हिंदुस्तान की बहुधर्मी संस्कृति के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर धर्म के नाम पर सांप्रदायिक-तानाशाह शक्तियां जनता को गुलाम समझने-बनाने की कोशिश कर रही हैं ...
राम मुरारी
वर्षों पहले सुविख्यात कवि पाश ने लिखा था- ‘ हुकूमत ! तेरी तलवार का कद बहुत छोटा है/ कवि की कलम से कहीं छोटा/ तेरी जेल हो सकती है कविता के लिए हजार बार/ लेकिन यह कभी नहीं होगा/ कि कविता तेरी जेल के लिए हो...’
काफी वर्षों बाद आज कविता की इसी ताकत का एहसास कराते हुए हरे प्रकाश उपाध्याय लिखते हैं- ‘मेरे पास कुछ नहीं है/ अंजुरी भर शब्दों के अलावा कुछ नहीं/ धन न अस्त्र-शस्त्र पर लड़ूंगा/ यकीन रखना जीतूंगा भी... नहीं रहूंगा चुपचाप/ उनके आतंक से डरे लोगों को बटोरूंगा/ शब्दों से सिहरन पैदा करूंगा और ताकत....’ (अंजुरी भर शब्द)
युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की ‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं’शीर्षक से लिखे गये कविता संग्रह को पढ़ते हुए बार-बार जेहन में पाश की याद उभर आती है, तो यह बेवजह नहीं है। पाश की कविताओं का तेवर, उनका मिज़ाज और हर कीमत पर गैर मानवीय व्यवस्थाओं से लड़ने का माद्दा हरे प्रकाश की कविताओं में भी शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है। उनकी कविताओं में विद्रूप होती जा रही व्यवस्था के खिलाफ तल्खी साफ तौर पर देखी जा सकती है।
‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं’ में हरे प्रकाश बार बार अपने समय के नंगे और कुरूप सच को बयान करते दिखाई पड़ते हैं- बिना डरे, बिना झिझके... बिना इसकी परवाह किए कि समय ने उन पर मुकदमा दायर कर दिया है और वे समय की अवमानना के दोषी हैं-
‘मेरे कवि मित्रो/ क्या तुम्हे वारंट नहीं मिला है अभी तक/ समय ने मुकदमा दायर कर दिया है हम सब पर/ हम समय की अवमानना के दोषी हैं/ हम सब दोषी हैं/कि रात जब अपना सबसे अंधेरतम समय बजा रही थी/ और बोलना सख्त मना किया गया था/ हम गा रहे थे प्रेमगीत/ हम लिख रहे थे दोस्तों को चिट्ठियां/ हम पोस्टर पर कसी मुट्ठी वाला हाथ बना रहे थे/ सूरज जैसा रंग उठाए कूचियों में…’ (म़ुकदमा)
संग्रह की सभी कविताएं समय और अनुभवों के ताप से तपी हुई लगती हैं। 'गाँव' शीर्षक से लिखी गयी कविता में कवि कहता भी है - ‘वह बूढा आदमी/ अपनी जिंदगी जीकर नहीं बूढा हुआ है/ उसे इस समय ने बूढा कर दिया है..'
इस संग्रह की कोई भी कविता महज लिखने के लिए नहीं लिखी गई है, बल्कि कवि ने जो देखा-झेला है, उस अनुभूति की अभिव्यक्ति का माध्यम बनी हैं संग्रह की कविताएं। नव-उदारीकरण के कोमल शब्दों की आड़ में जिस तरह साम्राज्यवादी ताकतें आम आदमी को एक लाश में तब्दील कर अपने वैभव की बुलंद इमारत खड़ी करने में लगी हैं, उससे कवि अनजान नहीं है।
कवि को बखूबी मालूम है कि ग्लोबलाइजेशन और ग्लोबल विलेज की हकीकत दरअसल ‘हाट ही सब बिकाय’ की तर्ज पर पूरी दुनिया को बाजार में बदल देने की क्रूर साजिश है -‘जब आप दुनिया को गांव बता रहे हैं/ मेरे गांव की दुनिया उजड़ रही है/ आप कह रहे हैं समूची दुनिया को गांव/ और लोग पूछ रहे हैं/ मेरे गांव का नाम...'
यही नहीं जिस तरह से हिंदुस्तान की बहुधर्मी संस्कृति के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर धर्म के नाम पर सांप्रदायिक-तानाशाह शक्तियां जनता को गुलाम समझने-बनाने की कोशिश कर रही हैं, कवि उससे भी अनजान नहीं है। और इसीलिए उसका आक्रोश बार-बार अपनी कविताओं में झलक पड़ता है। संग्रह की पहली ही कविता 'वर्तमान परिदृश्य' में इसकी बानगी भी देखने को मिलती है-‘यह जो वर्तमान है/ ताजमहल की ऐतिहासिकता को चुनौती देता हुआ/ इसके परिदृश्य में/ कुछ सड़कें हैं काली कलूटी/ एक दूसरे को रौंदकर पार जाती... इस परिदृश्य में मंदिर है मस्जिद है/ दशहरा और बकरीद है/ आमने सामने दोनों की मिट्टी पलीद है... यहीं गलत जगह पर उठती हुई दीवार है/ एक भीड़ है उन्मादी/ इसे दंगे का विचार है/ सीड़ और दुर्गंध से त्रस्त/ साढ़े तीन हाथ जमीन पर पसरा इसी परिदृश्य में/ मैं कविता लिख रहा हूं...'
‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं’ की इस पहली ही कविता का तेवर ये बताने के लिए काफी है कि संग्रह की बाकी कविताएं कैसी होंगी। आज के वर्तमान हालात से कवि केवल व्यथित ही नहीं, आक्रोशित भी है। ये आक्रोश ही उसे चुप नहीं बैठने देता, आवाज उठाने के लिए उकसाता रहता है। इसीलिए कवि कविताओं के माध्यम से इस विवादी समय में न सिर्फ प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करते दिखाई देता है , बल्कि लोगों को भी सवाल पूछने के लिए उकसाता नजर आता है कि - ‘कब तक मौन रहोगे/ विवादी समय में पूछना बहुत जरूरी है/ पूछो तो अब/ यह पूछो कि पानी में अब कितना पानी है/ आग में कितनी आग/ आकाश अब भी कितना आकाश है … पूछो कि नदियों का सारा मीठा पानी/ आखिर क्यों जा डूबता है/ सागर के खारे पानी में/ पूछो...' (पूछो तो...)
सवाल उठाने की बेचैनी इतनी कि कवि आगे बोल पड़ता है -‘देर मत करो पूछो/ आग दिल की बुझ रही है/ धुआं-धुआं हो जाए छाती इससे पहले/ मित्रों ठंड से जमते इस बर्फ़ीले समय में/ आग पर सवाल पूछो/ माचिस तीली की टकराहट की भाषा में... मित्रों उससे इतना जजरूर पूछो कि/ हमारे हिस्से की धूप/ हमारे हिस्से की बिजली/ हमारे हिस्से का पानी/ हमारे हिस्से की चांदनी का/ जो मार लेते हो रोज़ थोड़ा-थोड़ा हिस्सा/ उसे कब वापस करोगे/ मित्रों यह जिंदगी है/ आग पानी आकाश/ बार-बार पूछो इससे/ हमेशा बचाकर रखो एक सवाल/ पूछने की हिम्मत और विश्वास...’
इन कविताओं में जीवन के तमाम रंग हैं, लेकिन विद्रूप समय की मार से धूसर हुए। कविताओं के माध्यम से जिंदगी के रंग चटख करने की बेचैनी दिखती है। कवि सबके लिए समय को एक करना चाहता है, ये जानते हुए भी कि ‘दुनिया की सभी घड़ियां एक सा समय नहीं देती... हुक्मरान की कलाई पर कुछ बजता है/ मजदूर की कलाई पर कुछ/ अफसरान की कलाई पर कुछ... और सबसे अलग समय देती है संसद की घड़ी...’
संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए बार-बार लगता है कि ये महज कवि की व्यक्तिगत पीड़ा नहीं, बल्कि आमजन के वे सवाल हैं, जो आज के संवेदनहीन समय में सबके मन में उठ रहे हैं। इस संग्रह में कुल 53 कविताएं हैं, और सारी कविताएं अपने आप में सवाल हैं। व्यवस्था के खिलाफ जनता का सवाल। उस ‘राजा’ पर सवाल जो अपनी मूंछ खोजता रहता है तब, जब अंधेरे में भूख से, दर्द और दुख से बिलबिलाते हम दवा और रोटी खोजते रहते हैं। ‘ घर, सोचो एक दिन, इस बरस फिर, मास्टर साहब, गांधी जी, डरना मत भाई, औरतें, जब डूबने लगती है उजियारी किरन, हमारे गांव की लड़कियां, खिलाड़ी दोस्त...'
संग्रह की तमाम कविताएं व्यवस्था के विरुद्ध आम आदमी के आक्रोश का दस्तावेज बन गई हैं। और दस्तावेज न सिर्फ पढ़ा जाता है, बल्कि संभालकर सुरक्षित भी रखा जाता है, ताकि आगे की लड़ाइयों के लिए हौसला बरकरार रहे। ये संग्रह इसी की मांग भी करता है।
(लेखक पत्रकार हैं उनसे ram_murari@yahoo.co.in पर सम्पर्क किया जा सकता है.)