पैंतीस वर्ष के पुलिस जीवन में मेरा सैकड़ों पत्थर फेंकने वाली हिंसक भीड़ से, अनेकों बार हजारों की संख्या में भी वास्ता पड़ा होगा जिसमें शामिल लोग ‘उपद्रवी’, ‘शरारती’, ‘पथभ्रष्ट’, ‘भाड़े के टटटू’ कुछ भी कहे जाने चाहिये थे, पर देश के दुश्मन हरगिज नहीं.....
विकास नारायण राय
भारत के सेनाध्यक्ष जनरल रावत ने कश्मीर में उपचुनाव के बहिष्कार के समर्थन में पत्थर फेंकने वालों को ‘डर्टी वार’ का हिस्सा और देश का ‘दुश्मन’ करार दिया है. उनसे निपटने में सेना की ‘मानव कवच’ रणनीति के समर्थन में उतरे जनरल ने कहा कि लोग डरेंगे नहीं तो सेना के आदेशों का सम्मान नहीं करेंगे.
पैंतीस वर्ष के पुलिस जीवन में मेरा सैकड़ों पत्थर फेंकने वाली हिंसक भीड़ से, अनेकों बार हजारों की संख्या में भी वास्ता पड़ा होगा जिसमें शामिल लोग ‘उपद्रवी’, ‘शरारती’, ‘पथभ्रष्ट’, ‘भाड़े के टटटू’ कुछ भी कहे जाने चाहिये थे, पर देश के दुश्मन हरगिज नहीं. यह भी मेरा अनुभव रहा है कि उत्तेजित लोग तभी आपकी बात मानेंगे जब आप भी कानून का सम्मान करें.
9 अप्रैल, श्रीनगर उपचुनाव के दिन, पांच घंटे सेना की जीप के बोनेट पर रस्सी से बंधे-बंधे एक कश्मीरी मुस्लिम युवक को अट्ठाईस किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ा था. जीप उसे इसी रूप में कुल सत्रह गांवों में लेकर गयी और अंत में एक सीआरपीएफ़ कैंप में उसे उसके भाई और सरपंच के हवाले किया गया.
सारा दिन वह इस बात की गारंटी रहा कि उसे कवच बनाकर निकली सैन्य टुकड़ी पर पत्थर न फेंके जायें. 13 अप्रैल को जाकर स्थानीय पुलिस ने मुक़दमा दर्ज किया. 22 मई को सेना ने मेजर को पुरस्कृत किया. अगले दिन मेजर ने प्रेस कांफ्रेंस में ऐसी गढ़ी कहानी सुनायी जिस पर एक भी सवाल लेने की उनकी हिम्मत नहीं हो सकी.
गोगोई के अनुसार उन्हें उपचुनाव के दिन सूचना मिली कि एक मतदान केन्द्र में तैनात लोगों को पत्थरबाजी करती भीड़ ने घेर रखा है. मौके पर पहुंचे उनके जवानों ने भीड़ में से एक प्रमुख पत्थरबाज फारूकडार को काबू कर जीप के बोनेट से बाँध दिया जिससे उनकी दिशा में आने वाला पथराव रुक गया और वे घिरे लोगों को निकालकर ले जा सके. ऐसा उन्होंने स्थानीय लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर किया, अन्यथा उन्हें गोली चलानी पड़ती. तब से छिड़ी देशव्यापी बहस में कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने भी गोगोई के कदम को साहसी और त्वरित बुद्धि वाला करार दिया है. उनके मुताबिक, हिंसक प्रतिरोध की आशंका में मानव कवच का प्रयोग कोई नयी रणनीति नहीं है.
यह देश उकसाऊ कश्मीरी पत्थरबाजों की आशंका से घिरे मेजर गोगोई के जोशीले रणनीतिक अतिरेक को तो शायद पचा सकता है, लेकिन बचाव में उतरे जनरल रावत के‘दुश्मन’ और ‘डर्टी वार’ से निपटने के शेखचिल्ली दावों को नहीं. इन दावों से रावत ने, जिन्हें दो वरिष्ठों की अनदेखी कर सेनाध्यक्ष बनाया गया है, अपने संघी पैरोकारों को बेशक खुश किया हो, कश्मीर में कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर तो निराशा ही बढ़ी है.
रावत ने कहा-
1. भारतीय सेना कश्मीर में डर्टी वार लड़ रही है.
2. वहां दुश्मन के विरुद्ध कल्पनाशील दांव-पेंच की जरूरत है.
3. मेजर गोगोई ने स्थानीय युवक फारूकडार को मानव कवच बनाकर मौके के मुताबिक ठीक किया. अन्यथा उन्हें मतदान केंद्र में फंसे जवानों को बचाने में पत्थरबाजी कर रहे स्थानीय लोगों पर गोली चलानी पड़ती.
4. सेनाध्यक्ष होने के नाते अपने अफसर के पक्ष में खड़ा होना उनका कर्तव्य बनता है.
5. मामले में कोर्ट मार्शल की कार्यवाही का नतीजा आये बिना सेना का गोगोई को पुरस्कृत करना उचित कदम है.
6. नागरिकों को सेना से डरना चाहिए अन्यथा वे सेना के आदेशों का सम्मान नहीं करेंगे.
मेजर के प्रेस कांफ्रेंस के वीडियो में बयान किया गया घटनाक्रम पहली नजर में ही बनावटी बातों का पुलिंदा नजर आता है. पत्थर बरसाती पांच सौ नौजवानों की उग्र भीड़ के बीच से, बिना गोली चलाये, एक व्यक्ति को पकड़कर जीप के बोनेट पर बांधना संभव ही नहीं है. डार ने उस दिन उपचुनाव में वोट भी डाला था, लिहाजा उसके पत्थर मारने वालों में शामिल होने की बात में वैसे भी दम नहीं लगता. न उसे घंटों बोनेट पर बाँध कर गाँव-गाँव घुमाने की जरूरत थी.
उसे गोगोई की टुकड़ी द्वारा रास्ते से उठाकर मानव कवच के रूप में इस्तेमाल करने का विवरण, तब से कई राष्ट्रीय अख़बारों में आ चुका है. यह भी तय है कि अगर जीप से बंधे डार की तस्वीर वाइरल न हुयी होती तो न गोगोई पर सवाल उठते और न रावत का बयान आता.
जायज सवाल है कि क्या कश्मीर अपवाद नहीं है? क्या वहां पाकिस्तान के समर्थन से छाया युद्ध ही नहीं चलाया जा रहा? तो आइये, कानून-व्यवस्था में सेनाको झोंकने की गति को एक अलग प्रसंग से समझते हैं. फरवरी, 2016 में हरियाणा के हिंसक जाट आरक्षण आन्दोलन के बीच सेना की झज्जर शहर के मुख्य बाजार में तैनात टुकड़ी ने गोली चलाकर आठ व्यक्तियों को मार दिया था, जबकि वहां आगजनी और लूट-पाट का दौर तब भी निर्बाध चलता रहा.
दरअसल, प्रदेश में नागरिक समुदाय का कोई भी तबका उस दौरान सेना की भूमिका से संतुष्ट नहीं था. होता भी कैसे, सेना से जो काम लिया जा रहा था, उसके लिए सेना बनी ही नहीं है. उसे झज्जर के बाजार की व्यवस्था का नहीं देश की सीमा की रक्षा का ज्ञान दिया जाता है, उसे नागरिकों के असंतोष से नहीं दुश्मनों के दांव-पेंच से निपटने की सिखलाई दी जाती है.
अन्यथा जनरल रावत से बेहतर कौन जानेगा कि पाकिस्तान का छाया युद्ध वहां की सेना और आइएसआई, भाड़े के आतंकियों और खरीदे हुए अलगाववादियों की मार्फ़त लड़ रहे हैं. कि पाकिस्तान का जिहादी इस्लाम वहां की सत्ता राजनीति को इस छाया युद्ध के लिए उकसाता रहता है. सीमा पर भारतीय सैनिकों का सर काटना ‘डर्टी वार’ का हिस्सा है. अलगाववादियों को आर्थिक और कूटनीतिक मदद देना ‘डर्टी वार’ का हिस्सा है. भाड़े के आत्मघाती तैयार कर भारतीय सैन्य कैम्पों पर हमला कराना ‘डर्टी वार’ है. कारगिल‘डर्टी वार’ था. कश्मीरी पंडितों का घाटी से पलायन ‘डर्टी वार’ था. इन सब को रोकने के लिए बेशक कल्पनाशील दांव-पेंच चाहिए.
हमारा राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक नेतृत्व इन मोर्चों पर वांछित परिणाम नहीं दिखा सका है. उपचुनाव में मतदान का बायकाट और फर्जी मुठभेड़ या सेना और पुलिस की अन्य ज्यादतियों पर बाजार बंद और उस क्रम में पथराव जैसा असंतोष प्रदर्शन देश में कहाँ नहीं होता. कश्मीर में इन सबको ‘डर्टी वार’ का हिस्सा मानने का मतलब है हम पाकिस्तान के हाथ खेल रहे हैं. क्या इस तरह हम हर कश्मीरी मुस्लिम को पाकिस्तान के पाले में खड़ा नहीं कर रहे?
स्पष्ट कर दूँ, मैं भी उन लोगों में से ही हूँ जो मानते हैं कि कश्मीर में लम्बे अरसे से उग्र नागरिक स्थितियों से दो-चार हो रही अपनी सेना से हम भारतीयों को पूरी सहानुभूति रखनी चाहिए. वे इस तरह के काम के लिए बने ही नहीं हैं, यानी अफस्पा या बिना अफस्पा, उनके हिस्से अलोकप्रियता ही आनी है.
मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड में कानून-व्यवस्थाकी कवायद से लम्बे सैन्य साहचर्य का कटु अनुभव हमारे सामने है. इसी कारण इन प्रदेशों में भारतीय सेना को लेकर लोगों में गर्मजोशी का प्रकट अभाव मिलेगा। साथ ही पंजाब का उदाहरण हमारे सामने है जहाँ सेना का आतंकवाद से निपटने में सीमित एवं केन्द्रित इस्तेमाल सभी के लिए फलदायी रहा। सबक यह कि सेना सरहद के लिए होनी चाहिए, वक्ती जरूरत पड़ने पर अपवादस्वरूप नागरिक प्रशासन की मदद में आये. लेकिन नागरिकों के बीच उसकी अंतहीन उपस्थिति प्रतिकूल ही सिद्ध होगी.
हालाँकि किसी को ऐसा मुगालता भी नहीं होना चाहिए कि कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर स्थानीय पुलिस की भूमिका,प्रायः लोकप्रिय रहती है. दरअसल, नागरिकों के असंतोष से निपटने के क्रम में पुलिस पर पक्षपात, मनमानी, निकम्मापन और सत्ता केन्द्रित होने के आरोप आम लगते रहते हैं, एक हद तक सही भी.
कितनी ही स्वतंत्र एवं सरकारी जांच रपटों में पुलिस की कमियों और मिलीभगत का लेखा-जोखा पाया जा सकता है. लेकिन, निर्णायक तत्व यह है कि एक गयी गुज़री पुलिस भी न कभी नागरिकों को ‘दुश्मन’ करार देने की गलती करेगी, और न डींग मारेगी कि नागरिकों को पुलिस से डरना चाहिए.
कश्मीर में असंभव नागरिक दायित्व निभा रही सैन्य टुकड़ियों से किसी को ईर्ष्या नहीं हो सकती. दिल्ली से संचालित सत्ता केंद्र जब तक अपनी नीतियां नहीं बदलते, सेना को बेहद विषम परिस्थितियों में मनोबल कायम रखना ही है. हालाँकि, मेजर गोगोई के मानव कवच वाले कृत्य पर खेद जारी कर सेना न सिर्फ अपनी गौरवशाली परम्पराओं के साथ खड़ी नजर आती, शायद कश्मीर में विश्वसनीय आंतरिक सुरक्षा माहौल देने का श्रेय भी पा रही होती.
हमारे जनरलों को दोटूक बताना चाहिए कि सेना को दुश्मन से युद्ध लड़ने की ट्रेनिंग दी जाती है, न कि नागरिकों के बीच कानून-व्यवस्था संभालने की. नागरिक प्रशासन की मदद में ड्यूटी करने वाली सैन्य टुकड़ियों में उग्र भीड़ से निपटने के समय प्रायः अनुभव और सिखलाई की कमी दिखना स्वाभाविक है.
तो भी मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि सेना को अपनी गलती पकड़े जाने पर खेद जताना नहीं सिखाया जाता. सामान्य शिष्टाचार का यह सबक सैन्य अनुशासन का अभिन्न हिस्सा होता है, बेशक सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत इसे अपवाद सिद्ध करने पर उतारू नजर आते हों.
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