दस्तावेज बताने की कोशिश करता है कि आरक्षण एक बुर्जुआजी षड़यंत्र है जिसके चलते भारत विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँच सका रहा है! बार-बार इस तथ्य की अनदेखी क्यों की जाती है आरक्षण संघर्ष का एक रूप है और यह दलितों के संघर्ष का परिणाम है...
विष्णु शर्मा
सर्वहारा प्रकाशन के दस्तावेज ‘मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्तियां’ में सार्थक बहस कम और आत्ममुग्ध घोषणा अधिक है. यह दलित आंदोलन को सीधे तौर पर दलित बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की अवसरवादी राजनीति घोषित कर उसके पीछे के सामाजिक कारणों को नकारती है. इस तरह यह उसी ‘फतवेबाजी’ का शिकार हो जाती है, जिसके खिलाफ होने का दावा इस पुस्तिका के शुरू में है.
दलित बुद्धिजीवियों के लिए यह कहते हुए कि ये 'एक बार मुंह खोलते हैं तो चार फतवे जारी हो जाते हैं’ यह किताब खुद इतने फतवे जारी करती है कि तर्क कब कुतर्क और कुतर्क कब गूढ़ अर्थों वाली लाल बुझक्कड़ की पहेली बन जाते हैं, समझना कठिन हो जाता है. खुद को ‘असल’ मार्क्सवादी होने की तमाम घोषणा के बावजूद दलित आंदोलन के सामाजिक कारकों को नज़रअंदाज़ कर दस्तावेज़ वैचारिक खोखलेपन का शानदार सबूत प्रस्तुत करता है. इससे आगे यह इस भूभाग के इतिहास को भी अपनी कल्पना के अनुसार ‘रचने’ की कोशिश करता है, गोया इतिहास इस संगठन की व्यक्तिगत संपत्ति है कि जब मन करे अपने अनुसार इसकी व्याख्या कर दी जाये.
दलित बुद्धिजीवियों के दर्शन को यह किताब हास्यास्पद तौर पर बुर्जुआ दर्शन घोषित करती है, जिसका मतलब यह हो जाता है कि भारत के दलित एक तरह से नव उदयीमान पूंजीपति हैं जो भारतीय सामंतवाद के खिलाफ ‘सारतः’ उसी तरह है जैसा यूरोपी सामंतवाद के खिलाफ ‘फ़्रांसीसी बुर्जुआ दर्शन’ यानी वे इस बात को मानकर चलते हैं कि भारत के दलित वर्ग के पास उत्पादन के संसाधन हैं और अब वह राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष कर रहा है. फ्रांस में इसी तरह का संघर्ष बुर्जुआजी ने किया था. बिना सामाजिक स्थिति पर नज़र डाले इस तरह की प्रस्तावना को प्रकट करना इतिहास के साथ अन्याय है. इस तरह यहाँ उस महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी हो जाती है जिसके फलस्वरूप दलित राजनीति का विकास हुआ. दलित आंदोलन मूलतः उत्पादन के संसाधनों वाले बुर्जुआजी का संघर्ष न होकर उत्पादन के संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष है.
दस्तावेज भारतीय समाज को आदिकाल से ही एक इकाई के रूप में देखने की गंभीर भूल करता है और घोषणा करता है कि ‘यहाँ वर्गीय शोषण के लिए उस हद तक बल प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी जैसी यूनान और रोम में. इसके बदले वर्ण व्यवस्था से काम चल गया (पृष्ठ ९).' भारत केवल मध्य भारत नहीं है, बल्कि यहाँ रेतीले रेगिस्तान और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र भी हैं और मध्यकाल तक यह एक इकाई न होकर अलग-अलग राज्य में बंटा हुआ भूभाग था.
जहाँ तक गुलामी का सवाल है तो यह बात याद कर लेना अच्छा होगा कि बुद्धकालीन और महाभारतकालीन ‘भारत’ में गुलामी ठीक उसी रूप में थी जैसा कि रोम और यूनान में. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ‘प्राकृतिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में थी’ और ‘जमीन उपजाऊ थी’ ऐतिहासिक साक्ष्य प्रमाणित करते हैं गुलामी की व्यवस्था एक लंबे समय तक इस उपमहादीप में स्थापित थी और इसका इतिहास में ठीक वैसा ही असर था जैसा अन्य क्षेत्रों में. वर्ण व्यवस्था गुलामी के विकल्प के रूप में विकसित नहीं हुई, बल्कि इसका आधार ब्राह्मणवादी धार्मिक व्यवस्था थी. रही बात बल प्रयोग न करने की तो ऐतिहासिक साक्ष्य यह प्रमाणित करते हैं कि आदिकाल में उस वर्ग के पास, जिसका विकास दलित वर्ग के रूप में हुआ, उत्पादन से संसाधन थे और बलप्रयोग करके ही उन्हें संसाधनों से वंचित किया गया.
दस्तावेज सामंतवाद को वर्ण व्यवस्था का आधार मानने की जगह वर्ण व्यवस्था को सामंतवाद का आधार मानता है. शुरू में इस बात की घोषणा करने के बावजूद कि ‘मार्क्सवाद हर चीज़, हर परिघटना को उसके देशकाल में अवस्थित करके देखता है’ दस्तावेज भूल जाता है कि विचार का आधार व्यवस्था होती है, न कि व्यवस्था का विचार. मार्क्सवाद को स्वीकार करने के बावजूद सामंतवाद के आधार के तौर पर वर्ण व्यवस्था को देखना अत्यंत स्थूल विश्लेषण है. बिना सामंतवाद के मजबूत आधार के वर्ण व्यवस्था को बरकरार नहीं रखा जा सकता. ठीक उसी तरह जैसा पूंजीवादी आधार के बिना पूंजीवाद को और समाजवादी आधार के बिना समाजवाद को.
और जब दस्तावेज के रचियता को यह समझ आता है कि सामंतवाद ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति की समूची हैसियत उसके जन्म के साथ तय हो जाती है’ (पृष्ठ 10) तो भारत की वर्तमान व्यवस्था को बुर्जुआजी व्यवस्था मानने के पीछे का कारण क्या है? भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था क्या एक अर्धसामंती राज्य नहीं है? यदि दस्तावेज के प्रस्तावना को ठीक कह कर स्वीकार कर लिया जाए कि भारत एक पूंजीवादी राज्य है (पृष्ठ 4) तो फिर यह भी स्वीकार कर लेना ही पड़ेगा कि जाति, जिसका आधार सामंतवाद है, भी खत्म हो गई है. सच्चाई कुछ और ही बयां करती है.
दस्तावेज की और एक कमी है बिना आधार के स्वीकार करना कि ‘आरक्षण के माध्यम से शासक वर्ग संपत्ति की व्यवस्था में कोई आमूल-चूल परिवर्तन किये बिना अपने आधार का विस्तार करता है और अपने खिलाफ शोषितों के असंतोष को विस्फोटक स्थिति तक जाने से रोकता है’ (पृष्ठ 5). यह उसी तरह का भौंडा तर्क है जो मार्क्स के समय वह लोग देते थे जो कहते थे कि यदि मजदूर वर्ग अधिक मजदूरी की मांग करेगा तो महंगाई बढ़ेगी. दस्तावेज यह क्यों नहीं देख पाता कि दलित बुद्धिजीवियों के विकास में आरक्षण का महत्वपूर्ण योगदान है. यह सच है कि यह सम्पत्ति संबंधों पर परिवर्तन नहीं करता, लेकिन यह यह भी सही है कि यह सामाजिक संपत्ति में हिस्सेदारी को व्यापक बनाता है.
दस्तावेज को पढ़ने से पता चलता है कि अपनी तमाम बड़ी घोषणा के बावजूद ये मार्क्सवादी भी भारत के सभी मार्क्सवादियों की तरह क्रांति की आशा बुर्जुआजी से करते हैं. वे चाहते हैं कि बुर्जुआजी बिना कुछ किये बैठा रहे और स्थिति को विस्फोटक हो जाने दे, ताकि ये सब मिलकर क्रांति कर लें. क्रांति के बारे में जाने वाले लोग समझते हैं कि विस्फोटक स्थिति बनती नहीं है, बल्कि वर्ग संघर्ष के जरिये बनाई जाती है. क्या मार्क्सवाद इतना लचर है कि वह विस्फोटक स्थिति का इंतज़ार करे न कि उसका निर्माण. और यदि विस्फोटक स्थिति स्वत: निर्मित होती है तो मार्क्सवादी पार्टी की जरूरत क्या है? क्या एक क्रांतिकारी पार्टी का पहला काम स्थिति को विस्फोटक बनाना नहीं होना चाहिए?
दस्तावेज बताने की कोशिश करता है कि आरक्षण एक बुर्जुआजी षड़यंत्र है जिसके चलते भारत विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँच सका रहा है! बार-बार इस तथ्य की अनदेखी क्यों की जाती है आरक्षण संघर्ष का एक रूप है और यह दलितों के संघर्ष का परिणाम है. बिना संघर्ष के क्या आरक्षण को हासिल किया जा सकता है? और आगे बढ़कर कहें तो क्या बिना संघर्ष के आरक्षण को बचाया जा सकता है?
इसलिए दलित विमर्श को बुर्जुआजी दर्शन कहकर नकारना उसे समझने की भूल है. भारतीय समाज में दलित विमर्श की उत्पत्ति सामंतवाद के खिलाफ तो है, लेकिन यह बुर्जुआजी दर्शन से उस रूप में अलग है जब वह समाज में बराबरी की बात करता है. सामाजिक और आर्थिक बराबरी को अलग-अलग करके देखना मार्क्सवाद की समझ में बुनियादी गलती है, जबकि मार्क्सवाद अंततः सामाजिक बराबरी का दर्शन है जिसका उत्कर्ष आर्थिक बराबरी में होगा. इतिहास में जितनी भी समाजवादी सत्ताओं का जन्म हुआ (मुख्यतः रूस और चीन में) वहां पहले सामाजिक बराबरी ही स्थापित हुई थी. इसलिए दलित राजनीति का विकास समाजवादी राजनीति के विकास के खिलाफ न होकर उसका आधार निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. आत्मनिर्णय के सिद्धांत की लेनिनवादी मान्यता के अनुसार एक देश के सर्वहारा को सबसे पहले विश्वभर के सर्वहारा को बराबरी से देखना होगा. यानी लेनिन भी सामाजिक बराबरी को आर्थिक बराबरी के पहले के चरण के रूप में ही देखते हैं, न कि इसके उलट.
जब दलित चिन्तक जाति व्यवस्था को ब्राह्मण का षड़यंत्र बताते हैं तो इसका अर्थ होता है सत्ता का षड़यंत्र, क्योंकि सत्ता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर उनके पास ही रही है. दलित राजनीति सामाजिक बराबरी के लिए ही अस्तित्व में आ सकती है, क्योंकि दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में हम देख सकते हैं कि आर्थिक बराबरी सामाजिक बराबरी का आधार तो है, परन्तु यह उसका मूल स्वभाव नहीं है. इस तरह उनका संघर्ष दो चरणों में सामने आता है -आर्थिक और सामाजिक.
सामाजिक बराबरी का उनका संघर्ष आर्थिक बराबरी के संघर्ष के साथ और कई मामलों में इससे पहले प्रकट होता है. इसका कारण है अभी संसदीय राजनीति में इसकी संभावना पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. ऐसे क्षेत्रों में जहाँ इससे सकारात्मक परिणाम की अब कोई संभावना नहीं है (आदिवासी क्षेत्रों में), वहां यह सशस्त्र संघर्ष के रूप में विकसित हो चुका है. यह दलित राजनीति का भविष्य भी है, क्योंकि सामाजिक बराबरी के लिए संघर्ष का विकास अंततः आर्थिक बराबरी के संघर्ष के रूप में विकसित होगा और ठीक यहीं से यह संसदीय राजनीति से ऊपर उठ जायेगा.
यदि आन्दोलन के इस रूप को पीछे धकेलकर सीधे अर्थ केंद्रित आंदोलन पर केंद्रित कर दिया जाये तो इसका असर मूलतः नुकसानदायक होगा. दलित आंदोलन को केवल बुद्धिजीवी ‘षड़यंत्र’ बताकर इसके प्रगतिशील प्रस्तावना को छोड देना वैचारिक स्तर पर आत्मघाती है.
लेकिन सवाल इससे अधिक का है, वह यह कि कौन किसे जोड़ेगा? क्या मजदूर वर्ग दलित को अपने साथ लेकर क्रांति करेगा या दलित मजदूर को अपने साथ लेकर भारतीय क्रांति को पूरा करेगा? या जिसे सर्वहारा माना जा रहा है वह दलित है? क्योंकि भारतीय सन्दर्भ में सर्वहारा की परिभाषा के सबसे नजदीक दलित ही हो सकता है. इसलिए इस मायने में दलित वह शक्ति है जो इस उपमहादीप में क्रांति को अपने अंतिम चरण तक ले जा सकती है.
दस्तावेज मानता है कि अंग्रेजी शासन के कारण भारत में पूंजीवाद का उदय हुआ, जबकि तथ्य बताते हैं कि अंग्रेजी शासन ने न केवल टूटते सामंती समाज को जीवनदान दिया, बल्कि कई अवसरों में तो स्थापित किया और इसी के परिणामस्वरुप आज यह व्यवस्था बनी हुई है. खुद मार्क्स ने भारत के बारे में लिखा है कि कच्चे माल को इंग्लैंड निर्यात कर और वहां के कारखानों में निर्मित सस्ते माल से भारतीय बाज़ार को भरकर अंग्रेजी शासन ने शुरू से ही यहाँ विकसित होते पूंजीवाद को रोकने का प्रयास किया. दस्तावेज एक ‘फ़तवा’ देकर भारत को पूंजीवादी देश घोषित कर देता है और कहीं भी यह बताने का प्रयास नहीं करता कि क्यों यह पूंजीवादी देश है न कि सामंतवादी जबकि भारत के सामाजिक ढांचे के बारे में जो कुछ भी, कम ज्यादा दस्तावेज में लिखा है उससे तो भारत पूंजीवादी कम और सामंतवादी देश अधिक दिखाई देता है. जबकि दस्तावेज में साफ़ लिखा है कि मार्क्सवाद ‘उन दलितों की मुक्ति का दर्शन है जो सर्वहारा बन चुके हैं... मार्क्सवाद उन दलितों को अपना दुश्मन मानता है जो बुर्जुआ बन चुके हैं (पृष्ठ 17).'
यहाँ सवाल है कि दलित सर्वहारा कैसे बनेगा? क्या आदिकाल से ही जबसे दलित वर्ग का उदय हुआ है दलित सर्वहारा नहीं है? उसके पास ऐसा क्या था जिसके न होने पर ही वह सर्वहारा बन जायेगा? यदि उत्पादन के संसाधन न होने पर कोई सर्वहारा कहलाता है तो भारत के दलित यकीनी तौर पर सर्वहारा हैं और भारत के सर्वहारा दलित. क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि भारत में सर्वहारा को दलित कहा जाये? यदि दस्तावेज लिखने वालों को ऐसा कहने में ‘संकोच’ है तो इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि वे भी जातिवाद के शिकार हैं. भारत में दलित ही ऐसा वर्ग है जो सर्वहारा की मार्क्सवादी परिभाषा में सही उतरता है.
दस्तावेज में आंबेडकरवादी चिंतकों पर ‘आरोप’ लगाया गया है कि उन्होंने जमीन जब्त करने, उसे पुनर्वितरण करने, किसानों और मेहनतकश जनता के सभी कर्ज को रद्द करने जैसी क्रांतिकारी योजना कभी प्रस्तुत नहीं की. लेकिन क्या लिखते वक्त कभी यह गौर किया गया कि संवैधानिक दायरे में रहकर आंबेडकरवादी चिन्तक ऐसा कर सकते हैं. उनके संवैधानिक आंदोलन से इस तरह कि आशा करना क्या बचकानी बात नहीं है. पहले यह तय कर लेना जरूरी है कि किस तरह के आंदोलन से क्या अपेक्षा की जाये. कोई अपने जूते में दूसरों का पैर डालने की कोशिश करे और साथ में यह भी कहता रहे कि पैर की गलती है कि वह अंदर नहीं जा रहा तो ऐसे में उसे क्या समझा जाए. आंबेडकरवादी चिंतकों को उनकी सीमा में समझने की जगह उन्हें अपने ढांचे में ठूस देना सैधांतिक दरिद्रता है.
दस्तावेज पढ़ने पर एक बार लगता है कि इसके प्रस्तावकों को मार्क्सवाद पर कम विश्वास है और ये दलित चिन्तक से अधिक डरे हुए हैं.
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