Nov 26, 2010

साहित्य में चेलागिरी - नौकरशाही की दूसरी परम्परा



आज हिंदी में हर महत्वपूर्ण लेखक की रचना  पर नियमित समीक्षाएं होती हैं, रचना चाहे जैसी  हो.एक अफसर कवि की किताब पर तीन सौ समीक्षाएं छप जाती हैं और हिंदी में लिखने वाला नया लेखक अगर कालेज़ में नौकरी चाहता है तो उसे अपने अध्ययन  पर नहीं  गुरुदेव आलोचकों से संपर्क के प्रति सतर्क रहना होता है.



अच्युतानंद मिश्र


वर्तमान दौर के हिंदी लेखन पर वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं .एक ऐसे समय में जब हिंदी लेखन एक व्यवसाय का रूप लेता जा रहा है तो लेखन से जुड़े वैचारिक पहलु और भी महत्वपूर्ण हो उठते हैं.आज़ादी के बाद के लेखन को मेरे हिसाब से तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है .

पहला 1970 तक का लेखन, दूसरा 1970 से लेकर 1980 तक का लेखन और तीसरे यानी  आखरी हिस्से को 1980से वर्तमान दौर तक का लेखन माना जा सकता है .पहले दौर के लेखन के केन्द्र में दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं.पहला आज़ादी की प्रासंगिकता का प्रश्न दूसरा पूंजीवाद के खिलाफ चल रहे वैश्विक संघर्ष में भागीदारी का प्रश्न.इन प्रश्नों के आलोक में हिंदी में दो स्पष्ट विभाज़न देखे जा सकते हैं प्रगतिशील और गैर प्रगतिशील धारा.

आज़ादी के प्रश्न पर प्रगतिशील खेमे में भी एक उलझन की स्थिति नज़र आती है.इस उलझन के पीछे पंडित नेहरु के मिथ से इंकार नहीं किया जा सकता है.नेहरु के बहाने ही कांग्रेसी मार्का लेखन को भी इसी दौर में प्रगतिशीलों के बीच प्रवेश मिलता है जिसमे वर्ग संघर्ष के स्थान पर आम आदमी की बात कही जा रही थी.इस लेखन के केन्द्र में यह बात थी की मनुष्यता के सारे संकट संसद के माध्यम से ही हल किये जाने चाहिए.

समाज में बढ़ रही असामनता भूख गरीबी बेरोज़गारी आदि से सम्बंधित बुनियादी मसले पंचवर्षीय योजनाओं के लिए निर्मित भव्य और आलीशान इमारतों में ही हल किये जा सकते हैं .नौकरशाही का प्रवेश भी हिंदी साहित्य में इसी दौर में होता है. साठ  के दशक में नए साहित्य की अवधारणा का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर प्रगतिशीलों के बीच अवसरवादी धड़े  द्वारा किया जाता है.


हिंदी आलोचक नामवर सिंह
 इस दौर में लिखी गई आलोचना जिसमें  नामवर सिंह केन्द्र में हैं,में यह प्रवृति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘कहानी नई कहानी’ दोनों पुस्तकों में बुर्जुआ लेखन को स्थापित करने का प्रयत्न स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. हालांकि  इन पुस्तकों के लेखन में मार्क्सवाद का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल से भी गुरेज़ नहीं किया गया .परिशिष्ट में मार्क्सवादी लेखकों का इस तरह इस्तेमाल किया गया,गोया आलोचना मार्क्सवादी ही नज़र आए परन्तु फायदा बुर्जुआ लेखकों को पहुचें.

यहाँ यह स्वीकार किया जाना चाहिए की नामवर सिंह अपनी इस रणनीति में बहुत हद तक सफल होते हैं .इसी बुनियादी अवसरवादी विचार को केन्द्र में रखते हुए साहित्य में प्रगितशील चेतना को पीछे धकेलते हुए वाम-कांग्रेसी गठबंधन के प्रभाव में लिखे जा रहे साहित्य को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया.यहाँ वाम से मेरा तात्पर्य अवसरवादी वाम से ही है जो 1960 तक हिंदी साहित्य में अपनी बुर्जुआ योजनाओं और आकांक्षाओं के तहत सक्रिय हो चूका था.ये बातें यहाँ इसलिय ज़रुरी हो जाती है क्योंकि नयी कविता और नयी कहानी के माध्यम से एक खास तरह का समाज विरोधी व्यक्ति केंद्रित जीवन दर्शन प्रस्तुत किया जा रहा था जिसका अवसरवादी वाम धड़े ने विरोध के बजाय समर्थन ही किया.

एक बात और ध्यान देने योग्य है कि  सत्तर के दशक में ही अफसर साहित्यकारों की एक बड़ी जमात का प्रवेश होता है.इस सम्बन्ध में नागार्जुन ने आगाह करते हुए किसी प्रसंग में विजय बहादुर सिंह से कहा था कि विजय बाबु अगर इसी तरह अफसर साहित्य में प्रवेश करते रहें तो साहित्य में इसके नकारात्मक परिणाम देखने पड़ेंगे .इसी सन्दर्भ में सुरेन्द्र चौधरी ने भी कहा था कि आजकल पुलिस की रिपोर्ट लिखने वाले कहानी की रपट लिखने लगे हैं .गौरतलब है कि वामपंथी लेखक संगठनों का भी एक हद तक झुकाव इन लेखकों के प्रति देखा जा सकता है.

मिसाल के तौर पर राही मासूम रजा के स्थान पर जिस तरह श्रीलाल शुक्ल को चुना गया उस प्रक्रिया में हिंदी साहित्य पर नौकरशाही के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है.इस तरह एक बात तो स्पष्ट है कि सत्तर के दशक तक एक खास अर्थ में अवसरवाद हिंदी साहित्य में प्रवेश कर जाता है.इसमें छद्म वामपंथियों की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है.

हिंदी साहित्य में 1970 के बाद दो प्रमुख प्रवृतियाँ नज़र आती हैं. पहला क्रन्तिकारी प्रगतिशील चेतना का साहित्य में एक बार फिर सक्रिय होना दूसरे कलावादी धारा का सत्ता संस्थानों से जुडकर साहित्य में पुरस्कारों कि महिमा स्थापित करना. आज हिंदी में दिए जाने वाले अधिकांश महत्वपूर्ण पुरस्कारों की  शुरुआत या तो इसी दशक में हुई है या इसके बाद.हिंदी में क्रन्तिकारी राजनैतिक लेखन का जितना विरोध इस दौर में हुआ उतना पहले नहीं हुआ था.यहाँ तक की नई कविता के दौर में भी नहीं .

क्रन्तिकारी लेखन से मेरा मतलब  परिवर्तन की इच्छा आकांक्षा प्रकट करने वाले लेखन से ही है .लेकिन सरलीकरण के नाम पर इस लेखन का ज़बरदस्त विरोध देखा जा सकता है.ना सिर्फ यही ,बल्कि तमाम मंचों से बार बार यह कहा जाता रहा की राजनितिक लेखन प्रोपेगेंडावादी एवं प्रचारवादी लेखन ही है जिसकी कोई सार्थकता नहीं.ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इस दौर में खास तरह से शुद्ध साहित्य और सार्थक साहित्य की अवधारणा को स्थापित किया जाता है .यह अनायास नहीं है कि अशोक वाजपेयी सरीखे साहित्यकार महत्वपूर्ण हो जाते है और उनके साहित्यिक सरोकार नामवर अलोचोकों से जुड़ने लगते हैं.

आठवें दशक के बाद हिंदी में मिलीजुली संस्कृति का प्रभाव देखा जा सकता है.कलावाद साहित्य के लिए बहसतलब नहीं रह जाता है.हिंदी साहित्य के तीन स्तंभ इस   दौर से वर्तमान समय तक देखे जा सकते हैं .पत्रकार साहित्यकार,अफसर साहित्यकार और प्रोफेसर साहित्यकार .मै यहाँ इन्हें व्यक्तियों के रूपमें याद ना कर प्रवृतियों के रूप में ही याद कर रहा हूँ .पत्रकारिता में जिस निरपेक्षता को बहुत महत्व दिया जाता है उसे हू बहु साहित्य में भी मूल्य के रूप में स्वीकार लिया गया.

आज हिंदी का अधिकांश रचनात्मक लेखन अगर पत्रकारी लेखन लगे तो कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए .सिर्फ यही नहीं आज लिखी जाने वाली अधिकांश आलोचना में भी अगर मूल्यहीनता को मूल्य की तरह दिखाया जा रहा हो तो पत्रकारिता के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता.सत्ता के करीब होकर जिस तरह से हिंदी साहित्य की परिवर्तनकामी चेतना को कुंद किया गया उसमे अफसरों की भी केंद्रीय भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता.

नौकरी दिलाने से लेकर पुरस्कार समितियों लेखक संगठन आदि में इनके स्पष्ट प्रभाव को देखा जा सकता है.अगर कोई अफसर साहित्यकार किसी युवा लेखक की चंद समीक्षाओं के सन्दर्भ में कहे की वह आने वाले समय का मलयज है तो हिंदी साहित्य के मठाधीस उसे मलयज मानने लगते हैं.इधर युवा लेखकों के बीच चंद पुरस्कारों को लेकर इस तरह की चर्चा आम होती जा रही है कि इस वर्ष यह पुरस्कार मैं ले लेता हूँ अगले वर्ष तुम ले लेना.

एक अफसर साहित्यकार की कविताओं पर शोध करने वाले एक युवा साहित्यकार ने बताया की उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उसे गाइड दिलाया .यही नहीं अगर वे चाहे तो किसी मित्र के माध्यम से अपने ऊपर या अपने मित्रों के ऊपर शोध के लिए इस या उस विश्विद्यालय में कह भी सकते हैं .क्या यही हमारे समय का साहित्यिक यथार्थ है?क्या यही से हमारी आलोचनात्मक दृष्टि विकसित होगी.वह विकसित होकर कहाँ तक जायेगी,हिंदी अकादमी तक या साहित्य अकादमी तक?

आज हिंदी में हर महत्वपूर्ण लेखक की रचना  पर नियमित समीक्षाएं होती हैं-ध्यान रहे महत्वपूर्ण लेखक का  होना है,रचना चाहे कैसी भी हो.एक अफसर कवि की किताब पर तीन सौ समीक्षाएं छप जाती हैं.क्या भारत एक गरीब देश है?क्या पुस्तक की स्तरीयता लेखक के प्रभाव से ही तय होनी चाहिए.तीसरे स्तम्भ यानी  प्राध्यापकों का समूह.आज हिंदी में लिखने वाला हर नया लेखक अगर कालेज़ में नौकरी चाहता है तो उसे अपने अध्यन पर नहीं बल्कि गुरुदेव आलोचकों से अपने संपर्क के प्रति सतर्क रहना होता है.

अगर वह अपने गुरुदेव आलोचक की आने वाली हर किताब की नियमित समीक्षा करता है तो बहुत संभव है की गुरुदेव उसपर कृपाकटाक्ष कर सकते है .और वह नौकरी रूपी प्रसाद को ग्रहण कर जीवन भर के लिए उनका कृपा पात्र बना रह सकता है .ध्यान रहे समीक्षा के लिया पुस्तक पढ़ना उतना अनिवार्य नहीं जितन गुरु की मोहिनी मूरत को आत्मसात करना.

हिंदी में पुरस्कारों का एक उद्योग सा चल पड़ा है.क्या कारण है कि  आठवें दशक के तमाम महत्वपूर्ण कवि एक के बाद एक साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़े जाते हैं. उन्ही में से एक कवि बिहार राज्यभाषा से मिलने वाले पुरस्कार को यह कहकर ठुकरा देते हैं कि  वह सत्ता  द्वारा दिए जा रहे सम्मान को स्वीकार नहीं कर सकते,लेकिन साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेते हुए वह सत्ता की संस्कृति का विरोध कर लेते हैं.
विष्णु खरे जब उर्वर प्रदेश के सन्दर्भ में सवाल उठाते है तो पूरी हिंदी उस पर बहस करती है,क्यों? क्योंकि  यह विवाद एक पुरस्कार को लेकर है.हिंदी लेखन में विचारधारा के साथ होते हुए वैचारिक लेखन नहीं नज़र आता तो इसके क्या कारण हो सकते है.

कहीं  ऐसा तो नहीं की प्रतिरोध की संस्कृति के मायने बदल दिए गए हों.आनंद प्रकाश ने जो सवाल उठायें हैं उसपर हिंदी के लेखक बहस नहीं करेंगे.क्योंकि ऐसा करते हुए उनकी पोलिटिक्स खुल कर सामने आ जायेगी.आज हिंदी का अधिकांश लेखन गैर राजनीतिक होते हुए भी राजनीतिक प्रतीत होता है क्योंकि उसके पीछे सत्ता की संस्कृति सक्रिय है. ऐसे में यह बेहद ज़रुरी हो जाता है की साहित्य में सत्ता की संस्कृति के निहितार्थ पर खुल कर बहस की जाये.

उपर्युक्त लेख जनज्वार में हिंदी साहित्य के सरोकारों पर चल रही बहस की अगली कड़ी है. यहाँ तीन लेखों का लिंक दिया जा रहा है. देखने के लिए कर्सर  लेखों के ऊपर ले जाकर क्लिक करें  "वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान", 'पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता", 'प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक'.


(अच्युतानंद कुछ उन युवा लेखकों में हैं जिनकी रचनाओं में जनपक्षधरता बड़ी स्पष्ट दिखती है. हाल ही में 'नक्सलबाड़ी आन्दोलन और हिंदी कविता' नाम से एक पुस्तक प्रकाशित हुई है.  उनसे anmishra27@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. )