Apr 28, 2011

क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति


आनंद स्वरूप वर्मा अपने पूर्ववर्ती  लेखों में उन नीतियों के समर्थक रहे हैं और पार्टी के कुशल नेतृत्व के प्रशंसक   भी। आज जब वे  इसे किरण का ‘यूटोपिया’ घोषित  कर रहे हैं तो यह बात संदर्भ से कटती हुई दिख रही है...

अंजनी कुमार

समकालीन तीसरी दुनिया के अप्रैल 2011 के अंक में इस पत्रिका के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा का लेख ‘क्या माओवादी क्रांति  की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है?'नेपाल के हालात के मद्देनजर काफी महत्वपूर्ण है। यह लेख ऐसे समय में आया है जब नेपाल की एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी -माओवादी के केन्द्रीय कमेटी की मैराथन बैठकें  चल रही है। इसमें पार्टी की कार्यदिशा तय होनी है।

नेपाल की राजनीति में एक अजब संकट की स्थिति बनने की प्रक्रिया चल रही है। 28 मई 2011 को संविधान सभा का कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। नेपाल की राजनीति की गाड़ी 28  मई को किस हालात में खड़ी होगी,यह चिंता सभी को सता रही है। जिस तरह की राजनीति पिछले तीन वर्षों में वहां उभरकर आई है उससे तो यही लगता है कि रास्ता निकल ही आएगा। रास्ता कैसा होगा,यह जरूर चिंता का विषय है।

राजशाही के अंत के बाद बार-बार आए संकट के बीच से रास्ता निकाल ले जाने में एसीपीएन-माओवादी का नेतृत्व खासकर कामरेड प्रचंड और बाबूराम भट्टाराई खासा पारंगत हो चुके हैं। साथ ही भारत और दूतावास रास्ता निकाल ले आने के लिए काफी सक्रिय  हैं। भारतीय राजनयिक के बयान को मानें तो ‘संकट के हल की उम्मीद है।' प्रचंड की मानें तो ‘संविधान हफ्ते भर में बन जाएगा।' आनंद स्वरूप वर्मा का लेख इन हालातों से निपटने के लिए उचित कार्यदिशा तथा कार्यनीति अपनाने की सलाह के रूप में आया है। साथ ही यह गलत पक्ष लेने वालों की आलोचना कर हालात के अनुरूप चलने का आह्वान भी है।

उनकी चिंता है कि यदि एसीपीएन-माओवादी के बीच कलह बना रहेगा तो हालात का फायदा दूसरी ताकतें उठाएंगी। उनकी दृष्टि  में बाबूराम भट्टाराई के नेतृत्व वाली योजना यानी जनयुद्ध से हासिल उपलब्धियों को ठोस बनाते हुए संविधान निर्माण को आगे बढ़ाने का कार्यक्रम ही बेहतर रास्ता है। हालांकि वे बाबूराम के नेतृत्व की महत्वाकांक्षा और प्रचंड की क्रांतिकारी  लफ्फाजी’ से चिंतित हैं। वह साहस कर यह कहने का हौसला भी बढ़ाते हैं कि ‘किरण जी, आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं।'

आनंद स्वरूप वर्मा की चिंता और हालात को जनता के पक्ष में मोड़ देने की अपील उनकी पक्षधरता को ही दिखाता है। नेपाली शांति  के पक्ष में उनकी भूमिका से भारत और नेपाल के कम से कम राजनीतिक समूह अच्छी तरह परिचित हैं, लेकिन यह लेख जितनी चिंता से लिखा गया है उतना ही चिंतित भी करता है। प्रचंड और बाबूराम के बीच की दो लाइनों के संघर्ष  की चर्चा जनयुद्ध के शुरूआती दिनों से रही है। यह संकट कठिन रास्तों से गुजरा और हिसला यामी के शब्दों में जनता के पक्ष में हमने ‘पार्टी एकता को बनाए रखने’ के पक्ष में निर्णय लिया। इन दो लाइनों के संघर्ष की मूल बात पार्टी के अंदरूनी दस्तावेजों में बंद रही, लेकिन सात पार्टियों के बीच एकता समझौता और शांतिवार्ता के साथ यह चर्चा आम रही है कि मूलतः बाबूराम की लाइन ही लागू हो रही  है।

उस समय मुख्य मसला   संसदीय पार्टियों के चरित्र और सेना के एकीकरण का था, जिससे लोग बहस व निष्कर्ष निकाल रहे थे। यह मसला एसीपीएन-माओवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच भी बना। इसे हल करने और स्पष्ट कार्यक्रम घोषित करने के उद्देश्य  से अगस्त 2007  में पार्टी का बालाजू प्लेनम हुआ। इसमें एकीकृत दस्तावेज पारित हुआ। इसके बाद और दो पार्टी प्लेनम और दो केंद्रीय कमेटी सम्मेलन संपन्न हुए। बाबूराम भट्टाराई ने लगभग महीनेभर चली  पार्टी की छठवें विस्तारित ऊपरी कमेटी सदस्यों की पालुमतार बैठक  में ही पहली बार अपने कार्यक्रम का दस्तावेज पेश  किया। इस बैठक  में किरण, प्रचंड और बाबूराम तीनों ने ही अपने-अपने दस्तावेज पेश  किये थे।

इसके पहले के खारी पार्टी प्लेनम में किरण और प्रचंड ने दो अलग-अलग दस्तावेज पेश  किए थे। वर्ष 2009 की केन्द्रीय कमेटी बैठक  में किरण के दस्तावेज को मान्यता दी गई और जनविद्रोह की लाइन को स्वीकृत किया गया। वर्ष 2007से लेकर दिसंबर 2010  के बीच हुए प्लेनम व विस्तारित बैठकों  में जनविद्रोह की लाइन ही आम स्वीकृत थी। संविधान निर्माण विद्रोह का विकल्प नहीं था और सेना का एकीकरण भी शांति  का विकल्प नहीं था।

कह सकते हैं कि पार्टी में दिसंबर 2010 तक संविधान  निर्माण,सेना का एकीकरण और जनविद्रोह नेपाल की शांति कार्यक्रम के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकृत थे। पार्टी बैठकों  और कार्यकर्ता सम्मेलनों में प्रचंड इसी लाइन को बोलते थे, लेकिन बाहर के घेरे में उनकी भाषा और विचार एकदम भिन्न होते थे। जिसके बारे में यह कहकर छूट दी जाती थी कि ‘राजनय’में एक भिन्न भाषा  और व्यवहार की मांग होती है। बाबूराम का व्यवहार और भाषा  प्रचंड से भी बढ़कर थी। किरण ‘राजनय’ से बाहर थे और पार्टी के एकमत व एकीकृत दस्तावेज के अनुरूप ही बोलते थे।

आनंद स्वरूप वर्मा गोरखा....पालुंतार  प्लेनम दिसंबर 2010में पार्टी के भीतर उभरकर आए तीन ‘गुट’ और तीन धारा के संघर्ष  से एक निष्कर्ष की ओर बढ़ते हैं और किरण की ‘यूटोपिया’ की आलोचना करते हुए लिखते हैं, ‘किरण जी को न जाने कैसे अभी भी ऐसा महसूस होता है कि इतने सारे विचलनों के बावजूद पार्टी कार्यकर्ता और आम जनता उनके आह्वान पर विद्रोह के लिए उठ खड़ी होगी।' यदि हम पार्टी में बहस व निर्णय लेने के लिए पार्टी प्लेनम व केंद्रीय समिति की बैठकों की शुरूआत 2006 या 2007 से करें तो पूरी पार्टी इसी ‘यूटोपिया’ में थी। उनके बीच मुख्य मुद्दा मात्र ‘एकता’ बनाए रखने की घोषणा  भर नहीं था, बल्कि यह ‘यूटोपिया’ पूरी पार्टी की समझदारी थी।

इस  समझदारी के तहत ही जनमिलिशिया  और लड़ाकू दस्तों को जनसंगठनों का हिस्सा बनाया गया। यही नहीं जनमुद्दों के रोजमर्रा के संघर्षों और साथ ही विकास के लिए संगठित प्रयास को आगे बढ़ाने के निर्णयों के साथ पार्टी ने खुला काम करने का निर्णय भी  लिया। वर्ष 2005में सैन्य कार्रवाई व 2006में जनविद्रोह की कार्रवाई में सत्ता दखल न करने का निर्णय पार्टी का एकमत निर्णय था। उस समय किरण के किसी अलग दस्तावेज का उल्लेख नहीं मिलता है।वर्ष 2005 व 2006 में पार्टी ने सत्ता दखल की तात्कालिक कार्रवाई को छोड़ने के पीछे के कारणों में कभी भी यह नहीं बताया कि सत्ता दखल ‘पेरिस कम्यून’ यानी चंद दिनों बाद हार में बदल जाता। जैसा कि वह किरण को चुनौती देते हुए वह लिखते हैं, ‘किसने रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से?’

इस मुद्दे पर बाबूराम, प्रचंड व किरण कई साक्षात्कारों में अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं। तीनों ही या यूं कहे कि पार्टी इस बात से सहमत थी , ‘सत्ता का बल व छल पूरी तरह हमारे पक्ष में है', इसलिए ‘सत्ता दखल राजनीतिक संघर्ष के जनवादी पक्ष को मजबूत करते हुए किया जाय’ क्योंकि ‘ विश्व  परिस्थिति में सैन्य कार्यनीति पर जोर नेपाल को अंतहीन युद्धक्षेत्र में बदल देगा’ आदि आदि। यही वह बिंदु  थे,  जहां लेनिन के नेतृत्व में हुई अक्टूबर क्रांति और चीन की नवजनवादी क्रांति  का संश्लेषण  करने का भी दावा किया गया। इस संक्रमण के दौर में कुछ ऐसी कार्यनीतियां तय हुईं,  जिनका महत्व प्रचंड के शब्दों में ‘रणनीतिक’ था। मसलन, शांतिवार्ता, सीजफायर, संसदीय छल-बल आदि।

वर्मा जी अपने पूर्ववर्ती  लेखों में इन नीतियों के समर्थक रहे हैं और पार्टी के कुशल नेतृत्व के प्रशंसक  भी। आज जब वे  इसे किरण का ‘यूटोपिया’ घोषित  कर रहे हैं तो यह बात संदर्भ से कटती हुई दिख रही है। एसीपीएन-माओवादी पार्टी में तीन धाराएं नवंबर-दिसंबर 2010  में ही अपने-अपने दस्तावेजों के साथ खुलकर सामने आई हैं। ये तीन धाराएं इतनी जल्दी कैसे गुट में बदल गईं, इस पर चिंतन करना चाहिए। बाबूराम उपरोक्त बैठक  में अपना दस्तावेज प्रस्तुत करते हैं और उतनी ही जल्दी सारतत्व में प्रचंड का दिल जीत लेते हैं, यह भी सोचनीय विषय है।

इससे भी सोचनीय विषय वर्मा जी का इस शर्त पर समर्थन है कि ‘मान्यवर, आपको भी पता है कि आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं और पार्टी को  हर हाल में शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।' मैं आपकी  इस बात से यह निष्कर्ष  नहीं निकाल रहा हूं कि आप घुटना टेकने की बात कह रहे हैं, आप हालात को समझने और राजनीति को सही दिशा  देकर जनता के पक्ष में बने रहने की ही बात कह रहे हैं। आप यह समर्थन देने की अपील इस कारण करते हैं कि पार्टी व उसके जनसंगठनों की सदस्यता में कमी आई है, उसमें हो रही गुटबंदियों से संरचनाएं कमजोर हुई हैं। आप लिखते हैं ‘ऐसे में जब आप विद्रोह की बात करते हैं तो क्या यह महज एक लोक-लुभावन नारा, पापुलिस्ट स्लोगन नहीं हो जाता?’

लेकिन वर्मा जी आप यह बताना भूल जाते हैं कि नेपाल में आज भी एसीपीएन-माओवादी पार्टी संख्या के आधार पर सबसे बड़ी पार्टी है। जुझारूपन और जनसमर्थन में आज भी वही अगुआ है। संसद में भी वही सबसे बड़ी पार्टी है। पालुंतार-गोरखा सम्मेलन से  आठ महीने पहले अप्रैल-मई 2010में ‘संघर्ष से विद्रोह तक’के नारे को अंजाम देने के लिए पूरे नेपाल में और राजधानी काठमांडू में लाखों लोग सड़क पर उतर आए थे। उस समय पुलिस व सेना के ‘राज्य अनुशासन'  का खुला उल्लंघन शुरू हो गया था। अब  सिर्फ एक साल में हालात क्या सचमुच इतने  बदल गये हैं  है कि किरण जी ‘यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं।'

पालुन्तार  सम्मेलन का यथार्थ यह है कि बाबूराम संविधान को ही विकल्प, विद्रोह को आत्मघाती मानते हैं। भारतीय विस्तारवाद को नेपाली शांति का मुख्य दुश्मन  नहीं, बल्कि दलाल बुर्जुआ के साथ शांतिपूर्ण राजनीतिक प्रतियोगिता की रणनीति अपनाने की लाइन देते हैं। बाबूराम ने किन्हीं मजबूरियों में नहीं, बल्कि पूरी विचार प्रणाली के तहत अपना प्रस्ताव प्रस्तुत किया है,जिस पर कभी-कभी कथनी और लंबे समय से करनी में प्रचंड इसी रास्ते पर चल रहे हैं,जैसा कि आपने इसे चिन्हित किया है और उन्हें इस एवज में ‘क्रांतिकारी  लफ्फाजी’छोड़ देने के लिए अपील भी की है।

यदि यह लफ्फाजी होती  तो भी इतनी घातक नहीं होती। दरअसल यह अवसरवाद है,जिसका परिणाम पार्टी में वैचारिक ऊहापोह, विभ्रम, भटकाव के रूप में सामने  आता है और परिणति आमतौर पर दक्षिणपंथी भटकाव में दिखती  है। यह सामान्य सा सूत्रीकरण माओ का है जिसे प्रचंड पर लागू कर उन्हें और उसके पार्टी पर पड़े प्रभावों में देखा जा सकता है। आप प्रचंड को उनके बन रहे पक्ष की ओर जोर लगाकर ठेल रहे हैं। वर्ष 2005 से 2011 के बीच पार्टी की एकीकृत समझदारी, उसके कार्यक्रम, कार्यनीति व रणनीति को किरण के खाते में डालकर उसे ‘यूटोपिया’में बदल दे रहे हैं। जबकि वह एसीपीएन-माओवादी पार्टी के नेपाल के नवजनवादी क्रांति  का मसौदा है और इसी के तहत उसने वहां की राजशाही को खत्म किया। नेपाल की जनता को दुनिया की अग्रणी कतार में ले आया और दक्षिण एशिया  में शांति  के एजेंडे को सर्वोपरि बना दिया।

नेपाल की शांति  संकट में है। पार्टी के भीतर गलत प्रवृत्तियों का जोर काफी बढ़ा है। नेतृत्व में आपसी मतभेद बढ़ा है। पार्टी और जनसंगठनों की सदस्यता में कमी व गुटबंदियां बढ़ी हैं। इसे ठीक करने की प्रक्रिया  पार्टी के भीतर वैचारिक बहस-विमर्श, गलत और भ्रष्ट  लोगों की छंटाई के माध्यम से ही हो सकता है। यह आम सी लगने वाली बात न तो नेतृत्व स्तर पर लागू की गयी है  और न ही निचले स्तर पर हो पाई है। जो पार्टी माओ त्से तुंग के अनुभवों से आगे जाने की बात करने लगी थी वही आज उसके सांस्कृतिक क्रांति  के न्यूनतम सार संकलनों को भी लागू नहीं कर पा रही है।

इसी तरह सम्मेलनों में दो धारा संघर्ष में अल्पमत में रहने वाले नेतृत्व से लंबे समय तक बहुमत की धारा को लागू कराने के पार्टी उसूल अपनाने के चलते सभी स्तरों पर कन्फ्यूजन, विभ्रम व सांगठनिक गड़बड़ियां पैदा हुई हैं। गुरिल्ला युद्ध, विद्रोह व संघर्ष  को विभिन्न फेज में बांटने, प्रयोग करने की रणनीति के चलते जनमीलिशिया  व गुरिल्ला आर्मी से जुड़े लोगों में अफरातफरी की स्थिति बनी। इसी से जुड़ा हुआ बेस एरिया व क्रांतिकारी  सरकार की संकल्पना के बनने तथा नए फेज में इसे भंग करने के चलते आमजन में अफरातफरी और विभ्रम की स्थिति बनी है। एक फेज से दूसरे फेज में जाने की तैयारी,पार्टी का पुनर्गठन और नए नेतृत्व के आने की पूरी प्रक्रिया में संरचनागत समर्थन का पूरी तरह अभाव दिखता है। जिसके चलते खुली पार्टी होने के साथ ही इससे होने वाले  खामियाजे में पार्टी गले तक डूबी दिख रही है।

आज जरूरत है कि पार्टी खुद को पुनर्गठित करे, संविधान निर्माण में हुई देरी के लिए मुख्य रूप से उन पार्टियों के खिलाफ अभियान चलाये, जो देरी के लिए जिम्मेदार हैं। निरकुंशता या तानाशाही की किसी भी संभावना के खिलाफ संघर्ष की तैयारी करे और पार्टी के बहुमत को बहुमत का नेतृत्व ही पार्टी कार्यक्रम के साथ आगे बढ़ाए। संशोधनवाद व अवसरवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष चलाकर पार्टी को शांति के  अगुवा की भूमिका में ले आए।







स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक- सामाजिक कार्यकर्ता. फिलहाल मजदूर आन्दोलन पर कुछ जरुरी लेखन में व्यस्त.








क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है?

समकालीन तीसरी दुनिया के अप्रैल अंक में छपे लेख में आनंद स्वरुप वर्मा ने नेपाली माओवादी पार्टी के नेतृत्व के बीच जारी अंतर्विरोधों और असहमतियों पर तीखी  टिप्पणी की है. इस टिप्पणी के जरिये उन्होंने नेपाल के मौजूदा राजनीतिक हालात और चुनौतियों  का भी जायजा लिया है. उन्होंने नेपाल की माओवादी पार्टी के उपाध्यक्ष और पार्टी में तीसरी लाइन के समर्थक किरण वैद्य की समझ को व्यावहारिक नहीं माना है.  आनंद स्वरुप वर्मा नेपाल मामलों के महत्वपूर्ण लेखक  हैं इसलिए उनकी इस राय पर पक्ष-विपक्ष उभर आया है.इसी के मद्देनजर जनज्वार नेपाल के राजनीतिक हालात पर बहस आमंत्रित करता है... मॉडरेटर


आनंद स्वरूप वर्मा

क्या 13 फरवरी 1996 को नेपाल में  जिस जनयुद्ध  की शुरुआत हुई थी और जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था,उसके अवसान की घड़ी नजदीक आती जा रही है?  यह आंदोलन कई पड़ावों से गुजरते हुए अपने नेता को देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा सका और यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि  रही। जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के मकसद से इसे शुरू किया गया था उन लक्ष्यों की दूरी लगातार बढ़ती गयी और उस लक्ष्य की दिशा में चलने वाले अपने आंतरिक कारणों से कमजोर और असहाय होते गए।

कोई भी क्रांति कभी भी सफल या असफल हो सकती है,कोई भी आंदोलन कभी भी ऊपर या नीचे जा सकता है लेकिन जिन कारणों से यह आंदोलन अपने अवसान की तरफ बढ़ रहा है वह सचमुच बहुत दुःखद है। इसने नेपाल की सामाजिक संरचना में आमूल परिवर्तन को अपना लक्ष्य निर्धारित  किया था। इसने 10 वर्षों के सशस्त्र संघर्ष के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में सामंतवाद को काफी कमजोर किया और फिर शहरी क्षेत्रों के मध्य वर्ग को आकर्षित करने में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। एक समय ऐसा भी महसूस हुआ कि इसने अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद को जो चुनौती दी उसके कुछ सकारात्मक नतीजे निकले और इन नतीजों के रूप में पड़ोसी देश भारत को काफी हद तक इसने तटस्थ बनाया। चूंकि जनयुद्ध  वाले वर्षों में नेपाल को लक्ष्य कर अमेरिका की ज्यादातर गतिविधियाँ  भारत के माध्यम से संचालित होती थीं इसलिए आगे भी भारत की ओर से व्यवधान पैदा होने का खतरा बना रहता था। लेकिन प्रचण्ड के प्रधानमंत्री  बनने और उसके बाद के कुछ महीनों तक की घटनाओं के देखने से लगता है कि भारत ने इसे नियति मानते हुए स्वीकार कर लिया था।

नेपाल के  सेनाध्यक्ष कटवाल के हटाए जाने के प्रसंग के बाद भारत को इस बात का मौका मिला कि वह बहुत खुले ढंग से हस्तक्षेप कर सके और उसने किया भी। अपने राजदूत राकेश सूद के जरिए उसने वह सब किया जिससे सामाजिक संरचना में आमूल बदलाव वाली ताकतें कमजोर हों। ऐसा भारत इसलिए कर सका क्योंकि उन ताकतों के अंदर वैचारिक धरातल पर लंबे समय से जो बहस चल रही थी और जिसे बहुत सकारात्मक ढंग से लिया जा रहा था उसमें विकृतियां आती गयीं और इस बहस पर विचारधरा की जगह व्यक्तिगत अहं,निहित स्वार्थ,नेतृत्व की होड़,निम्न स्तर की गुटबाजी,पार्टी में प्राधिकार  का सवाल,पार्टी के आर्थिक स्रोतों पर कब्जे की होड़ जैसी वह सारी खामियां हावी होती गयीं जो बुर्जुआ राजनीति का अभिन्न अंग हैं। शुरू के दिनों में इस क्रांति के उन शुभचिंतकों ने जो नेपाल के अंदर और नेपाल के बाहर हैं, यह माना कि ये खामियां कार्यकर्ताओं के दबाव से स्वतः दूर हो जाएंगी क्योंकि पार्टी का संघर्ष का एक शानदार इतिहास है।

आज स्थिति यह है कि हर मोर्चे पर पार्टी की विफलता उजागर हो रही है। संविधन बनाने का इसका लक्ष्य कोसों दूर चला गया है। मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट मची रही। वाईसीएल टूट के कगार पर है। सांस्कृतिक मोर्चे पर विभ्रम की स्थिति है। शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि ये आरोप शत्रुपक्ष  की ओर से नहीं बल्कि खुद पार्टी के अंदर से सामने आ रहे हैं इसलिए इसे इतनी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता।

नेतृत्व मुख्य रूप से तीन गुटों में बंट चुका है। कम से कम बाहरी दुनिया को तो यही जानकारी मिल रही है। इसे आप पूरी तरह बुर्जुआ दुष्प्रचार कहकर खारिज नहीं कर सकते। अब यह एक यथार्थ बन चुका है। प्रचण्ड,बाबूराम भट्टराई और किरण के तीन गुट साफ तौर पर देखे जा सकते हैं। गोरखा प्लेनम के बाद से लेकर अब तक केन्द्रीय समिति अथवा स्थायी समिति की जितनी भी बैठकें हुई हैं उनमें बस एक ही निर्णय स्थायी रूप ले सका है कि पार्टी कि एकता बरकरार रहेगी और इसके टूटने का कोई खतरा नहीं है। एक क्रांतिकारी पार्टी के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति क्या होगी की हर बार 20-30घंटे की बैठक के बाद इसी निष्कर्ष तक पहुंचा जाए कि पार्टी की एकता बनी रहेगी।

भारत हो या नेपाल इन दोनों देशों की जनता में काफी सहनशीलता है। यहां तक तो दोनों देशों के बीच एक समानता है लेकिन भारत के विपरीत नेपाल में एक बार अगर किसी के विरुद्ध लहर चल पड़ी तो उसे रोकना मुश्किल होता है। मुझे लगता है कि यह स्थिति पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के मनोविज्ञान में कहीं समायी हुई है। क्योंकि भारत के भी उत्तराखंड में हमें इस तरह की स्थिति का आभास होता है। माओवादी नेताओं को भी इसका आभास जरूर होगा क्योंकि अपनी जनता की मानसिकता को उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता।

पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है। नेताओं के वक्तव्यों में एक चालाकी है जिसे अब धीरे-धीरे  पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है। प्रचण्ड क्या चाहते हैं-शांति प्रक्रिया को पूरा करना या विद्रोह में जाना यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। जहां तक बाबूराम और किरण का सवाल है उनकी लाइन बहुत साफ है। बाबूराम का कहना है कि अब तक जो उपलब्धियां  हो चुकी हैं उन्हें ठोस रूप देने में सारी उर्जा लगायी जाए और इसे संपन्न करने के लिए संविधान निर्माण की प्रक्रिया को तेज किया जाए। हालांकि इसी प्रक्रिया को तेज करने के मकसद से जब झलनाथ खनाल को प्रचण्ड ने समर्थन दिया ताकि लंबे समय से चला आ रहा गतिरोध समाप्त हो तो बाबूराम भट्टराई और उनके साथी नाराज हो गए। किरण का कहना है कि संविधान निर्माण में हम अपनी उर्जा नष्ट न करें क्योंकि संविधन सभा की मौजूदा संरचना को देखते हुए पूरी तरह जनपक्षीय संविधन का बनना असंभव है लिहाजा हम विद्रोह में जाने की तैयारी करें।

किरण जी को न जाने कैसे अभी भी ऐसा महसूस होता है कि इतने सारे विचलनों के बावजूद पार्टी कार्यकर्ता और आम जनता उनके आह्वान पर विद्रोह के लिए उठ खड़ी होगी। उनके पास इन सवालों का भी कोई जवाब नहीं है कि अगर ऐसा ही था तो पार्टी ने 2006में शांति समझौता क्यों किया, संविधान सभा के चुनाव में क्यों हिस्सा लिया और फिर  देश का नेतृत्व संभालने की जिम्मेदारी क्यों ली। क्यों नहीं अप्रैल 2006 में जन आंदोलन-2 के बाद ही नारायणहिती पर कब्जा कर, ज्ञानेन्द्र को महल से खदेड़ कर या उनका सफाया कर अपना झंडा लहरा दिया। किसने आपको रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से?  क्या आपने यह सोचकर चुनाव में हिस्सा लिया था कि आपकी पार्टी पूरी तरह हार जाएगी और आप फिर  बंदूकें लेकर जंगलों में चले जाएंगे? अगर आपकी पार्टी देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आयी तो नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने से आप कैसे बचते! क्रांतिकारी नारे देना और व्यावहारिक राजनीति से रू-ब-रू होना बहुत टेढ़ा काम है। आपको तय करना होगा कि आप दरअसल क्या चाहते हैं।

आज प्रचण्ड के सामने भी यही सबसे बड़ा सवाल है। एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है,संविधान बनाने के लिए ही जनता ने इतनी बड़ी कुर्बानी दी,संविधान बनाने का नारा हमारा नारा था आदि-आदि और दूसरी तरफ कार्यकर्ताओं की आंतरिक बैठकों में विद्रोह की बात करते हैं। क्या यह क्रांतिकारी लफ्फाजी नहीं है?क्या यह अपने कार्यकर्ताओं को धेखे में रखना नहीं है? आप से बेहतर कौन इस सच्चाई को जानता होगा कि 2006 और 2011 में आपके पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की जो आत्मगत तैयारी थी वह आज 60 प्रतिशत से भी ज्यादा कम हो चुकी है।

ऐसे में जब आप विद्रोह की बात कहते हैं तो क्या यह महज एक लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन नहीं हो जाता? मान्यवर, आपको भी पता है कि आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं और पार्टी को हर हाल में शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो बाबूराम की लाइन और आपकी लाइन में कोई फर्क नहीं है लेकिन इन्हीं बातों के लिए आपके लोग बाबूराम की लाइन की बाल की खाल उधेड़ते  हुए  भारतीय विस्तारवाद का समर्थक  घोषित कर देते हैं और क्रांतिकारी नारे देने वाले क्रांति समर्थक हो जाते हैं। नारों के आधार   पर निष्ठाएं तय हो रही हैं।

आपको साहस से यह कहना होगा कि किरण जी,आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं। नेपाल का यथार्थ आज यही है कि किसी भी तरह संविधन निर्माण का काम पूरा किया जाए और एक दुष्चक्र में फंसी राजनीति को आगे बढ़ाया जाए। आप अपनी हर खामियों के लिए कब तक भारत को दोषी ठहराते रहेंगे। कल तो राकेश सूद चला जाएगा और एक नया राजदूत आपके यहां पहुंच जाएगा। जो भी पहुंचेगा वह कम से कम उतना बेइमान तो नहीं होगा जितना राकेश सूद था। शरद यादव जैसे नेताओं ने लगातार मनमोहन सिंह और शिवशंकर मेनन से संवाद स्थापित कर उन्हें इस बात के लिए राजी किया है कि नेपाल की राजनीति में सबसे बड़ी पार्टी और सबसे ज्यादा समर्थन वाली पार्टी होने के नाते माओवादियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। बेशक, शरद यादव हों या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,ये सभी लोग एक चाइना फोबिया से ग्रस्त हैं और इन्हें लगता है कि अगर माओवादियों को अलग-थलग रहने दिया गया तो वे चीन के करीब चले जाएंगे जो भारत के हित में नहीं होगा।

मैं खुद इस बात को नहीं मानता तो भी अगर इस विचार के कारण ही भारत सरकार एक संतुलित नजरिया अपनाती है तो इससे नेपाली जनता का हित ही होगा। ऐसी स्थिति में अगर माओवादियों की आपसी मारकाट, अहं की लड़ाई, पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष जारी रहा तो इस बदली हुई परिस्थिति का भी नेपाली जनता को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।



जनपक्षधर पत्रकारिता के महत्वपूर्ण स्तंभ और मासिक पत्रिका 'समकालीन तीसरी दुनिया' के संपादक.