Jul 16, 2011

और वह मरा अपने ही खेत में !


बच्चे सुबह जागे और पिता को पास में नहीं पाया तो बाहर निकलकर चिल्लाने लगे। गांव वालों के सहयोग से जब सुरेश को ढूंढ़ा गया तो उसकी लाश अपने ही दो बीघा बन्धक बने बंजर खेत में पायी गयी...

आशीष सागर

बांदा जिला के फतेहगंज थाना के बघेला बारी गांव में 18 जून को 42 वर्षीय किसान सुरेश यादव की कई दिनों से भूखे रहने और टीबी की लंबी बीमारी के कारण मौत हो गयी। उनकी मौत के बाद अब उनके तीन बच्चे अनाथों की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। बच्चों की सबसे बड़ी आसरा कही जाने वाली मां का साया तीन साल पहले 2008 में ही उठ गया था, जब सुरेश अपनी पत्नी सरस्वती के केंसर का ईलाज दो बीघा जमीन बेचकर भी नहीं करा सके थे और उनकी की मौत हो गयी थी।

छिन गया बचपन : जीवन की कठिन डगर


पत्नी की असामयिक मौत ने सुरेश की समस्याएं और बढ़ा दीं,जिसके कारण वह लंबे समय से निराश थे और बच्चों पर खुद को भार मान रहे थे। बिटिया संगीता की बढ़ती हुयी उम्र के साथ उसके ब्याह की चिन्ता और विकास, अन्तिमा के भविष्य की ऊहा-पोह में पिसते हुए 18 जून को अपने ही खेत पर खून की उल्टियों के साथ सुरेश इस दुनिया से चले गये। जब बच्चे सुबह जागे और पिता को पास में नहीं पाया तो बाहर निकलकर चिल्लाने लगे। गांव वालों के सहयोग से जब सुरेश को ढूंढ़ा गया तो उसकी लाश अपने ही दो बीघा बन्धक बने बंजर खेत में पायी गयी।

अब परिवार का सारा जिम्मा सुरेश यादव के सबसे बड़े बेटे 14वर्षीय नाबालिग विकास यादव पर है, जिसने इसी साल दसवीं की परीक्षा पास की है। विकास बताता है कि पिता के बीमार होने के कारण उनके जीते जी भी परिवार का खर्च चलाने के लिए उसे मजदूरी करने जाना पड़ता था, जिसके कारण परीक्षा में मात्र 54 फीसदी अंक प्राप्त हुए हैं। परिवार में तंगहाली के कारण विकास की सबसे छोटी बहन अंतिमा पिछले वर्ष स्कूल छोड़ चुकी है तो बड़ी बहन संगीता मां के मरने के बाद से ही घर में चौका-बर्तन की पूरी जिम्मेदारी निभा रही है और स्कूल नहीं जाती।

पहले मां और अब पिता की मौत ने विकास से खिलंदड़ी बचपन को छीन लिया है और वह अपने हम उम्र बच्चों से बड़ा दिखता है। कुछ भी पूछने पर उसकी आंखे भर आती हैं, लेकिन वह पिता की मौत को अपने उपर हावी होने देने से लगातार जूझता है और गमछे से आंखों को पोछ कहता है, ‘घर और पढ़ने की व्यवस्था हो जाये तो बाकी का मैं संभाल लुंगा।’ एक जिम्मेदार नागरिक के गहरे अहसासों भरा विकास बताता है कि ‘मां के मरने के बाद जो बाकी दो बीघा जमीन बची थी उसे पिता ने त्रिवेणी ग्रामीण बैंक, बदौसा में 21 हजार रूपये के किसान क्रेडिट कार्ड के बदले गिरवी रख छोड़ा है।’

ग्रामीण बताते हैं,पत्नी सरस्वती की मौत के बाद से सुरेश यादव मानसिक रूप से तन्हा,अवसाद ग्रस्त और क्षय रोग से पीड़ित हो गया था। कुल चार बीघा जमीन में से दो बीघा जमीन उसने पहले ही पत्नी के इलाज में बेच दी थी और इधर बच्चों के पालन पोषण व खेती को करने के लिये सुरेश ने त्रिवेणी ग्रामीण बैंक बदौसा से 21 हजार रूपये, साहूकार से 50 हजार रूपये बतौर कर्ज ऋण लिया था। गांव वालों के मुताबिक टीबी के रोग से पीड़ित सुरेश को नरैनी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, जिला अस्पताल बांदा से नियमित रूप से डाट्स की दवायें भी उपलब्ध नहीं होती थी। परिवार की माली हालत ऐसी थी कि सुरेश के मरने के बाद विकास के पास इतना भी पैसा नहीं था कि वह अपने पिता को धर्म मुताबिक फूंकने की व्यवस्था कर पाता। गांव वालों ने आनन-फानन में सुरेश की लाश को एक चादर में लपेटकर रसिन बांध में प्रवाहित कर दिया।

मीडिया ने जब इस मुद्दे को तूल देना शुरू किया तो जनपद के तत्कालिक जिलाधिकारी कैप्टन एके द्विवेदी अपने लाव लश्कर के साथ मौके पर पहुंचे और पीड़ित परिवार के तीन अनाथ बच्चों से बातचीत की। प्रदेश की मुखिया के दिशा निर्देश के अनुसार भूख से कोई मौत न होने पाये और कोई किसान कर्ज और मर्ज से आत्महत्या न करे इस फतवे के डर से जिलाधिकारी ने तुरन्त ही विकास को बरगलाना शुरू किया और सुरेश के क्षय रोग कार्ड को मीडिया के सामने दिखाते हुये कहा कि सुरेश की मौत कर्ज से नहीं बल्कि टीबी के रोग से हुयी है।


विकास की छोटी बहनें  अंतिमा और संगीता

जिलाधिकारी के साथ मौजूद अधिकारियों ने जब मृतक के घर जाने की जहमत उठायी तो मीडिया के सामने घर की हालत देख उनके भी होश फाख्ता हो गये। सबके मूंह से एक ही आवाज आयी, ऐसे में भला कैसे जलता और कैसे चलता घर का चूल्हा ?मौके नजाकत को भांपते हुए जिलाधिकारी ने तुरंत इन्दिरा आवास, पारिवारिक लाभ योजना, एक लाख रूपये मुआवजा कृषक बीमा योजना से और बीपीएल कार्ड द्वारा मुफ्त राशन का निर्देश कोटेदार को देते हुए बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी जिला प्रशासन द्वारा वहन करने की घोषणा कर दी।

इस बीच इलाके के कुछ सामाजिक सहयोगी भी विकास की मदद के लिए सामने आये हैं,जिनमें सन्त मेरी सीनियर सेकण्डरी स्कूल के डॉ फेड्रिक डिसूजा,फादर रोनाल्ड डिसूजा, शिवप्रसाद पाठक शामिल हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि सरकार और स्वंय सेवी समूहों के विस्तृत जाल के बावजूद सुरेश यादव और उन जैसे हजारों किसानों आत्महत्याओं,भूख और बीमारियों के जबड़े में क्यों स्वाहा होते चले जा रहे हैं। क्यों विकास जैसे बच्चे अनाथ हो रहे हैं और उनका बचपन उनसे छिनता चला जा रहा है,जबकि अरबों के पैकेज की लूट में न जाने कितने लूटेरों की पीढ़ियों के लिए अकूत धन जमा होता जा रहा है। आखिरकार इन सवालों का जवाब कौन देगा ?



बुन्देलखंड के प्रमुख सूचना अधिकार कार्यकर्ता और स्वयं सेवी संगठन 'प्रवास' के प्रमुख.

नए धमाके पर पुरानी सियासत

हर बार की तरह बयानबाजी,हल्ला-गुल्ला,गहमागहमी और मुआवजे आदि की फौरी कार्यवाही के अलावा कुछ नया होने वाला नहीं है। असल मे हमारे यहां आंतक को सरकार और सरकारी अमले ने एक खास समुदाय से जोड़कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली है...

आशीष वशिष्ठ

बुधवार 13 जुलाई को मुंबई में हुये सीरियल ब्लास्ट में  19 लोगों की मौत ने  सुरक्षा तंत्र की पोल-पट्टी तो खोली ही है, सरकारी दावों और बयानों की सच्चाई भी पूरे देश के सामने ला दी है। संसद पर हमले से लेकर ताजा बम ब्लास्ट तक हर बार आंतकी हमले के बाद सरकार ने आंतकवाद से सख्ती से निपटने के बयान तो जरूर जारी किये हैं, लेकिन जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है।

सरकार चाहे जितने लंबे-चौड़े दावे और कार्यवाही का आश्वाशन दे,लेकिन आंतकी घटनाएं रूकने का नाम नहीं ले रही हैं। 1993 से 2011 तक मुंबई बई पर पांच बार आंतकी हमले हुए हैं और इनमें लगभग मृतकों की संख्या लगभग 1658 और घायलों का आंकड़ा 700 के करीब है। गौरतलब है कि पिछले एक दशक में देश भर में हुये आंतकी हमलों में मृतकों और घायलों का आंकड़ा हजारों में है।

असल में समस्या हमारे तंत्र और व्यवस्था की भी है। 8 दिसंबर 1989 को तत्कालीन गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की पुत्री डा0 रूबिया सईद का जम्मू कश्मीर लिबरेसन फ्रंट के आंतकियों ने अपहरण कर लिया था। रूबिया को अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुड़ाने के लिए तत्कालीन वीपी सिंह की सरकार ने पांच हार्ड कोर आंतकवादियों शेख अब्दुल हमीद, गुलाम नबी भट्ट, नूर मुहम्मद कलवल, मुहम्मद अल्ताम, और जावेद अहमद जरगर को 13 दिसंबर को आजाद किया था। इसी कड़ी में 24 दिसम्बर 1999 को इंडियन एयरलाइन्स के विमान आई सी 814को जिस तरह अपहरण करके कांधार ले जाया गया और जिस तरह सरकार ने हाई प्रोफाइल तीन आंतकवादियों मुषताक अहमद जरगर, अहमद उमर सैयद शेख और मौलाना मसूद अजहर को रिहा करके अपहरणकर्ताओं के समक्ष घुटने टेके उससे भारत के सॉफ्ट स्टेट होने का संदेश संपूर्ण विश्व में गया था।

दरअसल जब देश की आंतरिक सुरक्षा और जान-माल से जुड़े गंभीर मसले पर राजनीतिक दल और नेता रोटिया सेंकना और दहशतगर्दों के खिलाफ सख्त या कड़ी कानूनी कार्यवाही करने में हीला हवाली करना राजनीतिक इच्छाशक्ति और सरकार की नीति और नीयत में खोट को सिद्व करता है।

विश्व भर में इस्लाम के अलावा भी अनेक धर्मों और संप्रदायों का नाम आंतक से जुड़ा है,लेकिन हमारे यहां सबकुछ जानते समझते हुये भी आंतक को किसी धर्म या संप्रदाय से जोड़ना राजनीतिक दलों का कुचक्र और सत्ता हासिल करने का घटिया रास्ता है। बयानबाजी करके हमारे नेता चाहे जितना दहाड़े लेकिन हमारे कागजी शेर नेता वोट बैंक की राजनीति के कारण देश की आंतरिक सुरक्षा और जान-माल से खिलवाड़ कर रहे हैं।

हर बार की तरह इस बार भी बयानबाजी,हल्ला-गुल्ला,गहमागहमी और मुआवजे आदि की फौरी कार्यवाही के अलावा कुछ नया होने वाला नहीं है। असल मे हमारे यहां आंतक को सरकार और सरकारी अमले ने एक खास समुदाय से जोड़कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली है। आम भारतवासी को तो रोजी-रोटी के फेर से ही फुर्सत नहीं है ऐसे में उसके पास किसी पर आरोप लगाने या फिर उंगली उठाने का वक्त ही नहीं है।

हमारे यहां राजनीतिक दल और नेताओं ने सत्ता सुख के लिए आंतकवाद को जाति और संप्रदाय से जोड़कर आंतक पर प्रभावी और सख्त कार्यवाही से परोक्ष व अपरोक्ष रूप में रोड़े अटकाए हैं। सीमापार से होने वाले आंतकवाद हो या फिर देश में फलते-फूलते आंतक पर प्रभावी रोक और कार्यवाही तभी लग सकती है जब राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल धर्म,जात और संप्रदाय की संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर देंखेगे।

मौजुदा समय में आंतकवाद की समस्या से विश्व के कई राष्ट्र ग्रस्त हैं। यह एक वैष्विक समस्या है जो दिनों दिन बदतर रूप लेती जा रही है। यद्यपि आंतकवाद की कोई सर्वमान्य व्याख्या दे पाना मुष्किल है। जिसक एक देश या किसी समाज द्वारा आंतकवादी का दर्जा दिया जाता है,उन्हें ही किसी अन्य देष या समाज में महानायक का दर्जा प्राप्त हो सकता है। आंतकवाद की उत्पति में कई कारणों यथा ऐतिहासिक, राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक कारकों का मुख्य योगदान है। दुनियाभर में हथियारों की सुलभ उपलब्धता, धन की पर्याप्त आपूर्ति, सैन्य प्रषिक्षण की वजह से आंतकवादियों का गहरा संजाल विकसित हो गया है। पिछले दो दशकों से आंतकवादी हिंसा की घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्वि हुई है। कई सरकारों द्वारा आंतकवाद की चुनौती को स्वीकार करने पर उसे रोकने की मंषा के बावजूद, यह समस्या दिन प्रतिदिन जटिल एवं घातक होती जा रही है। भारत में ये समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है।

अफसोस जनक पहलू यह है कि मुंबई में हुये सीरियल ब्लास्ट के बाद एक बार फिर राजनीतिक दलों की बयानबाजी का दौर शुरू हो गया है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यह बयान देकर कि ‘सभी हमलों को रोक पाना मुमकिन नहीं है। देश में 99 फीसदी आंतकी हमले रोक लिए गए है। ऐसा खुफिया तंत्र में सुधार की वजह से हुआ है। लेकिन सभी हमले रोक पाना मुश्किल है।’ राहुल के इस बयान ने आंतक से प्रभावितों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है।

वहीं गृहमंत्री चिंदबरम ने जो कुछ भी मुंबई में मीडिया के समक्ष कहा वो भी देशभर ने सुना। जब देश का गृहमंत्री यह बयान दे रहा हो कि ‘भारत के हर शहर पर खतरा है’तो आम आदमी का भगवान ही मालिक है। ऐसे में जब जिम्मेदार ओहदों पर बैठे सज्जन बचकानी बयानबाजी और किसी ठोस और सख्त कार्यवाही की उम्मीद करना बेमानी ही होगा।



    स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक.