May 4, 2011

प्रेमी युगल को जान का खतरा


संजीव कुमार
 
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद प्रेम विवाह करने वाले प्रेमियों को पंचायत में जारी होने वाले तालिबानी फरमानों का डर बना हुआ है. प्रेमी जोड़ों को अपनी हत्या का फरमान मिलने के बाद अब केवल पुलिस प़र ही विश्वास बना हुआ है.एसा ही एक नजारा देखने को मिला जनपद मुज़फ्फरनगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कार्यालय में. यहाँ एक प्रेमी जोड़े ने पंचायती  फरमान से अपनी जान को खतरा बताया  है. इस प्रेमी युगल ने घर और समाज की प्रवाह किये बिना शादी की है. दोनों के धर्म अलग-अलग होने के कारण लड़की पक्ष के लोगों ने लड़का और लड़की दोनों का बहिष्कार कर उन्हें मारने का फरमान भी जारी कर दिया है .

 
पुलिस अधीक्षक के कार्यालय पहुंचे सोनिया और जगमोहन
दरअसल, जनपद मुज़फ्फरनगर के थाना मीरपुर के गाँव कशामपुर निवासी जगमोहन हरिद्वार रहकर शिक्षा ग्रहण कर रहा था, उसी कालेज में पढने वाली सोनिया (परिवर्तित नाम ) भी पढ़ती थी, दोनों को कब प्यार हो गया, उन्हें मालूम ही नहीं चला. जगमोहन ब्राह्मण परिवार से है और सोनिया मुस्लिम परिवार से है. दोनों के अलग-अलग धर्म के होने के बावजूद जगमोहन और सोनिया एक दूसरे को दिलोजान से भी ज्यादा प्यार करते है.  दोनों की इस प्रेम कहानी को एक साल बीत गया तब  सोनिया और जगमोहन के परिजनों को मालूम पड़ा और  परिजनों ने इनके मिलने प़र पाबन्दी लगा दी .

लेकिन परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर घर से भागकर शुक्रताल में हिन्दू रीति-रिवाज से शादी कर ली. उसके बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट से शादी का स्टे भी ले लिया. इस शादी का पता जब दोनों के परिवार वालो को लगा तो गाँव में एक पंचायत बुलाई गई. इस पंचायत में उन दोनों को सजा के तौर प़र गाँव बिरादरी से बेदखल कर दिया. इसी के साथ जगमोहन और सोनिया को  हिदायत दे दी गयी कि  अगर गलती से भी दोनों ने गाँव में पैर रखा तो जान से मार दिया जायेगा.पंचायती फरमान जारी होने के बाद दोनों प्रेमी 4 अप्रैल यानि बुधवार  को वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कार्यालय  मुज़फ्फरनगर आये और उनसे अपनी सुरक्षा की गुहार लगायी. गौरतलब है कि सोनिया ने जगमोहन से शादी कर हिन्दू धर्म अपना लिया है और अब सोनिया जगमोहन के साथ रहकर वैवाहिक जीवन जीना चाहती है.


संक्रमण काल की जलेबी अब सड़ने लगी है कामरेड

संक्रमण काल से हमेशा गरीब जन ही क्यों परेशान हों, जबकि एक 'सर्वहारा' प्रधानमंत्री बन चुका है और एक 'गरीब का छोरा' अर्थ मंत्री. यह वही 'सर्वहारा' प्रधानमंत्री है जिसने मातृका यादव को सिर्फ इसलिए कार्रवाई करने की धमकी दी थी क्योंकि उन्होंने संक्रमणकाल में सामंती ठेकेदारों को'तकलीफ' पहुंचाई थी और गरीबों द्वारा युद्धकाल में कब्जाई जमीन को सामंतों को लौटाने के 'प्रचंड'फतवे को अनदेखा किया था...

नीलकंठ के सी

आनंद स्वरुप वर्मा का लेख 'क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शरू हो गई है'अपनी अंतर्वस्तु में जितना प्रतिक्रियावादी था उसका बचाव 'प्रचंड मुग्धता नहीं, शीर्ष को बचाने की कोशिश' अपने सार में उतना ही खतरनाक है. यह कुछ वैसा ही है जैसा एक झूठ से बचने के लिए एक हज़ार झूठ गढ़ना.उनके लेख को छानने-खंगालने पर जो बातें स्पष्ट होती हैं, उससे पता चलता है कि वर्मा जी ने अपना लेख 'आवेग' में नहीं, बल्कि पूरी तसल्ली से लिखा है. वे पूरी तरह अपने लेख की प्रस्थापनाओं से सहमत हैं,उसके साथ खड़े हैं.मैंने अपने लेख में उनके दृष्टिकोण पर कुछ सवाल उठाये थे,जिनका जवाब उन्होंने नहीं दिया.इसका मतलब मैं यह लगा रहा हूँ कि वे उनसे सहमत हैं.अब आगे उन प्रस्थापनाओं पर अपनी बात रखने का प्रयास करूंगा जिन पर वे असहमत हैं.

'शीर्ष को बचाने की कोशिश' लेख के पहले पॉइंट में आनंद जी कहते हैं ' नेपाली क्रांति अभी जारी है, फिलहाल संघर्ष का मोर्चा बदल गया है.'क्रांतियों का इतिहास जानने वाले लोग समझते हैं कि क्रांतियाँ एक बने-बनाये सीधे रास्ते पर आगे नहीं चलती, बल्कि लगातार ऊपर-नीचे, दायें- बाएं होती हैं. नेपाल में भी जनयुद्ध से पहले माओवादी पार्टी संसद में गई और बाद में उससे बाहर आकर जनयुद्ध को संचालित किया. वर्ष 2006 में वह फिर संसद में शामिल हुई और संविधान सभा के चुनाव में प्रतिस्पर्धा की.लेकिन इस बार एक बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसे लगातार विफलता का सामना करना पड़ रहा है (विफलताओं की चर्चा आगे),तो क्या अब एक बार फिर उसे मोर्चा नही बदलना चाहिए या फिर इसे ‘भाग्य’ मानकर क्रांति का आत्मसमर्पण कर देना चाहिए? उसी पॉइंट में वर्मा जी ने लिखा है,'नेपाली क्रांति का नेतृत्व समूह और एक एक कार्यकर्ता भी यही कहता है कि ‘क्रांति जारी छ (है).सवाल यह है कि क्या अन्य सभी संसदीय वाम पार्टियाँ भी ऐसा ही नही कहती. चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया में भी क्रांति जारी है, भारत में भी सीपीआई इसे जारी रखे हुए है तो फिर माओवादी ही क्यों खुद को क्रांतिकारी शब्द से अलंकृत करें.क्यों उसका नेता प्रचंड क्रांतिकारी कहलाये. जी हाँ 'क्रांति जारी छ' और यह ‘अनंत’ तक जारी रह सकती है, लेकिन मुख्या सवाल इसे पूरा करने का है.

आनंद जी दूसरा पॉइंट इस तरह शुरू करते हैं,'जनयुद्ध से संविधान सभा के जरिए सत्ता हासिल करने का शांतिपूर्ण संक्रमण किसी अर्द्धसामंती और अर्द्धऔपनिवेशिक देश में किया जाने वाला पहला प्रयोग है और इसकी वजह से कई तरह के विभ्रम का पैदा होना स्वाभाविक है। परंपरागत तौर पर अतीत में जो क्रांतियां संपन्न हुई हैं उनमें ऐसी विशिष्ट स्थिति नहीं थी...'यह 'सत्ता हासिल करने का शांतिपूर्ण संक्रमण'क्या है भाई?बहुत कोशिश के बाद भी मै इसे नहीं समझ पाया इसलिए 'मुंह में शब्द डालने'का खतरा उठाते हुए भी यह कहने का साहस करूँगा कि संविधान सभा में जाना सत्ता हासिल करने का मौलिक प्रयास था या है तो सही है, लेकिन यदि 'संक्रमण' की बात है तो फिर यह एमाले और अन्य संसदीय पार्टियों से माओवादी को अलग कैसे करता है? एमाले भी तो संसद में जाने और वहा बने रहने को 'संक्रमण' काल के रूप में ही तो देखती-दिखाती है! एक महत्वपूर्ण सवाल है कि नेपाल की क्रांति अन्य क्रांतियों से विशिष्ट कैसे है? सिर्फ इसलिए कि प्रचंड और बाबूराम ऐसा मानते हैं! इसे बार-बार विशिष्ट कहना इसके संशोधनवादी रास्ता लेने को जायज बताने का 'अतिविशिष्ट' प्रयास ही है.

पॉइंट3,4 और 5 तथ्य हैं इसलिए अविवादित हैं, लेकिन छठे पॉइंट में फिर घपला है. आनंद जी लिखते हैं कि 'पीएलए का समर्पण नहीं किया गया है'.यदि ऐसा है तो 22जनवरी को पीएलए को संसदीय समिति के मातहत करने के कार्यक्रम में प्रचंड ने ऐसा क्यों कहा, 'अब पीएलए एक नए दौर में पहुँच गई है, जहाँ से वह किसी के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखेगी.'एक वर्गीय सेना का किसी के प्रति पूर्वाग्रह न रखने के क्या माने हैं?उसी दिन पीएलए ने अपने कान्तोंमेंट में अपना झंडा उतारकर नेपाल 'राष्ट्र' का झंडा फहराया था! अब तो सेना द्वारा एक नया संगठन बनाकर पीएलए को उसमें शामिल करने के सुझाव को प्रचंड 'सकारात्मक' मानते हैं. यह सकारात्मक पहल उस शांति समझौते के खिलाफ है जहाँ सेना का लोकतंत्रीकरण और पीएलए का उसमें विलय का प्रस्ताव था.वर्मा जी,इसे किस भाषा में समर्पण नहीं कहा जाता?
 सातवाँ पॉइंट नेपाल के माओवादी आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण साथ ही 'रहस्यमयी' कड़ी से जुड़ा है जहाँ से आन्दोलन एक नए और अब विवादित प्रक्रिया में प्रवेश करता है, इसलिए इस पर थोडा कहना उचित होगा.

चुनवांग बैठक में पारित दस्तावेज सिर्फ इस लिहाज़ से ही तो महत्वपूर्ण है कि इसने माओवादी पार्टी को सार्वजनिक किया और राजतन्त्र के खिलाफ अन्य संसदवादी पार्टियों से इसके सहकार्य को सहज बनाया.इसके अलावा यह दस्तावेज अन्य दस्तावेजों से अधिक महत्वपूर्ण तो बिलकुल नहीं है,फिर बार-बार इसका हवाला देने का उद्देश्य क्या है? क्या इसके बाद दूसरे दस्तावेज पारित नहीं हुए?क्यों उन दस्तावेजों की अनदेखी की जाती है?क्या खरिपति और पलुन्ग्तार में नए दस्तावेज पर सहमति नहीं बनी जिसमें जनविद्रोह की लाइन को पारित किया गया था.इस पूरे प्रकरण को देखने से पता चलता है कि वर्मा जी, बाबूराम और प्रचंड केवल उसी दस्तावेज को मान्यता देते हैं जो संशोधनवाद के लिए रास्ता तैयार करता है और पार्टी को संसदीय जाल में फंसाए रखता है.जब हम कहते हैं कि यह भारतपरस्ती है तो इसमें गलत क्या है?

क्या यह बात किसी से छुपी है कि चुनवांग में पारित दस्तावेज भारत की मान्यता प्राप्त करने का आधार निर्माण करता है. हमेशा चुनवांग के दस्तावेज से नए दस्तावेज को ख़ारिज करने का कारण क्या है? जबकि होना चाहिए कि पुराना दस्तावेज नये द्वारा निषेध होता. यह अलग चर्चा का विषय है कि चुनवांग दस्तावेज कितना प्रतिक्रियावादी था, लेकिन उसकी एक प्रस्थापना को उधृत करना ठीक होगा,'संक्रमणकालीन गणतंत्र को बुर्जुआ वर्ग बुर्जुआ संसदीय गणतंत्र में बदलने का प्रयास करेगा और सर्वहारा वर्ग की हमारी पार्टी इसे जनवादी गणतंत्र में बदलने का प्रयास करेगी. संक्रमण काल की अवधि कितनी लम्बी या छोटी होगी इस बात को अभी पूरे यकीन से नहीं कहा जा सकता.' कोई भी जागरूक पाठक यहाँ शब्दों की जादूगरी को आसानी से समझ सकता है. संक्रमणकाल को 'अनंत' बताकर संसदीय व्यवस्था में बने रहने के जबर्दस्त खेल को यहाँ आसानी से समझा जा सकता है.

अब एक सरसरी नज़र संविधान सभा में माओवादियों की उपलब्धियों पर.वर्मा जी उपलब्धियों के नाम पर जिन चीजों को गिनाते हैं वे हैं : 'जनयुद्ध का सफल' होना, 'राजतन्त्र का समाप्त' होना, 'संविधान सभा के चुनाव' होना, 'कोई माओवादी का प्रधानमंत्री बन' जाना.

इससे साफ़ है कि वर्मा जी जनयुद्ध के सफल होने को राजतन्त्र के समाप्त होने और प्रचंड का प्रधानमंत्री हो जाने में देखते हैं.लेकिन वे यह क्यों नहीं देख पाते कि नेपाल का आमजन आज भी उन्हीं परिस्थित्तियों में जीने को विवश है और कई मामलो में तो जनयुद्ध से पूर्व और उस दौरान की स्थित्तियों से भी बदतर हालात में.अब इसे संक्रमणकाल की 'विशेषता' कहकर ख़ारिज किया जा सकता है, लेकिन हम यह पूछना चाहते हैं कि संक्रमण काल से हमेशा गरीब जन ही क्यों परेशान हों? इस काल में पूंजीपति और सामंती तो बिलकुल परेशान नहीं हैं. जबकि एक 'सर्वहारा' प्रधानमंत्री बन चुका है और एक 'गरीब का छोरा'अर्थ मंत्री.यह वही 'सर्वहारा'प्रधानमंत्री है जिसने मातृका यादव को सिर्फ इसलिए कार्रवाई करने की धमकी दी थी, क्योंकि उन्होंने संक्रमणकाल में सामंती ठेकेदारों को 'तकलीफ'पहुंचाई थी और गरीबों द्वारा युद्धकाल में कब्जाई जमीन को सामंतों को लौटने के 'प्रचंड' फतवे को अनदेखा किया था! अब वे पार्टी में नहीं हैं और जमीन लौटा दी गयी है. 

जब वर्मा जी कहते हैं कि कटवाल प्रसंग के बाद भारत का हस्तक्षेप बढ़ा है तो वे क्यों इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते कि जब तक पार्टी क्रान्तिकारी थी तब तक उसे कोई भी शक्ति मजबूर नहीं कर पा रही थी.उन्हें यह भी निष्कर्ष निकालना आना चाहिए था कि संविधान सभा से कुछ भी हासिल नहीं हो सकता, सिवाए अपमान के. इसी सन्दर्भ में वर्मा जी ने जिन बातों को छिपाया है वे हैं : संविधान सभा की उप समितियों में (एक या दो के अलावा) माओवादी पार्टी के सदस्य शीर्ष में नहीं हैं बाबजूद इसके कि वह सबसे बड़ी पार्टी है, लाख प्रयत्न के बाबजूद 'जनयुद्ध' शब्द को संविधान के मूल मसौदे में शामिल नहीं किया जा सका है, समझौते के विपरीत पीएलए का नेपाली सेना में समायोजन नहीं होने जा रहा है,नेपाली सेना के लोकतंत्रीकरण के समझौते को लागू नहीं किया गया है,बल्कि उसे और भी अधिक हथियारों से सशक्त किया जा रहा है,जनयुद्ध के समय कब्जे में ली गई जमीन लौटा दी जा रही है,जनसरकार का विघटन कर दिया गया है, वाईसीएल का अर्धसैनिक स्वरूप भंग कर दिया गया है, जन कम्यून भंग हो चुके हैं, आदि आदि.

इसके बाद लेख में उनके मुंह में शब्द डालने की बात जो वे कह रहे हैं एकदम गलत है. उनका लेख जनज्वार पर है, वे खुद इसे पढ़ सकते हैं.उन्होंने लिखा है,'मैंने कभी यह नहीं कहा कि माओवादियों का लक्ष्य 'शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है, ... मैंने अपने लेख में यह कहा था कि एक तरफ तो आप (प्रचण्ड) यह कहते हैं कि शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है... और दूसरी तरफ कार्यकर्ताओं की आंतरिक बैठकों में विद्रोह की बात करते हैं.’ हमारा उनसे सवाल है कि क्या लेख में उनका जोर इस बात पर नहीं है कि प्रचंड को विद्रोह की बात नहीं करनी चाहिए. प्रचंड के विद्रोह की बात करने से उन्हें क्यों इतना 'दुः' हुआ, जबकि एक समाजवादी होने के नाते वे इस बात से 'खुश' हो सकते थे कि प्रचंड विद्रोह को जायज मान रहे हैं. और किरण को लफ्फाज न मानने की उनकी दलील गले नहीं उतरती क्योंकि शब्दकोष के अनुसार 'योटोपिया' पर विश्वास करने वाले को 'लफ्फाज' ही कहा जाता है. और चुनवांग के दस्तावेज को ऐतिहासिक कहने वाले को इसके रचनाकार को 'दूरदर्शी' तो मानना ही चाहिए.

उन्होंने अपने लेख में कहा है कि 'प्रचण्ड और बाबूराम दोनों ने अपने इंटरव्यू में कहा है कि हम शांति प्रक्रिया को पूरा करने का प्रयास करेंगे और अगर इसमें रुकावट पैदा की गयी तो विद्रोह में जाएंगे.' यह एकदम गलत बयान है, जबकि बाबूराम किसी भी हाल में विद्रोह में जाने की बात नहीं करते. और करते भी हैं तो सिर्फ इसलिए कि पार्टी के दस्तावेजों में अभी भी विद्रोह एक लाइन के बतौर पास है. बाबूराम की समझ क्या है इसके लिया जनज्वार में ही प्रकाशित अजय प्रकाश द्वारा लिए उनके साक्षात्कार को पढ़ा जा सकता है.जब अजय प्रकाश ने उनसे पूछा,'क्या माओवादी पार्टी फिर से जनयुद्ध के रास्ते पर लौट सकती है?'  तो उनका जवाब था, 'बहुत ज्यादा दमन की स्थिति में थोडे़ दिनों के लिए पार्टी बचाव में ऐसा कर सकती है,मगर पहले की तरह 10-12साल के लिए जनयुद्ध के रास्ते पर अब नेपाली माओवादी नहीं लौटेंगे। हमारे पास 2003के बाद  कई ऐसे उदाहरण हैं जिनसे साफ हो गया था कि हम लोग सैन्य मामलों में नेपाली सेना को मात नहीं दे सकते।'

अब ऐसे व्यक्ति का जो 2003 से ही मान चुका है कि 'हम लोग सैन्य मामलों में नेपाली सेना को मात नहीं दे सकते' वह किस तरह किसी भी हाल में संविधान बनाने को उतारू नहीं होगा?क्या ऐसा पढने के बाद जनयुद्ध के प्रति उनके अविश्वास को नहीं समझा जा सकता? क्या हम ऐसा मानने में गलती कर रहे हैं कि माओवादी नेतृत्व (चुनवांग बैठक के वक्त बाबूराम और प्रचंड ही नेतृत्व माने जाते थे क्योंकि किरण, गौरब और अन्य कैद में थे) हालाँकि हारकर नहीं तो कम से कम जनता पर अविश्वास के कारण संसद में आया है जबकि दोनों ही संविधान सभा को जनता की जीत की तरह प्रस्तुत करते हैं. और जब किरण इसी लाइन की समीक्षा की बात करते है तो वे जड़सूत्रवादी-हार्ड लाइनर क्यों हो जाते हैं?

आगे वे लिखते हैं कि प्रचंड को यह बताना कि 'उनके वैचारिक विचलन के कारण ही आत्मगत तैयारी कम हुई है' उनका काम नहीं है क्योंकि, 'मैं आपकी पार्टी का सदस्य नहीं हूं.' तो फिर वर्मा जी यह बताइए कि प्रचंड को यह सलाह देते वक्त कि 'आपको साहस से यह कहना होगा कि किरण जी,आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं. नेपाल का यथार्थ आज यही है कि किसी भी तरह संविधान निर्माण का काम पूरा किया जाए और एक दुष्चक्र में फंसी राजनीति को आगे बढ़ाया जाए' आपको पार्टी की सदस्यता की जरूरत क्यों नहीं पड़ी? ऐसा तो नहीं है कि एक बात रखने के लिए सदस्यता की जरूरत हो और दूसरी के लिए नहीं.

जब वे कहते हैं कि ऐसा वे शीर्ष को बचाने के लिए कर रहे हैं तो हमारी उस बात को पुष्ट नहीं करते, जब पिछले लेख में कहा गया था कि वे प्रचंड को नेपाली क्रांति का पर्यायवाची मानते हैं.वर्मा जी के लिए शीर्ष सिर्फ प्रचंड हैं.वे किरण और अन्य को नहीं बचाना चाहते.उनके लिए शीर्ष को बचाने का मतलब है लगातार ये साबित करना कि प्रचंड तो भारत की गुलामी करने को तैयार है लेकिन किरण रोके पड़ा है. भारत का दुश्मन प्रचंड नहीं, बल्कि किरण है. 'प्रचंड तो शांतिदूत है' (ये मेरे शब्द हैं), 'किरण ही जड़सूत्रवादी है'( यह भी मेरे शब्द हैं) और यदि आप प्रचंड को प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे तो किरण के पक्ष को मजबूती मिलेगी.इसे साबित करवाने के लिए वे प्रचंड से गुहार लगाते हैं कि, 'आपको साहस से यह कहना होगा कि किरण जी,आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं'.अपने उस कथन के खिलाफ जाते हुआ कि वे पार्टी सदस्य नहीं हैं और गलती बताना उनका काम नहीं है वे कहते हैं कि,'मैं अपना यह भी अधिकार मानता हूं कि अगर कोई विचलन दिखायी देता है तो उसे इंगित करूं और तभी मैंने यह लेख लिखा.'मेरा सवाल है कि वर्मा जी को तभी विचलन क्यों दिखाई देता है जब पार्टी में किरण का पक्ष मजबूत होता है.और जब बाबूराम और प्रचंड एक हो जाते हैं उनकी नज़र में तो सब कुछ ठीक क्यों होने लगता है.वर्मा जी यह 'प्रचंड मुग्धता'ही है यह 'शीर्ष को बचाने की कोशिश' तो बिलकुल भी नहीं है.

अंत में मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि लेख में छपी टिप्पणी के लिया यह लेखक जिम्मेदार नहीं है.और मैं यह भी नहीं मानता कि आपने यू टर्न लिया है. मेरा मानना है कि आप जिस गाड़ी की पिछली सीट में बैठे हैं, उसके ड्राइवर ने गाड़ी को गंतव्य की दिशा से भटका दिया है. और जैसे ही आप नींद से उठेंगे (यदि आप सच में सो रहे हैं तो) ड्राइवर को इसके लिए डांटेंगे जरूर. दूसरी बात मैंने आपकी टिप्पणी को 'नस्लीय' और 'उग्र राष्ट्रवादी' कहा है, न कि आपको. यदि आपको ये व्यक्तिगत लगा तो इसे भाषा की मेरी कमजोर जानकारी कह सकते हैं. इसके लिए मैं आत्मालोचित हूँ.

(लेखक नेपाली एकता मंच दिल्ली राज्य के सदस्य हैं. )


 नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में अबतक  आपने पढ़ा -