Nov 21, 2010

कॉफ़ी हाउस में तीन संचयनों का लोकार्पण


दिल्ली  के  कनाट प्लेस   स्थित   मोहन सिंह कॉफ़ी हाउस  में २० नवम्बर को रामजी यादव द्वारा संपादित  तीन संचयनों का लोक परिचय हुआ और एक अनौपचारिक  बातचीत हुयी.ज्योतिबा फुले संचयन, भारतेंदु संचयन और रामचंद्र शुक्ल संचयन के रूप में इन तीनों रचनाकारों कि प्रतिनिधि रचनाओं के माध्यम से उनके कृतित्व,सामाजिक-सांस्कृतिक अवदानों और समकालीनता को परखने की  कोशिश की  गयी.

आनंद प्रकाश कि अध्यक्षता में संपन्न हुयी इस गोष्ठी में पंकज  बिष्ट और प्रेमपाल शर्मा ने इनका लोक परिचय कराया .इसके बाद सम्पादकीय प्रक्रिया पर रामजी यादव को अपनी बात रखने का मौका दिया गया.रामजी ने कहा कि संचयन का मुख्या उद्देश्य इन रचनाकारों को अपने समय के आलोक में अपनी परम्पराओं को जांचने कि कोशिश है कि हमारे पूर्व वर्ती और महान रचना करों ने हमारे समाज के साथ अपना क्या रिश्ता बनाया और उस समाज का क्या दायरा था.

इन संचयनों के न होने से इन पर उपलब्ध सामग्री में बेशक कोई फर्क नहीं पड़ा है लेकिन उन सामग्रियों को देखने का नजरिया ज़रूर अलग है.तीनों क्रमश भारतीय इतिहास में एक बड़ी लकीर का निर्माण करते हैं लेकिन इनका बुनियादी फर्क बहुत ज्यादा है ,फुले इनमे सबसे वरिष्ठ है और इनमे सबसे ज्यादा समकालीन भी ,जबकि मुख्यधारा खास तौर से हिंदी मुख्यधारा में उनपर गंभीरता से विचार नहीं हुआ है.वे हाशिये के समाजों के रचनाकार हैं और इसी समाज ने उनकी खोजखबर ली और अपने संघर्षों का महापुरुष बनाया.

फुले का नाता भारत के वृहत्तर और संघर्षशील समाजों से है इसीलिए वे मुझे हमेशा आकर्षित करते रहे हैं.भारतेंदु संभवतः अपने द्वाद्वों कि वजह से हमेशा आसपास के रचनाकार लगते रहे लेकिन उनके अंतर्विरोध इतने गहरे हैं कि उनका मिथक नकली लगता है.वस्तुतः वे वैस्नव हिन्दू थे जो भारत कि सामासिक संस्कृति के मेयार से उच्चतम मान नहीं प्रस्तुत करते बल्कि उनकी सीमाओं को अधिक गहराई से तब देखा जा सकता है जब तत्कालीन भारत के लोकजीवन के ग्रामीण और कस्बाई हिस्से को देखा जाय.

इसके बावजूद उनमे मौलिक रूप से सामंतवाद के खिलाफ औपनिवेशिक पूँजी वाद के प्रति स्पष्ट रुझान है जो उन्हें एक महत्वपूर्ण रचनाकार बनाती है..उनकी इस विशेषता ने उन्हें फिर से पढने कि प्रेरणा दी .जबकि रामचंद्र शुक्ल बीसवीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर का होने के बावजूद ब्राह्मणवाद और चातुर्वर्ण्य जैसे पतन शील मूल्यों के पोषक रचना कर हैं.वे महाकाव्यात्मक आस्था के कायल हैं और इस प्रक्रिया में उन सभी रचनाकारों को लगभग ख़ारिज करते हैं जिनमे कथानक नहीं हैं बल्कि जीवन के अनुभवों और बोध का सहज बयान है.हालाँकि शुक्ल जी ने हिंदी आलोचना का व्यवस्थित पैटर्न सेट किया लेकिन उनके समाज का दायरा अत्यंत सीमित है और कुल मिलकर वे जिनका लोक मंगल चाहते हैं वे भारत के सवर्ण हैं जो आज़ाद भारत कि सारी संस्थाओं में कुंडली मार कर बैठे हैं.

पंकज बिष्ट ने कहा कि किताबें अभी अभी मिली हैं इसलिए पढना तो संभव नहीं है लेकिन मैं समझता हूँ कि अपनी साहित्यिक परम्परों को जानने के लिए ऐसे प्रयास बहुत जरूरी हैं .हिंदी में गंभीर आलोचना कि प्रक्रिया ख़त्म होती जा रही है जिसमे अपने समाज को साहित्य और साहित्यकारों को देखने कि सम्पूर्ण दृष्टि हो.इससे हो यह रहा है कि साहित्य अपनी भूमिका से लगातार कट रहा है.रामचंद्र शुक्ल आदि आलोचकों को नए सिरे से देखने कि ज़रुरत है. हालाँकि उनके समय से उन्हें काटकर देखना उनके साथ अन्याय होगा परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं कि नहीं कि उनकी सीमाओं को नज़रंदाज़ कर के उनकी मूर्तिपूजा कि जाय .आज  आलोचना का एक मजबूत पैटर्न बनाना बहुत ज़रूरी है.

कहानीकार प्रेमपाल शर्मा ने आलोचना कि ईमानदार   और तटस्थ परंपरा कि खोज को एक ज़रुरत बताया.आनंद प्रकाश ने कहा कि शुक्ल जी ऐसे आलोचक हैं जो दूसरों को अपनी बात कहने का मौका देते हैं.वे लोक मंगल के रचनाकार हैं और तुलसी के रूप में वे  एक ऐसे लोक कवि  को चुनते हैं जो एक बोली में महाकाव्य लिख रहा था. तुलसी ने  सीता जैसी स्त्री को आधुनिक सन्दर्भ में चित्रित किया.रामचंद्र शुक्ल ने सबसे बड़ा काम  इतिहास लिखने का किया और वे आलोचना को एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित करने वाले आलोचक हैं.

रामजी यादव ने इन तीनों रचनाकारों को सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में देखने परखने का काम किया है.यह एक आलोचक की दृष्टि से किया गया काम है जो विश्वविद्यालयों के दायरे  में संभव नहीं है.यहाँ किसी भी ढंग से अपनी बात को साबित करने का कौशल नहीं बल्कि अपने समाज कि कसौटी पर परम्परा को देखने का प्रयास है.आनंद जी ने शुक्ल जी के सन्दर्भ में कहा कि कि वे इ अ रिचर्ड से प्रभावित रहे हैं और रचना को सामाजिक सन्दर्भों से कट कर देखते थे.उनपर नए सिरे से बात होनी चाहिए.

भारतेंदु मिश्र ने कहा कि आज समाज बहुत आगे बढ़ चूका है और उसकी चुनौतियाँ गंभीर होती जा रही हैं.साहित्य कि भूमिका को प्रभावशाली बनाने के लिए बड़ी निर्ममता और इमानदारी से अपने पूर्ववर्ती लेखकों और आलोचकों पर बात होनी चाहिए.

गोष्ठी का संचालन  करते हुए वेद  प्रकाश ने कहा कि शुक्ल जी 'विश्व प्रपंच और बुद्ध चरित'जैसी पुस्तकों को पहली बार हिंदी में ले आये.वे विज्ञान के प्रति सकारात्मक रुख रखते थे.उनके इस पक्ष को भी पुस्तक में रखा जाना चाहिए था.गोष्ठी में अनेक रचनाकार कर उपस्थित थे जिनमें  अजय सिंह,सुल्तान  सिंह त्यागी, शुक्राचार्य, उपेन्द्रकुमार, कुमार मुकुल, अच्युतानन्द मिश्र, रूबल मित्तल, जयकृष्ण, क्षितिज शर्मा,अशोक मिश्र,आलोक शर्मा,रंजीत  वर्मा ,कमलेश,अंजू, पूजा और दीपक आदि शामिल थे.

 

अदालती नरमी से दीर्घायु होता भ्रष्टाचार


सरकारी विभाग में किसी महिलाकर्मी के साथ छेडछाड या यौन-उत्पीडन,सरकारी धन के दुरुपयोग,भ्रष्टाचार,रिश्वत मांगने आदि मामलों में विभागीय  जाँच  कराकर अनुशासनिक कार्यवाही का बहाना खोज लिया जाता है,  जबकि इसी प्रकार के अपराध में आम व्यक्ति को  जेल की हवा खानी पडती है।


 
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'


पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने एक निर्णय सुनाया,जिसमें न्यायाधीश प्रदीप नंदराजोग तथा एमसी गर्ग की खण्डपीठ ने रक्षा मंत्रालय से वरिष्ठ लेखा अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हो चुके एचएल गुलाटी की आधी पेंशन काटे जाने की बात कही गयी। गुलाटी ने अपनी नौकरी के दौरान 36 झूठे दावों के लिए भुगतान को मंजूरी देकर सरकारी खजाने को 42लाख रुपये से भी अधिक की चपत लगायी थी। हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार सिद्ध होने पर भी गुलाटी को जेल भेजने की बात पर विचार तक नहीं किया और 50 फीसदी पेंशन काटे  जाने की सजा सुना दी।

इस निर्णय को तथाकथित राष्ट्रीय कहलाने वाले समाचार-पत्रों और चैनलों ने अफसरों के लिये कोर्ट का कड़ा   सन्देश कहकर प्रचारित किया.मेरा मानना है कि एक सिद्ध हो चूके दोषी के खिलाफ हाईकोर्ट का इससे नरम रुख और क्या हो सकता था?मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि हाईकोर्ट के इस निर्णय से भ्रष्टाचार पर लगाम लगने के बजाय बढ़ावा  ही मिलेगा.

दूसरा प्रश्न है कि  42लाख रुपये का गलत भुगतान करवाने वाले भ्रष्टाचारी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के तहत मामला दर्ज करके दण्डात्मक कार्यवाही क्यों नहीं की गयी?केवल विभागीय जाँच करके विभागीय नियमों के तहत की जाने वाली अनुशासनिक कार्यवाही की औपचरिकता पूर्ण करके मामले की फाइल बन्द क्यों कर दी गयी,जबकि कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि लोकसेवकों द्वारा किये जाने वाले अपराधों के लिये अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही की जा सकती है या की जानी चाहिये।मगर ऐसा नहीं हो पाता.

कार्रवाई न हो पाने वाले 99फीसदी मामलों के जिम्मेदार नौकरशाह हैं.  इसलिए जरूरी है कि  विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही और ऐसा नहीं करने पर जिम्मेदार उच्च लोकसेवक या विभागाध्यक्ष के विरुद्ध भी कार्यवाही का प्रावधान हो.लेकिन  यह प्रावधान अब तक नहीं हो सका ?जवाब बहुत साफ है.चूँकि कानून बनाने वाले वही लोग हैं जिनको ऐसा प्रावधान लागू करना होता है,ऐसे में कौन अपने गले में फांसी का फन्दा बनाकर डालना चाहेगा?

कहने को तो भारत में लोकतन्त्र है और जनता द्वारा निर्वाचित सांसद जो संसद में मिल-बैठकर कानून बनाते हैं, लेकिन-संसद के समक्ष पेश किये जाने वाले कानूनों की संरचना भारतीय प्रशासनिक सेवा के उत्पाद(आइएएस)  महामानवों द्वारा की जाती हैं,जो स्वयं ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस देश की 99 फीसदी समस्याओं के मूल कारण हैं।

विचारणीय विषय है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से गाली-गलौज और मारपीट करता है तो आरोपी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के तहत अपराध बनता है और ऐसे आरोपी के विरुद्ध मुकदमा दर्ज होने पर पुलिस जाँच करती है। मजिस्ट्रेट के समक्ष खुली अदालत में मामले पर विचार होता है और अपराध सिद्ध होने पर कारावास की सजा होती है। इसके विपरीत एक अधिकारी अपने कार्यालय के किसी सहकर्मी के साथ ऐसा कुछ करता है तो उच्च पदस्थ अधिकारी या विभागाध्यक्ष ऐसे आरोपी के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज न करवाकर स्वयं ही अपने विभाग के अनुशासनिक नियमों के तहत कार्यवाही करते हैं। जिसके तहत आमतौर पर चेतावनी,उसके कृत्य की भर्त्सना (निंदा)किये जाने आदि का दण्ड दिया जाता है और मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है।

इस प्रकार के प्रकरणों में प्रताड़ित या व्यथित व्यक्ति (पक्षकार)की कमी के कारण भी अपराधी लोक सेवक कानूनी सजा से बच जाता है,क्योंकि व्यथित व्यक्ति स्वयं भी चाहे तो मुकदमा दायर कर सकता है,लेकिन अपनी नौकरी को खतरा होने की सम्भावना के चलते वह ऐसा नहीं करता है। लेकिन यदि विभागाध्यक्ष द्वारा मुकदमा दायर करवाया जाये तो उसकी नौकरी को तो किसी प्रकार का खतरा नहीं हो सकता,लेकिन विभागाध्यक्ष द्वारा पुलिस में प्रकरण दर्ज नहीं करवाया जाता है। जिसकी भी वजह होती है-स्वयं विभागाध्यक्ष का इस प्रकार के अपराधों में अधीनस्थों पर तानाशाही गांठना. जिसके चलते मनमानीपूर्ण व्यवस्था संचालित होती है,जो कानूनों के विरद्ध काम करवाकर भ्रष्टाचार को अंजाम देने के लिये जरूरी होता है।

सरकारी विभाग में किसी महिलाकर्मी के साथ छेडछाड या यौन-उत्पीडन, सरकारी धन के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार, रिश्वत मांगने आदि मामलों में भी इसी प्रकार की अनुशासनिक कार्यवाही होती है। जबकि इसी प्रकार के अपराध आम व्यक्ति द्वारा किये जाने पर उसे जेल की हवा खानी पडती है। ऐसे में यह साफ तौर पर प्रमाणित हो जाता है कि जनता की सेवा करने के लिये जनता के धन से उसके नौकर के रूप में नियुक्त सरकारी अधिकारी -कर्मचारी नौकरी लगते ही जनता और कानून से उच्च हो जाते हैं। उन्हें आम जनता की तरह सजा न देकर विभागीय जाँच के नाम पर सुरक्षा कवच उपलब्ध करवाया दिया जाता है।

विधि के इतिहास में निष्पक्षतापूर्वक देखें तो विभागीय जाँच की अवधारणा केवल उन मामलों के लिये स्वीकार की गयी थी,जिनमें ओफिसियल कार्य को अंजाम देने के दौरान लापरवाही बरतने, बार-बार गलतियाँ करने और कार्य को समय पर निष्पादित नहीं करने जैसे दुराचरण के जिम्मेदार लो सेवकों को छोटी-मोटी शास्ती देकर सुधारा जा सके। बाद में लोकसेवकों के सभी प्रकार के कुकृत्यों को केवल दुराचरण मानकर विभागीय जाँच का नाटक करके उन्हें बचाने की व्यवस्था लागू कर दी गयी। इसकी ओट में सजा देने का केवल नाटक भर किया जाता है। विभागीय जाँच का असली मकसद अपराधी को बचाना होता है.

इस बात को साधारण सी समझ रखने वाला व्यक्ति भी समझता है कि देश के खजाने को नुकसान पहुँचाने वाला व्यक्ति देशद्रोही से कम अपराधी नहीं हो सकता और उसके विरुद्ध कानून में किसी भी प्रकार के रहम की व्यवस्था नहीं होनी चाहिये, लेकिन जिन्दगीभर भ्रष्टाचार के जरिये करोडों का धन अर्जित करने वालों को सेवानिवृत्ति के बाद यदि 1/2 पेंशन रोक कर सजा देना ही न्याय है तो फिर इसे तो कोई भी सरकारी अफसर खुशी-खुशी स्वीकार कर लेगा.

दिल्ली हाईकोर्ट के उस  निर्णय से 42लाख रुपये के गलत भुगतान का अपराधी सिद्ध होने पर भी गुलाटी न तो चुनाव लडने या मतदान करने से वंचित होगा और न ही वह कानून के अनुसार अपराधी सिद्ध हो सका है। उसे केवल दुराचरण का दोषी ठहराया गया है, जबकि ऐसे भ्रष्ट व्यक्ति के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४०९ के अनुसार आपराधिक न्यासभंग का मामला बनता है। जिसमें अपराध सिद्ध होने पर आजीवन कारावास तक की सजा का कडा प्रावधान किया गया है।

मेरा तो स्पष्ट मानना है कि जैसे ही कोर्ट के समक्ष ऐसे प्रकरण आयें,कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेकर अपराधी के साथ-साथ सक्षम उच्च अधिकारी या विभागाध्यक्ष के विरुद्ध भी आपराधिक मामले दर्ज करने के आदेश देने चाहिये,जिससे ऐसे मामलों में खुद-ब-खुद प्रारम्भिक स्तर पर ही पुलिस में मामले दर्ज होने शुरू हो जायें और अपराधी विभागीय जाँच की आड में सजा से बचकर न निकल सके। इसके लिये आमजन को आगे आना होगा और संसद को भी इस प्रकार का कानून बनाने के लिये बाध्य करना होगा। अन्यथा गुलाटी जैसे भ्रष्टाचारी जनता के धन को इसी तरह से लूटते रहेंगे और सरेआम बचकर इसी भांति निकलते भी रहेंगे।