Oct 3, 2009

मिसाल हैं कोबाड गांधी



कोबाड गाँधी की गिरफ्तारी से मध्यम वर्ग को नक्सल आन्दोलन और आतंकवाद के बीच का अंतर नज़र आने लगा है.कोबाड और उनके जैसे लोगों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने कारपोरेट जगत के किसी मालदार ओहदे से बेहतर गरीब आदिवासियों और हाशिये पे जीने वाले लाखों लोगों की बेहतर ज़िन्दगी के लिए जीना मुनासिब समझा. बता रहे हैं राहुल पंडिता


शीर्ष नक्सल नेता कोबाड गाँधी की गिरफ्तारी से नक्सल आन्दोलन को तगड़ा झटका लगा है.लेकिन साथ ही इस गिरफ्तारी ने कुछ हद तक वो काम किया जिसके लिए कोबाड दिल्ली और अन्य महानगरों का गुप्त दौरा करते रहते थे.शहरों तक नक्सल आन्दोलन को ले जाना और उसके प्रति मध्यम वर्ग में जागरूकता पैदा करना. लोग इस बात से खासे हैरान है कि मुंबई में आलीशान घर में रहने वाले एक बड़े परिवार का बेटा, जिसने दून स्कूल में संजय गाँधी के साथ पढाई कि, वो लन्दन से उच्च शिक्षा अधूरी छोड़कर गढ़चिरोली और बस्तर के जंगलों की ख़ाक भला क्यूँ छान रहा था? कोबाड की गिरफ्तारी ने वो काम किया जो शायद उनके द्वारा लिखे गए सेकडों लेख भी कर नहीं पाते. उनकी गिरफ्तारी से वो लोग जिनके लिए सीमा पार मारे गए आतंकवादी और बस्तर में मारे गए नक्सल के बीच कोई अंतर नहीं था, वो भी नक्सल आन्दोलन की चर्चा करने लगे है.

आज नक्सल आन्दोलन नक्सलबाडी से कोसों आगे निकल गया है.आज १८० जिले -यानी करीब एक-तिहाई भारत लाल झंडे की छाया के नीचे जी रहा है.इस ताकत के पीछे कोबाड और उनके जैसे कई पड़े-लिखे लोगों का हाथ है जिन्होंने कारपोरेट जगत के किसी मालदार ओहदे से बेहतर गरीब आदिवासियों और हाशिये पे जीने वाले लाखों लोगों की बेहतर ज़िन्दगी के लिए अपना जीवन दांव पार लगा दिया.उन्होंने इसके लिए जो मार्ग चुना इस पर बहस हो सकती है,लेकिन उनके समर्पण और बलिदान पर कोई ऊँगली नहीं उठा सकता.
दिल्ली की तीस हजारी अदालत में "भगत सिंह जिंदाबाद" के नारे लगाने वाला ये शख्स आखिर कौन है? इसके लिए आपको नागपुर की इन्दोरा नाम की दलित बस्ती जाना होगा. लन्दन से अपनी पढाई अधूरी छोड़ने के बाद कोबाड अनुराधा शानबाग नाम की एक लड़की के संपर्क में आये.अनुराधा मुंबई के एक नामी-गिरामी कॉलेज की छात्रा थी और उसके पिता मुंबई के बड़े वकील थे.समाजशास्त्र में एम्.फिल करते हुए अनुराधा झुग्गी-झोंपडियों में काम करने लगी थी. कोबाड की मुलाकात उनसे वहीँ हुई और १९७७ में शादी के बाद उन्होंने नागपुर में काम करना शुरू किया.
दरअसल वो वक़्त ही कुछ ऐसा था.७० के दशक में पूरी दुनिया में क्रांति का बिगुल बज रहा था.चीन में माओ सांस्कृतिक क्रांति  लेकर आये थे. वियतनाम अमेरीकी सेना को करारी टक्कर दे रहा था. भारत में नक्सलबाडी का बीज फूट चूका था. सैकडों नौजवान अपना घर-बार छोड़कर क्रांति की आग में खुद को झोंक रहे थे.१९८० में नक्सल गुट पीपुल्स वार ने अपने कुछ दल dandakaranya भेजे.ये आंध्र प्रदेश,महाराष्ट्र,छत्तीसगढ़ और उडीसा में फैला वो जंगली इलाका है जो इंडिया की तरक्की के बीच बहुत पीछे छूट गया.यहाँ के आदिवासियों तक नेहरु की कोई भी पंच-वर्षीया योजना नहीं पहुंची.इसमें एक बड़ा इलाका ऐसा है जिसकी आखिरी बार सुध लेने वाले शख्स का नाम जलालुदीन मोहम्मद अकबर था.यहाँ के लोग इतने पिछडे थे कि उन्हें हल के इस्तेमाल के बारे में भी पता नहीं था. ऐसे में नक्सल आन्दोलन से जुड़े मुट्ठी भर लोगों ने वहां काम शुरू किया. काम बहुत मुश्किल था. लेकिन यहाँ प्रशसान के पूर्ण अभाव में लोग भुखमरी और शोषण का शिकार हो रहे थे.नक्सलियों ने लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर करने के प्रयास शुरू किये. धीरे-धीरे dandakaranya की सरकार वही चलाने लगे.

कोबाड को पीपुल्स वार ने महाराष्ट्र में काम करने के लिए चुना.इस बीच अनुराधा ने नागपुर विश्विद्यालय में पढाना शुरू किया.इन्दोरा बस्ती दलित आन्दोलन का प्रमुख केंद्र है. यहाँ अनुराधा ने २ कमरे किराये पर लेकर रहना शुरू किया. उसके मकान मालिक बताते है कि दोनों के पास किताबों के २ बक्सों और एक मटके के अलावा कुछ भी नहीं था.अनुराधा एक टूटी-फूटी साइकिल चलाती. इन्दोरा बदनाम बस्ती थी. वहां कोई भी ऑटो या टैक्सी चालक अन्दर आने से कतराता था. लेकिन इस माहौल में अनुराधा आधी रात को काम खत्म करने के बाद सुनसान रास्तों पर साइकिल चलते हुए घर आती. बस्ती में रहकर अनुराधा ने वहां के कई लड़कों की जिंदगियां बदल दी. एक दलित लड़के ने मुझसे कहा कि उसकी ज़िन्दगी में अनुराधा ने पूरी दुनिया की एक खिड़की खोल दी. सुरेन्द्र gadling नाम के एक लड़के को अनुराधा ने वकालत की पढाई करने के लिए प्रेरित किया. आज वो नक्सल आन्दोलन से जुड़े होने के आरोपियों के केस लड़ता है.
 नब्बे के दशक में अनुराधा पर भूमिगत होने का काफी दबाव बढ़ गया था.कोबाड पहले ही भूमिगत हो चुके थे.१९९० के मध्य में अनुराधा बस्तर चली गयी.केंद्र सरकार जो भी कहे लेकिन ये सच है की नक्सल कई जगहों पर सरकार की कमी को पूरा करते है.छत्तीसगढ़ के बासागुडा गाँव में पानी के एक जोहड़ की घेराबंदी सरकार कई साल तक आदिवासियों द्वारा हाथ-पाँव जोड़ने के बावजूद नहीं कर पायी.अनुराधा की अगुवाई में कई गाँव के लोगों ने मिलकर ये काम अंजाम दिया.इसके लिए हर काम करने वाले को प्रति दिन एक किलो चावल दिया गए.घेराबंदी के बाद घबराई सरकार ने २० लाख रुपये देने की पेशकश की लेकिन उसे ठुकरा दिया गया.१९९८ तक नक्सालियों ने ऐसे करीब २०० जोहडों का निर्माण किया.
 लेकिन जंगल की ज़िन्दगी काफी कठिन होती है.अनुराधा कई बार मलेरिया का शिकार बनी. इसके चलते पिछले साल अप्रैल में उन्होने दम तोड़ दिया.तब तक कोबाड माओवादियों के बड़े नेता बना दिए गए थे. वो खुद भी कैंसर और दिल की बीमारी से ग्रस्त है. अब वो जेल की सलाखों के पीछे है लेकिन उन्होने एक पूरी पीढी को प्रेरित किया. आज अरुण फरेरा जैसे कई पढ़े-लिखे नौजवान कोबाड और अनुराधा से प्रेरित होकर आन्दोलन से जुड़े हैं. (अरुण भी अब जेल में है).
अब से कुछ महीने बाद केंद्र सरकार दंडकारन्य में नक्सलियों का खात्मा करने के लिए एक बहुत बड़ी फोर्स भेज रही है. गृह मंत्री प. चिदंबरम का कहना है की नक्सली डाकू है और कुछ नहीं. लेकिन गरीब आदिवासियों के लिए वो किसी नायक से कम नहीं. ये वो लोग है जो उनके लिए स्कूल चलते है, स्वस्थ्य सेवा मुहेया कराते है, और उन्हें इज्ज़त से जीने का साहस देते है.नक्सली आन्दोलन से जुड़े गरीब आदिवासियों के लिए इस से बढकर कुछ नहीं.भरपेट खाना और सरकारी शोषण को दूर रखने के लिए एक बन्दूक.सरकार नाक्सालवाद का खात्मा करना चाहती है, लेकिन क्या वो इन इलाकों में विकास ला पाएगी? भूख और गरीबी को समूल नष्ट कर पाएगी? ये ऐसे कुछ सवाल है जिनका जवाब सरकार जितनी जल्दी खोजे उतना बेहतर होगा.

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लेखक अंग्रेजी पत्रिका ओपन के वरिष्ट विशेष संवाददाता हैं.नक्सल इलाकों से रिपोर्टिंग पर आधारित उनकी पुस्तक इस साल के अंत में हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित हो रही है.