राजस्थानी भाषा को बचाने के लिए इन लोगों ने दिन-रात एक किया हुआ है. यह सब देखकर मुझे अपने गाँव पर शर्म आ रही थी.साहित्य अकादमी से पुरुस्कृत भरत ओलाजी भी इसी गाँव के है...
संदीप कुमार मील
इस पर लम्बी बहस हो सकती है कि कविता को किसने बचाया हुआ है? और हर भारतीय कवि दावा कर सकता है कि कविता सिर्फ उसी के बल पर बची हुई है. मुझे उन लोगों की बात पर कोई एतराज़ नहीं है, क्योंकि कविता उनके बल पर बचे न बचे,मगर वो जरूर कविता के बल पर जरूर बचे हुए हैं. उनका इलज़ाम यह भी हो सकता है कि कविता के मामले में तुम कौन होते हो बोलने वाले? लेकिन मैं एक श्रोता और पाठक हूँ. इस लिहाज़ से कुछ बातें कहना चाहता हूँ.
दिल्ली में कविता बनिये के बहीखाते की तरह लिखी जाती है.ऐसा लगता है की प्रेम कविताओं में भी प्यार की ऊष्मा की जगह एक बनावटीपन है.मैं दिल्ली में रहने वाले सारे कवियों की बात नहीं कर रहा हूँ.यहाँ बात उन कवियों की हो रही है जिन्होंने कविता को बचाने का ठेका ले रखा है. बाकी दिल्ली में भी लोग अपनी जड़ों से नहीं कटे हैं और बेहतरीन कविताएँ भी लिख रहे है.मगर यह बात तो भूल ही जाइये की विश्वविद्यालयों में कविता बची हुई है!
राजस्थान में गंगानगर जिले का एक गाँव परलिका है. पिछले दिनों वहां जाने का मौका मिला और सवाल भी सुलझ गया कि कविता को किसने बचा रखा है?एक गाँव साहित्य की इतनी बड़ी कर्मस्थली हो सकता है,ऐसा मैंने तो कभी नहीं सोचा था, मगर सच्चाई मेरे सोचने से नहीं बदलती है. परलिका गाँव में साहित्य की पूरी लहर उठी हुई है और वहां साहित्य बनिये की बहीखाते की तरह नहीं, बल्कि श्रम की उपज है.
परलिका गाँव में मैं सत्यनारायण जी के यहाँ रुका,लेकिन मैं केवल उन्हीं के घर पर नहीं रुका था....विनोद भाई, किसान जी सब इतने अच्छे तरीके से मिले कि मेरे लिए उनको भुलाना मुश्किल है. ऐसा लग ही नही रहा था कि उनसे पहली बार मिल रहा हूँ.
राजस्थानी भाषा को बचाने के लिए इन लोगों ने दिन-रात एक किया हुआ है. यह सब देखकर मुझे अपने गाँव पर शर्म आ रही थी.साहित्य अकादमी से पुरुस्कृत भरत ओलाजी भी इसी गाँव के है.दूसरी तरफ दिल्ली के कवि...खैर... कुछ सज्जन लोगों को छोड़ दें, तो बाकी कविवर आपको मिलने का समय भी नहीं देंगे. बेचारे कविता को बचाने में जो लगे हुए है.
उसके बाद शुरू हुआ विनोद स्वामी की कविताओं का पाठ. मिट्टी की खुशबू और मेहनत के रंग में रंगी हुईं ये कविताएँ धीरे-धीरे मेरे जेहन में उतरती चली गयीं.....
छात माथै छत पर
चढण सारू चढ़ने के लिए
पैड़ी बणवावणी कै लगावणी सीढ़ी बनवा के लगना
कोई अमीरी कोनी कोई अमीरी नहीं
पण चूल्है माथै पग मेल'र लेकिन चूल्हे में पैर रखकर
हारड़ी पर हारड़ी (चूल्हे के पास बनी सामान रखने कि जगह) पर
हारड़ी सूं लंफ'र हारड़ी से लपककर
रसोवड़ी पर रसोई पर
अर रसोवड़ी सूं मंडेरी पर टांग घाल'र और रसोई से मंडेरी पर पर डालकर
बरसां तक छात माथै चढणो ई बरसो तक छत पर चड़ना भी
गरीबी में कोनी गिणीजै। गरीबी में नहीं गिना जाता.
विनोद जी ने कविता के माध्यम से अपने घर का इतना सजीव चित्रण किया कि आंख में आंसू आ गए.रामस्वरूप किसान जी का साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित एक कहानी संग्रह भी पढ़ने को मिला,लेकिन उसके बारे में फिर कभी बात करेंगे. अभी तो सवाल कविता को बचाने का है. खेत-खलिहानों का काम करके भी परलिका गाँव के लोगों ने कविता को बचाया हुआ है.दूसरी तरफ जिन महान कवियों ने कविता को बचाने का ठेका ले रखा है वो... इनके लिए कविता लेखन नहीं है,वो तो इन कवियों के जीवन से जुड़े हुए अनुभवों की अभिव्यक्ति है.
एक कविता और जिसमें प्रकृति और श्रम के सौन्दर्य का वर्णन है-
सीख
बाबै नै बाबा को
पसीनै सूं पसीने से
हळडोब हुयोड़ो देख तरबतर होते देख
बरसाणो सीख लियो मैह बरसात ने बरसना सीख लिया
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय से पढाई.कला और समाज से जुड़ाव,अब साहित्यिक लेखन की ओर अग्रसर.संदीप कुमार मील से skmeel@gmail.com पर संपर्क क्या जा सकता है.