Jan 18, 2011

बनिये का बहीखाता बन गयी 'कविता'


राजस्थानी भाषा को बचाने के लिए इन लोगों ने दिन-रात एक किया हुआ है. यह सब देखकर मुझे अपने गाँव पर शर्म आ रही थी.साहित्य अकादमी से पुरुस्कृत भरत ओलाजी भी इसी गाँव के है...


संदीप कुमार मील

इस पर लम्बी बहस हो सकती है कि कविता को किसने बचाया हुआ है? और हर भारतीय कवि दावा कर सकता है कि कविता सिर्फ उसी के बल पर बची हुई है. मुझे उन लोगों की बात पर कोई एतराज़ नहीं है, क्योंकि कविता उनके बल पर बचे न बचे,मगर वो जरूर कविता के बल पर जरूर बचे हुए हैं. उनका इलज़ाम यह भी हो सकता है कि कविता के मामले में तुम कौन होते हो बोलने वाले? लेकिन मैं एक श्रोता और पाठक हूँ. इस लिहाज़ से कुछ बातें कहना चाहता हूँ.

दिल्ली में कविता बनिये के बहीखाते की तरह लिखी जाती है.ऐसा लगता है की प्रेम कविताओं में भी प्यार की ऊष्मा की जगह एक बनावटीपन है.मैं दिल्ली में रहने वाले सारे कवियों की बात नहीं कर रहा हूँ.यहाँ बात उन कवियों की हो रही है जिन्होंने कविता को बचाने का ठेका ले रखा है. बाकी दिल्ली में भी लोग अपनी जड़ों से नहीं कटे हैं और बेहतरीन कविताएँ भी लिख रहे है.मगर यह बात तो भूल ही जाइये की विश्वविद्यालयों में कविता बची हुई है!

राजस्थान में गंगानगर जिले का एक गाँव परलिका है. पिछले दिनों वहां जाने का मौका मिला और सवाल भी सुलझ गया कि कविता को किसने बचा रखा है?एक गाँव साहित्य की इतनी बड़ी कर्मस्थली हो सकता है,ऐसा मैंने तो कभी नहीं सोचा था, मगर सच्चाई मेरे सोचने से नहीं बदलती है. परलिका गाँव में साहित्य की पूरी लहर उठी हुई है और वहां साहित्य बनिये की बहीखाते की  तरह नहीं, बल्कि श्रम की उपज है.

परलिका गाँव में मैं सत्यनारायण जी के यहाँ रुका,लेकिन मैं केवल उन्हीं के घर पर नहीं रुका था....विनोद भाई, किसान जी सब इतने अच्छे तरीके से मिले कि मेरे लिए उनको भुलाना मुश्किल है.  ऐसा लग ही नही रहा था कि उनसे पहली बार मिल रहा हूँ.

राजस्थानी भाषा को बचाने के लिए इन लोगों ने दिन-रात एक किया हुआ है. यह सब देखकर मुझे अपने गाँव पर शर्म आ रही थी.साहित्य अकादमी से पुरुस्कृत भरत ओलाजी भी इसी गाँव के है.दूसरी तरफ दिल्ली के कवि...खैर... कुछ सज्जन लोगों को छोड़ दें, तो बाकी कविवर आपको मिलने का समय भी नहीं देंगे. बेचारे कविता को बचाने में जो लगे हुए है.

उसके बाद शुरू हुआ विनोद स्वामी की कविताओं का पाठ.  मिट्टी की खुशबू और मेहनत के रंग में रंगी  हुईं ये कविताएँ धीरे-धीरे मेरे जेहन में उतरती चली गयीं.....

छात माथै छत पर
चढण सारू चढ़ने के लिए
पैड़ी बणवावणी कै लगावणी सीढ़ी बनवा के लगना
कोई अमीरी कोनी कोई अमीरी नहीं
पण चूल्है माथै पग मेल'र लेकिन चूल्हे में पैर रखकर
हारड़ी पर हारड़ी (चूल्हे के पास बनी सामान रखने कि जगह) पर
हारड़ी सूं लंफ'र हारड़ी से लपककर
रसोवड़ी पर रसोई पर
अर रसोवड़ी सूं मंडेरी पर टांग घाल'र और रसोई से मंडेरी पर पर डालकर
बरसां तक छात माथै चढणो ई बरसो तक छत पर चड़ना भी
गरीबी में कोनी गिणीजै। गरीबी में नहीं गिना जाता.


विनोद जी ने कविता के माध्यम से अपने घर का इतना सजीव चित्रण किया कि आंख में आंसू आ गए.रामस्वरूप किसान जी का साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित एक कहानी संग्रह भी पढ़ने को मिला,लेकिन उसके बारे में फिर कभी बात करेंगे. अभी तो सवाल कविता को बचाने का है. खेत-खलिहानों का काम करके भी परलिका गाँव के लोगों ने कविता को बचाया हुआ है.दूसरी तरफ जिन महान कवियों ने कविता को बचाने का ठेका ले रखा है वो... इनके लिए कविता लेखन नहीं है,वो तो इन कवियों के जीवन से जुड़े हुए अनुभवों की अभिव्यक्ति है.


एक कविता और जिसमें प्रकृति और श्रम के सौन्दर्य का वर्णन है-

सीख
बाबै नै बाबा को
पसीनै सूं पसीने से
हळडोब हुयोड़ो देख तरबतर होते देख
बरसाणो सीख लियो मैह बरसात ने बरसना सीख लिया



दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय से पढाई.कला और समाज से जुड़ाव,अब साहित्यिक लेखन की ओर अग्रसर.संदीप कुमार मील से skmeel@gmail.com पर संपर्क क्या जा सकता है. 








सवर्णों को मंजूर नहीं एक दलित


जिले में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव की कार्यवाही के माध्यम से ग्राम प्रधान को हटाने का षड्यंत्र रचा गया, क्योंकि एक ईमानदार  प्रधान  सवर्णों को मंजूर नहीं था... 

 सलीम मल्लिक

उत्तराखंड के रामनगर विकासखण्ड में खिचड़ी नदी के दोनों ओर बसे क्यारी खाम और क्यारी बंदोबस्ती गांव की क्यारी ग्राम पंचायत में घटी घटना यह साबित करने के लिए काफी है कि भारत के सवर्ण मानसिकता के लोग अभी दलितों को न केवल दूसरे दर्जे का नागरिक मानते हैं, बल्कि संविधान में उन्हें दिये गये हक-हकूक से वंचित करने की जुगत भी भिड़ाते रहते हैं।

कोढ़ में खाज यह है कि दलित अगर ‘दलित’बनकर ही इस वर्ग की सेवा करता रहे तो सवर्णों को अच्छा लगता है, लेकिन वह नेतृत्वकारी भूमिका में आ जाये तो उन्हें यह बर्दाश्त नहीं होता कि ‘पैर की जूती सिर का ताज बन सके।’ इसके साथ आर्थिक हित जुड़े हों तब तो कहना ही क्या।

क्यारी ग्राम पंचायत से जुड़ी इस घटना  में सवर्ण परिवार की त्योरियां तब चढ़ गयीं, जब स्वतंत्रता के 61 साल बाद इस ग्राम पंचायत की बागडोर एक दलित के हाथों में आ गई। बीते 61 साल से इस गांव को अपनी जागीर समझने वाले इस सवर्ण परिवार को सत्ता का यह हस्तांतरण आर्थिक हितों पर इतना नागवार गुजरा कि उसने गांव के दलित ग्राम प्रधान को हटाने के लिये हरसंभव कोशिश कर ली।

जिले में पहली बार किसी निर्वाचित ग्रामप्रधान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की कार्यवाही के माध्यम से दलित ग्राम प्रधान को हटाने का षड्यंत्र रचा गया जो कि ग्रामप्रधान की ईमानदारी और विकास कार्यों के चलते सफल नहीं हो सका। पंचायती राज एक्ट की व्यवस्था के तहत किसी भी निर्वाचित ग्रामप्रधान के खिलाफ उसके निर्वाचन से दो साल के बाद ही कोई अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है। 2008 में हुये राज्य के पंचायत चुनाव को 2010 के अंत तक दो साल हो गये।


 बढ़ रही है भागीदारी  

आजादी के बाद से क्यारी गांव की ग्राम प्रधानी पर सवर्ण 'सती'जाति का कब्ज़ा रहा है.पहली दफा ऐसा हुआ है कि एक दलित ग्राम प्रधान वहां  चुना गया.मगर यह सवर्णों को मंजूर नहीं हुआ और सतियों ने  दलित ग्रामप्रधान लीलाधर शास्त्री के खिलाफ 18 दिसंबर को विकास कार्यों की अनदेखी, विकास कार्यों में रुकावट डालने और प्रधानी की आड़ में ठेकेदारी चलाने के आरोप लगाकर उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सौंपते हुए उन्हें ग्राम प्रधान के पद से हटाने की मांग कर डाली। उन्होंने दावा किया कि 480 से अधिक मतदाताओं वाली इस ग्रामसभा के करीब 200 ग्रामीणों ने इस अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये।

जिला पंचायत राज अधिकारी के निर्देश पर एडीओ 'धारी' ब्लाक को इस मामले में मुख्य निर्वाचन अधिकारी रमेशराम को नियुक्त कर अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा करवा इसकी हकीकत की तह में जाने के निर्देश दे दिये। इस बीच कड़ाके की ठंढ के बावजूद क्यारी गांव का तापमान गर्म रहा। सुर्खियां में आ चुके इस अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा और संभावित मतदान को देखते हुये स्थानीय प्रशासन ने क्यारी गांव में सुरक्षा के भारी इंतजाम करते हुये चप्पे-चप्पे पर पुलिस बल की तैनाती कर दी. दोनों ही पक्षों ने इस अविश्वास प्रस्ताव के लिये खेमेबंदी कर ली थी।
काफी देर तक चली इस हंगामेदार कार्यवाही के बाद सवर्ण खेमा ग्राम प्रधान पर लगे आरोपों को सही साबित करने में नाकाम रहा तो उसने एक स्वर में मतदान की मांग कर डाली। पूरे दिन चले ड्रामे के बीच अविश्वास प्रस्ताव पर हो रही चर्चा भारी हंगामे की भेंट चढ़ गई। बाद में मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने मतदान का निर्णय लेते हुये मतदान की प्रक्रिया आरम्भ कराई,जिसमें उस समय मौजूद 307 मतदाताओं ने हिस्सा लिया। मतदान के बाद सात मतों को निरस्त कर दिया गया। शेष पड़े 300 मतों में से प्रधान के पक्ष 104 मत पड़े। दो तिहाई मतों के अभाव में सवर्णों द्वारा दलित प्रधान के खिलाफ लाया गया अविश्वास प्रस्ताव खारिज कर दिया गया।

गाँव के वर्तमान प्रधान लीलाधर शास्त्री ने बताया कि क्यारी गांव के सती परिवार का गांव की प्रधानी पद पर आजादी के बाद से ही कब्जा चला आ रहा है। पहली बार बीते पंचायत चुनाव में यह प्रधानी की सीट अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित होने के चलते मैं इस गांव का प्रधान बना,लेकिन मेरा ग्राम प्रधान बनना गांव के ही कुछ लोगों को नहीं सुहाया। जिस कारण आये दिन मेरे खिलाफ साजिशों और शिकायतों का सिलसिला चल पड़ा। 
अविश्वास प्रस्ताव की कहानी के पीछे ग्राम प्रधान लीलाधर शास्त्री पर जो आरोप लगाये गये, उनके बारे में पूरा गांव जानता था कि मामला यह नहीं है। विवाद की जड़ क्यारी गांव में वन विभाग द्वारा बनवाया गया क्यारी कैम्प नामक टूरिज्म पैलेस। कार्बेट टाइगर रिजर्व के पूर्व निदेशक राजीव भरतरी ने इस गांव में वन व वन्यजीवों को बचाने की कवायद के चलते गांव के निवासियों को वाइल्ड लाइफ से जोड़ने के उद्देश्य से गांव के निकट ही व भूमि पर क्यारी कैम्प का निर्माण करवाया था। गांव की ही समिति जिसका की अध्यक्ष स्वाभाविक तौर पर ग्राम प्रधान ही होता है,इस कैम्प को संचालित करने लगी। कैम्प से होने वाली आय से ग्रामीण क्योंकि सीधे तौर पर जुड़े थे,इसलिये भी ग्रामीणों ने वन व वन्यजीवों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

पंचायत चुनाव से गांव प्रधान बदल जाने के कारण पूर्व प्रधान ने इस कैम्प की कमान नियमानुसार अगले निर्वाचित प्रधान को सौंपने से इंकार कर दिया और अलग से समिति बनाकर कैम्प को संचालित करने की बात करते हुये कैम्प पर अपना दावा बरकरार रखा। कैम्प से लाखों रुपये सालाना की आय होने के कारण पूर्व प्रधान इस कब्जे को छोड़ना नहीं चाहते थे,जिस कारण निर्वाचित दलित ग्राम प्रधान को ही अपने रास्ते से हटाने का ताना-बाना बुनना  शुरू कर दिया.



लेखक उत्तराखंड के रामनगर में रहते हैं और 'राष्ट्रीय सहारा' से जुड़े हैं,उनसे maliksaleem732@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.