Dec 14, 2010

कागजों पर पौष्टिक भोजन



कमजोर आदमी ने न्यायालय की अवमानना की होती तो जेल जाना पड़ता,लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश हो तल्ख टिप्पणियों से अपनी खीझ निकालती है।


संजय स्वदेश


देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है,पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है।

इसके लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही हैं, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती हैं। निजी एजेंसियां तो हमेशा से ऐसा करती रही हैं।

पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही हैं। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने यह साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी हैं।

इसका मतलब कि सरकार पूरी तरह असफल है। समझ में नहीं आता आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।

वर्ष 2001में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60दिशा-निर्देश दिये थे। इन दिशा-निर्देशों को जारी किये हुए एक दशक पूरा  होने वाला  है, पर सब धरे के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी ने न्यायालय की अवमानना की होती तो जेल जाना पड़ता,लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से अपनी खीझ निकालती है।

यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय  की तीखी  टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनांदोलन   को उकसाने के लिए पर्याप्त थी।

गोदामों में हजारों  क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।

कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास मंत्रालय ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59प्रतिशत बच्चे 11लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है,महज 20प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।

सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार और असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया,जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है।

हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित चीजों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है, तो कहीं पोषाहार के लिए कच्ची वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कहकर  जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है।

जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।

असम, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी ख़बरें अब इतनी सामान्य हो गई हैं कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है।

मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं,फिर सबकुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाला भोजन कागजों पर ही ज्यादा पौष्टिक  होता है। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?


शहर में सफ़र


आपकी धर्मपत्नी की आवाज आती है और वो आपको घर के कामों में रुचि न दिखाने के लिए कोसती है कि आपने  टूटे हुए नल को ठीक कराने के लिए प्लम्बर को नहीं बुलाया। ये अलग बात है कि प्लम्बर सिर्फ सुबह 10से शाम 6बजे तक ही मौजूद होता है और उस समय आप ऑफिस में होते हैं...

हैनसन टीके

हम सभी  रोजमर्रा की जिंदगी में कुछ ऐसी घटनाओं का अनुभव करते हैं,जिससें कभी  बेइज्जत तो कभी खुद को कुंठित महसूस करते है। इसके पीछे कोई आम कारण भले ही न हो,पर हर दिन ऐसी घटनाओं का सामना करना ही पड़ता है। ऐसी घटनाएं यात्रा करते समय,घर पर,रेस्तरां में खाना खाते समय,पान या शराब की दुकान पर,यहां तक कि आप टेलीफोन की लाइन या कहीं और कभी भी घट सकती हैं।

दिल्ली में रहने वालों के लिए ऐसा होना स्वाभाविक है। यहां पर मैं साधारण जनता की बात कर रहा हूं,क्योंकि उच्चवर्ग के जीने के तौर-तरीके और रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। आप जब सुबह-सुबह एक अच्छी नींद से उठते हैं तो चाहते हैं कि बाकी का दिन भी इसी सपने की तरह अच्छा हो।

इतने में रसोई से आपकी धर्मपत्नी की आवाज आती है और वो आपको घर के कामों में रुचि न दिखाने के लिए कोसती है,क्योंकि आपने रसोई के टूटे हुए नल को ठीक कराने के लिए प्लम्बर को नहीं बुलाया। ये अलग बात है कि प्लम्बर सिर्फ सुबह 10से शाम 6बजे तक ही मौजूद होता है और उस समय आप ऑफिस में होते हैं। फिर भी आपको सुनना पड़ता है,क्योंकि घर के मुखिया और पुरुष होने के नाते यह आपका कर्तव्य है।

बीबी का यह विचित्र बर्ताव टूटे हुए नल से शुरू होता है,लेकिन कहां जाकर खत्म होगा ये किसी को नहीं पता। ये तो सिर्फ शुरुआत है। तभी  अचानक आपकी पत्नी टूटे हुए नल से लेकर उस दिन के लिए आपको कोसना शुरू कर देती है जब आप शराब पीकर घर आये थे। चाहे उस शराब ने आपको पियक्कड़ न बनाया हो,फिर भी शराब की वजह से आपकी पत्नी की नाक पूरे समाज के सामने नीची जरूर हो जाती है,ऐसा उसका सोचना होता है।

 कभी-कभी तो वह ये तक कह देती है कि आपने मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा और उसकी आंखों में भरे आंसू आपको यह अहसास दिलाते हैं कि आपसे शादी करने से पहले वह कितनी खुश थी। उस समय इतना गुस्सा आता है कि उस पर जोर से चिल्लायें, लेकिन आप ऐसा कुछ नहीं करते क्योंकि आप जानते हैं कि चुप रहने में ही भलाई है। इसलिए अंदर ही अंदर किलसते रहते हैं और यहां से कुंठा का दौर शुरू होता है।

अगले ही पल जब आप देरी की वजह से नजदीकी मेट्रो स्टेशन तक जाने के लिए ऑटो रिक्शा लेने के बारे में सोचते हैं तो कोई भी ऑटो वाला रुकने को तैयार ही नहीं होता। फिर अचानक से एक ऑटो आकर रुकता है तो आपको लगता है कि जल्दी से बैठ जाऊं,लेकिन फिर याद आता है कि दिल्ली में ऑटो में लगे मीटर तो केवल नाम के हैं। इसके बाद शुरू होती है किराए के लिए बहस। ऑटो चालक तो दोगुना किराया मांगता है,लेकिन आप उसके साथ बहस करके बीच का कोई रास्ता निकाल लेते है,क्योंकि देर हो रही होती है। इसके अलावा आपके पास कोई और रास्ता नहीं होता।

ऑटो-रिक्शे में बैठते ही लगता है कि चलो अब ऑफिस समय पर पहुंच जाऊंगा। मैट्रो स्टेशन ऑटो में बैठे-बैठे दिख रहा है,मगर उसी पल ऑटो वाला ऑटो को गैस भरवाने के लिए दूसरी तरफ मोड़ लेता है। तब मन तो करता है कि उसे दो-चार गाली दे दें, लेकिन आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि आप एक सज्जन इंसान है और गाली-गलौच करना आपको शोभा  नहीं देता। इस समय आपके अंदर एक आग फूट रही होती है,जिसे चाहकर भी आप बाहर नहीं निकाल सकते और इसे चुपचाप पी जाते हैं।

घटनाओं का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। मैट्रो में अनाउंसमैंट के बाद ट्रेन आती है और आप दरवाजे के बीच में जाकर खड़े हो जाते है,लेकिन जैसे ही दरवाजा खुलता है बाहर से अंदर आने वालों की भीड़ आपको अंदर की तरफ धकेल देती है। जब आप उनको धकेलने की कोशिश करते है तो आपको उनकी तरफ से अभद्र शब्द सुनाई देते हैं, लेकिन आप उस समय कुछ नहीं कर सकते क्योंकि दिल्ली में यह सब चीजें आम हैं।

ऑफिस की तरफ पैदल जाते हुए अचानक से एक कार सामने आकर आपका रास्ता रोक देती है और आपको दूसरा रास्ता लेने को मजबूर करती है। तब आपको लगता है कि क्या ये थोड़ा आगे या पीछे गाड़ी नहीं रोक सकता था। फिर दूसरे ही पल याद आता है कि वह क्यों रोकेगा,वह तो लाखों की गाड़ी में सफर कर रहा है,मेरी दो पहिए वाली गाड़ी उसको दिखाई थोड़े ही देगी। इस बात पर आपको गुस्सा आना लाजिमी है। मगर आपके लिए अच्छा होगा कि आप गाड़ी में बैठे व्यक्ति के साथ किसी तरह की कोई बहस न करें,क्योंकि ऐसा करना आपके लिए भैंस  के आगे बीन बजाने जैसा होगा।

सुबह-सुबह ऑफिस पहुंच लोगों की शुभकामनाएं लेकर और गरम चाय का प्याला पीकर आप अपने केबिन में बैठकर शांति महसूस करते हैं। आपको लगता है कि यही एकमात्र जगह है जहां कोई आपको परेशान नहीं करेगा, लेकिन फिर समय आता है स्टॉफ मीटिंग का। मीटिंग में आपका बॉस आपको उस गलती के लिए सबके सामने डांटता है जो आपने की ही नहीं है। आपको एकबारगी लगता है कि यह सब छोड़कर भाग जाऊं। फिर भी आप सुनते हुए खुद को समझाने लगते हैं कि बॉस तो बॉस होता है, उसमें गलती-सही नहीं होता।

तभी आपको लगता है मेरा फोन काफी समय से बज रहा है। आप फोन उठाते हैं और दूसरी तरफ से आवाज आती है ‘आप कौन बोल रहे हैं?’ आपको लगता है कि सारा गुस्सा इस पर ही निकाल दूं, लेकिन फिर आप सोचते हैं कि यह कोई नयी बात थोड़ी है। दिल्ली में रहकर ऐसी घटनाओं का सामना करना तो आम बात है। इससे बेहतर यह है कि आप खुद ही अपना नाम बताकर पूछ लें कि मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं।

मैं जानता हूं कि जो भी बातें मैंने ऊपर लिखी है उसमें कुछ भी नया नहीं है। ये सारी घटनाएं आपके साथ हर रोज घटती हैं,लेकिन अगर आप हर दिन होनी वाली इन छोटी-छोटी बातों को दिन के खत्म होने पर याद करेंगे तो ये बाते आपको बहुत हास्यास्पद और मजेदार लगेंगी, जो आपको एक अलग-सा एहसास देंगी।
(अंग्रेजी से अनुवाद - विभा सचदेवा)


लेखक सीपीएम के सदस्य हैं और सामाजिक-राजनितिक मसलों पर लिखते हैं,उनसे hanskris@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है.