Mar 20, 2010

बर्फ में नौ सौ किलोमीटर

दुनिया की सबसे ठंढी जगह अंटार्टिका के दक्षिणी पोल पर पहुंचने वाली भारत की पहली महिला रीना कौशल धर्मसत्तु से अजय प्रकाश  की बातचीत




आप भारत की पहली महिला हैं जो बर्फीले रास्तों पर नौसौ किलोमीटर की यात्रा कर अंटार्कटिका पहुंची , उस अनुभव को आप कैसे साझा करना चाहेंगी?

हजारों मील तक फैली बर्फ की चादरों के बीच जहां किसी और का कोई अस्तित्व नहीं दिखता, उस ठंढ के विस्तार को महसूसने के लिए जब कभी मैं आंख मुंदती हूं तो मेरा दिल मगन हो गाने लगता है। वहां पहुंचने के बाद एकबारगी लगता है कि दुनिया के बाकी रंग न हों, तो भी प्रकृति ने बर्फ को जिस सफेद रंग की नेमत से संवारा है, उसकी स्वच्छता एक खुबसूरत संसार रच सकती है। अंटार्कटिका के दक्षिणी पोल पर पहुंचकर कीर्तिमान बनाने के रिकॉर्ड के साथ मैं अपनी जिंदगी में एक नयापन लेकर लौटी हूं और खुश  हूं।

इस नये कीर्तिमान को छूने के लिए भारत से अंटार्कटिका आप कैसे पहुंचीं?

यह कोई मेरा बहुत बड़ा सपना तो नहीं था लेकिन मैं स्की करने के रोमांच को जीना चाहती थी। मैं पर्वतारोहण की प्रशिक्षक हूं मगर स्की करने का मेरा यह पहला मौका था। संयोग से अगस्त 2008 के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर मेरी निगाह पड़ी और मैंने इंटरनेट के जरिये आवेदन कर दिया। देश  भर से 130 लड़कियों द्वारा किये गये आवेदन में से दिल्ली स्थित ब्रिटीष काउंसिल में 10 को बुलाया गया जिसमें से मुझे और पश्चिम  बंगाल की अपर्णा को चुना गया। राश्टमंडल के आठ देश  न्यूजीलैंड, सिंगापुर, भारत, ब्रिटेन, साइप्रस, बु्रनै, घाना और जमैका से दो-दो लोगों को चुनकर नार्वे प्रशिक्षण के लिए ले जाया गया। वहां हमें दो हफ्ते का प्रषिक्षण मिला और आखिरकार सभी देषों से एक-एक प्रतियोगियों को अंटार्कटिका यात्रा के लिए चुना गया। उसके बाद हम सभी अपने देष लौट आये और नार्वे कैंप मिले प्रषिक्षण हिदायतों के हिसाब से तैयारियों में जुट गये।

भारत में आपने किस तरह की तैयारी की और सरकार से आपको क्या मदद मिली?

सारी तैयारी शारीरिक  चुस्ती-फुर्ती से जुड़ी थी जिसको हमने पूरे लगन से किया। लेकिन हमारे सपने को पूरा होने में सबसे बड़ा रोड़ा प्रायोजक का मिलना था। खेल मंत्रालय के मुताबिक ‘रोमांच का खेल-स्की’ किसी तय कटगरी में नहीं आता इसलिए उसने आर्थिक मदद देने से इंकार कर दिया। उसके बाद मैंने बहुत से कॉरपोरेट घरानों से संपर्क किया मगर वह भी नहीं तैयार हुए। सिर्फ भारतीय पर्वतारोहण संस्थान ‘आइएमएफ’ और बजाज ग्रुप ने मदद की। लेकिन यात्रा को प्रायोजित करने की पूरी जिम्मेदारी रूस की एक एंटीवायरस कंपनी ‘कैस्पर्सकी’ ने ‘कैस्पर्सकी कॉमनवेल्थ अंटार्कटिका एक्सपेडिषन’ योजना के तहत उठायी। अब जबकि मैं अंटार्कटिका के दक्षिणी पोल पर झंडा फहरा कर आ चुकी हूं मगर फिर भी किसी सरकार ने न तो हमसे संपर्क किया और न ही आर्थिक मदद मिली। एक उम्मीद जरूर है कि सरकार बढ़ते रूझान को देख तवज्जो देना शुरू  करेगी।

पर्वतारोहण जैसे रोमांचकारी खेल में आपकी दिलचस्पी कैसे बनी, उस बारे में कुछ बताइये?

हमारे पापा द्वारका नाथ कौषल फौज में थे और उनका तबादला होता रहता था। रिटायर होने के बाद वह दार्जीलिंग में बस गये। मेरा जन्म तो उत्तर प्रदेष के बरेली में हुआ लेकिन दार्जीलिंग के पहाड़ों के बीच पली-बढ़ी। दार्जीलिंग से मेरा एक भावनात्मक लगाव भी था। मुझे बचपन से ही पहाड़, उनकी उचाइयां  और दूर तक का उनका फैलाव अपनी ओर आकर्षित  करता था। सामने खड़ी कंचनजंघा की बर्फ से ढकी चोटियों को देख उस पर चढ़ने का मन करता था।
दार्जीलिंग के लॉरेटो कान्वेंट स्कूल से बारहवीं पास कर मैंने वहीं के सेंट  जोसेफ कॉलेज से बीकाम किया। फिर मेरे जीवन की असली तैयारी षुरू हई और मैंने पवर्तारोहण में ‘हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान’ से प्रषिक्षक तक षिक्षा हासिल की। षादी के बाद मेरे पति लवराज सिंह धर्मसक्तु से काफी मदद मिली। लवराज मुझसे बड़े पर्वतारोही हैं और आप कह सकते हैं कि हमदोनों का साथ पेषे और जीवन साथी दोनों के तौर पर एक सफल जोड़ी का है। उसके बाद हर साल मैं एक न एक पर्वत चढ़ती ही रही।

अंटार्कटिका में स्की यानी बर्फीली यात्रा आपलोगों ने कैसे पूरी की?

नवंबर 21 को रोनी आइस सेल्फ नामक स्थान से हम आठ लोगों को दक्षिणी पोल के लिए रवाना कर दिया गया। हवाई जहाज से मेसनर्स स्टार्ट तक पहुंचने तक हममें से एक साथी को स्वास्थ कारणों से वापस होना पड़ा। अब हम सात ही थे जिन्होंने मेसनर्स स्टार्ट जो कि विख्यात पवर्तारोही रोनाल्ड मसनर्स के नाम पर बनाया गया बेस है, जहां से स्की करने के लिए चल पड़े। और इस तरह मेसनर्स स्टार्ट से साउथपोल की नौसौ किलोमीटर की बर्फीली यात्रा को हमने 40 दिनों में पूरा किया। पूरे सफर के दौरान इंसानों की कौन कहे कोई जानवर भी रास्ते में नहीं मिला।
इन चालीस दिनों के बीच हमने बर्फीले तुफान, थोड़ा भय और शुन्य  से तीस डिग्री नीचे तक का ठंढा मौसम झेला। मगर साहस और सहनषक्ति भी प्रकृति के उन महान दृष्यों से ही मिला जिसे आज भी हम याद कर आह भरते हैं।

खाने,पहनने और बचाव के लिए आपलोग क्या ले गये थे?

हममें से हरेक के पास साठ किलो का सामान का था जिसमें टेंट, पेटोल, स्टोव, खाना, दवा, रेडियो टांसमीटर और ट्वायलेट किट्स थे। सामान हमलोग पीठ पर नहीं बल्कि अपने से पीछे की ओर बांधकर खिंचते रहते थे। हमलोगों में जबर्दस्त टीम भावना थी इसलिए कभी कोई दिक्कत ही नहीं हुई। रोज कमसे कम दस घंटे बर्फीले रास्तों पर स्की कर आगे बढ़ते जाना था। एक बार में डेढ़ घंटा चलकर सात मिनट का आराम करते।
किसी के पैर छाले पड़ गये या किसी को पैरों या कहीं तनाव रहा तो हमलोग आराम के दौरान एक दूसरे की मालिश  कर आगे बढ़ लेते। प्रतिदिन हमलोंगो को साढ़े चार हजार कैलारी खाना होता था जो कि आम आदमी के भोजन की कैलोरी से तीन गुना था। इसी तरह पानी भी कम से कम एक सदस्य को तीन लीटर पीना होता था।

लेकिन वहां बर्फ के सिवा कुछ था ही नहीं तो, पानी?

बर्फ को स्टोव पर गर्म कर पानी बनाते थे। पानी का इस्तेमाल पीने और सूखे खाने को उबालने में करते थे। चूंकि पूरे यात्रा के दौरान हम लोग एक ही कपड़ा पहने रहे और नहाने का मौका तो 54 दिन बाद मिल पाया था, इसलिए पानी की और जरूरत नहीं पड़ी।

यात्रा के दौरान जो कूड़ा निकला, उसका आप लोगों ने क्या किया?

यह जानना दिलचस्प होगा कि हम लोगों ने इस लंबी यात्रा में एक तिनका भी वहां नहीं छोड़ा। एक विषेश तरह का बैग अपने साथ ले गये थे, जिसमें अपना सारा कचरा साथ ढोकर ले आये। स्की पर जाने से पहले हमें ग्लोबल वार्मिंग और उसमें अंटार्कटिका की भूमिका के बारे में विशेष  तौर पर बताया गया था।

इस यात्रा का मकसद सिर्फ दुनिया को रोमांच के बारे में बताना था या कुछ और?

रोमांच तो उस यात्रा का हिस्सा है लेकिन मकसद ग्लोबल वार्मिंग और प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ को लेकर समाज में जागरूकता पैदा करना था। अपने साथ साठ किलो का भार लेकर उन कठिन बर्फीले रास्तों पर आगे बढ़ना मुष्किल होता था। बावजूद इसके हम लोग वहां से ट्वायलेट तक उठा लाये। दूसरा मकसद कॉमनवेल्थ की साठवीं सालगिरह पर साउथ पोल की चढ़ाई के पीछे महिला सषक्तीकरण के संदेष को भी दुनिया भर में प्रचारित करना था।

इन चालीस दिनों में किसी दिन बर्फीले तुफान से सामना नहीं हुआ?

दूसरे दिन स्की करने के बाद जब हम लोग टेंट में सो रहे थे तो हमारे साथियों का टेंट झोंके से उड़ गया। बहुत डरावना था सब कुछ। उतनी ठंढ में अगर किसी को चोट लग जाये या जैकेट षरीर से हट जाये तो बचना मुष्किल होता है। लेकिन सुविधा यह थी कि वहां कभी रात नहीं होती थी इसलिए हमारे लिए देख पाना संभव था। बहरहाल, पूरी रात सातों लोग एक ही टेंट के पायों को मजबूती से थामकर बैठे रहे लेकिन वह भी सूबह होते-होत फट गया।

सुबह तो वहां होती नहीं थी। घड़ी ने जब चीले देष के हिसाब से सुबह होना बताया, तब तक तुफान थम चुका था। दूसरा खतरा खाइयों से गिरने या बर्फीली तेज हवाओं से उठती-गिरती बर्फ की लहरों से भी होता है। संयोग कहिए हमारी टीम इससे बचकर साउथ पोल पर झंडा फहरायी, जहां अमेरिका का अनुसंधान केंद्र है। हम बहुत खुष हुए थे जब चालीस दिनों बाद हमने सात के अलावा आठवां इंसान देखा था।

यात्रा में सबसे यादगार लम्हा?

बर्फीली लहरें और रात का न होना। हम सोच भी नहीं सकते कि वहां रात नहीं होती होगी और बर्फ की भी लहरें हवाओं के साथ उठती-गिरती होंगी। दूसरी यादगार है क्रिसमस पर अपने घरवालों से बातचीत क्योंकि इस बीच सिर्फ एक बार क्रिसमस के रोज अपने घर फोन करने का मौका मिला.

courtesy - The Public Agenda