Jul 29, 2011

दलित चिंतकों से डरते क्यों हैं मार्क्सवादी ?

दस्तावेज बताने की कोशिश करता है कि आरक्षण एक बुर्जुआजी षड़यंत्र है जिसके चलते भारत विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँच सका रहा है! बार-बार इस तथ्य की अनदेखी क्यों की जाती है आरक्षण संघर्ष का एक रूप है और यह दलितों के संघर्ष का परिणाम है...

विष्णु शर्मा

सर्वहारा प्रकाशन के दस्तावेज ‘मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्तियां’ में सार्थक बहस कम और आत्ममुग्ध घोषणा अधिक है. यह दलित आंदोलन को सीधे तौर पर दलित बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की अवसरवादी राजनीति घोषित कर उसके पीछे के सामाजिक कारणों को नकारती है. इस तरह यह उसी ‘फतवेबाजी’ का शिकार हो जाती है, जिसके खिलाफ होने का दावा इस पुस्तिका के शुरू में है.
दलित बुद्धिजीवियों के लिए यह कहते हुए कि ये 'एक बार मुंह खोलते हैं तो चार फतवे जारी हो जाते हैं’ यह किताब खुद इतने फतवे जारी करती है कि तर्क कब कुतर्क और कुतर्क कब गूढ़ अर्थों वाली लाल बुझक्कड़ की पहेली बन जाते हैं, समझना कठिन हो जाता है. खुद को ‘असल’ मार्क्सवादी होने की तमाम घोषणा के बावजूद दलित आंदोलन के सामाजिक कारकों को नज़रअंदाज़ कर दस्तावेज़ वैचारिक खोखलेपन का शानदार सबूत प्रस्तुत करता है. इससे आगे यह इस भूभाग के इतिहास को भी अपनी कल्पना के अनुसार ‘रचने’ की कोशिश करता है, गोया इतिहास इस संगठन की व्यक्तिगत संपत्ति है कि जब मन करे अपने अनुसार इसकी व्याख्या कर दी जाये.
दलित बुद्धिजीवियों के दर्शन को यह किताब हास्यास्पद तौर पर बुर्जुआ दर्शन घोषित करती है, जिसका मतलब यह हो जाता है कि भारत के दलित एक तरह से नव उदयीमान पूंजीपति हैं जो भारतीय सामंतवाद के खिलाफ ‘सारतः’ उसी तरह है जैसा यूरोपी सामंतवाद के खिलाफ ‘फ़्रांसीसी बुर्जुआ दर्शन’ यानी वे इस बात को मानकर चलते हैं कि भारत के दलित वर्ग के पास उत्पादन के संसाधन हैं और अब वह राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष कर रहा है. फ्रांस में इसी तरह का संघर्ष बुर्जुआजी ने किया था. बिना सामाजिक स्थिति पर नज़र डाले इस तरह की प्रस्तावना को प्रकट करना इतिहास के साथ अन्याय है. इस तरह यहाँ उस महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी हो जाती है जिसके फलस्वरूप दलित राजनीति का विकास हुआ.  दलित आंदोलन मूलतः उत्पादन के संसाधनों वाले बुर्जुआजी का संघर्ष न होकर उत्पादन के संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष है.
दस्तावेज भारतीय समाज को आदिकाल  से ही एक इकाई के रूप में देखने की गंभीर भूल करता है और घोषणा करता है कि ‘यहाँ वर्गीय शोषण के लिए उस हद तक बल प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी जैसी यूनान और रोम में. इसके बदले वर्ण व्यवस्था से काम चल गया (पृष्ठ ९).' भारत केवल मध्य भारत नहीं है, बल्कि यहाँ रेतीले रेगिस्तान और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र भी हैं और मध्यकाल तक यह एक इकाई न होकर अलग-अलग राज्य में बंटा हुआ भूभाग था.
जहाँ तक गुलामी का सवाल है तो यह बात याद कर लेना अच्छा होगा कि बुद्धकालीन और महाभारतकालीन ‘भारत’ में गुलामी ठीक उसी रूप में थी जैसा कि रोम और यूनान में. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ‘प्राकृतिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में थी’ और ‘जमीन उपजाऊ थी’ ऐतिहासिक साक्ष्य प्रमाणित करते हैं गुलामी की व्यवस्था एक लंबे समय तक इस उपमहादीप में स्थापित थी और इसका इतिहास में ठीक वैसा ही असर था जैसा अन्य क्षेत्रों में. वर्ण व्यवस्था गुलामी के विकल्प के रूप में विकसित नहीं हुई, बल्कि इसका आधार ब्राह्मणवादी धार्मिक व्यवस्था थी. रही बात बल प्रयोग न करने की तो ऐतिहासिक साक्ष्य यह प्रमाणित करते हैं कि आदिकाल में उस वर्ग के पास, जिसका विकास दलित वर्ग के रूप में हुआ, उत्पादन से संसाधन थे और बलप्रयोग करके ही उन्हें संसाधनों से वंचित किया गया.
दस्तावेज सामंतवाद को वर्ण व्यवस्था का आधार मानने की जगह वर्ण व्यवस्था को सामंतवाद का आधार मानता है. शुरू में इस बात की घोषणा करने के बावजूद कि ‘मार्क्सवाद हर चीज़, हर परिघटना को उसके देशकाल में अवस्थित करके देखता है’ दस्तावेज भूल जाता है कि विचार का आधार व्यवस्था होती है, न कि व्यवस्था का विचार. मार्क्सवाद को स्वीकार करने के बावजूद सामंतवाद के आधार के तौर पर वर्ण व्यवस्था को देखना अत्यंत स्थूल विश्लेषण है. बिना सामंतवाद के मजबूत आधार के वर्ण व्यवस्था को बरकरार नहीं रखा जा सकता. ठीक उसी तरह जैसा पूंजीवादी आधार के बिना पूंजीवाद को और समाजवादी आधार के बिना समाजवाद को.
और जब दस्तावेज के रचियता को यह समझ आता है कि सामंतवाद ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति की समूची हैसियत उसके जन्म के साथ तय हो जाती है’ (पृष्ठ 10) तो भारत की वर्तमान व्यवस्था को बुर्जुआजी व्यवस्था मानने के पीछे का कारण क्या है? भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था क्या एक अर्धसामंती राज्य नहीं है? यदि दस्तावेज के प्रस्तावना को ठीक कह कर स्वीकार कर लिया जाए कि भारत एक पूंजीवादी राज्य है (पृष्ठ 4) तो फिर यह भी स्वीकार कर लेना ही पड़ेगा कि जाति, जिसका आधार सामंतवाद है, भी खत्म हो गई है. सच्चाई कुछ और ही बयां करती है.   
दस्तावेज की और एक कमी है बिना आधार के स्वीकार करना कि ‘आरक्षण के माध्यम से शासक वर्ग संपत्ति की व्यवस्था में कोई आमूल-चूल परिवर्तन किये बिना अपने आधार का विस्तार करता है और अपने खिलाफ शोषितों के असंतोष को विस्फोटक स्थिति तक जाने से रोकता है’ (पृष्ठ 5). यह उसी तरह का भौंडा तर्क है जो मार्क्स के समय वह लोग देते थे जो कहते थे कि यदि मजदूर वर्ग अधिक मजदूरी की मांग करेगा तो महंगाई बढ़ेगी. दस्तावेज यह क्यों नहीं देख पाता कि दलित बुद्धिजीवियों के विकास में आरक्षण का महत्वपूर्ण योगदान है. यह सच है कि यह सम्पत्ति संबंधों पर परिवर्तन नहीं करता, लेकिन यह यह भी सही है कि यह सामाजिक संपत्ति में हिस्सेदारी को व्यापक बनाता है.
दस्तावेज को पढ़ने से पता चलता है कि अपनी तमाम बड़ी घोषणा के बावजूद ये मार्क्सवादी भी भारत के सभी मार्क्सवादियों की तरह क्रांति की आशा बुर्जुआजी से करते हैं. वे चाहते हैं कि बुर्जुआजी बिना कुछ किये बैठा रहे और स्थिति को विस्फोटक हो जाने दे, ताकि ये सब मिलकर क्रांति कर लें. क्रांति के बारे में जाने वाले लोग समझते हैं कि विस्फोटक स्थिति बनती नहीं है, बल्कि वर्ग संघर्ष के जरिये बनाई जाती है. क्या मार्क्सवाद इतना लचर है कि वह विस्फोटक स्थिति का इंतज़ार करे न कि उसका निर्माण. और यदि विस्फोटक स्थिति स्वत: निर्मित होती है तो मार्क्सवादी पार्टी की जरूरत क्या है? क्या एक क्रांतिकारी पार्टी का पहला काम स्थिति को विस्फोटक बनाना नहीं होना चाहिए?
दस्तावेज बताने की कोशिश करता है कि आरक्षण एक बुर्जुआजी षड़यंत्र है जिसके चलते भारत विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँच सका रहा है! बार-बार इस तथ्य की अनदेखी क्यों की जाती है आरक्षण संघर्ष का एक रूप है और यह दलितों के संघर्ष का परिणाम है. बिना संघर्ष के क्या आरक्षण को हासिल किया जा सकता है? और आगे बढ़कर कहें तो क्या बिना संघर्ष के आरक्षण को बचाया जा सकता है?
इसलिए दलित विमर्श को बुर्जुआजी दर्शन कहकर नकारना उसे समझने की भूल है. भारतीय समाज में दलित विमर्श की उत्पत्ति सामंतवाद के खिलाफ तो है, लेकिन यह बुर्जुआजी दर्शन से उस रूप में अलग है जब वह समाज में बराबरी की बात करता है. सामाजिक और आर्थिक बराबरी को अलग-अलग करके देखना मार्क्सवाद की समझ में बुनियादी गलती है, जबकि मार्क्सवाद अंततः सामाजिक बराबरी का दर्शन है जिसका उत्कर्ष आर्थिक बराबरी में होगा. इतिहास में जितनी भी समाजवादी सत्ताओं का जन्म हुआ (मुख्यतः रूस और चीन में) वहां पहले सामाजिक बराबरी ही स्थापित हुई थी. इसलिए दलित राजनीति का विकास समाजवादी राजनीति के विकास के खिलाफ न होकर उसका आधार निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. आत्मनिर्णय के सिद्धांत की लेनिनवादी मान्यता के अनुसार एक देश के सर्वहारा को सबसे पहले विश्वभर के सर्वहारा को बराबरी से देखना होगा. यानी लेनिन भी सामाजिक बराबरी को आर्थिक बराबरी के पहले के चरण के रूप में ही देखते हैं, न कि इसके उलट. 
जब दलित चिन्तक जाति व्यवस्था को ब्राह्मण का षड़यंत्र बताते हैं तो इसका अर्थ होता है सत्ता का षड़यंत्र, क्योंकि सत्ता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर उनके पास ही रही है. दलित राजनीति सामाजिक बराबरी के लिए ही अस्तित्व में आ सकती है, क्योंकि दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में हम देख सकते हैं कि आर्थिक बराबरी सामाजिक बराबरी का आधार तो है, परन्तु यह उसका मूल स्वभाव नहीं है. इस तरह उनका संघर्ष दो चरणों में सामने आता है -आर्थिक और सामाजिक.
सामाजिक बराबरी का उनका संघर्ष आर्थिक बराबरी के संघर्ष के साथ और कई मामलों में इससे पहले प्रकट होता है. इसका कारण है अभी संसदीय राजनीति में इसकी संभावना पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. ऐसे क्षेत्रों में जहाँ इससे सकारात्मक परिणाम की अब कोई संभावना नहीं है (आदिवासी क्षेत्रों में), वहां यह सशस्त्र संघर्ष के रूप में विकसित हो चुका है. यह दलित राजनीति का भविष्य भी है, क्योंकि सामाजिक बराबरी के लिए संघर्ष का विकास अंततः आर्थिक बराबरी के संघर्ष के रूप में विकसित होगा और ठीक यहीं से यह संसदीय राजनीति से ऊपर उठ जायेगा.
यदि आन्दोलन के इस रूप को पीछे धकेलकर सीधे अर्थ केंद्रित आंदोलन पर केंद्रित कर दिया जाये तो इसका असर मूलतः नुकसानदायक होगा. दलित आंदोलन को केवल बुद्धिजीवी ‘षड़यंत्र’ बताकर इसके प्रगतिशील प्रस्तावना को छोड देना वैचारिक स्तर पर आत्मघाती है.
लेकिन सवाल इससे अधिक का है, वह यह कि कौन किसे जोड़ेगा? क्या मजदूर वर्ग दलित को अपने साथ लेकर क्रांति करेगा या दलित मजदूर को अपने साथ लेकर भारतीय क्रांति को पूरा करेगा? या जिसे सर्वहारा माना जा रहा है वह दलित है? क्योंकि भारतीय सन्दर्भ में सर्वहारा की परिभाषा के सबसे नजदीक दलित ही हो सकता है. इसलिए इस मायने में दलित वह शक्ति है जो इस उपमहादीप में क्रांति को अपने अंतिम चरण तक ले जा सकती है.
दस्तावेज मानता है कि अंग्रेजी शासन के कारण भारत में पूंजीवाद का उदय हुआ, जबकि तथ्य बताते हैं कि अंग्रेजी शासन ने न केवल टूटते सामंती समाज को जीवनदान दिया, बल्कि कई अवसरों में तो स्थापित किया और इसी के परिणामस्वरुप आज यह व्यवस्था बनी हुई है.  खुद मार्क्स ने भारत के बारे में लिखा है कि कच्चे माल को इंग्लैंड निर्यात कर और वहां के कारखानों में निर्मित सस्ते माल से भारतीय बाज़ार को भरकर अंग्रेजी शासन ने शुरू से ही यहाँ विकसित होते पूंजीवाद को रोकने का प्रयास किया. दस्तावेज एक ‘फ़तवा’ देकर भारत को पूंजीवादी देश घोषित कर देता है और कहीं भी यह बताने का प्रयास नहीं करता कि क्यों यह पूंजीवादी देश है न कि सामंतवादी जबकि भारत के सामाजिक ढांचे के बारे में जो कुछ भी, कम ज्यादा दस्तावेज में लिखा है उससे तो भारत पूंजीवादी कम और सामंतवादी देश अधिक दिखाई देता है. जबकि दस्तावेज में साफ़ लिखा है कि मार्क्सवाद ‘उन दलितों की मुक्ति का दर्शन है जो सर्वहारा बन चुके हैं... मार्क्सवाद उन दलितों को अपना दुश्मन मानता है जो बुर्जुआ बन चुके हैं (पृष्ठ 17).'
यहाँ सवाल है कि दलित सर्वहारा कैसे बनेगा? क्या आदिकाल से ही जबसे दलित वर्ग का उदय हुआ है दलित सर्वहारा नहीं है? उसके पास ऐसा क्या था जिसके न होने पर ही वह सर्वहारा बन जायेगा? यदि उत्पादन के संसाधन न होने पर कोई सर्वहारा कहलाता है तो भारत के दलित यकीनी तौर पर सर्वहारा हैं और भारत के सर्वहारा दलित. क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि भारत में सर्वहारा को दलित कहा जाये? यदि दस्तावेज लिखने वालों को ऐसा कहने में ‘संकोच’ है तो इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि वे भी जातिवाद के शिकार हैं. भारत में दलित ही ऐसा वर्ग है जो सर्वहारा की मार्क्सवादी परिभाषा में सही उतरता है.
दस्तावेज में आंबेडकरवादी चिंतकों पर ‘आरोप’ लगाया गया है कि उन्होंने जमीन जब्त करने, उसे पुनर्वितरण करने, किसानों और मेहनतकश जनता के सभी कर्ज को रद्द करने जैसी क्रांतिकारी योजना कभी प्रस्तुत नहीं की. लेकिन क्या लिखते वक्त कभी यह गौर किया गया कि संवैधानिक दायरे में रहकर आंबेडकरवादी चिन्तक ऐसा कर सकते हैं. उनके संवैधानिक आंदोलन से इस तरह कि आशा करना क्या बचकानी बात नहीं है. पहले यह तय कर लेना जरूरी है कि किस तरह के आंदोलन से क्या अपेक्षा की जाये. कोई अपने जूते में दूसरों का पैर डालने की कोशिश करे और साथ में यह भी कहता रहे कि पैर की गलती है कि वह अंदर नहीं जा रहा तो ऐसे में उसे क्या समझा जाए. आंबेडकरवादी चिंतकों को उनकी सीमा में समझने की जगह उन्हें अपने ढांचे में ठूस देना सैधांतिक दरिद्रता है.
दस्तावेज पढ़ने पर एक बार लगता है कि इसके प्रस्तावकों को मार्क्सवाद पर कम विश्वास है और ये दलित चिन्तक से अधिक डरे हुए हैं.

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जेपी नरेला

सर्वहारा प्रकाशन ने पिछले दिनों मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्ति के नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित की,जिसको लेकर यहाँ बहस आमंत्रित की गयी है.इस पुस्तिका को पढने के बाद मेरे मन में कई सवाल उठे.उन सवालों के  मद्देनजर मैं यहाँ अपने मत व्यक्त कर रहा हूँ...
  • पुस्तिका में लिखा है,‘आज अपने देश में बहुत सारे लोग जो खुद को मार्क्सवाद के समर्थक या मार्क्सवाद से सहानुभूति रखने वाले कहते हैं,वे मार्क्सवाद की जड़ खोदने में लगे हुए हैं...’

यह बात तो सही है,लेकिन आपके पास सही मार्क्सवादी होने का कौन सा प्रमाण है,अभी तो इस मुल्क में पिछले कई दशकों में कोई बड़ा सामाजिक प्रयोग भी नहीं हुआ है. क्या आप भी उसी श्रेणी में तो नहीं आते जिन्होंने मार्क्सवाद को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन उसकी (मार्क्सवादी दर्शन द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद की) आंखें धुंधली हैं. उन्हें नहीं पता है कि भारतीय क्रांति का सम्पूर्ण कार्यक्रम का सही लेखा-जोखा क्या है?उसका रास्ता कौन सा है?

क्या आप यह काम कर पाए,यदि नहीं तो आप यह दावा कैसे कर सकते हैं कि बाकी दुनिया में नकली मार्क्सवादी हैं और आप असली हैं?यह बात केवल बातों से नहीं बल्कि भारतीय जनता के तमाम शोषित, उत्पीड़ित हिस्सों की लड़ाइयों और आप के नेतृत्व से ही स्थापित हो पाएगी.तब तक आप अपने और दूसरे मार्क्सवादियों के लिए इस डिग्री के संबंध में देखें -परखें  का रास्ता अपनाए तो ज्यादा बेहतर होगा.खुद को पाक-साफ घोषित करने से कोई पाक-साफ नहीं हो जाता है.इससे व्यक्तिवाद का खतरा बढ़ता है.आप कहां-कहां पर मार्क्सवाद को खारिज करते जा रहे हैं,इसका आपको अंदाज भी नहीं है.

  • आप लिखते हैं,‘...हम सारे दलित बुद्धिजीवियों को चुनौती देते हैं कि वे आज के अपने ज्ञान के आधार पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास पर दो पृष्ठ की रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखाएं... हम इन्हें चुनौती देते हैं कि केवल जाति के मुद्दे पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में जो अलग-अलग सोच मौजूद रही है, वे उसकी ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखाएं.’
कौन दलित बुद्धिजीवी आपकी बात सुन रहा है और आपके कहने से वे भारत में कम्युनिस्ट के इतिहास की दो पृष्ठ की रूपरेखा लिखकर दिखाएगा.आपकी कूवत क्या है? पूरे भारतीय समाज में और सामाजिक आंदोलनों में और जाति के सवाल पर आप आज कहां खड़े हैं, इसका आकलन यदि आप करेंगे तो आपका सारा दंभ निकल जाएगा,जो मार्क्सवाद की चार किताबें पढ़ लेने भर से पैदा हो गया है.यह आपके लेखन में भी दिख रहा है.जाति के सवाल पर आपकी समझ भी क्या है? इसका आपको अंदाजा नहीं है,इस सच्चाई को आप छू भी नहीं पाए हैं.इसके लिए कार्यक्रम के निर्माण की तो आप बात ही छोड़ दीजिए.

मैं यह पहले ही साफ कर देना चाहता हूँ कि न तो मैं कोई दलित बुद्धिजीवी हूं और न उनका समर्थक. मैं सिर्फ समस्याओं को मार्क्सवादी द्रष्टिकोण से पढ़ने और समझने का प्रयास कर रहा हूं. मैं आपके इस घमंड और व्यक्तिवादी नजरिए का घोर विरोधी हूं. आपके लेखन से जो झलक रहा है, वह अपने आप में कोई मार्क्सवादी नजरिया नहीं है. मार्क्सवाद सर्वहारा की मुक्ति का दर्शन है और केवल आप ही उसके वाहक हैं, यह हम कैसे मान लें?

  • ‘...डीडी कोसाम्बी, रामशरण शर्मा, रोमिला थापर, इरफान हबीब और सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार इसका जवाब देते हैं.जरा इनके जवाब की तुलना आंबेडकर की रचनाओं से करें, आपको अंतर तुरंत पचा चल जाएगा.’
मनुस्मृति का मजबूत भौतिक आधार सामाजिक उत्पादन संबंधों में मौजूद था.मनुस्मृति उसी का अधिरचना में विधान है.इससे मैं भी सहमत नहीं हूं कि महज मनुस्मृति के षड्यंत्र ने भारतीय समाज में जाति पैदा कर दी. हां, इसके बाद मनुस्मृति ने वैचारिक धरातल, उसको खाद-पानी देने का काम बखूबी किया और आज भी कर रहा है.

डीडी कोसाम्बी,रामशरण शर्मा,रोमिला थापर,इरफान हबीब और सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार इसका यही जवाब देते हैं कि जाति व्यवस्था उत्पादन संबंधों में मौजूद रही है.भारतीय समाज में आज भी उसका ठोस भौतिक आधार है इसलिए इतनी मजबूती से यह अधिरचना में भी मौजूद है.इसको समझिए कामरेड.हां,यह बात सही है कि इन सभी इतिहासकारों और डॉक्टर भीमराव आंबडेकर के द्रष्टिकोण में मूलभूत फर्क है,इतिहास को देखने और समझने का नजरिया.

अंबेडकर पूंजीवादी व्यवस्था की सीमाओं में बचते हैं और उनका रास्ता संसदीय जनतंत्र के बाद बंद हो जाता है. यह बात भी सत्य है कि आंबेडकर मार्क्सवादी दर्शन और वैज्ञानिक समाजवाद के चैतन्य तौर पर विरोधी थे. इसलिए उन्होंने राजकीय समाजवाद की कल्पना पेश की, जो अपनी अंतर्वस्तु में पूंजीवादी राज्य है. यह निजी संपत्ति और शोषण की व्यवस्था की गारंटी देता है.

  • ‘...अंग्रेज भारत आए. वे अपने साथ सामंतवाद नहीं पूंजीवाद लाए. भारतीय सामंतवाद इस पूंजीवाद के सामने ठहर नहीं सकता था. वह ठहरा भी नहीं. वह ध्वस्त हो गया और उसी के साथ भारत की हजारों सालों की वर्ण-जाति व्यवस्था ध्वस्त हो गई.आज आर्थिक संबंधों के क्षेत्र में वर्ण-जाति व्यवस्था समाप्त प्राय है...’
कॉमरेड,सूत्रीकरण से आप इस गंभीर समस्या के हल तक नहीं पहुंच सकते.आपको सूत्रीकरण से बाहर आकर आंखें खोलकर देखना होगा.आप कह रहे हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के मुकाबले सामंतवाद टिक नहीं सकता, इसलिए अंग्रेजों ने जैसे ही भारत में पूंजी का विकास किया भारत में जाति व्यवस्था चरमरा गई और बाद में खत्म हो गई.आपको मेरी सलाह है कि शेखचिल्लियों की तरह दिन में सपने देखना छोड़ दें कॉमरेड.

क्या सन 1947में भारतीय राजसत्ता कांग्रेस के हाथ में आने के बाद यहां सामंतवाद खत्म और पूंजीवाद आ गया था.जाति प्रथा खत्म हो गई थी.यानी सामंती उत्पादन समन्वय क्या बुनियादी व प्रमुख तौर पर अस्तित्व में नहीं थे.क्या उसके बाद यहां कोई पूंजीवादी क्रांति हुई?या भारतीय राजसत्ता ने क्या जाति व्यवस्था के ढांचे और उसकी विचारधारा को जान-बूझकर नहीं बनाए रखा? इन सवालों का आपको संपूर्णता में जवाब देना होगा.

  • भारत में भी इस मामले में 1930-40 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम और आंबेडकर के कार्यक्रम की तुलना कर लेना पर्याप्त होगा.इस तरह देखा जाए तो कम्युनिस्ट ही भारत में दलित मुक्ति के सबसे बड़े चैम्पियन रहे हैं.
कम्युनिस्टों ने 1930-40 के दशक में जाति के सवाल पर कौन से राष्ट्रीय आन्दोलन खड़े किए.इसका कोई लिखित इतिहास मिलता नहीं है. यदि आपके पास है तो आप दीजिए, हम देखना चाहेंगे. फिर 50 के दशक से 2011 तक के लंबे अंतराल में क्या कम्युनिस्ट आंदोलन को सांप सूंघ गया था. यहां आप चुप क्यों हैं कॉमरेड? इस अंतराल का भी इतिहास बता दीजिए और जाति के सवाल पर पूरा का पूरा वाम आंदोलन कहां खड़ा है? इसका भी लेखा-जोखा आपको देना चाहिए.

  • ‘...जमींदारों की सारी जमीन को जब्त करना और जमीन जोतने वाले उसूल पर भूमिहीन गरीब किसानों के बीच इसका पुनर्वितरण जाति व्यवस्था को खत्म करना.’
जमीन के बंटवारे का सवाल किसानों के वर्ग की लड़ाई है, न की जाति के सवाल का केंद्रीय एजंडा. दूसरी बात, जाति व्यवस्था को खत्म करना कार्यक्रम में लिखा हुआ है, लेकिन जाति की समस्या के समाधान के लिए क्या कोई कार्यक्रम पेश किया और उसको जनता के विभिन्न हिस्सों में उसे लागू किया? नहीं. यह लिखा हुआ दिखा देने से कोई बात नहीं बनती. उस समय भी दलितों के बीच जो संगठन बने वे वर्गीय संगठन थे, जिनकी आप बात कर रहे हैं. वर्ग और जाति अलग है. आपस में इनका गहरा संबंध भी है.



इसलिए पूरी जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ जाति विरुद्ध संगठनों का निर्माण करना होगा जो टोटल सिस्टम के खिलाफ बनेंगे न कि किसी एक विशेष जाति के खिलाफ. शेष समाज में विभिन्न वर्गों की लड़ाइयों के साथ इसको जोड़ना होगा. इस रूप में यह लड़ाई वर्ग संघर्ष का हिस्सा है.इस काम को छोड़कर आप कहीं भी आगे नहीं जा सकते,न ही किसी व्यापक परिवर्तन या वर्ग संघर्ष की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.यह भी समाज का एक बड़ा हिस्सा है जिसे आप आज दरकिनार किए हुए हैं. इसको एजंडे में लाना होगा. कॉमरेड हमारा आपसे यही कहना है.


'दो पेज भी नहीं लिख सकते दलित बुद्धिजीवी'


किसी भी आंदोलन और संघर्ष के बीच बहस में जाति का प्रश्न  हमारे देश  में हमेशा महत्वपूर्ण होकर उभरता है। ज्यादातर संगठन और पार्टियां इसे सामाजिक और आर्थिक बराबरी में बड़ा रोड़ा मानती हैं। इस रोड़े को खत्म करने के लिए सभी संगठनों-पार्टियों के पास अपने तर्क और दर्शन  हैं। उसी तर्क और दर्शन  के आधार पर वह भारत के जाति आधारित समाज को खत्म करने की कोशिश में लगे  हैं। लेकिन इन कोशिशों  के बीच की सच्चाई यह है कि आधुनिक होते भारतीय समाज का जातिगत स्वरूप और संगठित व संस्थागत हुआ है, जहां नये सृजन के मुल्य भी हैं और सामंती-बर्बर सामाजिक संरचनाएं भी। वैसे में सवाल यह उठता है कि इसके मुकाबले नयी सामाजिक संरचना क्या होगी, उसके कार्यभार क्या होंगे और वह वंचित-शोषित  जातियों के मुक्ति के सवालों पर क्या रास्ता अपनायेगी, जिससे ये जाति समूह उन संघर्षों को अपना मानेंगे। ‘जनज्वार’ जाति के इस जटिल मसले पर सभी पक्षों के सरोकारी बहस को आमंत्रित करता है। दिल्ली के गांधी शान्ति  प्रतिष्ठान  में 24 जुलाई को जाति के सवाल पर आयोजित एक सेमीनार में बांटी गयी सर्वहारा प्रकाशन की एक पुस्तिका का पहला हिस्सा छापकर यहां बहस की शुरूआत की जा रही है। यह पुस्तिका वामपंथी समूह क्रांतिकारी लोकअधिकार संगठन और इंकलाबी मजदूर सभा की ओर से वितरित की गयी थी। - मॉडरेटर



आज अपने देश  में बहुत सारे लोग जो खुद को मार्क्सवादी, मार्क्सवाद के समर्थक या मार्क्सवाद की सहानुभूति रखने वाले कहते हैं वे मार्क्सवाद की जड़ खोदने में लगे हुए हैं। इसके अलावा ऐसे लोगों की भारी तादाद है जो खुद को वंचितों-शोषितों  का मसीहा घोषित  करते हुए,मुक्ति के दर्शन  के तौर पर मार्क्सवाद को खारिज करते हैं। इन्होंने खुद का मुक्ति का दर्शन  गढ़ लिया है।

यह उपभोक्तावादी पूंजीवाद का जमाना है। इसमें हर चीज ‘मॉस’ स्वरूप ग्रहण कर लेती है। इसमें हर चीज को सरलीकृत करके ‘मॉस’के उपभोग के अनुरूप ढाल लिया जाता है और इसके परिणाम स्वरूप हर व्यक्ति हर चीज का विशेषज्ञ  बन बैठता है। वह हर चीज चर चाहे वह कितनी विशिष्ट   और तकनीकी क्यों न हो उस पर मंतव्य देना अपना अधिकार समझ लेता है। जिन क्षेत्रों में फरिस्ते  भी पर मारने से घबराते हैं, उसमें यह बेहिचक अपनी राय ही नहीं, अंतिम निर्णय फौरन सुना देते हैं।

स्वनामधन्य बुद्धिजीवी,खासकर दलित बुद्धिजीवी इसी श्रेणी में आते हैं। ये अतीत की हर चीज, हर दर्शन और हर आंदोलन पर फतवा जारी करने में लगे हुए हैं। ये एक बार मूंह खोलते हैं तो चार फतवे जारी हो जाते हैं। और ठीक तुरंत काफिर यानी ब्राम्हणवादी, मनुवादी घोषित  हो जाता है। यहां अतीत से असहमति की सारी गुहार वर्तमान में असहमति को निरस्त करने के लिए लगाई जाती है।

मार्क्सवाद और भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन इसके खास निशाने  पर है। बात कहीं की भी हो रही हो ये लपक कर चार लात इनको लगा देते हैं। इनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो भारत के नब्बे साल कम्युनिस्ट  आंदोलन के इतिहास की एक मोटा-मोटी रूपरेखा भी प्रस्तुत कर सके। फिर भी वे इस पर कुछ भी कह देने के लिए खुद को आजाद मानते हैं। हम सारे दलित बुद्धिजीवियों को चुनौती देते हैं कि वे आज के अपने ज्ञान के आधार पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास की दो पृष्ठ  की रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखायें। चलिये हम अपनी चुनौती को और हल्का कर देते हैं। ये अपने को जाति के मुद्दे पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में जो अलग-अलग सोच मौजूद रही है, वे उसकी ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखायें।

हम जानते हैं कि वे ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन तब भी वे समूचे मार्क्सवाद को और भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को खारिज करने का दंभ रखते हैं। इसके निश्चित  कारण हैं। पिछले डेढ़ सौ सालों से और खासकर पिछले सौ सालों से मार्क्सवाद शोषित -उत्पीड़ित मानवता की मुक्ति का एकमात्र दर्शन रहा है। इसलिए जब भी कोई नया दर्शन या विचारधारा पैदा हुई है जिसने अपने को मुक्ति के दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया है तब उसे सबसे पहले मार्क्सवाद को गलत या अधूरा घोषित  करना पड़ा है।

यह पिछले सौ सालों में कई बार हो चुका है- मार्क्सवाद के भीतर से भी बाहर से भी। सच तो यह है कि हर दस-बीस साल पर यह षोर उठता ही रहा है कि मार्क्सवाद असफल हो गया है, मार्क्सवाद पुराना पड़ गया है(उत्तर आधुनिकता उसकी आधुनिकतम कड़ी है)। लेकिन हर बार यह पाया गया है कि मार्क्सवाद से आगे जाने के नाम पर जो कुछ प्रस्तुत किया गया वह मार्क्सवाद के पैदा होने से पहले ही कहा जा चुका है। वह सारा कुछ रूप बदला हुआ मार्क्सवाद पूर्व दर्शन है। उत्तर आधुनिकता पर भी यही चीज लागू होती है।

दलित बुद्धिजीवी भी मार्क्सवाद को नकारते हैं। वे इसके सिवा कुछ कर नहीं सकते। वे दलित की मुक्ति का अपना दर्शन प्रस्तुत करना चाहते हैं। दलित की मुक्ति का या ज्यादा ठीक कहें तो सभी सर्वहारा दलित सर्वहारा की मुक्ति का दर्शन मार्क्सवाद के रूप में पहले से ही मौजूद है। ऐसे में यदि दलित बुद्धिजीवियों को अपना दर्शन स्थापित करना है तो खासकर दलित सर्वहारा को मार्क्सवाद के प्रभाव से बचाना है तो मार्क्सवाद को खारिज करना आवश्यक  है। वस्तुतः यह सारा कुछ दलित सर्वहारा के लिए दो दर्षनों के बीच जंग है। एक ओर मार्क्सवाद है तो दूसरी ओर दलित बुद्धिजीवियों का दर्शन।

लेकिन दलित बुद्धिजीवी का दर्शन है क्या? यह दर्शन  है -और यही हमारी इस आलोचना का केंद्रबिंदु- बुर्जुआ दर्शन, पूंजीपति का दर्शन। दलित बुद्धिजीवियों के दर्शन का, उनकी विचारधारा का सारतत्व है पूंजीवादी दर्शन। हां,यह इक्कीसवीं सदी के शुरुआत के भारत के विशिष्ट दलित बुर्जुआ का दर्शन है। इस मायने में यह महान फ्रांसीसी क्रांति के फ्रांसीसी बुर्जुआ दर्शन से सारतः एक होते हुए भी रूप में कई मायनों में भिन्न है।


नोट:यह लेख जिस पुस्तिका 'मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्तियाँ' का हिस्सा है, उसे दाहिनी तरफ फोटो पर क्लिक करके पूरा पढ़ा जा सकता है.