कमजोर आदमी ने न्यायालय की अवमानना की होती तो जेल जाना पड़ता,लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश हो तल्ख टिप्पणियों से अपनी खीझ निकालती है।
संजय स्वदेश
देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है,पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है।
इसके लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही हैं, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती हैं। निजी एजेंसियां तो हमेशा से ऐसा करती रही हैं।
पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही हैं। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने यह साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी हैं।
इसका मतलब कि सरकार पूरी तरह असफल है। समझ में नहीं आता आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।
वर्ष 2001में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60दिशा-निर्देश दिये थे। इन दिशा-निर्देशों को जारी किये हुए एक दशक पूरा होने वाला है, पर सब धरे के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी ने न्यायालय की अवमानना की होती तो जेल जाना पड़ता,लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से अपनी खीझ निकालती है।
यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की तीखी टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनांदोलन को उकसाने के लिए पर्याप्त थी।
गोदामों में हजारों क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।
कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास मंत्रालय ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59प्रतिशत बच्चे 11लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है,महज 20प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।
सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार और असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया,जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है।
हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित चीजों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है, तो कहीं पोषाहार के लिए कच्ची वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कहकर जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है।
हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित चीजों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है, तो कहीं पोषाहार के लिए कच्ची वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कहकर जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है।
जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।
असम, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी ख़बरें अब इतनी सामान्य हो गई हैं कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है।
मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं,फिर सबकुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाला भोजन कागजों पर ही ज्यादा पौष्टिक होता है। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?