हद तो यहां तक है कि मुख्यमंत्री मायावती की प्रेस कांफ्रेस का पूर्वाभ्यास किया जाता है और माननीया से पूर्व निर्धारित और रटाए गये प्रश्न ही पूछे जाते हैं। प्रेस कांफ्रेस में बड़े से बड़ा पत्रकार अपनी मर्जी से सवाल पूछने की हिमातक नहीं करता...
आशीष वशिष्ठ
बात 25अक्टूबर 1996की है। बसपा के संस्थापक कांशीराम के दिल्ली स्थित आवास के बाहर मीडिया का जमावड़ा था। असल में देशभर का मीडिया कांशीराम से यूपी में त्रिषंकु विधानसभा चुने जाने पर बसपा की भावी योजना और तमाम दूसरे सवालों के जवाब जानने के लिए जमा हुआ था। लेकिन पत्रकारों के प्रश्नों से झुंझलाए और तमतमाए कांशीराम और उनके सर्मथकों और सुरक्षाकर्मियों ने पत्रकारों पर हमला बोल दिया। इस हमले में आज तक चैनल के पत्रकार आशुतोष गुप्ता और बीआई टीवी के पत्रकार इसार अहमद को छाती पर गहरी चोटें आई और उन्हें अस्पताल भर्ती कराना पड़ा। मौजूदा समय में भी उत्तर प्रदेश में पत्रकारिता के कुछ ऐसे ही हालात दिखने लगे हैं.
डिक्टेशन पर उठा सवाल तो लो मैं उठ गयी |
हालिया घटना में राजधानी लखनऊ से प्रकाशित हिन्दी दैनिक डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट के चेयरमैन प्रो० निशीथ राय के साथ घटी है। प्रो.राय के इलाहाबाद स्थित पैतृक निवास में सरकार के इशारे पर कई थानो की पुलिस ये कहकर कि उनके घर में धड़धड़ाते हुये घुसी कि उनके घर में अपराधी छिपे होने की खबर है। यूपी पुलिस को वहां कोई अपराधी नहीं मिला। गौरतलब है कि इस घर में प्रो. राय की वृद्व माताजी रहती हैं। प्रो0राय जनहित से जुड़े मुद्दों और मसलों पर पूरी ईमानदारी और सच्चाई से अपनी आवाज मुखर करते हैं।
असल में मायावती अपनी बुराई और आलोचना सुनने की क्षमता ही खो चुकी है। इसीलिए उनके षासन में प्रेस पर हमले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं और मायावती पार्टी जनों और नौकरशाहों के आचरण और व्यवहार को बदलने की कोशिश करने के स्थान पर अपने विरोध में उठने वाली हर एक आवाज को डंडे के डर से चुप कराने के अलोकतांत्रिक तरीके का प्रयोग खुलकर कर रही हैं। जेल में बंद डा0 सचान की हत्या से जुड़े खुलासे प्रेस ने करने शुरू किये तो मायावती सरकार पूरी तरह से बौखला गई।
प्रेस के खुलासों और खोज से डा0सचान की आत्महत्या वाली थ्योरी झूठी साबित होने लगी तो सरकार के इशारे पर एएसपी और सीओ स्तर के अधिकारी ने आईबीएन 7चैनल के पत्रकार शलभमणि त्रिपाठी और मनोज राजन त्रिपाठी से दुर्व्यवहार और मारपीट की। मनोज तो किसी तरह से पुलिस की चंगुल से भाग निकले पर शलभ को पुलिस अधिकारी हजरतगंज थाने में ले आये और अपने मातहतों को उन्हें पीटने और झूठे आरोपों में बंद करने का हुक्म दिया। लेकिन पत्रकार बिरादरी के मुखर विरोध और प्रदर्शन से घबराई पुलिस ने शलभ को छोड़ दिया और मजबूरन सरकार को आरोपी पुलिस अधिकारियों को निलंबित कर मुकदमा दर्ज करना पड़ा।
यूपी में पत्रकारिता दिनों-दिन जोखिम का काम साबित हो रहा है। 2007में बसपा सरकार बनने के बाद से ही प्रदेश में गिने-चुने चम्मच पत्रकारों को छोड़ अधिकतर पत्रकारों को सरकारी मकान से बेदखल करने और मान्यता समाप्त करने कार्यवाही चल री है। प्रदेश से छपने वाले बड़े-बड़े बैनर के अखबार सरकार की चम्मचागिरी और चरणवंदना में लगे हैं। चंद चंपू टाइप चाटुकार पत्रकारों के अलावा बसपा सरकार का मीडिया से मधुर संबंध नहीं है। हद तो यहां तक है कि सीएम की प्रेस कांफ्रेस का पूर्वाभ्यास किया जाता है और माननीया मुख्यमंत्री पूर्व निर्धारित और रटाए गये प्रष्न पूछे जाते है। प्रेस कांफ्रेस में बड़े से बड़ा पत्रकार हिमाकत करके अपनी मर्जी से सवाल पूछने का आजाद नहीं है।
एक तरह से मायावती पत्रकारों को जो डिक्टेट करती हैं और पत्रकार बंधु सुनते,समझते और छापते हैं। असल में मायावती हर काम को डंडे के जोर पर कराने की आदी है। ऐसे में वो प्रेस को अपने मनमुताबिक चलाना और हांकना चाहती है,और जो कलम या आवाज सच को जनता के सामने लाने का साहस करती है उसको प्रो0राय और शलभ की तरह सरकारी गुस्से का शिकार होना पड़ता है।
आंकड़ों का खंगाला जाय तो पूरे देश में ही पत्रकारों पर हमलों का आंकड़ा दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। जेडे हत्याकाण्ड ने पूरे देश और पत्रकार बिरादरी को हिला कर रख दिया था। आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो साल 2008 से लेकर जून 2011 तक देश में लगभग 181 पत्रकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। दिसंबर 2010 में छत्तीसगढ़ में दैनिक भास्कर के पत्रकार सुशील पाठक और जनवरी 2011 में नई दुनिया के पत्रकार उमे राजपूत, जुलाई 2010 में इलाहाबाद में इण्डियन एक्सप्रेस के पत्रकार विजय प्रताप सिंह, जुलाई 2010 में ही स्वतंत्र पत्रकार हेम चंद्र पाण्डेय की आंध्र प्रदेश में हुयी हत्याओं ने पूरे देश को यह सोचने को विवश कर दिया था कि क्या वास्तव में हम लोकतांत्रिक व्यवस्था और देश का हिस्सा हैं।
प्रदेश में पत्रकारों का बोलना तो मायावती को अखर ही रहा है वहीं सरकार के विरोध में उठने वाले स्वर को दबाने के लिए सरकार ने सूबे में धरना,प्रदर्शन और आंदोलन की नियमावली बनाकर आम आदमी की आवाज को दबाने का कुत्सित प्रयास किया है। आज प्रदेश में सत्ताधारी दल के कई नेता अपना अखबार और पत्रिकाएं और चैनल चला रहे हैं।
राजधानी में पिछले दिनों शुरू हुये एक हिन्दी दैनिक को भी सत्ताधारी दल से जुड़ा बताया जा रहा है। सत्ताधारी दल से जुड़े अनेक प्रकाशन सरकारी विज्ञापनों के जरिये हर माह लाखो-करोड़ो की कमाई कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि सूबे में नयी-नवेली पत्र पत्रिकाओं की बाढ़ पिछले चार साल में आई है,लेकिन इन सब के बीच में पत्रकारिता कहीं खो या दब चुकी है।
स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक- सामाजिक मसलों के टिप्पणीकार.