Jan 25, 2011

आध्यात्मिक प्रेम में मन नहीं देह श्रेष्ठ


प्रेम जो कुछ भी हो,लेकिन  उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय नहीं है.फिर  भी  यह एक ऐसा विषय है जिस पर कवि,लेखक,प्रवचन करने वाले जितना लिखते या कहते हैं उतना शायद किसी और विषय पर लिखते या कह्ते नहीं...

निशांत मिश्रा

प्रेम यह एक ऐसा शब्द है जो चिर प्राचीन, मगर चिर नवीन है. यह जादुई आकर्षण से अपनी ओर खींचता है.कहते हैं कि प्रेम दो आत्माओं का मिलन है,इसलिए जहाँ दैहिक आकर्षण होता है वहां कभी सच्चा प्रेम नहीं हो सकता. अगर यह बात सही है तो फिर 'मिलन' का अर्थ क्या है? दूसरा क्या आत्मा और शरीर के मिलन में कोई फर्क है?

वास्तव में देखा जाए तो दैहिक मिलन भी प्रेम का ही एक रूप है.जिस तरह शरीर और मन दो अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं,बिल्कुल उसी तरह प्रेम और उसमें होने वाला दैहिक स्पर्श भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.धर्मशास्त्र और मनोविज्ञान के अनुसार 'काम'एक प्रकार की ऊर्जा है जिसका सीधा सम्बन्ध इन्द्रियों और शरीर से होता है और यही ऊर्जा जब प्रेम का रूप लेती है तो दैहिक आनंद का सृजन होता है.सभी की इच्छा होती है कि कोई उससे प्रेम करे. आखिर प्रेम क्या है? क्या प्रेम सिर्फ दिमाग की उपज है? वास्तव में प्रेम या भोग की भावनाएँ दिमाग से ही निकलती हैं और इन्द्रियों के माध्यम से शरीर व आत्मा को इसकी अनुभूति कराती हैं.


ओशो की माने तो प्रेम जो कुछ भी हो, उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि वह कोई विचार नहीं है. प्रेम तो अनुभूति है. उसमें डूबा जा सकता है पर उसे जाना नहीं जा सकता.प्रेम पर विचार मत करो.विचार को छोड़ो और फिर जगत को देखो. उस शांति में जो अनुभव करोगे वही प्रेम है.मनोविज्ञानियों की माने तो प्रेम कुछ और नहीं मात्र आकर्षण है जो अपोजिट जेंडर के प्रति सदैव आकर्षित करता है,लेकिन इसमें भी सभी मनोविज्ञानी एक मत नहीं हैं.

चार्ल्स रुथ का मानना है कि किशोर अवस्था में प्रवेश करते ही जिस तरह लड़के और लड़कियां एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं उसका कारण सिर्फ अपोजिट जेंडर नहीं है,बल्कि किशोर अवस्था में आने के साथ ही सेक्स हार्मोंस का संचार उनकी इन्द्रियों और शरीर में तेजी से होने लगता है.यही कारण है कि जहाँ लड़कियां खुद को सुन्दर और आकर्षक बनाने में जुटी रहती हैं वहीं लड़के अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करने में लगे रहते हैं.लड़के और लड़कियां सज-धज इसीलिए करते हैं कि कोई उनकी ओर भी आकर्षित हो.सेक्स के प्रति उनकी जिज्ञासा भी इसी उम्र में जागती है. तभी तो उन्हें काल्पनिक कहानियाँ और फिल्मों के हीरो-हीरोइन अच्छे लगते हैं. उनके व्यहवार में परिवर्तन आ जाता है. वह ऐसा क्यों करते हैं? कारण सीधा सा है क्योंकि यह भी एक तरह से यौन इच्छा का संचार है.

अगर बात आकर्षण की करें तो हर किसी का प्रयास होता है कि सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो.इसी आकर्षण से उपजता है प्रेम और इसी प्रेम का परिणाम है दैहिक सुख.इसके लिए इन्सान कुछ न कुछ ऐसा करने को तत्पर रहता है जिस पर सबका ध्यान जाए.यह मनोवृत्ति है जिससे लड़के और लड़कियां भी अछूते नहीं.यही बात प्रेम करने वालों पर भी लागू होती है.जब तक दोनों के बीच आकर्षण रहेगा तब तक प्रेम भी रहेगा.आकर्षण खत्म होते ही प्रेम उड़न छू. फिर प्रेम कैसा?

आकर्षण प्रेम संबंधों को प्रगाढ़ करता है.प्रेम संबंधों के बीच पनपे यौन सम्बन्ध को वासना का नाम देना अनुचित ही होगा.जब दो जने स्वेच्छा से अपने शारीरिक और आत्मिक सुख व आनंद की प्राप्ति के लिए एकाकार होते हैं तो वह अनुचित कैसे हो सकता है,लेकिन हमारी सामाजिक धारणाएं इसे अनुचित और नाजायज़ मानती हैं.हाँ,प्रेम संबंधों के अतिरिक्त मात्र दैहिक सुख के लिए बनाये जाने वाले सम्बन्ध को जरुर वासनापूर्ति की श्रेणी में रखा जा सकता है. हम प्रेम और दैहिक आनंद की व्याख्या कुछ इस तरह से भी कर सकते हैं कि शरीर और आत्मा क्या है? दोनों को ही किसी भी प्रकार की अनुभूति इन्द्रियों के माध्यम से ही होती है.

शरीर और आत्मा हमेशा आनंद पाने को लालायित रहते हैं इसीलिए वह हमेशा अपोजिट जेंडर के प्रति आकर्षित होते हैं और इस आनंद की अनुभूति तब होती है जब प्रेम और भोग के दौरान इन्द्रियां संतुष्टि का अहसास कराती हैं.प्रेम और दैहिक आनंद सभी सुखों से बढ़कर एक ऐसा वास्तविक सुख है जिसका कोई अंत नहीं.शरीर और आत्मा दोनों ही सदैव इस सुख को भोगने के लिए तत्पर रहते हैं. यह शाश्वत और अटल सत्य है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता. यह एक ऐसा विषय है जिस पर कवि, लेखक, प्रवचन करने वाले जितना लिखते या कहते हैं उतना शायद किसी और विषय पर लिखते या कह्ते नहीं होंगे.

दैहिक  आनंद और प्रेम को लेकर बहुत भ्रांतियां हैं,लोग दोनों को अलग अलग करके देखते हैं.जबकि वात्सायन के कामसूत्र और उसी को आधार मान कर लिखे गए अन्य ग्रंथों या किताबों का अध्ययन करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि धर्म,सांसारिक संपत्ति और आत्मा की मुक्ति की तरह ही प्रेम और दैहिक आनंद का भी इन्सान के लिए समान महत्व हैं. जीवन की इन प्रमुख गतिविधियों में से किसी एक का अभाव मानव जीवन अधूरा बना देता है.जैसे इनका होना जीवन में आवश्यक है वैसे ही दैहिक सुख का.अगर इस पर ध्यान नहीं दिया जाये तो इन्सान का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा.

दैहिक सुख को हिन्दू शास्त्रों में तीन अन्य व्यवसाय की तरह पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है और इसका उल्लेख वृहदरन्यका उपनिषेद में विस्तृत रूप से किया गया है.कुल मिलाकर प्रेम एक ऐसा जादूई अनुभव या अनुभूति है जिसे हम अलग अलग समय पर,बचपन,जवानी,वृद्धावस्था में अलग अलग तरीके से अनुभव करते हैं.



पत्रकार निशांत मिश्रा पिंकसिटी प्रेस क्लब जयपुर के पूर्व  उपाध्यक्ष हैं, उनसे  journalistnishant26@gmail.com संपर्क  किया  जा  सकता  है.

लोकसंस्कृति की पक्षपधरता का प्रश्न

जबकि चौतरफा अपसंस्कृति का बोलबाला बढ़ता जा रहा हो,लोकसंस्कृति ह्रासमान हो और जनसंस्कृति का एक सिपाही गिरीश तिवारी गिर्दा हमारे बीच से चला गया हो,‘लोकसंस्कृति की चुनौतियों’ पर बात करना बेहद प्रासंगिक है...

पिछले 19जनवरी को रुद्रपुर के नगरपालिका सभागार में गिर्दा स्मृति संगोष्ठी में ‘लोकसंस्कृति की चुनौतियों’पर बोलते हुए वरिष्ठ आलोचक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य डॉक्टर राजेन्द्र कुमार ने कहा कि ‘लोकसंस्कृति वही है जिसमें गतिशीलता हो और जो मुक्त करने की ओर उन्मुख। इसलिए लोकसंस्कृति के नाम पर सबकुछ को पीठ पर लादे नहीं रखा जा सकता है। सड़ांध पैदा करने वाली चीजों की निराई-गुड़ाई करते हुए आगे बढ़ना ही सच्चे लोकसंस्कृति की विशेषता हो सकती है।’


संगोष्ठी का आयोजन उत्तराखण्ड के रूद्रपुर जिले की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘उजास’ने किया था। वर्तमान चुनौतियों की चर्चा करते हुए उन्होंने आगे कहा कि आज बाजार की संस्कृति हावी है,जिसने इंसान को माल में तब्दील कर दिया है। साजिशन आमजन से तर्क व विवके छीनकर आस्था को मजबूत किया जा रहा है। बाजार की शक्तियां ही यह तय कर रहीं हैं कि लोक को क्या जानने दा, क्या नहीं। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि बगैर पक्षधरता तय किए वास्तव में लोकसंस्कृति की चुनौतियों से नहीं टकराया जा सकता है।

विषय प्रवर्तन करते हुए ललित जोशी ने कहा कि आज के दौर में लोकसंस्कृति के बरक्स अपसंस्कृति और अंग्रेजियत की संस्कृति हावी है। मानसिक गुलामी की यह संस्कृति समाज को भीतर से तोड़ रही है,इंसान को इंसान से कमतर, आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी व मौकापरस्त बना रही है।
डॉ.शम्भूदत्त पाण्डे शैलेय ने लोक के लिए समर्पित गिर्दा को याद करते हुए बताया कि सहज व सरल ढ़ंग से बात रखना ही जन से जुड़ाव का प्रस्थान बिन्दु है। उन्होंने अपने वक्तव्य में इस सामाजिक त्रासदी का उल्लेख किया कि घर के पूजा कक्षों,त्योहारों एवं ब्यक्तिगत-सामाजिक कर्मकाण्डों में चाहें जैसी संस्कृति हो,सामाजिक जीवन में औपनिवेशिक संस्कृति और उससे गढ़ा गया मानस ही है।


‘नौजवान भारत सभा’ के मुकुल ने कहा कि आज हम सांस्कृतिक वर्चस्व के ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां बाजार की शक्तियां जनता के मन-मस्तिक पर जबर्दस्त नियंत्रण कायम कर रखी हैं। स्थिति यह है कि भाषा के नाम पर साजिशन हिंगलिस परोसा जा रहा है। उन्होंने कहा कि लुटेरी शक्तियों ने एक प्रक्रिया में नियंत्रण के हथियार विकसित किए हैं। हमे भी इतिहास से सबक लेकर अपने नए हथियारों को विकसित करना होगा। तभी हम सांस्कृतिक चुनौतियों से जूझ सकते हैं।

अपने अध्यक्षीय वक्तब्य में वरिष्ठ साहित्यकार ड़ा.प्रद्युम्न कुमार जैन ने लोकसंस्कृति की चुनौतियों को समझने के लिए अपने इतिहास को जानने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने नारावादी मानसिकता से मुक्त होकर समाज की बहती मुक्तधारा को आगे बढ़ाने का आह्वान किया।

संगोष्ठी में ‘इंक़लाबी मजदूर केन्द्र’ के कैलाश भट्ट, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के प्रताप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार विधि चंद्र सिंघल , प्रो. प्यारेलाल, पद्यलोचन विश्वास, रूपेश सिंह, ए.पी. भारती आदि ने भी विचार प्रकट किए। नाट्यकर्मी हर्षवर्धन वर्मा ने गिर्दा को समर्पित कविता प्रस्तुत की। संचालन खेमकरन सोमन व नरेश कुमार ने संयुक्त रूप से किया। इस अवसर पर पोस्टर व पुस्तक प्रदर्शनी भी आयोजित हुयी।



प्रस्तुती- एल.जोशी



'पहली मंजिल है संविधान'


दिल्ली में आयोजित एक  सेमीनार में भाग लेने आये नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)  के  उपाध्यक्ष बाबूराम  भट्टराई से  अजय प्रकाश  की  बातचीत...


नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)ने नये संविधान निर्माण का जो लक्ष्य तय किया था वह अब तक क्यों नहीं पूरा हो सका?
पार्टी के लिए भी यही सवाल इस समय केंद्रीय बना हुआ है कि आखिर सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर वह कौन सी गलतियां हैं, जिनकी वजह से हम लोग देश की जनता की उम्मीदों को अब तक पूरा नहीं कर सके। पार्टी में बहुतायत की राय बनी है कि हम लोग सिद्धांत और व्यवहार के तालमेल में असफल रहे। पार्टी ने जनयुद्ध के जरिये क्रांति की ओर कदम बढ़ाते हुए दो महत्वपूर्ण सफलताएं दर्ज की थी। पहली पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) और दूसरा आधार क्षेत्र। हमें मौजूदा समय में लग रहा है कि पार्टी आधार क्षेत्रों में अपनी ताकत बरकरार रखने में सफल नहीं रह पायी है।

पार्टी में जिस तरह के विरोध के स्वर उठ रहे हैं, वैसे में कहीं ऐसा तो नहीं कि पार्टी टूट जाये?
अभी-अभी 7हजार पार्टी कार्यकर्ताओं का प्लेनम हुआ है। इस प्लेनम के बाद हम दोटूक कह सकते हैं कि पार्टी में नेतृत्व के स्तर पर ऐसा कोई अंतरविरोध नहीं है जिससे पार्टी के टूटने की कोई बात हो। हो सकता है पहले की तरह एकाध नेता निकलें, मगर पूरी पार्टी अब नयी चुनौतियों के साथ और मजबूत हुई है। भारतीय अखबारों में जो खबरें आती हैं वह अविश्वनीय और अधकचरी दोनों हैं,जिससे यहां भ्रम फैलता है। हालांकि भारतीय शासक वर्ग की चाहत भी यही है। पार्टी में फिलहाल बहस इस बात पर है कि अभी क्या किया जाये। दूसरी बहस प्रधान अंतरविरोध को लेकर भी है। पार्टी बहुमत का मत है कि 2005 में हुए बारह सूत्रीय समझौते को बातचीत के रास्ते आगे बढ़ाया जाये और राष्ट्रीय स्तर पर अपने को मजबूत किया जाये।

कहीं समस्या बारह सूत्रीय समझौते में तो नहीं है?

हमें ऐसा नहीं लगता। मौजूदा विश्व परिस्थिति  और नेपाल में पार्टी की स्थिति के मद्देनजर ही माओवादी नेतृत्व ने निर्णय लिया था। हमारा कतई नहीं मानना है कि बारह सूत्रीय समझौते का निर्णय किसी जल्दबाजी या दबाव में लिया गया था। पार्टी ने एक लंबे अनुभव और बहसों की प्रक्रिया को पूरी करने के बाद ही यह तय किया था कि अब हमें संविधान निर्माण की प्रक्रिया को इसी रास्ते पूरा करना है।



भारत सरकार के नुमाइन्दों  से आपकी क्या बात हुई?
भारत सरकार संभवतः समझना चाहती है कि आखिर कहां गलती हुई, जो सोलह बार सरकार बनाने के लिए हुए प्रयासों के बावजूद नेपाल में कोई स्थिर सरकार नहीं बन सकी। हालांकि यह मेरा अनुमान है। पूर्व विदेश मंत्री और मौजूदा वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी नेपाल की अस्थिरता को लेकर गंभीर दिखे। भारत सरकार को इसी गंभीरता से नेपाल में ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते नेकपा (माओवादी) को संविधान निर्माण का मौका मिले।

मगर अब तो नये संविधान के निर्माण के लिए पांच वर्षों में से सिर्फ चार महीने ही शेष रह गये हैं, आपको लगता है कि आप लोग इस काम को पूरा कर पायेंगे?
बेशक हमारे लिए यह एक चुनौती होगी,जिसमें पार्टी कामयाब होने में अपनी पूरी ताकत झोंक देगी। गांवों में हमारा अभी भी व्यापक जनाधार है। अगर हम लोग गांवों में अपने समर्थकों के बीच फिर एक बार व्यापक एकता कायम करते हुए बढ़ें तो शहरों में जनता स्वतः नये संविधान निर्माण की प्रक्रिया के समर्थन में संगठित हो जायेगी। पार्टी मानती है कि हमें जितनी तैयारी करनी चाहिए थी, उसमें कमी रह गयी।

कहीं ऐसा तो नहीं कि यह रास्ता ही गलत रहा हो?
मैं पहले भी कह चुका हूं और फिर एक बार कह रहा हूँ कि जनयुद्ध के रास्ते से आगे बढ़कर नेकपा (माओवादी) का संघर्ष के इस रास्ते को चुनना कोई भूल नहीं है। बेशक इन पांच वर्षों के लिए पार्टी ने जो सैद्धांतिक निर्णय लिये थे, उनको हम लोग ठीक ढंग से अमल कराने में असफल रहे, जिसे हम स्वीकार करते हैं। बीते पांच वर्षों में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांति के पक्ष में जो माहौल बनाना था, उसमें भी पार्टी कुछ ज्यादा नहीं कर सकी।

मगर बीते पांच वर्षों में सरकार बनाने-बिगाड़ने को लेकर समझौते और बातचीत तो खूब हुई। आपको नहीं लगता कि माओवादी पार्टी की बड़ी ताकत इसी में उलझी रही?
यह बात भी सही है। मगर दूसरी तरफ देखें तो ऐसा स्वाभाविक तौर पर भी हुआ, क्योंकि 2005 में चुनाव जीतकर आने के बाद से पार्टी का मुख्य कार्यभार नेपाल में नया संविधान निर्माण था। जाहिर तौर पर नया संविधान निर्माण बहुमत की बदौलत ही होना है। इस कारण हम लोगों की बड़ी क्षमता इसी काम में लगी रही कि कैसे भी करके देश में एक जनतांत्रिक संविधान का निर्माण हो। चूंकि देश को एक सच्चे लोकतंत्र बनाने की चिंता और सोच बुनियादी रूप से माओवादी पार्टी की ही है, इसलिए मुश्किलें और भी गंभीर होती चली गयीं।

कुछ लोगों का मानना है कि जनयुद्ध के बाद माओवादी बुर्जुआ पार्टियों के गठबंधन के चक्रव्यूह में उलझ गये?
इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि माओवादियों को छोड़ देश की दूसरी सभी पार्टियां इस खेल में माहिर थीं। मगर एक फर्क लक्ष्य का भी था। पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल की एमाले पार्टी हो या फिर स्वर्गीय गिरिजा प्रसाद कोइराला की नेपाली कांग्रेस, सभी सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए गठबंधन कर रहे थे, जबकि माओवादी उन सहायक शक्तियों से एका कर रहे थे जो नये नेपाल को बना सकें, देश को नया संविधान दे सकें।

कैंपों में रह रहे माओवादी पार्टी की जनसेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए)के जवानों की मानसिक तैयारी कैसी है, क्या वे अभी भी पार्टी के आहवान पर उसी तरह संघर्ष करने को तैयार हो पायेंगे, जैसा उनका इतिहास रहा है?
उम्मीद तो पार्टी यही करती है। हालांकि कैंपों में इतने वर्ष बिताने के बाद पीएलए की संघर्ष के लिए मानसिक तैयारी को मिला-जुला कहना, सच के ज्यादा करीब होगा। मिलिट्री के स्तर पर देखें तो राज्य की सेना के मुकाबले हम कमजोर हैं और अब मुश्किलें और बढ़ गयी हैं। भारतीय सेना वहां के जवानों को प्रशिक्षित कर रही है और भारत हथियार भी नेपाल को दे रहा है। इसलिए हमें लगता है कि फिलहाल तो बातचीत से ही रास्ता निकालने की कोशिश होनी चाहिए।

अगर दूसरी पार्टियां बातचीत के जरिये नये संविधान निर्माण को लेकर सहमत नहीं होती हैं और मई तक की समयसीमा समाप्त हो जाती है, वैसे में आपकी पार्टी क्या करेगी?
फिर से हम नये सिरे से कोशिश करेंगे,क्योंकि संविधान निर्माण तक पार्टी का यही मुख्य कार्यभार है। वैसे तो देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते यह मौका माओवादी पार्टी को मिलना चाहिए। बहरहाल देखिये क्या होता है।

नेपाल में संविधान सभा के चुनाव की समयसीमा समाप्त होने के बाद क्या सेना माओवादियों का दमन करेगी ?
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसी वजह से हम लोग फिर से अपने आधार इलाकों को पुनर्गठित करने की जोरदार प्रक्रिया शुरू कर रहे हैं। चूंकि हम सैन्य मामलों में नेपाली सेना से बराबरी नहीं कर सकते इसलिए ऐसी किसी स्थिति से निपटने के लिए जनांदोलनों का रास्ता अपनाया जाये।

क्या माओवादी पार्टी फिर से जनयुद्ध के रास्ते पर लौट सकती है?
बहुत ज्यादा दमन की स्थिति में थोडे़ दिनों के लिए पार्टी बचाव में ऐसा कर सकती है, मगर पहले की तरह 10-12 साल के लिए जनयुद्ध के रास्ते पर अब नेपाली माओवादी नहीं लौटेंगे। हमारे पास 2003के पास कई ऐसे उदाहरण हैं जिनसे साफ हो गया था कि हम लोग सैन्य मामलों में नेपाली सेना को मात नहीं दे सकते।

भारतीय माओवादियों की नेपाली माओवादियों के बारे में जो आलोचना है कि बुर्जुआ राजनीति में भागीदारी विचलन है, इस बारे में आप क्या कहते हैं?
सैद्धांतिक तौर पर देखें तो यह आलोचना सही लगती है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर भारत और नेपाल की राजनीतिक स्थितियां अलग हैं। हम अभी नेपाल में राजशाही का अंत कर एक गणतांत्रिक देश बनने की प्रक्रिया में हैं, जबकि भारत इस दौर से गुजर रहा है। इसलिए नेपाल की विशेष परिस्थितियों में अभी देश में बुर्जुआ संविधान निर्माण ही क्रांति की पहली मंजिल है।

भारतीय माओवादियों से आपके किस तरह के संबंध है?
एक कम्युनिस्ट पार्टी होने के नाते हमारा उनसे बिरादराना संबंध है, इससे इतर कुछ भी नहीं।

(पाक्षिक पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा' से साभार)