Mar 4, 2011

उत्तराखंड के जननायक पड़े हाशिये पर



गढ़वाल विश्वविद्यालय, जिसे लोगों ने बड़े संघर्षों के बाद बनाया, वह आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। राजनीतिज्ञों की नासमझी से पहले एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को अब अपनी मान्यता के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है...


चारु तिवारी

 
करीब  दस वर्ष पहले जब देश में तीन राज्य अस्तित्व में आये तो उनकी अपनी-अपनी प्राथमिकतायें थीं। भाजपा के नेतृत्व में उस समय केंद्र में राजग की सरकार थी। संसद में जब भाजपा ने वनांचल और उत्तरांचल पर बहस करायी तो झारखण्ड के लोगों ने कहा कि झारखण्ड हमारी अस्मिता का सवाल है। उन्होंने वनांचल को एक सिरे से खारिज किया। उन्होंने कहा कि वनांचल से बेहतर है कि हमें राज्य ही न मिले। इसके उलट उत्तराखण्ड नाम को उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र तक संशोधन करने की सिफारिश की गयी। जिस तरह के तर्क इसके समर्थन में दिये गये उससे कोई सहमत नहीं हो सकता।

खैर, राज्य बन गया। देहरादून की सड़कों पर ‘अटल बिहारी वाजपेयी जिन्दाबाद’ के नारे गूंजने लगे। इस बदलाव में इतिहास भी बदल गया। पहाड़ के गांधी कहे जाने वाले इन्द्रमणि बडोनी को याद करने को किसी को फुर्सत नहीं हुयी। कामरेड पीसी जोशी, ऋषिवल्लभ सुन्दरियाल, त्रेपन सिंह नेगी, कामरेड नारायण दत्त सुन्दरियाल, डॉ. डीडी पंत, आंदोलन में शहीद हुए 42 आंदोलनकारी और राज्य आंदोलन में मर-खप गयी एक पीढ़ी को भुला दिया गया। नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री और सुरजीत सिंह बरनाला को राज्यपाल बनाया गया। यह उत्तराखण्ड नहीं उत्तरांचल का नया अवतार था। यह तीस वर्ष के राज्य संघर्ष को हाइजैक करने की बड़ी राजनीतिक घटना थी।

यह सिलसिला अभी जारी है। अब उत्तराखण्ड को नये इतिहास पुरुषों से परिचित कराया जा रहा है। उसी तरह जैसे उसके पौराणिक नाम उत्तराखण्ड को उत्तरांचल कर। क्षेत्रीय भाषाओं को हतोत्साहित कर संस्कृत भाषा को दूसरी राजभाषा का दर्जा देकर। गंगा प्रहरियों को विस्मृत कर हेमामालिनी को ब्रांड एम्बेसडर बनाकर।

राज्य में कई संस्थानों और योजनाओं को महापुरुषों के नाम पर रखा गया है। कई जगह इस तरह के नाम रखे जा रहे हैं या उन्हीं नामों से नये संस्थान खोले जा रहे हैं। दुर्भाग्य से किसी भी संस्थान या योजना का नाम रखते समय हमारे नीति-नियंताओं को न तो उसकी प्रासंगिकता का पता है और न प्रभाव का। वे इस बात पर ज्यादा दिमाग नहीं लगाना चाहते कि किस क्षेत्र में किन लोगों ने क्या योगदान किया है।

ताजा उदाहरण अटल खाद्यान्न योजना का है। यह ठीक है कि अटलजी भाजपा के शिखर पुरुष हैं, उनकी वंदना से राजनीति आसान हो जाती है। जिस जनता के वोट से सरकारें बनती है। उनके भी इतिहास पुरुष होते हैं, यह सत्ता में बैठे लोगों को समझना चाहिए। असल में इस योजना का नाम उत्तराखण्ड के दो ऐसे इतिहास पुरुषों के नाम पर रखा जा सकता था जिन्होंने आम लोगों तक अनाज पहुंचाने के लिए बड़ा योगदान दिया।

इनमें से एक हैं रुद्रपुर के रहने वाले इन्द्रासन सिंह। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। मूल रूप से लखीमपुर के रहने वाले इन्द्रासन को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कोटे से नैनीताल की तराई (उधमसिंहनगर) में जमीन मिली। उन्होंने यहां ऐसे धान का आविष्कार किया जो बासमती जैसा था। इसकी कीमत बहुत कम थी। उन्होंने इसे इस उद्देश्य से विकसित किया था कि आम लोगों को पौष्टिक और सस्ता चावल प्राप्त हो सके। बाद में इसे इन्द्रासन चावल के नाम से जाना गया। इसे गरीबों की बासमती भी कहा जाता है।

दूसरे हैं माधो सिंह भण्डारी। भण्डारी उत्तराखण्ड के उन महान सपूतों में हैं जिन्होंने मलेथा की गूल से इतिहास ही नहीं रचा,बल्कि पहाड़ों में खेती और अनाज उगाने के लिए नई प्रेरणा दी। वे इस विचार के प्रेरणा पुरुष भी थे कि पहाड़ों में स्थानीय संसाधनों को विकसित कर उन्नत खेती की जा सकती है। उन्होंने मलेथा नहर को लाने के लिए अपने बेटे की बलि दे दी। सरकार अगर जरा सा भी आम लोगों के सरोकारों को समझती तो यह दो नाम इस योजना की सार्थकता और सरकार की मंशा के साथ न्याय कर पाते।

गढ़वाल विश्वविद्यालय, जिसे लोगों ने बड़े संघर्षों के बाद बनाया, वह आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। राजनीतिज्ञों की नासमझी से पहले एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को अब अपनी मान्यता के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है। टिहरी परिसर को अब दीनदयाल उपाध्याय के नाम से जाना जायेगा। वैसे भी पार्कों से लेकर संस्थानों और योजनाओं के इतने नाम दीनदयाल के नाम पर रखे गये हैं कि राज्य में औरों के लिए एक इंच जगह नहीं है।

टिहरी परिसर का नाम रखने से पहले सरकार सरकार कुछ इन नामों पर भी विचार कर लेती तो उसका कुछ नहीं बिगड़ता। हो सकता है उन्हें उपाध्याय के सामने श्रीदेव सुमन, नागेंद्र सकलानी जैसे नाम बहुत छोटे लगते हों। जयानंद भारती, गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, मौलाराम तोमर, त्रेपन सिंह नेगी, चंद्रकुंवर बर्थवाल, ऋषिवल्लभ सुन्दरियाल, भक्तदर्शन आदि कई हस्तियां इसी जमीन और इन्हीं सरोकारों के लिए संघर्ष करती रहीं, उनके बारे में सरकारों के उपेक्षापूर्ण रवैये के बारे में सबको सोचना पड़ेगा।

पिछले दिनों से देहरादून के तकनीकी विश्वविद्यालय का नाम संघ के सरचालक रहे रज्जू भैया के नाम पर रखने पर विचार किया जा रहा है। प्रचारित किया जा रहा है कि वे भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर थे। पहाड़ में उनके जैसे कई प्रोफेसर पहले भी थे और आज भी हैं। डॉ.डीडी पंत जैसे भौतिकशास्त्री उत्तराखण्ड में हुए हैं जिन्होंने पंत रेज के नाम से दुनिया में बड़ी खोज की। द्वितीय विश्वयुद्ध के कचरे से एशिया की सबसे अच्छी भौतिक प्रयोगशाला बनाने वाले पंत का शिक्षा के अलावा राज्य आंदोलन में भी योगदान रहा।

डॉ.पंत के नाम की संस्तुति अगर इस तकनीकी विश्वविद्यालय के लिए होती तो पहाड़ को गर्व होता। एक थे चंद्रशेखर लोहनी। हाईस्कूल पास शिक्षक। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित। पंतनगर विश्वविद्यालय ने उन्हें इसलिए सम्मानित किया कि उन्होंने लेंनटाना (कुरी)घास को फैलने   से रोकने की खोज की, जो वनस्पति शास्त्र में मशहूर हुई।

यह एक बहुत संक्षिप्त सा आकलन है नामों को लेकर। कालूसिंह महर पहले पहाड़ी थे जिन्हें अंग्रेजों ने फांसी दी थी। डॉ. खजान पांडे का चिकित्सा शोध में महत्वपूर्ण काम है। एक थी जसूली दत्याल, जिन्होंने कुमाऊं कमिश्नर रामजे को अपनी सारी संपत्ति मानसरोवर यात्रा मार्ग पर धर्मशालायें बनाने को दे दी। कैप्टन राम सिंह ने राष्ट्रगान की धुन बनायी। इसके अलावा एक बड़ी सूची है ऐसे नायकों की,जिनके सामने आज के इन राजनीतिक इतिहास पुरुषों का काम कहीं नहीं ठहरता। सरकार जब भी संस्थानों का नाम रखे, उसमें पहाड़ के गौरव रहे मनीषियों की उपेक्षा न करे।



 पत्रकारिता में जनपक्षधर रुझान के प्रबल समर्थक और  जनसंघर्षों से गहरा लगाव रखने वाले चारु  तिवारी उत्तराखंड के राजनितिक-सामाजिक मामलों के अच्छे जानकार हैं. फिलहाल जनपक्ष आजकल पत्रिका के संपादक. उनसे tiwari11964@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.