पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन की देखरेख में चल रहे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की पत्रिका ’पांडुलिपि’ में तीन युवा कवियों महेश चंद्र पुनेठा, केशव तिवारी और सुरेश सेन निशांत की कविताएं छपीं थीं। 'पांडुलिपि' पत्रिका में कविताएं देख इन कवियों के प्रतिबद्ध साहित्यिक मित्रों ने आश्चर्य, आपत्ति और अफसोस व्यक्त किया और कहा कि यह पत्रिका तो पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की साहित्यिक उपादेयता के लिए निकलती है। उपरोक्त कवियों के मित्रों ने उन्हें यह भी बताया कि पत्रिका का मकसद हिंदी साहित्यिक बिरादरी में विश्वरंजन की प्रगतिशील छवि बनाने की कोशिश है,जिससे आदिवासियों के खून में सने विश्वरंजन थोड़े धवल दिखें... दरअसल महेश चंद्र पुनेठा,केशव तिवारी और सुरेश सेन निशांत से 'पांडुलिपि' पत्रिका के लिए कविताएं मंगवाई गयीं थीं। लेकिन उन्हें यह नहीं बताया गया कि यह पत्रिका आदिवासियों के खून से सनेविश्वरंजन के प्रगतिशील प्रोग्राम का हिस्सा है , जिसे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की और से निकाला जाता है. जिस कारण इन कवियों ने कविताएं तो भेज दीं, मगर जैसे ही इनको पता चला कि पर्दे के पीछे का खेल क्या है तो उन्होंने समानधर्मा मित्रों के आग्रह पर इस आशय का स्पष्टीकरण फेसबुक पर चस्पां कर दिया। स्पष्टीकरण के साथ फेसबुक सोशल वेबसाइट पर शुरू हुई यह बहस साहित्यिक प्रतिबद्धता के सवाल को बड़े ढंग से रखती है और साबित करती है कि अफसरों और अकादमियों के चौखट पर मत्था टेकने की परंपरा के इतर भी साहित्यकार हैं।
फेसबुक पर चली बहस ...
महेश चंद्र पुनेठा (22 फरवरी) : हमें भी इस बात का अफसोस है । दरअसल, हमें यह पता ही नहीं था कि विश्वरंजन भी इस पत्रिका से जुड़े हैं। यह हमें उस दिन पता चला जिस दिन पत्रिका हमारे हाथों में आई । छत्तीसगढ़ के एक कवि मित्र ने आग्रह किया और हमने मित्रता का मान रखते हुए कविताएं भेज दीं। हमारी 'पांडुलिपि' पत्रिका के साथ कोई वैचारिक सहमति नहीं है।
जय प्रकाश मानस (23 फरवरी) : चलिए आपने स्पष्ट कर दिया कि आपकी प्रतिबद्धता किसके साथ है । पर मित्र, 'पाण्डुलिपि' की यह सीमा नहीं है कि वहाँ छपने वाला उसके ही प्रति प्रतिबद्ध हो, पर वह साहित्य, समाज और संस्कृति के प्रति जरूर अपनी प्रतिबद्धता दिखाये जो आपमें भी है। विचलित ना हों कृपया।
उनकी इस प्रतिक्रिया के बाद फेसबुक में एक बहस चल पड़ी । इस बहस के दौरान तथा फेसबुक में छत्तीसगढ़ के हालातों को लेकर लगी अन्य पोस्टों पर समय-समय पर जयप्रकाश मानस ने जो प्रतिक्रियायें व्यक्त कीं, उससे इस संस्थान की स्थापना के गुप्त ऐजेंडे का पता चलता है और संस्थान का असली चेहरा सामने आता है। कभी जो काम अज्ञेय की अगुवाई में कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम ने किया वही काम आज प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान करने जा रहा है।
नीलाभ.....ए ह्यूमन- (23 फरवरी) : मानस जी क्या अब ऐसा वक्त आ गया है कि ग्रीन हंट और सलवा जूडूम जैसे ऑपरेशन चलाने वाली जनविरोधी ताकतों के संरक्षण में आप साहित्य, समाज, संस्कृति के प्रति अपनी प्रतिबध्द्धता व्यक्त करेंगे ?
जयप्रकाश मानस : आदररणीय भैया, हम ग्रीनहंट और सलवा जुड़ूम जैसे आपरेशन चलाने के पीछे की प्रजातांत्रिक विवशताओं, आवश्यकताओं, उसकी असलियत, उसकी जमीनी वास्तविकता, उसके संचालनकर्ताओं, उसके खलिाफ एकांगी दुष्प्रचार करनेवाले, दुष्प्रचार करने वालों की आवश्यकता, उनकी नियत, विवशता, उसकी वास्तविकता से बगैर वाकिफ हुए, शेर आया और भागो-भागो की लय में बहकने वाले और उसे संचालित करनेवाली संवैधानिक-असंवैधानिक, मानवीय-अमानवीय लगभग सारी कमीवेशी से पिछले कई वर्षों से वाकिफ होने के लिए शापित हैं और कथित जनताना सरकार की स्थापना ( लक्षित रणनीति के अनुसार सन् 2050 तक ) के नाम पर हिंसा, आतंक, विध्वंस, लूट, दमन, अपहरण, चौंथ वसूली, बलात्कार, जनसंपति का विनष्टीकरण, निरीह और अबोध बच्चों को हथियार पकड़ाने वालों अमानवीय तथा आमजन सहित, भोले-भाले आदिवासियों के साथ घिनौनी अत्याचार करनेवालों ताकतों,दोनों को ही दूर से नहीं, बल्कि बहुत नजदीकी से देख-परख रहे हैं ।
भैया, अभी ऐसा भी वक्त नहीं आ गया है (जिन आम और आदिजनों की और से आपकी चिंता है उन लोगों की कथित चिंता के लिए ) जंगली, बर्बर, तानाशाहीपूर्ण और फासीस्टवादी तरीकों से जनयुद्ध (आमजन को ही आमजन के खिलाफ विवश और लाचार कर देने वाले) चलाने वाली ताकतों, संरक्षकों, संचालकों, विश्वासियों, मित्रों, दासों के साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति हम अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर दें। क्या यह भी जनविरोधी नहीं होगा ?
जिस दिन हमें विश्वास हो जायेगा कि जनता के वास्तविक विकास और उत्थान के लिए सबसे योग्य, गैरधोखेबाज, गैरषडयंत्रकारी, पूर्ण ईमानदारी अंतिम और एकमात्र मसीहा इस धरती पर अवतरित हो चुका है तथा जिस दिन उनका उज्ज्वल और पारदर्शी चेहरा भी आर-पार देखा जा सकेगा उस दिन आपकी बात मानने में मुझे सुविधा होगी कि किसके प्रति प्रतिबद्ध हों....किसके प्रति नहीं।
नीलाभ .....ए ह्यूमन (23 फरवरी ) : मानस जी, यह जो आप बता रहे हैं, पूंजीवादी अखबार रोज ही बताते हैं । इसमें कुछ भी नया नहीं है.आप बात को अनावश्यक रूप से दूसरी ओर मोड़ रहे हैं। मैं उन लोगों के मानवाधिकारों की बात कर रहा हूँ जो लोकतांत्रिक तरीके से आन्दोलनरत हैं या अपनी जिंदगी शांतिपूर्वक जीना चाहते हैं। अग्निवेश और उनके साथियों की शांति यात्रा को क्यों रोक दिया जाता है? हिमांशु कुमार जो गाँधीवादी हैं उनके आश्रम को क्यों ध्वस्त किया जाता है? उन्हे शांतिपूर्वक काम क्यों नहीं करने दिया जाता है? लिंगाराम कोडापी जैसे आदिवासी युवाओं और उनके परिजनों को क्यों परेशान किया जाता है? पढ़िये समकालीन जनमत के दिसंबर अंक में हिमांशु कुमार और सत्यप्रकाश के लेख,गरीबों का इलाज करने व मानवाधिकारों की बात करने वाले विनायक सेन को क्यों देशद्रोही साबित कर दिया जाता है ? आपने जिन मानवाधिकारों की बात की है उन सभी की रक्षा की जानी चाहिए पर क्या वह सलवा जुडूम और ग्रीन हंट से ही संभव हैं। ये आभियान माओवादियों का तो कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं, माओवादियों के नाम पर आदिवासी जनता और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों का दमन कर रहे हैं। लोकतान्त्रिक अधिकारों से भी लोग वंचित हो गए हैं।
वैसे यह सब बातें आपसे कहने का कोई मतलब नहीं क्योंकि आपने तो आँखें बंद कर ली हैं। आभासी यथार्थ ही आपको सारतत्व नजर आता है। ऐसा होना भी स्वाभाविक है क्योंकि सारतत्व को देखने का मतलब है उन सारे लाभों से वंचित होना है जो सत्ता की नजदीकी के चलते अभी आप को मिल रहे हैं।
जयप्रकाश मानस-(23 फरवरी) : भैया,मैं पूँजीवादी अखबार की नहीं, मैं अखबार नहीं पढ़ता, सिर्फ वर्षों से खुली आँखों से देखेने के आधार पर बता रहा हूँ । अखबार से राय तो दूर वाले पाठक बना सकते हैं। नया क्या होगा, किन्तु पुराने और जहरीले प्रश्नों को छोड़ नहीं दिया जा सकता ।
भैया,लोकतांत्रिक तरीकों से आंदोलन करने वालों और शांतिपूर्वक जीवन जीने वालों को सदैव रास्ता मिलना चाहिए। क्या जंगल खेड़े के आदिवासी शांति नहीं चाहते? क्या गरीब बाप के बेटे और पेट पालने के लिए व्यवस्था की छोटी-छोटी वर्दी नौकरी में लगे लोग शांति नहीं चाहते? अपने आश्रम ध्वस्त होने पर गांधीवादियों को प्रजातांत्रिक तरीके से न्यायालय जाना चाहिए। आश्रम चलानेवाले गांधीवादियों को जंगली और बर्बर लोगों के द्वारा सताये जाने पर गरीब आदिवासियों और महिलाओं के पक्ष में भी प्रजातांत्रिक उपाय करना चाहिए जो कि कभी नहीं करते वे। न कि सिर्फ बर्बर लोगों के बाद और उनसे जंगल में उत्पन्न हुई अशांति और आतंक से बचाने पहुँची प्रजातांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ ही प्रश्न उठाते हैं, आखिर ये गांधीवादी डरते क्यों हैं हिंसक और जंगली लोगों से? जो उनकी बर्बरता और फासीस्टवादी रवैयों के खिलाफ नहीं बोलते?
नीलाभ.....ए ह्यूमन (24 फरवरी) : मानस जी, जहाँ आप खड़े हैं वहां से ऐसा ही दिखाई देता है. चीजों को देखने के लिए भौगोलिक रूप से नजदीक होना ही पर्याप्त नहीं होता दृष्टि का होना भी जरूरी होता है.
जो कुछ आप कह रहे हैं ये सरकारी पक्ष है और उन लोगों का पक्ष है जो ग्रीन हंट और सलवा जूडूम के बहाने नागरिकों के लोकतान्त्रिक एवं मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं. विनायक सेन, हेमं पाण्डेय जैसे अनेक उदाहरण हमारे पास हैं जिनसे सिद्ध होता है कि ग्रीन हंट और सलवा जूडूम के बहाने क्या हो रहा है?
अशोक कुमार पांडेय (28फरवरी) : मानस जी, बताते तो आप यही हैं कि 'पाण्डुलिपि' से विश्वरंजन जी का कोई लेना-देना नहीं है। खैर यह जानते-बूझते हुए भी मैंने कवितायें दी हैं और इसे आपत्तिजनक नहीं मानता। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान से पुरस्कृत होने या उपकृत होने को और कविता छपने को बराबर मान लेना भी एक तरह का भावुक अतिवाद है। जबकि हिन्दी में साभार की लंबी परम्परा है तो आपके जाने बिना भी कविता किसी भी जगह छप जाती है। मेरा स्पष्ट मत है कि केवल कविता छप जाने से किसी की भर्त्सना करना बेमानी है। हां उनके पक्ष में खड़ा होकर प्रलाप करने वाले अजय तिवारी जैसे लोगों की भरपूर भर्त्सना की जानी चाहिये।
विश्वरंजन सत्ता के क्रूर पंजे हैं जिन्होंने दमन तंत्र को मजबूत किया है, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान उसी क्रूर पंजे पर ओढ़ाई हुई मखमली खाल है। मानस जी को मैं दोष नहीं देता, वे स्वयं को दिया गया काम बखूबी निभा रहे हैं। मेरा बस यह कहना है कि उस पत्रिका में छपना कोई गुनाह नहीं है। हां, उनके कार्यक्रमों में शिरकत (खासतौर से इस बार की रिपोर्ट पढ़कर और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर और सीपीएम से निष्कासित एक प्रोफेसर साहब का बयान पढ़ने के बाद) निश्चित तौर पर गलत है और उस क्रूर पुलिस प्रशासक को मान्यता दिलाने जैसी है। मैं खुद एक बार उनका आमंत्रण ठुकरा चुका हूं और आगे भी वहां कभी नहीं जाऊंगा।
जय प्रकाश मानस (1मार्च) : अशोक महान था, अशोक महान् हैं.. अशोक महान रहेंगे...। दमन जंगली भी कर रहे हैं, कल उन्होंने दंतेवाड़ा के कुसेल ग्राम में धावा बोला। दो भाइयों का अपहरण कर लिया, फिर धारदार हथियार से गला रेत दिया। जो मारे गये, वे सरकारी लोग नहीं थे, वे बुद्धिजीवी भी नहीं थे, वे अमीर भी नहीं थे, वे शिक्षित भी नहीं थे, वे कविता भी नहीं लिखना जानते थे। उनके दमन के खिलाफ आज कहीं कोई धरना नहीं होने जा रहा, कहीं कोई मानवाधिकार वादी आगे नहीं आने जा रहा। कोई है जो आयेगा इनके पक्ष में... ? ? ?
अशोक कुमार पांडेय (1 मार्च) : मानस जी, आपसे बहस का वैसे तो कोई अर्थ नहीं है, लेकिन सत्ता के दमन और जनता या अपराधियों के कृत्य में फर्क होता है। जिनके दांतों में खून लगा हो और आंखें रुपयों की चमक से धुंधलाई हों उनकी स्मृति तथा चेतना के मदांध हो जाने में कोई आश्चर्य नहीं होता। किसी साहित्यिक कार्यक्रम के ठीक बगल में एक पुलिस अधिकारी की प्रेस कांफ्रेस का प्रचार मेरे लिये शर्मनाक है। उसे देखने के बाद उसका हिस्सा हो पाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।
जयप्रकाश मानस (1 मार्च) : ये सामान्य अपराधी की बात नहीं कर रहा अशोक जी, उनकी बात कर रहा हूँ जो संगठित होकर देशभर और इधर बस्तर में प्रतिदिन किये जा रहे हैं...भाई क्यों नहीं है मुझसे बहस का अर्थ। असहमत लोगों के साथ ही तो बहस होती है । समान सोच वालों के साथ तो चुटकुलाबाजी ...
अशोक कुमार पांडेय : बहस उनसे की जाती है जिनके पास खुली आंखें होती हैं, सत्ता के भोंपुओं से क्या बहस होगी? आपसे बहस का लंबा अनुभव है मुझे, उसी आधार पर यह कह रहा हूं। नक्सली हिंसा का विरोध सरकारी दमन का समर्थन नहीं हो सकता। विनायक सेन के मुद्दे पर आपका व आपके अधिकारी पेट्रन का स्टैण्ड सत्ता से नाभिनालबद्धता स्पष्ट करता है। एक बहस में आपने विनोद कुमार शुक्ल से लेकर तमाम लोगों पर जो तथ्य दिये थे, मैने उसकी भी पड़ताल की और पाया कि अपने प्रदेश की पुलिस की ही तरह आप भी तथ्य गढ़ लेने में माहिर हैं। इसके बाद क्या और क्यूं बहस की जाय? बाबा होते तो इस समय लाल भवानी प्रकट हुई है सुना है तिलंगाने में की तर्ज पर कुछ कह रहे होते।
जयप्रकाश मानस (1 मार्च) : खुली आँखें भी हैं मेरे पास और हर तरह की सत्ता (विचार, वाद, साहित्य, दल, राजनीति, आंतक, मूढ़ता, विद्वता) आदि के भोपूओं की परख भी। मुझे भी लंबा अनुभव आपके कुतर्कों, विचारों आदि का उसी आधार पर कह रहा हूँ। नक्सली हिंसा का विरोध सरकारी दमन का समर्थन नहीं हो सकता। बिलकुल सही, कहाँ कह रहे हैं हम ऐसा। किन्तु नक्सली हिंसा का विरोध उसी स्वर में नहीं होना भी गैरसरकारी अर्थात सिर्फ जनता का वास्तविक समर्थन नहीं हो सकता । जिसने सरकारी दमन किया, उस पर केस चल रहे हैं, वह कटघरे में है, उसे नौकरी से हटाया जा चुका है। हाँ, उसकी हत्या नहीं कर रही हैं सरकारें।
नक्सली हिंसा का छद्म विरोध भी जनता के पक्ष का झूठा समर्थन से कतई कम नहीं । आधाशीशी जनभक्ति है । हर तरह की हिंसा का विरोध होना चाहिए और वह हम कर रहे हैं । नक्सली हजारों आदिवासी, गरीब, निहत्थे को मार चुके हैं, उनके विरोध में ठीक वही कृत्य क्यों नहीं हो रहा जो एक कथित जनहितैषी और वर्णित व्यक्ति का हो रहा है, जिसके आप दीवाने हैं? सिर्फ इसीलिए क्योंकि वह पढ़ा-लिखा है और आदिवासी मूर्ख हैं, नगण्य हैं । बाबा होते तो आपके जैसे आधाशीशी वाले का ही पक्ष नहीं लेते और सिर्फ आपके ही नहीं हो जाते । बड़बोला और कोरी भावुकता से वे भी बचते रहते। विनोद जी के बारे में क्या कहा था और आप क्या समझे, आपके झूठ और अर्थापन आपको मुबारक।
शैल जोशी (2 मार्च) : मानस! विनायक सेन, हिमांशु कुमार के बारे में आप क्या राय रखते हैं उसे क्या हमने नहीं पढ़ा। छत्तीसगढ़ में होने वाली हर आपराधिक घटना को नक्सलियों के खाते में डाल देना यह सरकार की और आप जैसे सरकारी लेखकों की पुरानी आदत है - आप जो भी तथ्य दे रहे हैं यह पुलिस से प्राप्त हैं - पुलिस तो खुद इसी घटनाओं को अंजाम देकर नक्सलियों को बदनाम करने में पीछे नहीं रहती है - अशोक पांडे ने आपको बिलकुल सटीक उपाधि दी है - अशोक जनता के पक्ष में खड़े रचनाकार हैं - आप जैसे दोहरे चरित्र के नहीं ,एक और आदिवासियों की लड़ाई लड़ने वालों को जंगली और बर्बर कहते हो और दूसरी और उनके कवि नागार्जुन की जयंती मनाते हो - उस अवसर पर पुलिस की प्रेस कांफ्रेंस करते हो - अशोक भाई आपके साहस के लिए मेरी बधाई।
हाँ, एक प्रश्न अशोक भाई आपसे। आप कहते हो उस पत्रिका में छपना कोई गुनाह नहीं है। क्या आप एक ऐसी पत्रिका में छपना चाहेंगे जो प्रतिक्रियावादी ताकतों द्वारा निकाली जाती हो । क्या उसमें आप जैसे जनपक्षधर लोगों का छपना उनको मान्यता देना नहीं है?
जयप्रकाश मानस (2 मार्च) : जोशी जी, हिमांशु-विनायक से पहले लाखों हजारों है शैल जोशी जी, जिसके खिलाफ हो रहे दमन के बारे में आप जैसे लोग चुप्पी साधे बैठ गये हैं । छत्तीसगढ़ ही नहीं आपके आसपास भी दमन हो रहा है, उसे भी देखें, उसके खिलाफ आवाज उठायें। कइयों को प्रतिदिन सजा सुनायी जा रही है उसके बारे में भी उवाचे कुछ....सिर्फ एक ही आदमी के लिए इतना स्नेह और करोड़ों की आबादी में हो रहे हर तरह के जुल्म के खिलाफ भी दृष्टि रखें अपनी कुछ....
आपने जो पढ़ा है, आप जो अर्थ निकालते हैं उससे हमें भी कोई फर्क नहीं पड़ता। नक्सलियों के खाते में अनपढ़ों को शिक्षित करने का रिकार्ड नहीं है। नक्सलियों के खाते में अस्पताल खोलने का श्रेय नहीं है। सड़कें बनवाने का श्रेय नहीं है। यदि ऐसा होता जो जनता की चुनी हुई सरकारें नहीं होती वहाँ। सारे के सारे नक्सलियों की सरकार के साथ होते। आप शायद नहीं जानना चाहते- पुलिस सड़कें नहीं खोद देती। पुलिस स्कूल भवन नहीं ढहा देती। पुलिस बस नहीं उड़ा देती। पुलिस रेलवे नहीं उड़ा देती। पुलिस समूचे बस्तर की बिजली गुल नहीं कर देती। करोड़ों-अरबों की संपत्ति नष्ट नहीं कर देती। जब चाहे बस्तर का हाट बाजार बंद नहीं करा देती। पुलिस जोर-जबरदस्ती से युवाओं को बंदुक नहीं पकड़ा देती । पुलिस अपने से हर उस असहमत आदमी को सरेआम ग्रामीणों के जन अदालत में गला नहीं रेत देती । पुलिस ग्रामीण लोगों को किडनैप कर अपनी शर्ते नहीं मनवाती । पुलिस बहुत सारे अनर्थ करती है, पर यह नहीं किया करती। और आप भी अपनी कानूनी अधिकारों के हनन पर नक्सलियों के पास नहीं जाते। पुलिस स्टेशन ही जाते हैं ।
कुछ गैर सरकारी लेखक भी होते हैं जो अपने गैर सरकारी होने का छद्म ओढ़कर कुछ खास तरह के हत्यारों की वकालत करते हैं । अशोक पांडेय कैसे लेखक हैं यह भी उनके स्टॅड से पता चलता है । हर वह व्यक्ति जंगली और बर्बर है जो स्कूल के बदले बच्चों को अपनी सेना में तानाशाह की तरह रंगरूट बनाता है ।
नागार्जुन की जंयती मनाने की अनुमति आपसे लेने से तो हम रहे। बहुत सारे अपने छद्मों के बारे में भी सोचें कभी- पूरी ईमानदारी से।
अशोक कुमार पांडेय (2 मार्च ) : तानाशाहों को सफेद और काले के बीच कुछ नहीं दिखता। बुश से लेकर मोदी और इन तक सबका सीधा फंडा है या तो हमारे साथ या दुश्मन। इन्हें लोकतंत्र का स्पेस दिखता ही नहीं, दिखता है तो खटकता है।
जयप्रकाश मानस (2 मार्च) : कुछ लोगों को इतनी गलतफहमी हो गई है कि वे ही देश और जन को बचा रहे हैं, लेखन के अलावा वे ही कुछ कर रहे हैं बाकी सब दलाल हैं। मुझे किसी अशोक का 'शोक' देखते बहुत दुख होता है, तुम किसके बिके हो यह तो नहीं पता, मैं नहीं बिका हूँ अब तक। याद रखें मन में। दमन मेरी बातों का करके आप बहुत बड़े पुण्यवान नहीं बनने जा रहे । कौन सा सरकारी पैसा? और कौन सा फतवा। आपके कुछ समझने। आपको कोई अपराधी नहीं कहा जा रहा है। अपराध वह है जो न्याय करने में, न्याय की बात करने में सिर्फ अपने मतलब की चीजों को देखता है। उस पत्रिका और नक्सलवाद से कोई संबंध नहीं है। यह तो आप लोगों की सोची-समझी चालें है कि कई चीजों को ऐसा मिला दो और इतने बार झूठ बोलों कि वह सच की तरह दिखने लगे। आपकी अपील जाये भाड़ में। सिर्फ आप ही युगपुरुष नहीं हो। जिसके कहने पर देश के साहित्यकार आपकी अँगुली थामें बच्चों की तरह पीछे-पीछे नहीं चले जायेंगे । आप डिसोन करो क्या कुछ, एक साहित्यिक पत्रिका को कोई फर्क नहीं पड़ता ।
शैल जोशी - आश्चर्य ....महाआश्चर्य .....'पाण्डुलिपि' से तो मार्क्सवादी कवि केदारनाथ सिंह और गाँधीवादी लेखक विजय बहादुर सिंह भी जुड़े हैं ! क्या है इनकी पक्षधरता मेरे तो कुछ समझ में नहीं आता ? यह गोलमाल क्या है ? साहित्य में प्रतिबद्धता जैसी कोई बात भी रह गई है कि नहीं?
जयप्रकाश मानस (2 मार्च ) : मुख्यमंत्री ही नहीं, मंत्रिमंडल हीं नहीं, खाकी वालों में ही नहीं, समाज के सारे अंगों जैसे मीडिया, साहित्य, कला, फिल्म, संगठनों, सबके सब एक एक सलवा जुडूम चला रहे हैं जिन्हें अपने अलावा औरों से कोई लेना-देना नहीं। कोई अपनी गिरेबां को झाँक कर नहीं देखता । कोई अपनी कमीनगी को नहीं देखता। हाँ मैं इतना जानता हूँ - जिस दिन आदिवासियों को कोई अपना प्रवक्ता मिलेगा उस दिन देखेंगे आप और हम - न कथित आदिवासी हितैषी, न सरकारें उसे हांक पायेंगे ना ही कथित आदिवासी विरोधी। वह सबको ठिकाने लगा देगा । दरअसल, अब तक इनकी आवाज का सच सामने आया ही नहीं है।
अनिल मिश्र (2 मार्च) : जयप्रकाश जी, 'सबके सब सलवा जुडूम चला रहे हैं', इस प्रतीक को अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए, (हालांकि इसमें प्रथम दृष्टतया ही कई बेतुके पेंच हैं और आप भी जानते होंगे कि यह बात असंदिग्ध तौर पर सही नहीं है.) तो भी यह सवाल बना रहेगा कि संवैधानिक उसूलों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा कर सत्ता में आसीन होने वाली सरकार ने एक घिनौने और बनैले खूनी खेल के लिए किन-किन गुटों को हथियारों से लैस किया? ताकि देशी विदेशी कंपनियों के हित में, और यह सब 'विकास' के चमचमाते नाम पर, आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन को हड़पने-हथियाने का रास्ता साफ किया जा सके।
और एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं दंतेवाड़ा में नहीं रहता हूं इसलिए वहां की वाजिब जानकारियां मुझे नहीं हैं। लेकिन मीडिया का शोधार्थी होने के नाते मुझे यह इल्म है कि छत्तीसगढ़ का अधिकांश हिंदी मीडिया सरकारी भोंपू से ज्यादा कुछ नहीं हैं और कि वहां 'खुला खेल फरूखाबादी' की तर्ज पर 'विकास' के नाम पर जो कुछ हो रहा है उससे कॉर्पोरेट कंपनियों, बाहरी तथा देश के आंतरिक युद्ध-पिपासु, बौने राजनीतिक और सैन्य प्रतिनिधियों के सिवाय आम जनता का कोई भला यकीन नहीं हो रहा है।
दुनिया में कम ही इसकी मिसाल मिलती है कि कोई महान लेखक या कवि या रचनाकार और कलाकार किसी सत्ता के पायदानों से आंशिक आत्मीय तालमेल बना पाया है. हां, आधुनिक भारत में, इक्कीसवीं सदी में एकाधिक डीजीपी कवियों के अपवाद को छोड़कर.....जो सलवा जुडूम को 'डार्लिंग' बनाए हुये हैं।
महेश चंद्र पुनेठा : हम लक्ष्मी की सेवा/सुविधाजनक नौकरियों/सरकारी तमगों के लिए/समझौतों की कालाबाजारी नहीं कर सकते इतने गाफिल नहीं हैं हम। सत्ता से नाभिनालबद्ध होकर ये सारी कालाबाजारी करने और दूसरों को इस धंधे में जोड़ने के लिए कटिबद्ध साहित्यकारों की कमी नहीं। उसके लिए संस्थान खड़े किये गए हैं। आप जैसे दो -चार के न होने से क्या फर्क पड़ जाता है? समय पर समझ जाओ, अन्यथा उनके पास कुछ खास कानून भी हैं विकास की परिभाषा नहीं समझते हो -जल- जंगल - जमीन से आदिवासियों को खदेड़कर वहां बहुराष्टीय कंपनियों को बसाना विकास कहलाता है।
जयप्रकाश मानस : अनिल जी, तो क्या यह भी बतायेंगे कि जिस तरीके से गणतांत्रिक (बची-खुची) व्यवस्था में अव्यवस्था हो रही है वह प्रस्तावित तंत्र की स्थापना से नहीं होगी? सुना है संघाई में दुनिया का सबसे बड़ा मॉल है और आधा चीन फटेहाल। क्या उस तंत्र के स्वप्नदृष्टा, प्रायोजक, प्रस्तोता के पास कोई ऐसा रोडमैप है जिसमें यह सब नहीं होने की गारंटी है ? आपको कहीं से भी गलतफहमी न हो, इस लिए यह कहना लाजिमी है कि आदिवासियों को सरकारें तड़पा रही हैं तो वे भी इससे कम नहीं कर रहे हैं उनके साथ जिस पर आदिवासी विश्वास करे कि वे सबसे योग्य और अंतिम भाग्य विधाता हों।
नोट : टेक्स्ट लम्बा और उबाऊ न हो इसलिए फेसबुक पर चली लंबी बातचीत को संपादित कर यहाँ प्रकाशित किया गया है.