May 15, 2011

इस्लाम को संक्रमित करता ओसामा का महिमामंडन


आखिर कश्मीर में ओसामा बिन लादेन को महिमामंडित किए जाने का जिम्मा  कश्मीर में अलगाववादी धड़े के हुर्रियत नेता तथा कश्मीर में फैले आतंकवाद की पैरवी करने वाले सैय्यद अली शाह गिलानी ने क्यों उठाया? क्या 26/11 मुंबई हमले मामले में वे ऐसा करेंगे...

तनवीर जाफरी 

पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर फैले आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक समझा जाने वाला ओसामा बिन लाडेन आखिरकार  अमेरिकी कमांडो सैनिकों द्वारा पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के निकट एबटाबाद में  2 मई को ढेर कर दिया गया। लादेन की मौत के बाद अब उसपर,उसके नाम पर तथा उसकी दिशा व विचारों को लेकर राजनीति करने की कोशिश की जा रही है।

दुनिया के मुस्लिम समाज से संबंध रखने वाले तमाम ऐसे नेता जिनका अपने समुदाय में या तो कोई जनाधार नहीं है या फिर वे अपना जनाधार तलाश कर रहे हैं,या फिर जिनका पेशा ही धर्म व संप्रदाय की राजनीति करने का है, ऐसी शक्तियां ओसामा  के नाम पर मुस्लिम समाज में तरह-तरह की गलतफहमियां पैदा करना चाह रही हैं। इतना ही नहीं बल्कि ऐसे लोगों की यह कोशिश भी है कि लाडेन के नाम पर मुस्लिम समाज को भडक़ाया जाए तथा आगे चलकर उस आक्रोशित मुस्लिम समाज का प्रयोग अपने अन्य क्षेत्रीय,राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक हितों को साधने में किया जाए।
लादेन की हत्या के खिलाफ पाकिस्तान में प्रदर्शन

ऐसी ही शक्तियों ने चाहे वे पाकिस्तान में हों,दुनिया के किसी अन्य मुस्लिम देश में या फिर भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में,इन सभी ने ओसामा के मारे जाने के बाद उसका महिमा मंडन करना तथा उसे शहीद का रुतबा देने की कोशिश करना शुरु कर दिया है। दरअसल आतंकवादी संगठन अलकायदा भले ही विश्वव्यापी स्तर पर कितना ही संगठित,खतरनाक तथा दुनिया के किसी भी कोने में आतंकी कार्रवाई करने की क्षमता वाला संगठन क्यों न हो गया हो परंतु बहरहाल अब तक अलकायदा के पास इस्लाम के नाम पर शहीद कहा जा सकने वाला कोई ‘आदर्श आतंकवादी’नहीं था जोकि लाडेन की मौत के बाद अब आतंकवादियों को अलकायदा संस्थापक बिन लादेन  के रूप में ही मिल चुका है।

यही सोच न सिर्फ अलकायदा को जीवित व सक्रिय रखने में सहायक होगी बल्कि इस बात की भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि अलकायदा लादेन की मौत के बाद अब पहले से भी अधिक सक्रिय तथा विशाल आतंकी संगठन बन जाए। इसी दूरगामी संभावना का अंदाज़ा लगाते हुए अमेरिका ने लाडेन की क्षतिग्रस्त लाश को समुद्र में किसी अज्ञात स्थान पर दफ्न किए जाने का फैसला लिया था। निश्चित रूप से अमेरिका का यह निर्णय अत्यंत दूरदर्शी निर्णय था। अन्यथा नि:संदेह इस्लाम के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाले तथा इस्लाम को आतंकवादी धर्म के रूप में बदनाम करने का ठेका लेने वाले लोगों ने तो लाडेन के समाधि स्थल को एक महापुरुष आतंकी प्रतीक के रूप में स्थापित कर ही देना था।

लादेन  को लेकर निश्चित रूप से कई पहलूओं पर लोगों की भिन्न-भिन्न राय हो सकती है। तमाम ऐसे प्रश्र हैं जो आम लोगों के ज़ेहन में पैदा होते हैं तथा वे सभी प्रश्र अपनी जगह पर जायज़ भी हैं। जैसे लाडेन को लाडेन बनाने वाला कौन था?  दुनिया का यह आरोप है कि लाडेन को यहां तक पहुंचाने में अमेरिका का ही भरपूर योगदान है। बेशक इस विषय पर बहस जारी रहनी चाहिए तथा दुनिया को चाहिए कि वह अमेरिका से इस बात का जवाब मांगे कि दुनिया में लाडेन जैसे तमाम आतंकवादियों को आखिर  अमेरिका संरक्षण क्यों प्रदान करता है? परंतु इस बात पर तो कोई मतभेद हो ही नहीं सकता कि लाडेन ने 9/11 के बाद तथा उससे पूर्व भी अमेरिकी विरोध के नाम पर हज़ारों बेगुनाहों को आतंकी हमलों का निशाना बना डाला।

इस्लाम का परचम अपने हाथों में लेकर चलने वाला ओसामा बिन लाडेन हो या आज उसकी मौत के बाद उसका महिमा मंडन करने वाले या उसे शहादत का मरतबा देने वाले चंद नासमझ लोग, क्या उन्हें इस इस्लामी व कुरानी शिक्षा का ज्ञान नहीं जो हमें यह सीख देती हैं कि-‘यदि तुमने किसी एक बेगुनाह का कत्ल कर दिया तो गोया तुमने पूरी इंसानियत को कत्ल कर डाला’?  एक ओर तो इस्लाम बेगुनाह के कत्ल के प्रति कितना सीधा व साफ संदेश दे रहा है। दूसरी ओर यही इस्लाम व कुरान बदले की कोई भी कार्रवाई करने के बजाए माफी दिए जाने को ज़्यादा तरजीह दे रहा है।

बड़े आश्चर्य की बात है कि राक्षसरूपी इस आतंकवादी के मारे जाने के बाद कई देशों में उसके समर्थन में मुस्लिम समुदाय के तमाम लोग सडक़ों पर उतर आए। कई जगहों पर लाडेन की गायबाना (अनुपस्थिति में पढ़ी जाने वाली) नमाज़ अदा की गई। इसमें पाकिस्तान के साथ-साथ भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य के भी कुछ इलाक़े शामिल हैं। पाकिस्तान में लाडेन का रहना,वहां उसे संरक्षण मिलना तथा उसका वहीं मारा जाना व उसकी मौत के बाद वहां उसे मिलने वाला समर्थन व उसकी नमाज़-ए-गायबाना अदा करना कोई खास अचंभे की बात नहीं है। क्योंकि विभिन्न इस्लामी विचारधाराओं के द्वंद्व का पाकिस्तान में क्या हाल है तथा इसी वैचारिक द्वंद्व ने पाकिस्तान को कहां पहुंचा दिया यह सब दुनिया भलीभांति देख व समझ रही है।

लेकिन  भारत के सीमांत राज्य जम्मू-कश्मीर में जब ओसामा बिन लाडेन जैसे आतंकवादी सरगना का मरणोपरांत महिमा मंडन किया जाए तो किसी भी भारतीय नागरिक विशेषकर भारतीय मुसलमानों का चिंतित होना स्वाभाविक है। क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का देश होने के बावजूद भारत का एक भी व्यक्ति अभी तक अलकायदा का सदस्य प्रमाणित नहीं हुआ। फिर आखिर भारतीय कश्मीर में ओसामा बिन लाडेन को महिमामंडित किए जाने का जि़म्मा कश्मीर में अलगाववादी धड़े के हुर्रियत नेता तथा कश्मीर में फैले आतंकवाद की पैरवी करने वाले सैय्यद अली शाह गिलानी ने क्यों उठाया? गिलानी ने पूरे जम्मू-कश्मीर में लाडेन की गायबाना नमाज़ अदा किए जाने का आह्वान आम कश्मीरी मुसलमानों से किया था।

लाडेन को अपना समर्थन देने के लिए गिलानी के पास यह तर्क था कि-‘किसी शहीद के लिए नमाज़ पढऩा उनका धार्मिक कर्तव्य है। लाडेन ने इस्लाम की राह में अपनी जान दी है लिहाज़ा उसे शहीद का रुतबा हासिल हो’। गिलानी ने केवल इन शब्दों से ही लाडेन को ही महिमामंडित नहीं किया बल्कि इसी भीड़ के मध्य उन्होंने पाकिस्तान की सलामती की दुआएं भी मांगीं। श्रीनगर में एक स्थान पर उन्होंने स्वयं लाडेन की नमाज़-ए-गायबाना भी पढ़वाई। अब इसी परिप्रेक्ष्य  में गिलानी साहब को यह भी बताना चाहिए कि मुंबई में 26/11को हुए हमले के बाद जिन नौ आतंकवादियों को भारतीय कमांडो तथा सुरक्षाकर्मियों ने मार गिराया था उनके विषय में आखिर  गिलानी की क्या राय है?

मुंबई के मुसलमानों ने उस समय एक स्वर से यह घोषणा की थी कि इन आतंकवादियों को मुंबई के क़ब्रिस्तानों में दफन नहीं होने दिया जाएगा। और काफी दिनों तक यह लाशें  सरकार की सुरक्षा में लावारिस पड़ी रहीं। आखिरकार सरकार को गुप्त तरीके से किसी गुप्त स्थान पर इनका अंतिम संस्कार करना पड़ा। उस वक्त गिलानी ने इन आतंकवादियों को शहीद कहना मुनासिब क्यों नहीं समझा? गिलानी को इनकी भी नमाज़-ए-गायबाना अदा किए जाने का आह्वान करना था। इसी प्रकार संसद पर हुए हमले में तथा रघुनाथ मंदिर,अयोध्या,संकटमोचन मंदिर जैसे कई स्थानों पर भारतीय सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों को मार गिराया। उस समय गिलानी जैसे लोगों ने ‘धार्मिक कर्तव्य’ का निर्वहन करने का साहस क्यों नहीं किया?

यहां एक बार फिर यह समझना ज़रूरी होगा कि इस्लाम को सबसे अधिक नुकसान व बदनामी किसी अन्य धर्म या संप्रदाय के लोगों के चलते नहीं बल्कि स्वयं को मुसलमान,इस्लामी तथा धर्मगुरु व मुजाहिद कहने वाले लोगों की वजह से ही उस समय भी उठानी पड़ी थी जबकि इस्लाम धर्म का उदय हुआ था तथा आज लगभग साढ़े चौदह सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी ऐसे ही लोग इस्लाम को बदनाम करते आ रहे हैं।

अन्यथा जहां तक वास्तविक इस्लामी शिक्षा का संबंध है तो इस्लाम में न तो किसी बेगुनाह की हत्या को किसी भी सूरत में जायज़ ठहराया गया है,न ही बेगुनाहों के हत्यारों के महिमा मंडन तथा उसके लिए जन्नत में जाने की दुआएं करने को उचित बताया गया है। ऐसे गैर इस्लामी व गैर इंसानी लोगों के महिमामंडन का सिलसिला बंद होना चाहिए अन्यथा इन जैसों का महिमामंडन भी इस्लाम की बदनामी का एक बड़ा सबब साबित होगा।


लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafari1@gmail.कॉम पर संपर्क किया जा सकता है.



किसानों के राष्ट्रीय नेता 'टिकैत' नहीं रहे


टिकैत राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में तब आये जब उन्होंने दिसंबर 1986में ट्यूबवेल की बिजली दरों को बढ़ाए जाने के ख़िलाफ़ मुज़फ्फरनगर के शामली से एक बड़े  आंदोलन की शुरुआत की थी...

संजीव वर्मा

किसान नेता और भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष  चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का लम्बी बीमारी के चलते आज सुबह मुजफ्फरनगर में निधन हो गया. 76 वर्षीय स्वर्गीय टिकैत पिछले कई महीनों से आंत के कैंसर से पीड़ित थे.उनका इलाज दिल्ली के अपोलो अस्पताल में चल रहा था. टिकैत का अंतिम संस्कार कल सुबह 11 बजे उनके पैतृक गांव सिसौली में होगा.

टिकैत के परिवार में उनके चार बेटे और दो बेटियां हैं.उनके पुत्र राकेश टिकैत पहले से ही उनके साथ किसान यूनियन का काम देखा करते थे.चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने हमेशा किसानों के हितों के लिए चाहे वह गन्ना मूल्य हो या फिर बिजली के लिये,आन्दोलन किये. अपनी इसी कार्यशैली के चलते वे किसानों के चहेते थे. वे लगभग तीन दशक से किसानों की समस्याओं के लिए संघर्षरत थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट किसानों में तो उनकी गहरी पैठ थी.

सिसोली   में  टिकैत : कौन संभालेगा भाकियू की विरासत  
सबसे पहले टिकैत राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में तब आये जब उन्होंने दिसंबर 1986में ट्यूबवेल की बिजली दरों को बढ़ाए जाने के ख़िलाफ़ मुज़फ्फरनगर के शामली से एक बड़ा आंदोलन की शुरुआत की थी. इसी आंदोलन मे 1 मार्च 1987 को किसानों के एक विशाल धरना-प्रदर्शन के दौरान पुलिस गोलीबारी में दो किसानो और एक पीएसी जवान की मौत हो गयी थी.तब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह टिकैत के नेतृत्व मे चले किसान आन्दोलन को शांत करने के लिये खुद सिसौली गांव गये और वहां जाकर किसानों की पंचायत को संबोधित किया. इस आन्दोलन के बाद से टिकैत ने पूरे देश में घूमकर किसानों के लिए काम करना शुरू कर दिया था.

पचास साल की अवस्था में उन्होंने भारतीय किसान यूनियन का गठन कर राज्यों और केंद्र सरकारों तक सीधे किसान हितों की बातें पहुंचाई। वर्ष 1986 में किसान, बिजली, सिंचाई, फसलों के मूल्य आदि को लेकर जब पूरे उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलित थे,तब एक किसान संगठन की आवश्यकता महसूस की गयी। इसके लिए 17अक्टूबर 1986 को सिसौली में एक महापंचायत आयोजित कर भारतीय किसान यूनियन का गठन किया गया। इसमें सर्वसम्मति से चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किया गया।
 
भाकियू गठन के बाद टिकैत के नेतृत्व में 1 अप्रैल 1987 मुजफ्फरनगर के गांव खेड़ीकरमू बिजली घर का घेराव कर किसान महापंचायत का आयोजन किया गया,जिसमें तीन लाख किसानों ने ट्रेक्टर-ट्रॉली सहित हिस्सा लिया तथा सरकार को बिजली की दरें घटाने पर मजबूर किया। टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने कई बड़े आंदोलन किये। वर्ष 1988को भाकियू द्वारा नई दिल्ली वोट क्लब पर धरना दिया गया। इसमें देश के अलग-अलग राज्यों से कई प्रमुख किसान नेता शामिल हुए। तीन अगस्त 1989को टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने नईमा काण्ड को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार के विरूद्ध 39 दिन तक भोपा गंगनहर पर धरना दिया, जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार को झुकना पड़ा तथा किसानों की पांच मांगें माननी पड़ी। लखनऊ में भाकियू ने 1990 में एक विशाल किसान पंचायत का आयोजन किया गया,जिसमें टिकैत को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उनकी पत्नी बलजोरी देवी को पुलिस लाठीचार्ज में गंभीर चोटें आयी।

यह टिकैत के नेतृत्व का ही असर था कि 11दिसम्बर 1990को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर एवं उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भाकियू की किसौली किसान पंचायत में शामिल हुए तथा किसानों के समर्थन में कई घोषणाएं की। सितम्बर 1993 में लालकिले पर डंकल प्रस्ताव विरोधी रैली का आयोजन किया गया,जिसमें करीब दो लाख किसानों ने भाग लिया। जिस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने टिकैत को वार्ता का निमंत्रण भेजा और टिकैत एवं किसान प्रतिनिधियों की प्रधानमंत्री के साथ वार्ता सफल रही।

महेंद्र सिंह टिकैत किसान परिवार मे पैदा हुए थे.हमेशा पैरो में चप्पल,बदन प़र कुरता-धोती और हाथ में छड़ी रखने वाले बाबा टिकैत शांत स्वभाव और निर्भीक किस्म के किसान नेता थे. वे हमेशा किसानों के हक के लिए लड़ते रहे.कहा जा रहा है कि उनके निधन से किसानों के आन्दोलन और फिलहाल ग्रेटर नोयडा मे चल रहे भट्टा-पारसोल आन्दोलन प़र भी फर्क पड़ेगा. टिकैत के निधन प़र सभी राजनीतिक पार्टियों ने दुःख प्रकट किया.प्रशासन ने उनके अंतिम दर्शन के लिए सिसौली में आने वाले नेताओं की सुरक्षा के मद्देनजर गाँव में भारी पुलिस बल तैनात कर दिया है.उनके पैतृक गाँव सिसोली में तो उनके निधन की खबर से  गम का माहौल है.किसानों की राजधानी कहे जाने वाले सिसौली गाँव के पंचायत भवन पर 28सालों से बाबा टिकैत द्वारा प्रज्ज्वलित अखंड ज्योत भी उनके निधन के साथ ही भुझा दी गयी है.



साहित्यिक षड्यंत्र हुआ सरेआम


पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन की देखरेख में चल रहे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की पत्रिका ’पांडुलिपि’ में तीन युवा कवियों महेश चंद्र पुनेठा, केशव तिवारी और सुरेश सेन निशांत  की कविताएं छपीं थीं। 'पांडुलिपि' पत्रिका में कविताएं देख इन कवियों के प्रतिबद्ध साहित्यिक मित्रों ने आश्चर्य, आपत्ति और अफसोस व्यक्त किया और कहा कि यह पत्रिका तो पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन  की साहित्यिक उपादेयता के लिए निकलती है। उपरोक्त कवियों के मित्रों ने उन्हें यह भी बताया कि पत्रिका का मकसद हिंदी साहित्यिक बिरादरी में विश्वरंजन की प्रगतिशील छवि बनाने की कोशिश है,जिससे आदिवासियों के खून में सने विश्वरंजन थोड़े धवल दिखें... दरअसल महेश चंद्र पुनेठा,केशव तिवारी और सुरेश सेन निशांत से  'पांडुलिपि' पत्रिका के लिए कविताएं  मंगवाई गयीं थीं। लेकिन उन्हें यह नहीं बताया गया कि  यह पत्रिका आदिवासियों के खून से सनेविश्वरंजन के प्रगतिशील प्रोग्राम का हिस्सा है , जिसे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की और से निकाला जाता है. जिस कारण इन कवियों ने कविताएं तो भेज दीं, मगर जैसे ही इनको पता चला कि पर्दे के पीछे का खेल क्या है तो उन्होंने समानधर्मा मित्रों के आग्रह पर इस आशय का स्पष्टीकरण फेसबुक पर चस्पां कर दिया। स्पष्टीकरण के साथ फेसबुक सोशल वेबसाइट पर शुरू हुई  यह  बहस साहित्यिक प्रतिबद्धता के सवाल को बड़े ढंग से रखती है और साबित करती है कि अफसरों और अकादमियों के चौखट पर मत्था टेकने की परंपरा के इतर भी साहित्यकार हैं।

फेसबुक पर चली बहस ...

महेश चंद्र पुनेठा (22 फरवरी) : हमें भी इस बात का अफसोस है । दरअसल, हमें यह पता ही नहीं था कि विश्वरंजन भी इस पत्रिका से जुड़े हैं। यह हमें उस दिन पता चला जिस दिन पत्रिका हमारे हाथों में आई । छत्तीसगढ़ के एक कवि मित्र ने आग्रह किया और हमने मित्रता का मान रखते हुए कविताएं भेज दीं। हमारी 'पांडुलिपि' पत्रिका के साथ कोई वैचारिक सहमति नहीं है।

जय प्रकाश मानस (23 फरवरी) : चलिए आपने स्पष्ट कर दिया कि आपकी प्रतिबद्धता किसके साथ है । पर मित्र, 'पाण्डुलिपि' की यह सीमा नहीं है कि वहाँ छपने वाला उसके ही प्रति प्रतिबद्ध हो, पर वह साहित्य, समाज और संस्कृति के प्रति जरूर अपनी प्रतिबद्धता दिखाये जो आपमें भी है। विचलित ना हों कृपया।
उनकी इस प्रतिक्रिया के बाद फेसबुक में एक बहस चल पड़ी । इस बहस के दौरान तथा फेसबुक में छत्तीसगढ़ के हालातों को लेकर लगी अन्य पोस्टों पर समय-समय पर जयप्रकाश मानस ने जो प्रतिक्रियायें व्यक्त कीं, उससे इस संस्थान की स्थापना के गुप्त ऐजेंडे का पता चलता है और संस्थान का असली चेहरा सामने आता है। कभी जो काम अज्ञेय की अगुवाई में कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम ने किया वही काम आज प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान करने जा रहा है।

नीलाभ.....ए ह्यूमन- (23 फरवरी) : मानस जी क्या अब ऐसा वक्त आ गया है कि ग्रीन हंट और सलवा जूडूम जैसे ऑपरेशन चलाने वाली जनविरोधी ताकतों के संरक्षण में आप साहित्य, समाज, संस्कृति के प्रति अपनी प्रतिबध्द्धता व्यक्त करेंगे ?

जयप्रकाश मानस : आदररणीय भैया, हम ग्रीनहंट और सलवा जुड़ूम जैसे आपरेशन चलाने के पीछे की प्रजातांत्रिक विवशताओं, आवश्यकताओं, उसकी असलियत, उसकी जमीनी वास्तविकता, उसके संचालनकर्ताओं, उसके खलिाफ एकांगी दुष्प्रचार करनेवाले, दुष्प्रचार करने वालों की आवश्यकता, उनकी नियत, विवशता, उसकी वास्तविकता से बगैर वाकिफ हुए, शेर आया और भागो-भागो की लय में बहकने वाले और उसे संचालित करनेवाली संवैधानिक-असंवैधानिक, मानवीय-अमानवीय लगभग सारी कमीवेशी से पिछले कई वर्षों से वाकिफ होने के लिए शापित हैं और कथित जनताना सरकार की स्थापना ( लक्षित रणनीति के अनुसार सन् 2050 तक ) के नाम पर हिंसा, आतंक, विध्वंस, लूट, दमन, अपहरण, चौंथ वसूली, बलात्कार, जनसंपति का विनष्टीकरण, निरीह और अबोध बच्चों को हथियार पकड़ाने वालों अमानवीय तथा आमजन सहित, भोले-भाले आदिवासियों के साथ घिनौनी अत्याचार करनेवालों ताकतों,दोनों को ही दूर से नहीं, बल्कि बहुत नजदीकी से देख-परख रहे हैं ।
भैया, अभी ऐसा भी वक्त नहीं आ गया है (जिन आम और आदिजनों की और से आपकी चिंता है उन लोगों की कथित चिंता के लिए ) जंगली, बर्बर, तानाशाहीपूर्ण और फासीस्टवादी तरीकों से जनयुद्ध (आमजन को ही आमजन के खिलाफ विवश और लाचार कर देने वाले) चलाने वाली ताकतों, संरक्षकों, संचालकों, विश्वासियों, मित्रों, दासों के साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति हम अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर दें। क्या यह भी जनविरोधी नहीं होगा ?
जिस दिन हमें विश्वास हो जायेगा कि जनता के वास्तविक विकास और उत्थान के लिए सबसे योग्य, गैरधोखेबाज, गैरषडयंत्रकारी, पूर्ण ईमानदारी अंतिम और एकमात्र मसीहा इस धरती पर अवतरित हो चुका है तथा जिस दिन उनका उज्ज्वल और पारदर्शी चेहरा भी आर-पार देखा जा सकेगा उस दिन आपकी बात मानने में मुझे सुविधा होगी कि किसके प्रति प्रतिबद्ध हों....किसके प्रति नहीं।

नीलाभ .....ए ह्यूमन (23 फरवरी ) : मानस जी, यह जो आप बता रहे हैं, पूंजीवादी अखबार रोज ही बताते हैं । इसमें कुछ भी नया नहीं है.आप बात को अनावश्यक रूप से दूसरी ओर मोड़ रहे हैं। मैं उन लोगों के मानवाधिकारों की बात कर रहा हूँ जो लोकतांत्रिक तरीके से आन्दोलनरत हैं या अपनी जिंदगी शांतिपूर्वक जीना चाहते हैं। अग्निवेश और उनके साथियों की शांति यात्रा को क्यों रोक दिया जाता है? हिमांशु कुमार जो गाँधीवादी हैं उनके आश्रम को क्यों ध्वस्त किया जाता है? उन्हे शांतिपूर्वक काम क्यों नहीं करने दिया जाता है? लिंगाराम कोडापी जैसे आदिवासी युवाओं और उनके परिजनों को क्यों परेशान किया जाता है? पढ़िये समकालीन जनमत के दिसंबर अंक में हिमांशु कुमार और सत्यप्रकाश के लेख,गरीबों का इलाज करने व मानवाधिकारों की बात करने वाले विनायक सेन को क्यों देशद्रोही साबित कर दिया जाता है ? आपने जिन मानवाधिकारों की बात की है उन सभी की रक्षा की जानी चाहिए पर क्या वह सलवा जुडूम और ग्रीन हंट से ही संभव हैं।  ये आभियान माओवादियों का तो कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं, माओवादियों के नाम पर आदिवासी जनता और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों का दमन कर रहे हैं। लोकतान्त्रिक अधिकारों से भी लोग वंचित हो गए हैं। 
वैसे यह सब बातें आपसे कहने का कोई मतलब नहीं क्योंकि आपने तो आँखें बंद कर ली हैं। आभासी यथार्थ ही आपको सारतत्व नजर आता है। ऐसा होना भी स्वाभाविक है क्योंकि सारतत्व को देखने का मतलब है उन सारे लाभों से वंचित होना है जो सत्ता की नजदीकी के चलते अभी आप को मिल रहे हैं।

जयप्रकाश मानस-(23 फरवरी) : भैया,मैं पूँजीवादी अखबार की नहीं, मैं अखबार नहीं पढ़ता, सिर्फ वर्षों से खुली आँखों से देखेने के आधार पर बता रहा हूँ । अखबार से राय तो दूर वाले पाठक बना सकते हैं। नया क्या होगा, किन्तु पुराने और जहरीले प्रश्नों को छोड़ नहीं दिया जा सकता ।
भैया,लोकतांत्रिक तरीकों से आंदोलन करने वालों और शांतिपूर्वक जीवन जीने वालों को सदैव रास्ता मिलना चाहिए। क्या जंगल खेड़े के आदिवासी शांति नहीं चाहते? क्या गरीब बाप के बेटे और पेट पालने के लिए व्यवस्था की छोटी-छोटी वर्दी नौकरी में लगे लोग शांति नहीं चाहते? अपने आश्रम ध्वस्त होने पर गांधीवादियों को प्रजातांत्रिक तरीके से न्यायालय जाना चाहिए। आश्रम चलानेवाले गांधीवादियों को जंगली और बर्बर लोगों के द्वारा सताये जाने पर गरीब आदिवासियों और महिलाओं के पक्ष में भी प्रजातांत्रिक उपाय करना चाहिए जो कि कभी नहीं करते वे। न कि सिर्फ बर्बर लोगों के बाद और उनसे जंगल में उत्पन्न हुई अशांति और आतंक से बचाने पहुँची प्रजातांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ ही प्रश्न उठाते हैं, आखिर ये गांधीवादी डरते क्यों हैं हिंसक और जंगली लोगों से? जो उनकी बर्बरता और फासीस्टवादी रवैयों के खिलाफ नहीं बोलते?

नीलाभ.....ए ह्यूमन (24 फरवरी) : मानस जी, जहाँ आप खड़े हैं वहां से ऐसा ही दिखाई देता है. चीजों को देखने के लिए भौगोलिक रूप से नजदीक होना ही पर्याप्त नहीं होता दृष्टि का होना भी जरूरी होता है.
जो कुछ आप कह रहे हैं ये सरकारी पक्ष है और उन लोगों का पक्ष है जो ग्रीन हंट और सलवा जूडूम के बहाने नागरिकों के लोकतान्त्रिक एवं मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं. विनायक सेन, हेमं पाण्डेय जैसे अनेक उदाहरण हमारे पास हैं जिनसे सिद्ध होता है कि ग्रीन हंट और सलवा जूडूम के बहाने क्या हो रहा है?

अशोक कुमार पांडेय (28फरवरी) : मानस जी, बताते तो आप यही हैं कि 'पाण्डुलिपि' से विश्वरंजन जी का कोई लेना-देना नहीं है। खैर यह जानते-बूझते हुए भी मैंने कवितायें दी हैं और इसे आपत्तिजनक नहीं मानता। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान से पुरस्कृत होने या उपकृत होने को और कविता छपने को बराबर मान लेना भी एक तरह का भावुक अतिवाद है। जबकि हिन्दी में साभार की लंबी परम्परा है तो आपके जाने बिना भी कविता किसी भी जगह छप जाती है। मेरा स्पष्ट मत है कि केवल कविता छप जाने से किसी की भर्त्सना करना बेमानी है। हां उनके पक्ष में खड़ा होकर प्रलाप करने वाले अजय तिवारी जैसे लोगों की भरपूर भर्त्सना की जानी चाहिये।
विश्वरंजन सत्ता के क्रूर पंजे हैं जिन्होंने दमन तंत्र को मजबूत किया है, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान उसी क्रूर पंजे पर ओढ़ाई हुई मखमली खाल है। मानस जी को मैं दोष नहीं देता, वे स्वयं को दिया गया काम बखूबी निभा रहे हैं। मेरा बस यह कहना है कि उस पत्रिका में छपना कोई गुनाह नहीं है। हां, उनके कार्यक्रमों में शिरकत (खासतौर से इस बार की रिपोर्ट पढ़कर और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर और सीपीएम से निष्कासित एक प्रोफेसर साहब का बयान पढ़ने के बाद) निश्चित तौर पर गलत है और उस क्रूर पुलिस प्रशासक को मान्यता दिलाने जैसी है। मैं खुद एक बार उनका आमंत्रण ठुकरा चुका हूं और आगे भी वहां कभी नहीं जाऊंगा।

जय प्रकाश मानस (1मार्च) : अशोक महान था, अशोक महान् हैं.. अशोक महान रहेंगे...। दमन जंगली भी कर रहे हैं, कल उन्होंने दंतेवाड़ा के कुसेल ग्राम में धावा बोला। दो भाइयों का अपहरण कर लिया, फिर धारदार हथियार से गला रेत दिया। जो मारे गये, वे सरकारी लोग नहीं थे, वे बुद्धिजीवी भी नहीं थे, वे अमीर भी नहीं थे, वे शिक्षित भी नहीं थे, वे कविता भी नहीं लिखना जानते थे। उनके दमन के खिलाफ आज कहीं कोई धरना नहीं होने जा रहा, कहीं कोई मानवाधिकार वादी आगे नहीं आने जा रहा। कोई है जो आयेगा इनके पक्ष में... ? ? ?

अशोक कुमार पांडेय (1 मार्च) : मानस जी, आपसे बहस का वैसे तो कोई अर्थ नहीं है, लेकिन सत्ता के दमन और जनता या अपराधियों के कृत्य में फर्क होता है। जिनके दांतों में खून लगा हो और आंखें रुपयों की चमक से धुंधलाई हों उनकी स्मृति तथा चेतना के मदांध हो जाने में कोई आश्चर्य नहीं होता। किसी साहित्यिक कार्यक्रम के ठीक बगल में एक पुलिस अधिकारी की प्रेस कांफ्रेस का प्रचार मेरे लिये शर्मनाक है। उसे देखने के बाद उसका हिस्सा हो पाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।

जयप्रकाश मानस (1 मार्च) : ये सामान्य अपराधी की बात नहीं कर रहा अशोक जी, उनकी बात कर रहा हूँ जो संगठित होकर देशभर और इधर बस्तर में प्रतिदिन किये जा रहे हैं...भाई क्यों नहीं है मुझसे बहस का अर्थ। असहमत लोगों के साथ ही तो बहस होती है । समान सोच वालों के साथ तो चुटकुलाबाजी ...

अशोक कुमार पांडेय : बहस उनसे की जाती है जिनके पास खुली आंखें होती हैं, सत्ता के भोंपुओं से क्या बहस होगी? आपसे बहस का लंबा अनुभव है मुझे, उसी आधार पर यह कह रहा हूं। नक्सली हिंसा का विरोध सरकारी दमन का समर्थन नहीं हो सकता। विनायक सेन के मुद्दे पर आपका व आपके अधिकारी पेट्रन का स्टैण्ड सत्ता से नाभिनालबद्धता स्पष्ट करता है। एक बहस में आपने विनोद कुमार शुक्ल से लेकर तमाम लोगों पर जो तथ्य दिये थे, मैने उसकी भी पड़ताल की और पाया कि अपने प्रदेश की पुलिस की ही तरह आप भी तथ्य गढ़ लेने में माहिर हैं। इसके बाद क्या और क्यूं बहस की जाय? बाबा होते तो इस समय लाल भवानी प्रकट हुई है सुना है तिलंगाने में की तर्ज पर कुछ कह रहे होते।

जयप्रकाश मानस (1 मार्च) : खुली आँखें भी हैं मेरे पास और हर तरह की सत्ता (विचार, वाद, साहित्य, दल, राजनीति, आंतक, मूढ़ता, विद्वता) आदि के भोपूओं की परख भी। मुझे भी लंबा अनुभव आपके कुतर्कों, विचारों आदि का उसी आधार पर कह रहा हूँ। नक्सली हिंसा का विरोध सरकारी दमन का समर्थन नहीं हो सकता। बिलकुल सही, कहाँ कह रहे हैं हम ऐसा। किन्तु नक्सली हिंसा का विरोध उसी स्वर में नहीं होना भी गैरसरकारी अर्थात सिर्फ जनता का वास्तविक समर्थन नहीं हो सकता । जिसने सरकारी दमन किया, उस पर केस चल रहे हैं, वह कटघरे में है, उसे नौकरी से हटाया जा चुका है। हाँ, उसकी हत्या नहीं कर रही हैं सरकारें।
नक्सली हिंसा का छद्म विरोध भी जनता के पक्ष का झूठा समर्थन से कतई कम नहीं । आधाशीशी जनभक्ति है । हर तरह की हिंसा का विरोध होना चाहिए और वह हम कर रहे हैं । नक्सली हजारों आदिवासी, गरीब, निहत्थे को मार चुके हैं, उनके विरोध में ठीक वही कृत्य क्यों नहीं हो रहा जो एक कथित जनहितैषी और वर्णित व्यक्ति का हो रहा है, जिसके आप दीवाने हैं? सिर्फ इसीलिए क्योंकि वह पढ़ा-लिखा है और आदिवासी मूर्ख हैं, नगण्य हैं । बाबा होते तो आपके जैसे आधाशीशी वाले का ही पक्ष नहीं लेते और सिर्फ आपके ही नहीं हो जाते । बड़बोला और कोरी भावुकता से वे भी बचते रहते। विनोद जी के बारे में क्या कहा था और आप क्या समझे, आपके झूठ और अर्थापन आपको मुबारक।

शैल जोशी (2 मार्च) : मानस!  विनायक सेन, हिमांशु  कुमार  के  बारे  में आप  क्या  राय  रखते  हैं  उसे  क्या  हमने  नहीं  पढ़ा। छत्तीसगढ़ में  होने  वाली  हर  आपराधिक  घटना  को  नक्सलियों  के  खाते  में  डाल देना  यह  सरकार  की और  आप  जैसे  सरकारी  लेखकों  की  पुरानी  आदत  है - आप  जो  भी  तथ्य  दे  रहे  हैं  यह  पुलिस  से  प्राप्त  हैं - पुलिस  तो  खुद  इसी  घटनाओं  को  अंजाम  देकर  नक्सलियों  को  बदनाम  करने  में  पीछे  नहीं  रहती  है - अशोक  पांडे  ने  आपको  बिलकुल  सटीक  उपाधि  दी  है -  अशोक  जनता  के  पक्ष  में  खड़े  रचनाकार  हैं - आप  जैसे  दोहरे  चरित्र  के  नहीं ,एक  और  आदिवासियों  की  लड़ाई  लड़ने  वालों  को  जंगली  और  बर्बर  कहते  हो  और  दूसरी  और  उनके  कवि  नागार्जुन  की  जयंती  मनाते  हो - उस  अवसर  पर  पुलिस  की  प्रेस  कांफ्रेंस  करते  हो - अशोक  भाई  आपके  साहस  के  लिए  मेरी  बधाई। 
हाँ, एक  प्रश्न  अशोक  भाई  आपसे। आप  कहते  हो  उस पत्रिका में छपना कोई गुनाह नहीं है। क्या आप एक ऐसी पत्रिका में  छपना चाहेंगे जो  प्रतिक्रियावादी  ताकतों  द्वारा  निकाली  जाती  हो । क्या उसमें  आप  जैसे  जनपक्षधर  लोगों  का  छपना  उनको  मान्यता  देना  नहीं  है?

जयप्रकाश मानस (2 मार्च) : जोशी जी, हिमांशु-विनायक से पहले लाखों हजारों है शैल जोशी जी, जिसके खिलाफ हो रहे दमन के बारे में आप जैसे लोग चुप्पी साधे बैठ गये हैं । छत्तीसगढ़ ही नहीं आपके आसपास भी दमन हो रहा है, उसे भी देखें, उसके खिलाफ आवाज उठायें। कइयों को प्रतिदिन सजा सुनायी जा रही है उसके बारे में भी उवाचे कुछ....सिर्फ एक ही आदमी के लिए इतना स्नेह और करोड़ों की आबादी में हो रहे हर तरह के जुल्म के खिलाफ भी दृष्टि रखें अपनी कुछ....
आपने जो पढ़ा है, आप जो अर्थ निकालते हैं उससे हमें भी कोई फर्क नहीं पड़ता। नक्सलियों के खाते में अनपढ़ों को शिक्षित करने का रिकार्ड नहीं है। नक्सलियों के खाते में अस्पताल खोलने का श्रेय नहीं है। सड़कें बनवाने का श्रेय नहीं है। यदि ऐसा होता जो जनता की चुनी हुई सरकारें नहीं होती वहाँ। सारे के सारे नक्सलियों की सरकार के साथ होते। आप शायद नहीं जानना चाहते- पुलिस सड़कें नहीं खोद देती। पुलिस स्कूल भवन नहीं ढहा देती। पुलिस बस नहीं उड़ा देती। पुलिस रेलवे नहीं उड़ा देती। पुलिस समूचे बस्तर की बिजली गुल नहीं कर देती। करोड़ों-अरबों की संपत्ति नष्ट नहीं कर देती। जब चाहे बस्तर का हाट बाजार बंद नहीं करा देती। पुलिस जोर-जबरदस्ती से युवाओं को बंदुक नहीं पकड़ा देती । पुलिस अपने से हर उस असहमत आदमी को सरेआम ग्रामीणों के जन अदालत में गला नहीं रेत देती । पुलिस ग्रामीण लोगों को किडनैप कर अपनी शर्ते नहीं मनवाती । पुलिस बहुत सारे अनर्थ करती है, पर यह नहीं किया करती। और आप भी अपनी कानूनी अधिकारों के हनन पर नक्सलियों के पास नहीं जाते। पुलिस स्टेशन ही जाते हैं ।
कुछ गैर सरकारी लेखक भी होते हैं जो अपने गैर सरकारी होने का छद्म ओढ़कर कुछ खास तरह के हत्यारों की वकालत करते हैं । अशोक पांडेय कैसे लेखक हैं यह भी उनके स्टॅड से पता चलता है । हर वह व्यक्ति जंगली और बर्बर है जो स्कूल के बदले बच्चों को अपनी सेना में तानाशाह की तरह रंगरूट बनाता है ।
नागार्जुन की जंयती मनाने की अनुमति आपसे लेने से तो हम रहे। बहुत सारे अपने छद्मों के बारे में भी सोचें कभी- पूरी ईमानदारी से।

अशोक कुमार पांडेय (2 मार्च ) : तानाशाहों को सफेद और काले के बीच कुछ नहीं दिखता। बुश से लेकर मोदी और इन तक सबका सीधा फंडा है या तो हमारे साथ या दुश्मन। इन्हें लोकतंत्र का स्पेस दिखता ही नहीं, दिखता है तो खटकता है।

जयप्रकाश मानस (2 मार्च) : कुछ लोगों को इतनी गलतफहमी हो गई है कि वे ही देश और जन को बचा रहे हैं, लेखन के अलावा वे ही कुछ कर रहे हैं बाकी सब दलाल हैं। मुझे किसी अशोक का 'शोक' देखते बहुत दुख होता है, तुम किसके बिके हो यह तो नहीं पता, मैं नहीं बिका हूँ अब तक। याद रखें मन में। दमन मेरी बातों का करके आप बहुत बड़े पुण्यवान नहीं बनने जा रहे । कौन सा सरकारी पैसा? और कौन सा फतवा। आपके कुछ समझने। आपको कोई अपराधी नहीं कहा जा रहा है। अपराध वह है जो न्याय करने में, न्याय की बात करने में सिर्फ अपने मतलब की चीजों को देखता है। उस पत्रिका और नक्सलवाद से कोई संबंध नहीं है। यह तो आप लोगों की सोची-समझी चालें है कि कई चीजों को ऐसा मिला दो और इतने बार झूठ बोलों कि वह सच की तरह दिखने लगे। आपकी अपील जाये भाड़ में। सिर्फ आप ही युगपुरुष नहीं हो। जिसके कहने पर देश के साहित्यकार आपकी अँगुली थामें बच्चों की तरह पीछे-पीछे नहीं चले जायेंगे । आप डिसोन करो क्या कुछ, एक साहित्यिक पत्रिका को कोई फर्क नहीं पड़ता ।

शैल जोशी - आश्चर्य ....महाआश्चर्य .....'पाण्डुलिपि' से तो मार्क्सवादी कवि केदारनाथ सिंह और गाँधीवादी लेखक विजय बहादुर सिंह भी जुड़े हैं ! क्या है इनकी पक्षधरता मेरे तो कुछ समझ में नहीं आता ? यह गोलमाल क्या है ? साहित्य में प्रतिबद्धता जैसी कोई बात भी रह गई है कि नहीं?

जयप्रकाश मानस (2 मार्च ) :  मुख्यमंत्री ही नहीं, मंत्रिमंडल हीं नहीं, खाकी वालों में ही नहीं, समाज के सारे अंगों जैसे मीडिया, साहित्य, कला, फिल्म, संगठनों, सबके सब एक एक सलवा जुडूम चला रहे हैं जिन्हें अपने अलावा औरों से कोई लेना-देना नहीं। कोई अपनी गिरेबां को झाँक कर नहीं देखता । कोई अपनी कमीनगी को नहीं देखता। हाँ मैं इतना जानता हूँ - जिस दिन आदिवासियों को कोई अपना प्रवक्ता मिलेगा उस दिन देखेंगे आप और हम - न कथित आदिवासी हितैषी, न सरकारें उसे हांक पायेंगे ना ही कथित आदिवासी विरोधी। वह सबको ठिकाने लगा देगा । दरअसल, अब तक इनकी आवाज का सच सामने आया ही नहीं है।

अनिल मिश्र (2 मार्च) : जयप्रकाश जी, 'सबके सब सलवा जुडूम चला रहे हैं', इस प्रतीक को अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए, (हालांकि इसमें प्रथम दृष्टतया ही कई बेतुके पेंच हैं और आप भी जानते होंगे कि यह बात असंदिग्ध तौर पर सही नहीं है.) तो भी यह  सवाल बना रहेगा कि संवैधानिक उसूलों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा कर सत्ता में आसीन होने वाली सरकार ने एक घिनौने और बनैले खूनी खेल के लिए किन-किन गुटों को हथियारों से लैस किया? ताकि देशी विदेशी कंपनियों के हित में, और यह सब 'विकास' के चमचमाते नाम पर, आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन को हड़पने-हथियाने का रास्ता साफ किया जा सके। 
और एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं दंतेवाड़ा में नहीं रहता हूं इसलिए वहां की वाजिब जानकारियां मुझे नहीं हैं।  लेकिन मीडिया का शोधार्थी होने के नाते मुझे यह इल्म है कि छत्तीसगढ़ का अधिकांश हिंदी मीडिया सरकारी भोंपू से ज्यादा कुछ नहीं हैं और कि वहां 'खुला खेल फरूखाबादी' की तर्ज पर 'विकास' के नाम पर जो कुछ हो रहा है उससे कॉर्पोरेट कंपनियों, बाहरी तथा देश के आंतरिक युद्ध-पिपासु, बौने राजनीतिक और सैन्य प्रतिनिधियों के सिवाय आम जनता का कोई भला यकीन नहीं हो रहा है। 
दुनिया में कम ही इसकी मिसाल मिलती है कि कोई महान लेखक या कवि या रचनाकार और कलाकार किसी सत्ता के पायदानों से आंशिक आत्मीय तालमेल बना पाया है. हां, आधुनिक भारत में, इक्कीसवीं सदी में एकाधिक डीजीपी कवियों के अपवाद को छोड़कर.....जो सलवा जुडूम को 'डार्लिंग' बनाए हुये हैं।

महेश चंद्र पुनेठा : हम लक्ष्मी की सेवा/सुविधाजनक नौकरियों/सरकारी तमगों के लिए/समझौतों की कालाबाजारी नहीं कर सकते इतने गाफिल नहीं हैं हम। सत्ता से नाभिनालबद्ध होकर ये सारी कालाबाजारी करने और दूसरों को इस धंधे में जोड़ने के लिए कटिबद्ध साहित्यकारों की कमी नहीं। उसके लिए संस्थान खड़े किये गए हैं। आप जैसे दो -चार के न होने से क्या फर्क पड़ जाता है? समय पर समझ जाओ, अन्यथा उनके पास कुछ खास कानून भी हैं विकास की परिभाषा नहीं समझते हो -जल- जंगल - जमीन से आदिवासियों को खदेड़कर वहां बहुराष्टीय कंपनियों को बसाना विकास कहलाता है।
 

जयप्रकाश मानस : अनिल जी, तो क्या यह भी बतायेंगे कि जिस तरीके से गणतांत्रिक (बची-खुची) व्यवस्था में अव्यवस्था हो रही है वह प्रस्तावित तंत्र की स्थापना से नहीं होगी? सुना है संघाई में दुनिया का सबसे बड़ा मॉल है और आधा चीन फटेहाल। क्या उस तंत्र के स्वप्नदृष्टा, प्रायोजक, प्रस्तोता के पास कोई ऐसा रोडमैप है जिसमें यह सब नहीं होने की गारंटी है ? आपको कहीं से भी गलतफहमी न हो, इस लिए यह कहना लाजिमी है कि आदिवासियों को सरकारें तड़पा रही हैं तो वे भी इससे कम नहीं कर रहे हैं उनके साथ जिस पर आदिवासी विश्वास करे कि वे सबसे योग्य और अंतिम भाग्य विधाता हों।

नोट : टेक्स्ट लम्बा और उबाऊ न हो इसलिए फेसबुक  पर चली लंबी बातचीत को संपादित कर यहाँ  प्रकाशित किया गया है.