समकालीन तीसरी दुनिया के अप्रैल अंक में छपे लेख में आनंद स्वरुप वर्मा ने नेपाली माओवादी पार्टी के नेतृत्व के बीच जारी अंतर्विरोधों और असहमतियों पर तीखी टिप्पणी की है. इस टिप्पणी के जरिये उन्होंने नेपाल के मौजूदा राजनीतिक हालात और चुनौतियों का भी जायजा लिया है. उन्होंने नेपाल की माओवादी पार्टी के उपाध्यक्ष और पार्टी में तीसरी लाइन के समर्थक किरण वैद्य की समझ को व्यावहारिक नहीं माना है. आनंद स्वरुप वर्मा नेपाल मामलों के महत्वपूर्ण लेखक हैं इसलिए उनकी इस राय पर पक्ष-विपक्ष उभर आया है.इसी के मद्देनजर जनज्वार नेपाल के राजनीतिक हालात पर बहस आमंत्रित करता है... मॉडरेटर
आनंद स्वरूप वर्मा
क्या 13 फरवरी 1996 को नेपाल में जिस जनयुद्ध की शुरुआत हुई थी और जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था,उसके अवसान की घड़ी नजदीक आती जा रही है? यह आंदोलन कई पड़ावों से गुजरते हुए अपने नेता को देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा सका और यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही। जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के मकसद से इसे शुरू किया गया था उन लक्ष्यों की दूरी लगातार बढ़ती गयी और उस लक्ष्य की दिशा में चलने वाले अपने आंतरिक कारणों से कमजोर और असहाय होते गए।
कोई भी क्रांति कभी भी सफल या असफल हो सकती है,कोई भी आंदोलन कभी भी ऊपर या नीचे जा सकता है लेकिन जिन कारणों से यह आंदोलन अपने अवसान की तरफ बढ़ रहा है वह सचमुच बहुत दुःखद है। इसने नेपाल की सामाजिक संरचना में आमूल परिवर्तन को अपना लक्ष्य निर्धारित किया था। इसने 10 वर्षों के सशस्त्र संघर्ष के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में सामंतवाद को काफी कमजोर किया और फिर शहरी क्षेत्रों के मध्य वर्ग को आकर्षित करने में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। एक समय ऐसा भी महसूस हुआ कि इसने अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद को जो चुनौती दी उसके कुछ सकारात्मक नतीजे निकले और इन नतीजों के रूप में पड़ोसी देश भारत को काफी हद तक इसने तटस्थ बनाया। चूंकि जनयुद्ध वाले वर्षों में नेपाल को लक्ष्य कर अमेरिका की ज्यादातर गतिविधियाँ भारत के माध्यम से संचालित होती थीं इसलिए आगे भी भारत की ओर से व्यवधान पैदा होने का खतरा बना रहता था। लेकिन प्रचण्ड के प्रधानमंत्री बनने और उसके बाद के कुछ महीनों तक की घटनाओं के देखने से लगता है कि भारत ने इसे नियति मानते हुए स्वीकार कर लिया था।
नेपाल के सेनाध्यक्ष कटवाल के हटाए जाने के प्रसंग के बाद भारत को इस बात का मौका मिला कि वह बहुत खुले ढंग से हस्तक्षेप कर सके और उसने किया भी। अपने राजदूत राकेश सूद के जरिए उसने वह सब किया जिससे सामाजिक संरचना में आमूल बदलाव वाली ताकतें कमजोर हों। ऐसा भारत इसलिए कर सका क्योंकि उन ताकतों के अंदर वैचारिक धरातल पर लंबे समय से जो बहस चल रही थी और जिसे बहुत सकारात्मक ढंग से लिया जा रहा था उसमें विकृतियां आती गयीं और इस बहस पर विचारधरा की जगह व्यक्तिगत अहं,निहित स्वार्थ,नेतृत्व की होड़,निम्न स्तर की गुटबाजी,पार्टी में प्राधिकार का सवाल,पार्टी के आर्थिक स्रोतों पर कब्जे की होड़ जैसी वह सारी खामियां हावी होती गयीं जो बुर्जुआ राजनीति का अभिन्न अंग हैं। शुरू के दिनों में इस क्रांति के उन शुभचिंतकों ने जो नेपाल के अंदर और नेपाल के बाहर हैं, यह माना कि ये खामियां कार्यकर्ताओं के दबाव से स्वतः दूर हो जाएंगी क्योंकि पार्टी का संघर्ष का एक शानदार इतिहास है।
आज स्थिति यह है कि हर मोर्चे पर पार्टी की विफलता उजागर हो रही है। संविधन बनाने का इसका लक्ष्य कोसों दूर चला गया है। मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट मची रही। वाईसीएल टूट के कगार पर है। सांस्कृतिक मोर्चे पर विभ्रम की स्थिति है। शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि ये आरोप शत्रुपक्ष की ओर से नहीं बल्कि खुद पार्टी के अंदर से सामने आ रहे हैं इसलिए इसे इतनी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता।
नेतृत्व मुख्य रूप से तीन गुटों में बंट चुका है। कम से कम बाहरी दुनिया को तो यही जानकारी मिल रही है। इसे आप पूरी तरह बुर्जुआ दुष्प्रचार कहकर खारिज नहीं कर सकते। अब यह एक यथार्थ बन चुका है। प्रचण्ड,बाबूराम भट्टराई और किरण के तीन गुट साफ तौर पर देखे जा सकते हैं। गोरखा प्लेनम के बाद से लेकर अब तक केन्द्रीय समिति अथवा स्थायी समिति की जितनी भी बैठकें हुई हैं उनमें बस एक ही निर्णय स्थायी रूप ले सका है कि पार्टी कि एकता बरकरार रहेगी और इसके टूटने का कोई खतरा नहीं है। एक क्रांतिकारी पार्टी के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति क्या होगी की हर बार 20-30घंटे की बैठक के बाद इसी निष्कर्ष तक पहुंचा जाए कि पार्टी की एकता बनी रहेगी।
भारत हो या नेपाल इन दोनों देशों की जनता में काफी सहनशीलता है। यहां तक तो दोनों देशों के बीच एक समानता है लेकिन भारत के विपरीत नेपाल में एक बार अगर किसी के विरुद्ध लहर चल पड़ी तो उसे रोकना मुश्किल होता है। मुझे लगता है कि यह स्थिति पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के मनोविज्ञान में कहीं समायी हुई है। क्योंकि भारत के भी उत्तराखंड में हमें इस तरह की स्थिति का आभास होता है। माओवादी नेताओं को भी इसका आभास जरूर होगा क्योंकि अपनी जनता की मानसिकता को उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता।
पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है। नेताओं के वक्तव्यों में एक चालाकी है जिसे अब धीरे-धीरे पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है। प्रचण्ड क्या चाहते हैं-शांति प्रक्रिया को पूरा करना या विद्रोह में जाना यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। जहां तक बाबूराम और किरण का सवाल है उनकी लाइन बहुत साफ है। बाबूराम का कहना है कि अब तक जो उपलब्धियां हो चुकी हैं उन्हें ठोस रूप देने में सारी उर्जा लगायी जाए और इसे संपन्न करने के लिए संविधान निर्माण की प्रक्रिया को तेज किया जाए। हालांकि इसी प्रक्रिया को तेज करने के मकसद से जब झलनाथ खनाल को प्रचण्ड ने समर्थन दिया ताकि लंबे समय से चला आ रहा गतिरोध समाप्त हो तो बाबूराम भट्टराई और उनके साथी नाराज हो गए। किरण का कहना है कि संविधान निर्माण में हम अपनी उर्जा नष्ट न करें क्योंकि संविधन सभा की मौजूदा संरचना को देखते हुए पूरी तरह जनपक्षीय संविधन का बनना असंभव है लिहाजा हम विद्रोह में जाने की तैयारी करें।
किरण जी को न जाने कैसे अभी भी ऐसा महसूस होता है कि इतने सारे विचलनों के बावजूद पार्टी कार्यकर्ता और आम जनता उनके आह्वान पर विद्रोह के लिए उठ खड़ी होगी। उनके पास इन सवालों का भी कोई जवाब नहीं है कि अगर ऐसा ही था तो पार्टी ने 2006में शांति समझौता क्यों किया, संविधान सभा के चुनाव में क्यों हिस्सा लिया और फिर देश का नेतृत्व संभालने की जिम्मेदारी क्यों ली। क्यों नहीं अप्रैल 2006 में जन आंदोलन-2 के बाद ही नारायणहिती पर कब्जा कर, ज्ञानेन्द्र को महल से खदेड़ कर या उनका सफाया कर अपना झंडा लहरा दिया। किसने आपको रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से? क्या आपने यह सोचकर चुनाव में हिस्सा लिया था कि आपकी पार्टी पूरी तरह हार जाएगी और आप फिर बंदूकें लेकर जंगलों में चले जाएंगे? अगर आपकी पार्टी देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आयी तो नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने से आप कैसे बचते! क्रांतिकारी नारे देना और व्यावहारिक राजनीति से रू-ब-रू होना बहुत टेढ़ा काम है। आपको तय करना होगा कि आप दरअसल क्या चाहते हैं।
आज प्रचण्ड के सामने भी यही सबसे बड़ा सवाल है। एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है,संविधान बनाने के लिए ही जनता ने इतनी बड़ी कुर्बानी दी,संविधान बनाने का नारा हमारा नारा था आदि-आदि और दूसरी तरफ कार्यकर्ताओं की आंतरिक बैठकों में विद्रोह की बात करते हैं। क्या यह क्रांतिकारी लफ्फाजी नहीं है?क्या यह अपने कार्यकर्ताओं को धेखे में रखना नहीं है? आप से बेहतर कौन इस सच्चाई को जानता होगा कि 2006 और 2011 में आपके पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की जो आत्मगत तैयारी थी वह आज 60 प्रतिशत से भी ज्यादा कम हो चुकी है।
ऐसे में जब आप विद्रोह की बात कहते हैं तो क्या यह महज एक लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन नहीं हो जाता? मान्यवर, आपको भी पता है कि आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं और पार्टी को हर हाल में शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो बाबूराम की लाइन और आपकी लाइन में कोई फर्क नहीं है लेकिन इन्हीं बातों के लिए आपके लोग बाबूराम की लाइन की बाल की खाल उधेड़ते हुए भारतीय विस्तारवाद का समर्थक घोषित कर देते हैं और क्रांतिकारी नारे देने वाले क्रांति समर्थक हो जाते हैं। नारों के आधार पर निष्ठाएं तय हो रही हैं।
आपको साहस से यह कहना होगा कि किरण जी,आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं। नेपाल का यथार्थ आज यही है कि किसी भी तरह संविधन निर्माण का काम पूरा किया जाए और एक दुष्चक्र में फंसी राजनीति को आगे बढ़ाया जाए। आप अपनी हर खामियों के लिए कब तक भारत को दोषी ठहराते रहेंगे। कल तो राकेश सूद चला जाएगा और एक नया राजदूत आपके यहां पहुंच जाएगा। जो भी पहुंचेगा वह कम से कम उतना बेइमान तो नहीं होगा जितना राकेश सूद था। शरद यादव जैसे नेताओं ने लगातार मनमोहन सिंह और शिवशंकर मेनन से संवाद स्थापित कर उन्हें इस बात के लिए राजी किया है कि नेपाल की राजनीति में सबसे बड़ी पार्टी और सबसे ज्यादा समर्थन वाली पार्टी होने के नाते माओवादियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। बेशक, शरद यादव हों या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,ये सभी लोग एक चाइना फोबिया से ग्रस्त हैं और इन्हें लगता है कि अगर माओवादियों को अलग-थलग रहने दिया गया तो वे चीन के करीब चले जाएंगे जो भारत के हित में नहीं होगा।
मैं खुद इस बात को नहीं मानता तो भी अगर इस विचार के कारण ही भारत सरकार एक संतुलित नजरिया अपनाती है तो इससे नेपाली जनता का हित ही होगा। ऐसी स्थिति में अगर माओवादियों की आपसी मारकाट, अहं की लड़ाई, पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष जारी रहा तो इस बदली हुई परिस्थिति का भी नेपाली जनता को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।
जनपक्षधर पत्रकारिता के महत्वपूर्ण स्तंभ और मासिक पत्रिका 'समकालीन तीसरी दुनिया' के संपादक.
वर्मा जी ने सही समय पर हमेशा की तरह हस्तक्षेप किया है. अगर वहां के लोग वर्मा जी के सुझावों को आत्मसात करें तो अच्छा रहेगा.
ReplyDeleteऊपर नीचे दो लेख दिख रहे हैं. एक नेपाल में माओवाद फेल होने एक कारण देखता है तो ऊपर वाले का तो समझ में ही नहीं आता कि वह क्यों बौराए जा रहा है. दोनों माओवाद के समर्थक फिर भी विरोध में. यह कैसी विडम्बना है. अबतक तो यह वेबसाइट उग्र थी अब लेखक भी उग्र गो हाय हैं. उग्रपंथियों की जय हो.
ReplyDelete1. "क्या 13 फरवरी 1996 को नेपाल में जिस जनयुद्ध की शुरुआत हुई थी और जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था,उसके अवसान की घड़ी नजदीक आती जा रही है? यह आंदोलन कई पड़ावों से गुजरते हुए अपने नेता को देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा सका और यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही। जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के मकसद से इसे शुरू किया गया था उन लक्ष्यों की दूरी लगातार बढ़ती गयी और उस लक्ष्य की दिशा में चलने वाले अपने आंतरिक कारणों से कमजोर और असहाय होते गए।"
ReplyDelete2. "आपको साहस से यह कहना होगा कि किरण जी,आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं। नेपाल का यथार्थ आज यही है कि किसी भी तरह संविधन निर्माण का काम पूरा किया जाए और एक दुष्चक्र में फंसी राजनीति को आगे बढ़ाया जाए।"
वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरुप वर्मा के इस लेख को पढने के बाद महसूस हुआ कि लेख अपने आपमे में ही तीव्र अंतर्विरोंधों से भरा हुआ है. लेख की शुरुवात जिस तरह से लेखक करता है उससे यह लगता है कि वह नेपाल में दस साल तक चले जनयुद्ध कि एकमात्र उपलब्धि यह मानता है कि इसने राजतन्त्र को खत्म किया और प्रचंड के ":क्रान्तिकारी" नेतृत्व वाली खिचड़ी सरकार की स्थापना कर सत्ता के बंदरबांट में नेकपा माओवादी (जो बुर्जवा सत्ता के बंदरबांट में हिस्सेदारी की आतुरता में संविधान सभा के चुनाव के ठीक बाद ही जनविद्रोह और क्रांति के नाम पर तमाम गुटों के साथ एकता करते हुए आजकल एकीकृत कही जाने लगी है) को लोकतंत्र की तथाकथित लोकतान्त्रिक मान्यता में स्थापित किया.
क्या इसे माओवादी जनयुद्ध की उपलब्धि कहा जाना चाहिए?
जबकि हम सभी इस सचाई से रूबरू हैं कि यह सब जिसे लेखक उपलब्धि मानता है वह ''विस्तारवादी'' भारत द्वारा समर्थित (नेकपा माओवादी की भाषा में भारत विस्तारवादी था और अभी एकीकृत माओवादी के भाषा में भारत विस्तारवादी से मित्र राष्ट्र में क्रमिक रूप में छलांग लेने को उतारू है) माओवादी और सात पार्टी के बीच हुए १२ सूत्रीय समझौते का एक सहज परिणाम था लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में यह भी निहित था कि माओवादी जनयुद्ध का रास्ता हामेशा के लिए छोड़ देंगे.
यह तथ्य इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि जिसे माओवादी आज जनयुद्ध की उपलब्धि कहते हैं वह क्या है. पार्टी, सेना और जनसंगठन, इसी को माओवादी भाषा में क्रांति के तीन जादुई हथियार की संज्ञा दी गयी है. क्या आज इनमे से कुछ भी साबुत बचा है? क्या आधार ईलाका एक्सिस्ट करता है? अरे जब जनयुद्ध ही नहीं रहेगा तब जनयुद्ध की उपलब्धि कैसे सुरक्षित रखी जा सकती है. यह बात डॉ. बाबुराम भट्टराई और प्रचंड को समझ में ही नहीं आता है. निश्चित रूप रूप से यह उनकी लफ्फाजी या भटकाव नहीं है परन्तु यह २१ वी सदी में नेपाल की गुलामी का प्रचंड दस्तावेज है.
जनयुद्ध का लक्ष्य आज युटोपिया क्यूँ बन गया? जो कल तक एक जीता जा सकने वाला सपना था! यह लेख हमें यह विश्वास दिलाना चाहता है की शोषण की मौजूदा स्थिति को स्वीकार कर चुप बैठना ही श्रेयस्कर है.
'और तो और आनंद स्वरुप वर्मा भी जूठ बोलने लग गये'
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