंगे जहां से जानवरों और लोगों की हिफाजत की जा सकेगी। लेकिन रेंजर और उनके अधीनस्थों ने बाघ का क्या किया, इसका पता लोगों को नहीं चल पाया।

बाइस  मार्च को वन विभाग ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की। रात तकरीबन नौ बजे रेंजर और उनके साथ आये कर्मचारियों ने गौशाले का ताला खोलकर बाघ को बाहर निकाल दिया। इसके बाद बाघ बाहर गांव में खुला घूमने लगा। आजाद होने के एक घंटे बाद यानी रात के दस बजे बाघ ने दो ग्रामीणों गजे सिंह और यशपाल पर हमला कर उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया। दूसरे दिन सुबह पांच बजे भगत सिंह नामक व्यक्ति को बुरी तरह घायल कर दिया। उसका इलाज राजधानी के दून अस्पताल में चल रहा है।

गांव में उत्पात मचाने के बाद इत्तफाक से बाघ फिर से शेखर चंद्र की गौशाला में घुस गया। वन विभाग की कार्यवाही से आक्रोशित और बाघ से डरे ग्रामीणों ने फिर से गौशाला में ताला लगाकर बाघ को बंद कर दिया। वन विभाग ने बाघ को फिर से गांव में छोड़ दिया। इस खबर से लोगों का आक्रोशित होना स्वाभाविक था।

धामधार और उसके आसपास के गांवों के एक-डेढ़ हजार लोग गांव में इकट्ठा हो गये। इस खबर को सुनकर वन विभाग के आला अधिकारी भी मौके पर पहुंच गये। ग्रामीणों को समझाते हुए डीएफओ ने आश्वासन दिया कि इस बार बाघ को पिंजरे में कैद किया जायेगा। विभाग ने बाघ को पिंजरे में कैद कर लिया। ग्रामीणों को आश्वस्त करते हुए वनाधिकारियों ने कहा कि इसे दूर जंगल में छोड़ दिया जायेगा। ग्रामीण बाघ को चिडिय़ाघर में छोडऩे की मांग करने लगे।

ग्रामीणों के मुताबिक झल्लाये रेंजर ने उनसे कहा चिडिय़ाघर में उसके गुजारे के लिए हमें आठ-दस किलो मांस के पैसे प्रतिदिन के हिसाब से देने होंगे। इसके लिए विभाग के पास पैसा नहीं है, इसलिए बाघ को जंगल में ही छोड़ा जायेगा। विभाग के अडिय़ल रवैये से क्षुब्ध होकर डेढ़ हजार लोगों ने पिंजरे में कैद बाघ पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी।

वन विभाग और प्रशासन के लिए यह बड़ी घटना थी, वन्य जंतु अधिनियम के अधीन घोर अपराध था। प्रशासन हरकत में आया। उसने वन्य जंतु अधिनियम-1972 की धारा 9, 52, 53 और आईपीसी की धारा 147, 252, 332 के तहत दो महिलाओं सहित सात लोगों को बाघ मारने के जुर्म में जेल भेज दिया।

शेखर चंद्र की इसी गौशाला में घुसा था बाघ
यहां से बाघ और आदमी के बीच का संघर्ष शुरू हो गया है। सरकार और कानून बाघ के पक्ष में हैं,जबकि ग्रामीणों के सामने एक तरफ लोकतंत्र के कानून को बचाने की जिम्मेदारी है,दूसरी ओर फिर से बाघ का निवाला बनने का संकट। फिलहाल कानून ने अपना काम किया है। जिला न्यायालय पौड़ी से ग्रामीणों की जमानत खारिज हो गयी है। गिरफ्तार लोगों में बाघ के हमले में गंभीर रूप से घायल यशपाल की मां भी शामिल है। जिन लोगों को आरोपी बनाया गया है उसमें धामधार के अलावा कुमाल्डी, छर्ता, ढिकोलिया और कदरासी का एक-एक ग्रामीण भी शामिल है।

इस पूरे मामले में प्रशासन ने जो रवैया अपनाया है, वह लोकतंत्र में रहने वाले लोगों की सुरक्षा को लेकर नये सवाल खड़े करता है। ग्रामीणों को डराने के लिए प्रशासन ने गांव के बाहर भारी पुलिस बल लगा दिया। इसमें पीएसी की एक टुकड़ी भी शामिल है। गांवों में गेहूं की फसल कटने को तैयार है। ग्रामीण बाघ के डर से खेतों में नहीं जा रहे हैं। पड़ोस के चौडग़ांव में बाघ देवेंद्र कुमार नामक व्यक्ति को घायल कर चुका है।

बाघ के डर से गांवों की खड़ी फसल बर्बाद हो रही है। देखभाल न होने से सुअर भी खेती को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस बीच क्षेत्र के कई छोटे-बड़े नेताओं के हस्तक्षेप के बाद पीएसी तो हटा दी गयी है, लेकिन लोगों का भय दूर नहीं हुआ है। गांव में पांच बजे बाद कफ्र्यू का सा माहौल है। लोग अपने घरों में कैद हैं। एक तरफ बाघ का खतरा है, दूसरी तरफ प्रशासन का। अब धामधार गांव की किस्मत बाघ तय करेगा, क्योंकि सरकार की नजर में ग्रामीण बाघ के हत्यारे हैं।

(पाक्षिक पत्रिका ‘जनपक्ष आजकल’ से साभार)

रंग लायी अन्ना की कुर्बानी


अन्ना ने न कोई विश्वविद्यालय  बनाया,न ही किसी प्रकार का उद्योग स्थापित किया,न ही कोई टापू खरीदा,न ही मंत्रियों,मुख्यमंत्रियों या केंद्रीय मंत्रियों को अपने किसी आयोजन में बुलाकर अपना मान-सम्मान बढ़ाने का प्रयास किया...

तनवीर जाफरी 

वयोवृद्ध गांधीवादी नेता एवं समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे का, देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से तंग आकर किया गया आमरण अनशन समाप्त हो गया। केंद्र सरकार ने अन्ना हज़ारे की अधिकांश मांगों को स्वीकार कर लिया।
वैसे तो भ्रष्टाचार का विरोध किए जाने की बातें सार्वजनिक रूप से सभी राजनीतिक दलों के सभी राजनेता करते देखे जा सकते हैं। वे भी जो आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं तथा वे भी जिन्होंने अपने थोड़े से समय के राजनीतिक जीवन में ही अकूत धन-संपत्ति कमा डाली है। और वे भी जो भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हैं तथा उनसे हर प्रकार के लाभ उठाते हैं।

यदि इस प्रकार के पाखंडी राजनेता या अधिकारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाएं तो निश्चित रूप से इसे महज़ एक पाखंड या ढकोसला ही कहा जाएगा। परंतु जब भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की लगाम अन्ना हज़ारे,अरविंद केजरीवाल तथा किरण बेदी या स्वामी अग्रिवेश जैसे समर्पित एवं फक्कड़ लोगों के हाथों में हो तो देश की जनता का ध्यान इनकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है।

कुछ ऐसा ही नज़ारा तब देखने को मिला जब महात्मा गांधी की सत्य,अहिंसा व बलिदान की नीतियों का अनुसरण करते हुए 73 वर्षीय अन्ना हज़ारे संसद में जन लोकपाल विधेयक पारित कराए जाने की मांग को लेकर 5 अप्रैल से आमरण अनशन पर बैठ गए। उनके समर्थन में न केवल पूरे देश में अनशन, भूख-हड़ताल, धरना, प्रदर्शन, जुलूस व रैलियां शुरु हुईं, बल्कि विदेशों में भी उनके समर्थन में रैली व मार्च आयोजित किए जाने के समाचार आए।

सवाल यह उठता है कि जब केंद्र में मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार व योग्य व्यक्ति के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार शासन कर रही हो और कांग्रेस पार्टी स्वयं को गांधी की विचारधारा की आलमबरदार पार्टी बताने का भी दम भरती हो ऐसे में अन्ना हज़ारे जैसे वरिष्ठ गांधीवादी नेता को आमरण अनशन तक जाने की ज़रूरत ही क्यों महसूस हुई। मनमोहन सिंह तथा कांग्रेस पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अन्ना हज़ारे द्वारा सुझाए जा रहे जन लोकपाल विधेयक से आखिरकार तब सहमत हुए जब अन्ना हज़ारे अपने तमाम साथियों सहित अनशन पर बैठे तथा इस आंदोलन को असंगठित होने के बावजूद ऐतिहासिक समर्थन मिला।

गत् 40वर्षों से विचाराधीन लोकपाल विधेयक को आखिऱ जन लोकपाल विधेयक के रूप में काफी पहले परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए था। यदि राजनीतिज्ञ स्वयं को इतना ही साफ-सुथरी तथा बेदाग छवि वाला समझते होते तो अन्ना हज़ारे के आमरण अनशन शुरु करने के एक ही दिन बाद शरद पवार जैसे नेता जोकि स्वयं को प्रधानमंत्री पद का सबसे मज़बूत दावेदार समझने की गलतफहमी भी पाले हुए थे, भ्रष्टाचार के विरुद्ध बने मंत्रिमंडलीय समूह से त्यागपत्र न दे डालते।

बहरहाल,अन्ना हज़ारे की कुर्बानी रंग ले आई है। जन लोकपाल विधेयक सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक का स्थान संभवत:लेने को है। देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने विशेषकर उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार को समाप्त करने अथवा नियंत्रित करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

निश्चित रूप से जनप्रतिनिधि व उच्चाधिकारी अब जन लोकपाल विधेयक के भयवश दोनों हाथों से देश को लूटने की अपनी प्रवृति से बाज़ आ सकेंगे। देश के नौजवानों से लेकर बुज़ुर्गों तक ने इस आंदोलन को बिना किसी निमंत्रण अथवा रणनीति के जिस प्रकार व्यापक समर्थन दिया तथा हज़ारे के आमरण अनशन के समर्थन में जो उत्साह दिखाया वह भी न केवल काबिले तारीफ था बल्कि इसे देखकर इस बात का भी साफ अंदाज़ा हो रहा था कि देश का बहुसंख्यक वर्ग वास्तव में भ्रष्टाचार तथा भ्रष्टाचारियों से बेहद दु:खी है।
खासतौर पर उन जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार से जो कि जनता द्वारा पांच वर्षों के लिए निर्वाचित तो इसलिए किए जाते हैं ताकि वे अपने क्षेत्र का समग्र विकास करते हुए देश के बहुमुखी विकास में अपनी भागीदारी निभाएं। परंतु आमतौर पर यही प्रतिनिधि भ्रष्टाचार,स्वार्थ तथा परिवारवाद में ऐसा उलझकर रह जाते हैं गोया कि जनता ने इन्हें लूट-खसोट करने,देश को बेच खाने तथा अपने परिवार को जनता की छाती पर जबरन सवार कर देने का लाईसेंस दे दिया हो।

इस दौरान चली भ्रष्टाचार संबंधी राष्ट्रीय बहस में उन राजनीतिक दलों को बढ़चढ़ कर अन्ना हज़ारे का समर्थन करते देखा गया जिनके राष्ट्रीय अध्यक्ष, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री सभी पर घोर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। परंतु ऐसे दल व इनके नेता भी हज़ारे को समर्थन देते और कांग्रेस की गठबंधन सरकार को कोसते व भ्रष्टाचारी बताते दिखाई पड़े। जबकि नैतिकता का तकाज़ा तो यही है कि अन्ना हज़ारे के आंदोलन का समर्थन तथा भ्रष्टाचार का मुखरित होकर विरोध करने का अधिकार केवल उसी को होना चाहिए जिसका दूर-दूर तक भ्रष्टाचार से कोई लेना-देना न हो।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाले अन्ना हज़ारे ने भ्रष्टाचार से लडऩे की आड़ में अपनी कोई संपत्ति अर्जित नहीं की। न ही उन्होंने कोई विश्वविधालय बनाया,न ही किसी प्रकार का उद्योग स्थापित किया,न ही कोई टापू खरीदा,न ही मंत्रियों,मुख्यमंत्रियों या केंद्रीय मंत्रियों को अपने किसी आयोजन में बुलाकर अपना मान-सम्मान  बढ़ाने का प्रयास किया।

उनके किसी भक्त ने हज़ारे को शायद इस योग्य भी नहीं समझा कि वह भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से संघर्ष करने के लिए कम से कम उन्हें एक हेलीकॉप्टर तो ‘गुप्तदान’में दे देता?परंतु इन सभी सांसारिक एवं भौतिक संसाधनों के अभाव के बावजूद इस वरिष्ठ गांधीवादी ने अपने आमरण अनशन के बल पर केंद्र सरकार सहित पूरे देश-दुनिया में रह रहे भारतवासियों को झकझोर कर रख दिया।

 हज़ारे की इस कुर्बानी ने उन तमाम तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधियों को भी बौना कर दिया जो कि बातें तो भ्रष्टाचार से लडऩे की करते हैं परंतु अपने साथ भ्रष्टाचारियों का ही समर्थन भी रखते हैं। और ज़रूरत पडऩे पर इन्हीं भ्रष्टाचारियों के दल को लाखों रुपये चंदा देने से भी नहीं हिचकिचाते। अन्ना हज़ारे ने न तो कभी किसी राजनीतिक दल के गठन की इच्छा ज़ाहिर की, न ही क भी सत्ता अपने हाथ में लेकर उसमें स्वयं सुधार किए जाने जैसा कोई स्वार्थपूर्ण खाका तैयार किया। उन्होंने वही किया जो गांधी जी किया करते थे। अर्थात् सत्य,अहिंसा और बलिदान के मार्ग पर चलकर सरकार, देश तथा दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करना।

इस महान गाँधीवादी नेता अन्ना हज़ारे के आंदोलन ने एक बार फिर यह भी प्रमाणित कर दिया है कि महात्मा गाँधी के आदर्श व उनके सिद्धांत आज भी न केवल प्रासंगिक हैं बल्कि पूरी तरह जीवित भी हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि इस गांधीवादी आंदोलन का समर्थन वह लोग करते भी दिखाई दिए जो गांधीवादी विचारधारा के प्रबल विरोधी हैं।

बेशक ऐसी शक्तियों द्वारा हज़ारे को दिया जाने वाला समर्थन उनके अपने स्वार्थवश दिया गया समर्थन ही था। परंतु हज़ारे ने गांधी जी के मार्ग पर चलते हुए एक बार फिर देश में महात्मा गांधी की याद को ताज़ा कर दिया है। इतना ही नहीं,आज की जिस पीढ़ी ने महात्मा गांधी के बारे में केवल पढ़ा है परंतु देखा नहीं,वह पीढ़ी भी अन्ना हज़ारे के इस आमरण अनशन को देखकर यह कल्पना करने लगी है कि वास्तव में महात्मा गांधी भी अहिंसा का दामन थामकर इसी प्रकार अंग्रेज़ों से भी अपनी बातें मनवाते रहे होंगे।

हिंसा का सिद्धांत यही होता है कि किसी को मार कर,किसी का घर जलाकर या किसी की बस्ती उजाड़ कर अपनी बातें मनवाने का प्रयास किया जाए। इस देश में इस विचारधारा के समर्थक भी काफी सक्रिय हैं तथा यही लोग महात्मा गांधी को कोसते भी रहते हैं। दूसरी ओर अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए अपनी मांग पूरी करवाने का एकमात्र गांधीवादी तरीका यही होता है कि आमरण अनशन,सांकेतिक भूख हड़ताल, क्रमिक अनशन या उपवास आदि रखकर तथा स्वयं दु:ख उठाकर व अपनी जान को खतरे में डालकर अपनी जायज़ मांगों को पूरा करवाने हेतु सत्ता केंद्र को अपने घुटने टेकने के लिए मजबूर किया जाए। जैसाकि अन्ना हज़ारे व उनके समर्पित साथियों ने कर दिखाया है।

अन्ना हज़ारे के इस बलिदानपूर्ण कदम ने जहां भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करने में अपना परचम बुलंद किया है वहीं जंतर मंतर पर किए गए उनके आमरण अनशन ने देश को एक बार फिर महात्मा गांधी की याद ताज़ा कर दी है। निश्चित रूप से देश को अन्ना हज़ारे जैसे एक-दो नहीं हज़ारों अन्ना हज़ारे चाहिए जो समय-समय पर गांधी दर्शन को जीवित रख सकें तथा समय पडऩे पर इसी प्रकार सरकार को सचेत करते रहें।