Dec 7, 2010

हम खो गए कहां?

मुकुल सरल



हमने भी जां गंवाई है इस मुल्क की ख़ातिर
हमने भी सौ सितम सहे इस देश के लिए


ये बात अलग हम किसी वर्दी में नहीं थे
कुर्ते में नहीं थे, किसी कुर्सी पे नहीं थे


सड़कें बिछाईं हमने, ये पुल बनाए हैं
नदियों को खींचकर तेरे आंगन में लाए हैं


खेतों में हमारे ही पसीने की महक है
शहरों में हमारी ही मेहनत की चमक है


भट्टी में हम जले, हमीं चक्की में पिसे हैं
पटरी से हम बिछे, हमीं तारों में खिंचे हैं


हमने ही आदमी को खींचा है सड़क पर
बेघर रहे हैं हम, मगर सुंदर बनाए घर


हर एक इमारत में हम ही तो खड़े हैं
इस देश की बुनियाद में हम भी तो गड़े हैं


रौशन किया है ख़ून-पसीने से ये जहां
क्या हमको कभी ढूंढा, हम खो गए कहां?


हमको तो रोने कोई भी आया न एक बार
दुश्मन ने नहीं, अपनों ने मारा है बार-बार


हम भी तो जिये हैं सुनो इस मुल्क की ख़ातिर
हम भी तो रात-दिन मरे इस देश के लिए...
 
 
 
  कवि  और  पत्रकार मुकुल सरल जनसरोकारों के  प्रतिबद्ध रचनाकारों में हैं. उनसे mukulsaral@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है. उनकी एक दूसरी नज़्म पढ़ने के लिए 'तीस सितंबर' पर क्लिक करें.

एक अंबेडकर इक्कीसवीं सदी को

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस 6 दिसम्बर पर   

 
राजाराम विद्यार्थी

भारत में बहुत से लोग पैदा हुए और मर गये। दुनिया में भी बहुत से लोग पैदा हुए और मर गये। कौन किसको याद करता है?किसको जीते जी याद किया जाता है किसको मरने के बाद?कितने लोगों को राश्ट्र याद करता है कितने लोगों को संसार?और कितने लोगों को दो-चार पीढ़ी के बाद उन्हीं का परिवार?लेकिन बाबा साहब डॉ0 भीमराव राम जी अम्बेडकर को सारा विष्व ही श्रेश्ठ विधि वेत्ता तथा संविधान निर्माता के रूप में याद करता है।

विश्व  उन्हें एक दूसरे रूप में भी याद करता है। वह रूप है उनका मानव-मानव के बीच उत्पन्न गैर बराबरी, वह चाहे सामाजिक हो (यथा जाति, रंग तथा लिंग भेद के कारण उपजी असमानता हो),धर्म के नाम पर उपजी असमानता हो यो आर्थिक गैर बराबरी हो!राजनैतिक गैर बराबरी हो,इन सब के कारण अम्बेडकर की प्रासंगिकता कार्ल मार्क्स ,बुकर टी वाशिंगटन  ,महात्मा गांधी आदि को काफी पीछे छोड़ मुखर होकर संसार के सम्मुख प्रकट होती है।

ऐसा इसलिए होता है कि अम्बेडकर के जमाने में उनकी पीढ़ी तथा उनकी जाति के लोगों के लिए शिक्षा  नहीं थी, वह कक्षा कक्ष के बाहर बैठकर पढ़ते थे। नाई ने जातिगत कारणों से उनके बाल नहीं काटे तो उनकी बहन उनके बाल काटकर स्कूल भेजती थीं। बिल्कुल साफ सुथरे कपड़ों में नहला-धुला कर।

स्कूल के माली के नल को नहीं छू पाने के कारण वह प्यास को रोक लेते थे या पानी मांग कर पी लेते थे। और बाद में,महाड़ तालाब सत्याग्रह में वह जल पर सबके हक के लिए आन्दोलन चलाते हैं। षिक्षा धन से नहीं अपितु अपनी योग्यता से इतनी ग्रहण करते हैं कि भारत के विश्वविद्यालयों  में उनके लायक उपाधियां नहीं होती हैं,जिन उपाधियों को वह इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, कोलम्बिया से प्राप्त करके लाये। अपार षिक्षा ज्ञान चिन्तन,मनन के कारण तथा सफल नेतृत्व क्षमता के कारण महाड़ सत्याग्रह में 25 हजार दलित जन समुदाय के बीच ‘मनुस्मृति’ जो कि दलित तथा महिलाओं के जीवन के लिए अभिषाप है,उस मनुस्मृति की प्रतियों की होली जलाई।

शायद इसी दिन से मिली प्रेरणा के कारण आज साहित्य,समाज,राजनीति में दलित एवं महिला विमर्ष तथा हक अधिकारों की लड़ाई का सूत्रपात हुआ है। इसका दूसरा आधार अम्बेडकर के द्वारा निर्मित संविधान के अलावा सदन में प्रस्तुत किया गया हिन्दू कोड बिल, प्रथम तथा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में रखे विचार भी हो सकते हैं।

किन्तु हिन्दू कोड बिल का सदन द्वारा बहिश्कार जिसका कारण हिन्दू धर्म का जाति तथा वर्ण व्यवस्था के प्रति हठधर्मिता पागलपन की हद तक रही जिसके परिणामस्वरूप बाबा साहब भीमराव राम जी अम्बेडकर को अपनी मृत्यु के मात्र तीन माह पूर्व हिन्दू धर्म का परित्याग कर (14 अक्टूबर 1956) तथा 6 दिसम्बर 1956 को उन्हें महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ।
तब से लेकर बाबा साहब अम्बेडकर का नाम कुछ गिने-चुने लोगों, कुछ गिनी-चुनी किताबों तक ही सीमित हो गया। भले ही बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर द्वारा गठित की गई राजनैतिक पार्टी भारतीय रिपब्लिकन पार्टी भी धीरे-धीरे अस्तांचल में पहुंच गई। जिन दलितों के हकों की बाबा साहब ने लड़ाई लड़ी तथा जिनको हक दिलाये भी,वे लोग गांधी,लोहिया,हेडगवार सरीखे नेताओं की यशोगाथा  गाने लगे।

परन्तु सन् 1980के बाद बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम  जी के अथक प्रयासों से बाबा साहब अम्बेडकर के अस्तित्व का पुनर्जन्म हुआ!उनकी जन्म शताब्दी वर्श 14अप्रैल 1991को उन्हें मरणोपरान्त ‘भारत रत्न’ से विभूषित  किया गया। तभी से 14 अप्रैल अम्बेडकर जयन्ती को राष्ट्रीय  अवकाश घोषित  किया गया। तभी से दलित 14 अप्रैल, 6 दिसम्बर, 14 अक्टूबर को पर्व के रूप में मनाने लगे हैं।

इनके देखा-देखी सवर्ण लोग भी अपने राजनैतिक बैनर तले (कांग्रेस,भाजपा आदि)भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने लगे हैं। किन्तु उस निष्ठा और विश्वास  के साथ नहीं,जिस निष्ठा और विश्वास के साथ दलित जन समुदाय कृष्ण जन्माष्टमी ,रामनवमी तथा गाँधी जयन्ती जैसे पर्व मनाते हैं।
कहना गलत न होगा कि आज भी बहुसंख्यक दलित 14 अप्रैल तथा 6 दिसम्बर से अधिक महत्व 2 अक्टूबर और 30 जनवरी को देते हैं। उनके मन मानसिकता में आज भी अम्बेडकर तथा अम्बेडकर के समस्त जाति समुदाय (दलितों)से अधिक योग्यता,त्याग भावना,वचनबद्धता, कर्तव्यपरायणता गाँधी तथा उनके जाति धर्म के लोगों में अधिक है।

ऐसी सोच की उपज वाले व्यक्तियों की अपनी व्यक्तिगत अयोग्यताएं हैं या सवर्ण मानसिकता के अन्त के लिए शायद  दोबारा एक अदद अम्बेडकर की जरूरत है जो ऐसे लोगों की मन मानसिकता से,हम अयोग्य कमजोर हैं, की भावना को निकाल बाहर कर सके।


 
उत्तराखण्ड के रहने वाले राजाराम विद्यार्थी दलित चिंतक और साहित्यकार है। लेखों,कहानियों और कविताओं के माध्यम से  दलितों-पिछड़ों से जुड़े विषयों को उठाते है।

अयोध्या फिल्म महोत्सव 19 दिसम्बर से



अयोध्या फिल्म महोत्सव अपने चौथे संस्करण की दहलीज पर है। 2006 से शुरु हुआ यह सिलसिला दरअसल अपने शहर की पहचान को बदलने की जद्दोजहद का परिणाम था। उस पहचान के खिलाफ जो फासीवादी सियासत ने गढ़ी थी और जिसके चलते लोग गुजरते वक्त को इससे गिनते थे कब यहां नरबलियां हुयी,कब हमारे आशियानें जलाए गए,कब घंटों की आवाज सायरनों में तब्दील हो गयी और रंग-रोगन वाली हमारी सौहार्द की संस्कृति के सब रंग बेरंग हो गए। 

इस सिलसिले की शुरुआत ने धीरे-धीरे ही सही शहर के स्मृति पटल पर अपनी उम्र गिनने का एक नया अंकगणित गढ़ना शुरु कर दिया,आज हम कह सकते हैं कि हमने कब से ‘प्रतिरोध की संस्कृति और अपनी साझी विरासत’का जश्न मनाने के लिए फिल्म महोत्सव शुरु किया था। कब आवाम के सिनेमा के इस सिलसिले ने अपना राब्ता राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान की साझी विरासत-साझी शहादत से जोड़ ली।

इस सफर में हमने दुनिया भर के लोगों के सघंर्षों,उन संघर्षों के सतरंगी आयामों को समझाने वाली फिल्मों का प्रदर्शन ही नहीं किया बल्कि इस आयोजन से प्राप्त ऊर्जा ने हमसे ‘राइजिंग फ्राम दि ऐशेज’जैसी फिल्म भी दुनिया के सामने अपने शहर की वास्तविक छवि को रखने के लिए बनवाई।

 यह फिल्म पचहत्तर वर्षीय उस शरीफ चचा की कहानी है जो बिना धर्मों का फर्क किए लावारिस लाशों को मानवीय गरिमा प्रदान करते हैं। आखिर गंगा-जमुनी तहजीब और धार्मिक सौहार्द के इस शहर की आत्मा भी तो यही है। इस सफर में हमारा खास जोर फिल्म माध्यम से जुड़े नए और युवा साथियों को अपना हमसफर बनाना भी रहा। जिसके तहत हमने पिछले साल ‘भगवा युद्ध’ और ‘साइलेंट चम्बल’ फिल्मों को जारी किया।

आवाम के सिनेमा के इस सफर में शहर के बाहर से फिल्मकार और सृजनात्मक आंदोलनों में लगे साथियों ने अपने खर्चे से इस आयोजन में शामिल होकर हमारा हौसला बढ़ाया। और हमें इसे और बेहतर और व्यापक बनाने के लिए प्रोत्साहित किया।

साथियों, आगामी 19 से 21 दिसंबर2010 तक हाने वाले तीन दिवसीय इस फिल्म महोत्सव का आयोजन अयोध्या-फैजाबाद में होने जा रहा है,ऐसे में इतिहास में नया अंकगणित गढ़ने और लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर करने वाली ताकतों को शिकस्त देने के लिए आप हमारे इस सफर में हमसफर हों।

 प्रस्तुति : शाह आलम



लावारिशों के वारिस


पिछले दो दशकों के इतिहास में जिस अयोध्या को मैंने लाशों के सौदागरों की राजधानी के रुप में जाना था,वहां लाशों के वारिस की मौजूदगी ने दिमाग में इस सवाल को पैदा किया कि आखिर मो0 शरीफ क्यों नहीं कभी प्राइम टाइम में राष्ट्रीय उत्सुकता का विषय बने...

राजीव यादव

अयोध्या यानी पिछले दो दशकों का ‘प्राइम टाइम आइटम’। इस नाम के आने के बाद ही हमारे मस्तिष्क में अनेकों छवियां बनने लगती हैं। पर पिछले दिनों मात्र पन्द्रह मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘राइजिंग फ्रॉम द एशेज’ ने जो छवि हमारे दिमाग में बनायी उसने हर उस मिथकीय इतिहास की छवि को धुधंला कर दिया। यह फिल्म अयोध्या के मो0 शरीफ के जीवन पर आधारित है, जो लावारिस लाशों के वारिस हैं।

जो परिचित हैं वह शरीफ चाचा कहते हैं और जो कामों से जानते हैं वह लाशों वाले बाबा बोलते हैं। फैजाबाद रेलवे स्टेशन पर उतरकर किसी से इन दोनों में से किसी संबोधन से उनके बारे में पूछिये तो घर पहुंचाने वाले बहुतेरे मिल जायेंगे। और उनके कामों की मिसाल देने वालों का तो कोई अंत ही नहीं कि लोग कहते हैं जिसका कोई नहीं होता उसके शरीफ चाचा होते हैं।

शरीफ चाचा पेशे से एक साइकिल मिस्त्री हैं। शहर में उनकी ‘मोहम्मद शरीफ साइकिल मिस्त्री’के नाम से एक झोपड़ीनुमा दुकान है जिसमें बेटे के साथ मिलकर रोज वह डेढ़ से दो सौ कमा लेते हैं। ऐसे कमाने वाले देश में करोड़ों हैं,फिर शरीफ चाचा ने ऐसी क्या इंसानी पहचान बनायी है जिसकी वजह से वह फैजाबाद की 28लाख आबादी के बीच सर्वाधिक कद्र के काबिल माने जाते हैं।

शहर  में तैनात किसी अफसर-हुक्मरान से पूछिये,मैदान में खेल रहे बच्चों से कहिये,राह चलते मुसाफिरों को बताइये सब उन्हें सलाम बोलते हैं। लोग कहते हैं शरीफ चाचा आदमी की पहचान धर्मों,जातियों और ओहदों से नहीं सिर्फ आदमी होने से करते हैं। जाहिर है फैजाबाद के वाशिंदों के लिए इससे बड़ी सामाजिक नेमत और क्या हो सकती है जहां इंसानी पहचान को बरकार रखने वाला आदर्श उनके बीच हो।


लावारिशों के वारिस

पिछले दो दशकों के इतिहास में जिस अयोध्या को मैंने लाशों के सौदागरों की राजधानी के रुप में जाना था,वहां लाशों के वारिस की मौजूदगी ने दिमाग में इस सवाल को पैदा किया कि आखिर मो0शरीफ क्यों नहीं कभी प्राइम टाइम में राष्ट्रीय उत्सुकता का विषय बने।

फैजाबाद के खिड़की अली बेग मुहल्ले के रहने वाले चचा शरीफ साइकिल मिस्त्री हैं,पर ये सिर्फ उनकी जिंदगी का आर्थिक जरिया है,मकसद नहीं। मकसद,तो हर सुबह की नमाज  के बाद ऐसी लाशों को खोजने  का होता है, जो किसी रेलवे टै्क,सड़क या फिर अस्पताल में लावारिश होने के बाद अपने वारिस चचा शरीफ का इंतजार कर रही होती हैं।

चचा के ऐसा करने के पीछे एक बहुत मार्मिक कहानी है,जो व्यवस्था की संवेदनहीनता से उपजी है। दरअसल, अठारह साल पहले चचा के बेटे मो0 रईस की जब वो सुल्तानपुर गया था, किसी ने हत्या करके लाश फेंक दी थी, जिसे कभी ढूंढा नहीं जा सका। तभी से चचा ऐसी लावारिश लाशों को उनका मानवीय हक दिला रहे हैं।

 वे कहते हैं ‘हर मनुष्य का खून एक जैसा होता है, मैं मनुष्यों के बीच खून के इस रिश्ते पर आस्था रखता हूं। इसलिए मैं जब तक जिंदा हूं किसी भी मानव शरीर को कुत्तों से नुचने या अस्पताल में सड़ने नहीं दूंगा।’ बानबे के खूनी दौर में भी चचा ने अस्पतालों में भर्ती कारसेवकों की सेवा की। इसी तरह अयोध्या की रामलीला में लंबे अरसे से हनुमान का किरदार निभाने वाले एक अफ्रीकी नागरिक जब लंका दहन के दौरान बुरी तरह जल गए तब किसी भी ‘राम भक्त’ ने उनकी सुध नहीं ली ऐसे में चचा ने उसकी सेवा की।
शरीफ चाचा पर बनी फिल्म
 चचा ने अयोध्या-फैजाबाद को लावारिस लाशों की जन्नत बना दिया है। अब तक सोलह सौ लाशों को उनके धर्म के अनुसार दफन और सरयू किनारे मुखाग्नि देने वाले चचा को सरयू लाल हो गयी वाली पत्रकारिता ने इतिहास में अंकित न करने की हर संभव कोशिश की। पर शाह आलम,शारिक हैदर नकवी,गुफरान खान और सैय्यद अली अख्तर ने ‘राइजिंग फ्रॉम द एशेज’ के माध्यम से उन्हें इतिहास में सजो दिया है।

बहरहाल,अयोध्या फैसले के बाद लोग क्या सोच रहें हैं,यह जानने की उत्सुकता में मैंने बहुतों से बात की। अंशु जिसने एक बार बताया था कि जब बाबरी विध्वंस हुआ था तो उसके आस-पास घी के दीपक जलाए गए थे,जिसका मतलब तब वो नहीं समझ पायी थी। लेकिन जब आज वो बड़ी हो गयी ह,ै तो मैंने उससे जानना चाहा कि इस फैसल पर घर वाले क्या सोच रहे हैं? तो उसने कहा, ‘मैं एक ओर थी और सब एक ओर।’ इस पर मैंने उससे पूछा कि दूसरे क्या कह रहे हैं तो उसने कहा कि उनका मानना है कि फैसले ने ‘अमन-चैन’ बरकरार रखा।

आखिर क्यों आज एक तबका इस फैसले को इतिहास और तथ्यों को दरकिनार कर आस्था और मिथकों पर आधारित राजनीतिक फैसला मानता है तो वहीं दूसरा इसे अमन-चैन वाला मानता है? आखिर अमन चैन के बावजूद इसने कैसे हमारी न्यायपालिका की विश्वसनीयता,संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य जिनके तहत आदमी और आदमी के बीच धर्म,जाति और लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने का आश्वासन दिया गया है को खंडित कर दिया हैै?

अमन-चैन वाला फैसला मानने वालों में एक तबका भले ही बानबे में घी के दीपक जलाया था पर एक तबका था जो इसके पक्ष में नहीं था। पर आज बानबे में घी के दीपक जलाने वालों की जमात बढ़ गयी है। जो कल तक बाबरी विध्वंस पर घी के दीपक जलाते थे,आज वो इसे अमन चैन की बहाली कहते हैं,जिसे अब न्यायिक तौर पर भी वैधता मिल गयी है।

यानी शासक वर्ग ने अपने लिए एक नयी तरह की जनता का निर्माण किया है,जिसे अब आक्रामक होने की भी जरुरत नहीं है,क्योंकि न्याय के समीकरण उसके साथ हैं। ठीक इसी तरह पिछले कुछ वर्षों से हमारे यहां युवा राजनेताओं की बात हो रही है कि अब भारत युवाओं का देश है। क्या इससे पहले आजादी के बाद देश के सबसे बड़े आंदोलन नक्सलबाड़ी और जेपी आंदोलन के दौरान यह युवाओं का देश नहीं था? था लेकिन अब शासक वर्ग को अपने युवराज की ताजपोशी करनी है सो अब भारत युवाओं का देश है।

शरीफ चाचा: पूरा जीवन ही एक मुहीम
 इस जनता निर्माण में न्यायपालिका की भाषा भी शासक वर्ग की हो गयी है। जैसे राम लला अपने स्थान पर विराजमान रहेंगे। राम हिंदू समाज की पहचान हो सकते हैं, लेकिन 1949 में बाबरी मस्जिद में रखे गए राम लला हिंदू नहीं बल्कि हिंदुत्ववादी विचारधारा वाले अपराधिक गिरोह की पहचान हैं,जिस पर एफआईआर भी दर्ज है। ठीक इसी तरह मीडिया भी यह कह कर पूरे हिंदू समाज को राम मंदिर के पक्ष में खड़ा करती है कि अयोध्या के संत राम मंदिर बनाने के लिए एक जुट होंगे।

राम मंदिर के पक्ष वाले हिंदुत्वादी संत,पूरे संत समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। क्योंकि अयोध्या में संतों का एक तबका इन हिंदुत्ववादियों का विरोध करता है। पर हमारी मीडिया ने हिंदू धर्म को हिंदुत्व जैसे फासिस्ट विचारधारा का पर्याय बना दिया है। इसी तरह पिछले दिनों इंदौर में संघ के पथ संचलन के दौरान मुस्लिम महिलाओं द्वारा फूल फेकने वाले अखबारी चित्रों में कैप्सन लगा था-एकता का पथ।




पत्रकार राजीव यादव उत्तर प्रदेश मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के संगठन  सचिव हैं. राज्य में साम्प्रदायिकता के खिलाफ हल्ला बोलने वालों में राजीव एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं.उनसे media.rajeev@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.