Jul 28, 2010

आखिरकार मठ से ही गरजे बाबा


पहले हत्यारों की गवाहियां अभी बाकी हैं राजेंद्र बाबू?  ,मिट्टी में मिलाने में क्यों तुले हैं आप? , फिर मर गया देश,अरे, जीवित रह गये तुम  , और  'अरुंधती ने भेजा जवाब,नहीं जाएँगी हंस के सालाना जलसे में ' ,के बाद बहुतों ने फोन कर,कुछ ने मिलकर और इन्टरनेट के जरिये भी हमें राय दी,मित्रवत कहा और बात नहीं बनी तो उकसाया और गालियाँ दी.मगर जनज्वार की टीम इस बात पर सहमत रही कि अगर हंस के सालाना जलसे पर उठे सवालों से,राजेंद्र यादव को ऐतराज़ है तो वह अपना पक्ष उन सभी माध्यमों से दर्ज करा सकते हैं जिसके वो खुद आदी हैं.यही बात लेखकीय परम्परा में हम पर भी लागू  होती है.यानी वह जरिया पत्र,ईमेल,फ़ोन या कोई और भी माध्यम हो सकता है.

इसके लिए उनके दर पर जाना जरूरी है,यह मानना हमारे लेखकीय स्वाभिमान के खिलाफ है.हमने तय किया कि हंस के जलसे से पहले राजेंद्र यादव से कोई व्यक्तिगत मुलाकात नहीं करेंगे,क्योंकि यह मुलाकात उनका पक्ष जानने से ज्यादा मठ पर माथा टेकने के रिवाज़ के करीब है.राजेंद्र यादव के जवाबी अनुभवों से परिचित लोगों ने कहा भी था कि बाबा मठ से ही गरजेंगे.और वह गरजे भी.राजेंद्र यादव ने हंस के अगस्त अंक में सम्पादकीय के तीसरे पन्ने पर हंस के सालाना जलसे में लेखिका अरुंधती राय और छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को एक साथ न बुला पाने की पीड़ा को कुछ इस तरह दर्ज कराया है ..........राजेंद्र यादव की राय आने बाद जनज्वार इस मसले को और व्यापक दायरे में लाने की कोशिश करेगा.....जनज्वार टीम

 राजेंद्र यादव

इकत्तीस जुलाई को होने वाली हंस की गोष्‍ठी का विषय निर्धारित किया गया था :वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति.यह सूत्र नर बलि इत्‍यादि को जायज ठहराने के लिए ब्राह्मणों ने खोजा था.अर्थ था,वेद यानी सत्ता (अथॉरिटी)द्वारा अनुमोदित हिंसा हिंसा नहीं कहलाती.यह सत्ता राज्‍य की भी हो सकती है और स्‍थापित राज्‍य के खिलाफ वैचारिक प्रतिबद्धता की भी. सरकारी दमन और नक्‍सली संघर्ष कुछ इसी प्रकार की हिंसाएं हैं.


ऐसा करम करो ना भाई, परछाई ही करण लगे हंसाई
हंस हमेशा एक लोकतांत्रिक विमर्श में विश्‍वास करता रहा है.हमारा मानना है कि एकतरफा बौद्धिक बहस का कोई अर्थ नहीं है.वह प्रवचन होता है.जब तक प्रतिपक्ष न हो,उसे बहस का नाम देना भी गलत है.हमने अपनी गोष्ठियों में प्रतिपक्ष को बराबरी की हिस्‍सेदारी दी है.जब 'भारतीयता की अवधारणा'पर गोष्‍ठी हुई,तो हमने बीजेपी के सिद्धांतकार शेषाद्रिचारी को भी आमंत्रित किया था.इस बार सोचा था कि क्‍यों न प्रतिपक्ष के लिए रायपुर के के डीजीपी विश्‍वरंजन को आमंत्रित किया जाए.पक्ष की ओर से अरुंधती और अन्‍य तो होंगे ही.

हंस का दफ्तर सब तरह की बहसों,नाराजगियों, शिकायतों या अन्‍य भड़ासों का खुला मंच है. वक्‍ताओं के नाम पर विचार ही हो रहा था कि यार लोग ले उड़े और पंकज बिष्ट ने अपने समयांतर में लगभग धिक्‍कारते हुए कहा कि हम बस्‍तर क्षेत्र के हत्‍यारे पुलिस डीजी और अरुंधती राय को एक ही मंच पर लाने की हिमाकत करने जा रहे हैं.

ब्‍लॉग वालों को छद्म विवादों के लिए ऐसे ही मुद्दों की तलाश रहती है.दो पत्रकारों ने इस पर लंबी बहस छेड़ दी और विश्‍व रंजन जैसे काफिर के साथ अरुंधती जैसी निरीह को एक मंच पर लाने के लिए हमारी लानत-मलामत कर डाली.दिल्‍ली में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को आतुर नीलाभ ने भी 'वंदना के इन सुरों में एक सुर मेरा मिला लो' के भाव से एक लेख पेल डाला.इसमें उन्‍होंने पूछा कि मैं किधर हूं,यह मैंने कभी साफ नहीं किया.जो कुछ पढ़ते-सुनते न हों,उन्‍हें क्यों  जवाब दिया जाए? चाहे तो वे इस बार जुलाई 2010 के संपादकीय पर नजर डाल लें.

 हमारी मंशा इस ज्‍वलंत मुद्दे के अनेक पक्षों पर खुल कर बात करने की ही रही है. अगर इसे सिर्फ 'सहमतों का प्रस्‍ताव पारित'करने का संवाद ही बनाना है तो बात दूसरी है.मैं मित्रों से अनुरोध करता हूं कि वे कोई दूसरा विकल्‍प बताएं. लगता है अब यह विवाद और जगहों पर भी चलेगा।सबसे पहले तो मैं स्‍पष्‍ट कर दूं कि वक्‍ताओं के नाम तब तक चुने जा रहे थे,फाइनल नहीं थे. दूसरे यह कि बुद्धिजीवियों का यह कौन सा आचरण है कि वे दूसरे पक्ष की बात सुनेंगे ही नहीं. यह विचारों का लोकतंत्र नहीं, बौद्धिक तानाशाही है.

'मैं तुम्‍हारे विचारों को एक सिरे से खारिज करता हूं, मगर मरते दम तक तुम्‍हारे ऐसा कहने के अधिकार का समर्थन करूंगा.'यह कहा-बताया जाता है लोकतंत्र के पुरोधा वॉल्‍टेयर का.दूसरे को बोलने ही न दो,यह कैसा फासीवाद है? क्‍या हमारे तर्क इतने कमजोर हैं कि 'दुश्‍मन' के सामने ठहर ही नहीं पाएंगे? इस वैचारिक तानाशाही का एक कुत्सित रूप कुतर्कों का पिंजड़ा खड़ा करना भी है.आप किसी भी विषय पर बात कीजिए,वे तर्क देंगे कि जब मुंबई-पंजाब में बाढ़ ने तबाही मचा रखी हो, बस्‍तर के आदिवासियों का कत्‍लेआम जारी हो, खाप पंचायतें चुन-चुनकर युवाओं को फांसी पर लटका रही हों,किसान हजारों की संख्‍या में आत्‍महत्‍याएं कर रहे हों,तब आप एसी कमरों में बैठकर एक फालतू मुद्दे पर मगजपच्‍ची कर रहे हैं –यह भयानक देशद्रोह है और भर्त्‍सनीय है.

इस बाजारू वाग्‍जाल के हिसाब से तो कोई भी बौद्धिक,साहित्यिक या सांस्‍कृतिक उपक्रम ऐय्याशी ही नहीं, मानव-द्रोह है. क्‍या यह हर बौद्धिक विचार-विमर्श को खारिज कर देने की साजिश नहीं है?

हमें इस माहौल में बैठकर सोचना है कि किसी भी विचार-विमर्श की उपयोगिता या जरूरत ही क्‍यों है?जब तक सारी दुनिया में अमन-चैन न हो जाए, तब तक क्‍या सारे वैचारिक, सांस्‍कृतिक, साहित्यिक कार्यक्रम तालिबानी सख्‍ती से बंद कर दिये जाने चाहिए? वैसे शायद उन्‍हें याद दिलाना जरूरी है कि शास्‍त्रार्थ की परंपरा हमारे यहां बहुत पुरानी है,जहां विभिन्‍न विश्‍वासों और धर्मों के लोग खुलकर एक ही मंच पर अपने अपने पक्ष रखते थे.ईसाइयों और मुसलमानों से आर्य समाजियों के शास्‍त्रार्थ दूसरे महायुद्ध से पहले तक चलते रहे हैं.

बहरहाल, इन अफवाहों से अरुंधती राय जैसों को जो असमंजस हुआ, उसके लिए हमें खेद है.
(हंस से साभार)

साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में चुप्पी क्यों है?


कार्यकर्त्ताओं के साथ किये गये अमानवीय कुकृत्य परिवार के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया और सिद्वान्तों को पैर की जूती बना देना--जघन्य आपराधिक व सामन्ती मानसिकता का द्योतक है,जो फासीवादी राजनीतिक प्रवर्ग ही हैं।

आदेश सिंह, प्रकाशक- आह्वान कैम्पस टाईम्स

जनज्वार में कामरेड अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के निमंत्रण पत्र पर डॉं विवेक कुमार की प्रतिक्रिया से शुरू हुई बहस को लगातार देखता रहा.दरअसल यह विचारधारात्मक विपथगमन ही है. लेकिन इसका कैनवास बेहद बड़ा और गहरा है।

अतिवामपंथ और संशोधनवाद  दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है और लम्बे समय से क्रन्तिकारी आन्दोलन इन्हीं दोनों छोरों पर झूल रहा है। विचारधारात्मक विपथगमन की जडें,गौरवशाली क्रन्तिकारी आन्दोलन में अतीत से ही चली आ रही हैं। नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने संशोधनवाद से निर्णायक विच्छेद किया,लेकिन पार्टी गठन और निर्माण की प्रक्रिया को सही रूपों में अन्जाम नहीं दे सका और आन्दोलन अतिवाम का शिकार हुआ और वह आज तक जारी है। हमारी धारा ने अतिवाम से विच्छेद कर एक नयी धारा और नयी मंजिलों की तलाश  तो किया लेकिन विखराव जारी रहे।

हमारा पूर्व संगठन जनवादी केन्द्रीयता,दो लाइनों के संघर्ष और कमेटी निर्माण अर्थात सांगठनिक लाइन और काम करने के दो पैरों के सिद्वान्त के प्रश्न  पर ही अलग हुआ। हमारे सामने सांगठनिक लाइन के नजरिये से इतिहास का विश्लेषण  करते हुए इसे व्यवहार में साबित करने का लक्ष्य था। लेकिन हुआ क्या?इसकी तस्वीर आपके सामने आ चुकी है।

 दूकान में सपने और भी हैं
साथियों ने अपने कटु अनुभवों और अहसासों से आप को परिचित करा दिया है। मैं इन साथियो को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं,इसलिए पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि व्यक्ति केन्द्रित उनकी टिप्पणियां किसी प्रतिशोध  या कीचड़ उछालने की नीयत से नहीं की गयीं है,बल्कि उनके अनुभव मुकम्मिल राजनीतिक प्रवर्गों के तथ्य हैं।

कार्यकर्त्ताओं के साथ किये गये अमानवीय कुकृत्य ,परिवार के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया और सिद्वान्तों को पैर की जुती बना देना--जघन्य आपराधिक व सामन्ती मानसिकता का द्योतक है,जो फासीवादी राजनीतिक प्रवर्ग ही हैं। इस संदर्भ में मैं भी कई और नये तथ्य दे सकता हूँ लेकिन महत्वपूर्ण  है बात के मर्म को समझने का मसला.
यदि तथ्य से सत्य का निर्धारण करें तो इस विचारधारात्मक विपथगमन,जो आज पूरे आन्दोलन में व्याप्त है--के डिग्री का पता चलता है। हमें इसी की पड़ताल करनी चाहिए और इसके सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों की जड़ों तक जाना चाहिए। आज विष्व पूंजीवाद द्वारा पैदा की जा रही मानसिक दासता,पराजय बोधी मानसिकता,पूंजी पूजक संस्कृति  का व्याप्तीकरण और पूंजीवादी राजनीति का फासीवादी चरित्र के रूप में देखा जाना चाहिए।

भारत जैसे पूर्ण औपनिवेशिक अतीत की मानसिकता व अपनी परम्पराओं और विरासत से कट जाने में और राष्टीयताओं के विकसित नहीं होने के परिप्रेक्ष्य में हमें इसकी पड़ताल करनी होगी। अन्यथा इस बहस का कोई औचित्य नहीं है।

हम विश्वासपूर्वक कह सकते है कि साथियो का कटुअनुभवों को प्रस्तुत करने का उद्देश्य  उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में बहस व विपथगमन की इस प्रक्रिया के विरूद्व खडे़ होना ही है न कि किसी की सहानूभूति पाने में। प्रगतिशील साहित्यिक- सांस्कृतिक जगत और मजदूर आन्दोलन से जुडे साथी इस पर मौन साधे रहना चाहते हों  तो यह उनकी आजादी है, परन्तु तब हम भी आजाद है भाई गोरख पाण्डेय की कविता कहने के लिए

हम भी यह खूब समझते हैं
कि आप, सब कुछ समझकर
क्यों नहीं समझते?....

(लेखक इण्डियन रेलवे टेक्निकल एर्ण्ड आर्टिजन   इम्पलाइज एसोसिएशन के केन्द्रीय कार्यकारी अध्यक्ष रहे हैं।)

आंदोलनों को बाज़ार बनने से रोकें


दस्तावेज क्रांतिकारी आंदोलन की जरूरत होते हैं किसी छापेखाने की नहीं। किसी प्रकाशन संस्थान से इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाये।

हल्द्वानी से सुधीर कुमार

मौजूदा बहस ने इस सवाल को मौजू बना दिया है कि क्रांतिकारी कम्युनिस्ट  लीग (भारत)एक क्रांतिकारी पार्टी संगठन है या नहीं?ज्यों ही हम इस सवाल का जवाब ढुंढ   लेते हैं कई गुत्थियां सुलझ जाती हैं। तब इस दल के ‘नेताओं‘का व्यवहार सहज व स्वाभाविक लगने लगता है।

हमारे सभी सवाल और आलोचनाओं की जमीन ही है कि हम ‘शशि प्रकाश एंड संस‘से कहीं न कहीं क्रांतिकारी व्यवहार की उम्मीद करते हैं। वैसे व्यवहार की जो उन्होंने खुद के लिए तय ही नहीं किया है या फिर यूं कहें कि छोड़ दिया है। अपने क्रांतिकारी अतीत को त्यागे बिना शशि प्रकाश वह सब कुछ कर ही नहीं सकते जो वह कर रहे हैं। तब उनके द्वारा मुनाफा कमाने के लिए कई अन्य हथकंडों के साथ-साथ विचारधारा एवं युगपुरुषों के इस्तेमाल पर भी हमें वैसी हैरानी-परेशानी नहीं होगी जैसी कि पढ़ने में आ रही हैं।

ये बचाने की गुहार करते हैं: इनसे बचाने की  गुहार कहाँ करें?
निहित स्वार्थों के लिए समाजवाद का बहुआयामी इस्तेमाल कोई नयी व अनोखी बात नहीं है। इसी देश में वामपंथ के नाम पर कमाने-खाने वालों और सत्ता सुख भोगने वालों की कोई भी कमी नहीं है। कई प्रकाशन संस्थानों की दुकानों में कर्मठ,ईमानदार व संकल्पबद्ध कार्यकर्ता अपनी जवानी कुर्बान करते दिखायी देते हैं। फिर शशि प्रकाश से ही शिकायत क्यों?

क्रांतिकारी कम्युनिस्ट  लीग(भारत) सी. एल. आई.की पैतृक बीमारियों से ग्रस्त एक ऐसा धड़ा है जो लाइलाज हो चुका है। यह संगठन क्रांति की तैयारी की बात करते हुए लम्बे समय से जिन गतिविधियों में लगा रहा है उसमें इसका यहां तक पहुंचना हैरान करने वाला नहीं है। शशि प्रकाश दस्तावेज नहीं लिखते हैं क्योंकि उन्हें इसकी जरूरत ही नहीं है। दस्तावेज क्रांतिकारी आंदोलन की जरूरत होते हैं किसी छापेखाने की नहीं। किसी प्रकाशन संस्थान से इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाये।

श्रमिकों को दी जाने वाली कम तनख्वाह भी जाना पहचाना रिवाज है। ऐसा खुलेआम किया जाय या श्रमिकों को विचारधारा या धर्म का झांसा देकर कोई फर्क नहीं पड़ता। यहां आकर आशा राम और शशि प्रकाश एक जमीन पर खडे़ हो जाते हैं। उनसे उम्मीद करना कि वह अपना क्रांतिकारी लबादा उतार फेकेंगे बेकार है। यह बिल्कुल वैसा ही है कि कोई मुनाफाखोर अपने मुनाफे में खुद ही कटौती कर ले।

जरूरत है क्रांतिकारी आंदोलनों को बाजार बनने से रोकने की ठोस नीति बनाने की। कारण कि बदलाव के विचारों को सिक्कों में ढालने से सिर्फ हमारी सदिच्छाएं नहीं रोक सकतीं।


शशि प्रकाश मेरे आदर्श थे !


हमने महसूस किया कि शशि प्रकाश का शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया और हमलोग उसके पुर्जे होते गए.मेरा साफ मानना है कि शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भीजिम्मेदार रहे हैं जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया.


जय प्रताप सिंह

 रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया एक कम्पनी है जो शहीदे आजम भगत सिंह नाम पर युवाओं को भर्ती करती है.इसके लिए कई तरह के अभियानों का नाम भी दिया जाता है. उदाहरण के लिए 'क्रांतिकारी लोग स्वराज अभियान. कार्यकर्ता चार पेज का एक पर्चा लेकर सुबह पांच बजे से लेकर रात 8बजे तककालोनियों, मोहल्लों, ट्रेनों, बसों आदि में घर-घर जाकर कम्पनी के मालिक माननीय श्री श्री शशि प्रकाश जी महाराज द्वारा रटाए गये चंद शब्दों को लोगों के सामने उगल देते हैं । लोग भगत सिंह के नाम पर काफी पैसा भी देते हैं। पैसा कहां जाता था यह सब तो ईमानदार कार्यकर्ताओं के लिए कोई मायने नहीं रखता था लेकिन इतना तो साफ था कि पारिवारिक मंडली ऐशो आराम की चीजों का उपभोग करती थी । उदाहरण के लिए लखनऊ और दिल्ली केपाश इलाके में रहने, और उनके बेटे जिन्हें भविष्य के लेनिन के नाम से नवाजा जाता था, उसके लिए महंगा से महंगा म्यूजिक सिस्टम, गिटार आदि उपलब्ध कराया जाता था।

इसी संगठन के एक हिस्सा थे कामरेड अरविन्द  जो अब नहीं रहे। अरविंद एक अच्च्छे मार्क्सवादी  थे, लेकिन  सब कुछ जानते हुए भी संगठन का मुखर विरोध नहीं करते थे,जो उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। अरविंद चूंकि जन संगठनों से जुड़े हुए थे और जनसंघर्षों का नेत्रृत्व भीकरते थे इसलिए कार्यकर्ताओं के दिल की बात को बखूबी समझते थे। कभी-कभी शशि प्रकाश से हिम्मत करके चर्चा भी करते थे। लेकिन शशि प्रकाश के पास से लौटने के बाद अरविंद उन्हीं सवालों को जायज  कहते जिन संदेहों पर हमलोग सवाल उठाये होते. हालाँकि  वह बातें  उनके दिल से नहीं निकलती थी क्योंकि ऐसे समय में वह आंख मिलाकर बात नहीं करते थे। और फिर लोगों से उनके घरपरिवार और ब्यक्तिगत संबंधों की बातें करने लग जाते थे।

बाद में पता चला कि शशि प्रकाश और कात्यायनी के सामने अरविंद जब संगठन की गलत लाइन पर सवाल उठाते हुए कार्याकर्ताओं के सवालों को अक्षरश:रखते थे तो शशिप्रकाश इसे आदर्शवाद का नाम देकर उनकी जमकर आलोचना करते। उसके ठीक बाद  अरविन्द को  बिगुल, दायित्ववोध पत्रिकाओं के लिए लेख आदि का काम करने में शशि प्रकाश लगा देते. 

वैसे एक बात बताते चलें कि इस दुकान रूपी संगठन में जब भी कोई साथी अपना स्वास्थ्य खराब होने की बात करता तो उसे उसकी ऐसे खिल्ली उड़ाई जाती थीकि वह दोबारा चाहे जितना भी बीमार हो उल्लेख नहीं करता था। इस संगठन में आराम तो हराम था। शायद यह भी एक कारण रहा होगा कि दिन रात काम करते रहने के कारण साथी अरविंद का शरीर रोगग्रस्त हो गया। दवा के नाम पर मात्र कुछ मामूली दवाएं ही उनके पास होती थीं। इससे अधिक के बारे में वे सोच भी नहीं सकते थे क्योंकि महंगे अस्पतालों में जा कर इलाज कराने का अधिकारतो शशि प्रकाश एंड कम्पनी को ही था।
जवाब दीजिये: हिंदी कवयित्री का सांगठनिक चरित्र

शशि प्रकाश के आंख का इलाज अमेरिका में होता था। सबसे दु:ख की बात तो यह थी कि इस क्रांति विरोधी आदमी के इलाज में जो पैसा खर्च होता था वह उन मजदूरों का होता था जो अपनीरोटी के एक टुकड़ों में से अपनी मुक्ति के लिए लड़े जा रहे आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करते थे।

जहां-जहां अरविंद ने नेत्रृत्वकारी के रूप में काम किया, वहां-वहां सेउन्हें मोर्चे पर फेल हो जाना बताते हुए हटा दिया गया। अंत में उन्हें गोरखपुर के सांस्कृतिक कुटीर में अकेले सोचने के लिए पटक दिया गया। यहां तक कि उस खतरनाक बीमारी के दौरान जब किसी अपने की जरूरत होती है उस समयसाथी अरविंद अकेले उस मकान में अनुवाद कर रहे थे और दायित्वबोध और बिगुल के लिए लेख लिख रहे थे। उधर उनकी पत्नी मीनाक्षी दिल्ली के एक फ्लैट में रहकर युद्ध चला रही थीं। उन्होंने दिल्ली का फ्लैट छोड़कर अरविन्द  के  पास आना गवारा नहीं समझा या फिर शशि प्रकाश ने उन्हें अरविन्द के पासजाने नहीं दिया। यहां तक की किसी अन्य वरिष्ठ साथी तक को साथी अरविन्द के पास नहीं भेजा। जिस समय हमारा साथी अल्सर के दर्द से तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहा था उस समय उनके पास एक-दो नये साथी ही थे। इन सब चीजों पर अगर गौर करें तो शशि प्रकाशको अरविन्द का हत्यारा नहीं तो और क्या कहा जाएगा?

मेरा मानना है  है कि शशि प्रकाश ने  बहुत सोच-समझकर अरविन्द को धीमी मौत के हवाले किया था.क्योंकि वरिष्ठ साथियों और संगठनकर्ता  में वही अब अकेले बचे थे। और सही मायने में उनके पास मजदूर वर्ग के बीच के कामों का शशि प्रकाश से ज्यादा अनुभव था।

मैं भी इस संगठन में 1998 से लेकर 2006 तक बतौर होलटाइमर के रूप में काम किया हूं। इस दौरान संगठन की पूरी राजनीति को जाना और समझा भी। हमने महसूस किया कि शशि प्रकाश का  शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया और हमलोग उसके पुर्जे होते गए. मेरा साफ मानना है कि  शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भीजिम्मेदार रहे  हैं जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया. 

ऐसे साथियों का इतने  दिनों तक जुडऩे का एक कारण यह भी हो सकता है कि वे  जिस मध्यवर्गीय परिवेश से आये थे वह परिवेश ही रोके रहा हो. शशि प्रकाश के शब्दों में-हमें सर्वहारा के बीच रह कर सर्वहारा नहीं बन जाना चाहिए बल्कि हम उन्हे उन्नत संस्कृति की ओर ले जाएंगे। इसके लिए कमेटी व उच्च घराने से आये हुए लोगों को ब्रांडेड जींस और टीशर्ट तक पहनने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है। ऐसा इसलिए कि शशि प्रकाश और कात्यायनी भी उच्च मध्यवर्गीय जीवन जी रहे थे। कोई उन पर सवाल न उठाए इसलिए कमेटी के अन्य साथियों के आगे भी थोड़ा सा जूठन फेंक दिया जाता रहा है। कई कमेटी के साथी शशि प्रकाश और उनके कुनबे के उतारे कपड़े पहनकर धन्य हो जाते थे। यह रोग आगे चल कर  ईमानदार साथियों में भी घर कर गया और वे सुविधाभोगी होते गये।

यह भी एक सच्चाई है कि किसी को अंधेरे में रख कर गलत रास्ते पर नहीं चला जा सकता। यही कारण रहा कि शशि प्रकाश को जब भी लगा कि अब तो फलां कार्यकर्ता या कमेठी सदस्य भी सयाना हो गया और हमारे ऊपर सवाल उठाएगा तो उन सबको किनारे लगाने का तरीका अख्तियार किया। इतना तो वह समझ ही गए थे कि इन लोगों को इस कदर सुविधाभोगी बना दिया है कि अपनी सुविधाओं को ही जुटाने में लगे रहेंगे. 

 शशि प्रकाश इस बात को जीतें हैं कि समाज के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों में ख्याति तो ही गयी है,लोग आते रहेंगे, दुकान से जुड़ते रहेंग। रही बात कार्यकर्ताओं की तो वे चाहे ज्यादा दिनों तक रुकें या न रुकें फिर भी जितना दिन रुकेंगे भीख मांग कर लाएंगे ही और उसकी झोली भरकर चले जाएंगे। कुल मिला कर शशि प्रकाश एंड कंपनी अपनी सोच में कामयाब हो गयी है।
इसमें मैं भी अपने आप को साफ सुथरा नहीं मानता क्योंकि जब यह संगठन इतना ही मानव द्रोही था तो इतने दिनों तक मैंने काम ही क्यों किया? मैं भी सिद्धार्थ नगर जिले के ग्रामीण परिवेश से आया और भगत सिंह की सोच को आगे बढ़ाने के नाम पर देश में एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करने के लिए काम में जुट गया। इसके लिए मैंने ज्यादा पढऩा लिखना उचित नहीं समझा। मुझे यहशिक्षा भी मिली कि पढऩा लिखना तो बुद्धिजीवियों का काम है। हमें संगठन के लिए अधिक से अधिक पैसा जुटाना और युवाओं को संगठन से जोडऩा है। और मैंइसी काम में लग गया। मुझे संगठन की ओर से घर भी छोडवा़ दिया गया और मर्यादपुर में तीन सालों तक रहकर देहाती मजदूर किसान यूनियन,नारी सभा औरनौजवान भारत सभा के नाम पर काम करने के लिए लगा दिया गया। पीछे के सारे रिश्ते नाते एवं घर परिवार से संगठन ने विरोध करवा दिया जिससे कि हम बहुत जल्द वापस न जा पाएं। यही नहीं बल्कि अपना घर और जमीन बेचने के लिए अपने ही पिता के खिलाफ कोर्ट में केस भी लगभग करवा ही दिया गया था। लेकिन पता नहीं क्यों (शायद मैं अभी पूरी तरह उसकी गिरफ्त में नहीं आया था),मेरा मन ऐसा करने को नहीं हुआ।  

 मैं शशि प्रकाश को ही आदर्श मानता था। मुझे यह शिक्षा दी गयी थी कि भाईसाहब दुनिया में चौथी खोपड़ी हैं। मेरे अंदरयह सवाल कई बार उठा कि जब यह चौथी खोपड़ी हैं तो प्रथम, दूसरी और तीसरी खोपड़ी कौन है? बाद में पता चला कि पहली खोपड़ी मार्क्स  थे,दूसरी लेनिन,तीसरी खोपड़ी माओ थे। अब माओ के बाद तो कोई हुआ नहीं। इसलिए चौथी खोपड़ी भाई साहब हुए न। 

 भाईसाहब कहते थे कि वही   एक क्रांतिकारी संगठन है। बाकी तो दुस्साहसवादी और संशोधनवादी पार्टियां हैं। लेकिन सब्र का बांध तो एक दिन टूटना ही था। जो आप के सामने है। यदि इन सबके बावजूद कहीं कोने में भी इस मानव विरोधी संगठन को सहयोग देने के बारे में आप में से कोई सोच रहा है तो उसे बर्बाद होने से कौन रोक सकता है?