पहले हत्यारों की गवाहियां अभी बाकी हैं राजेंद्र बाबू? ,मिट्टी में मिलाने में क्यों तुले हैं आप? , फिर मर गया देश,अरे, जीवित रह गये तुम , और 'अरुंधती ने भेजा जवाब,नहीं जाएँगी हंस के सालाना जलसे में ' ,के बाद बहुतों ने फोन कर,कुछ ने मिलकर और इन्टरनेट के जरिये भी हमें राय दी,मित्रवत कहा और बात नहीं बनी तो उकसाया और गालियाँ दी.मगर जनज्वार की टीम इस बात पर सहमत रही कि अगर हंस के सालाना जलसे पर उठे सवालों से,राजेंद्र यादव को ऐतराज़ है तो वह अपना पक्ष उन सभी माध्यमों से दर्ज करा सकते हैं जिसके वो खुद आदी हैं.यही बात लेखकीय परम्परा में हम पर भी लागू होती है.यानी वह जरिया पत्र,ईमेल,फ़ोन या कोई और भी माध्यम हो सकता है.
इसके लिए उनके दर पर जाना जरूरी है,यह मानना हमारे लेखकीय स्वाभिमान के खिलाफ है.हमने तय किया कि हंस के जलसे से पहले राजेंद्र यादव से कोई व्यक्तिगत मुलाकात नहीं करेंगे,क्योंकि यह मुलाकात उनका पक्ष जानने से ज्यादा मठ पर माथा टेकने के रिवाज़ के करीब है.राजेंद्र यादव के जवाबी अनुभवों से परिचित लोगों ने कहा भी था कि बाबा मठ से ही गरजेंगे.और वह गरजे भी.राजेंद्र यादव ने हंस के अगस्त अंक में सम्पादकीय के तीसरे पन्ने पर हंस के सालाना जलसे में लेखिका अरुंधती राय और छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को एक साथ न बुला पाने की पीड़ा को कुछ इस तरह दर्ज कराया है ..........राजेंद्र यादव की राय आने बाद जनज्वार इस मसले को और व्यापक दायरे में लाने की कोशिश करेगा.....जनज्वार टीम
राजेंद्र यादव
इकत्तीस जुलाई को होने वाली हंस की गोष्ठी का विषय निर्धारित किया गया था :वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति.यह सूत्र नर बलि इत्यादि को जायज ठहराने के लिए ब्राह्मणों ने खोजा था.अर्थ था,वेद यानी सत्ता (अथॉरिटी)द्वारा अनुमोदित हिंसा हिंसा नहीं कहलाती.यह सत्ता राज्य की भी हो सकती है और स्थापित राज्य के खिलाफ वैचारिक प्रतिबद्धता की भी. सरकारी दमन और नक्सली संघर्ष कुछ इसी प्रकार की हिंसाएं हैं.
ऐसा करम करो ना भाई, परछाई ही करण लगे हंसाई |
हंस हमेशा एक लोकतांत्रिक विमर्श में विश्वास करता रहा है.हमारा मानना है कि एकतरफा बौद्धिक बहस का कोई अर्थ नहीं है.वह प्रवचन होता है.जब तक प्रतिपक्ष न हो,उसे बहस का नाम देना भी गलत है.हमने अपनी गोष्ठियों में प्रतिपक्ष को बराबरी की हिस्सेदारी दी है.जब 'भारतीयता की अवधारणा'पर गोष्ठी हुई,तो हमने बीजेपी के सिद्धांतकार शेषाद्रिचारी को भी आमंत्रित किया था.इस बार सोचा था कि क्यों न प्रतिपक्ष के लिए रायपुर के के डीजीपी विश्वरंजन को आमंत्रित किया जाए.पक्ष की ओर से अरुंधती और अन्य तो होंगे ही.
हंस का दफ्तर सब तरह की बहसों,नाराजगियों, शिकायतों या अन्य भड़ासों का खुला मंच है. वक्ताओं के नाम पर विचार ही हो रहा था कि यार लोग ले उड़े और पंकज बिष्ट ने अपने समयांतर में लगभग धिक्कारते हुए कहा कि हम बस्तर क्षेत्र के हत्यारे पुलिस डीजी और अरुंधती राय को एक ही मंच पर लाने की हिमाकत करने जा रहे हैं.
ब्लॉग वालों को छद्म विवादों के लिए ऐसे ही मुद्दों की तलाश रहती है.दो पत्रकारों ने इस पर लंबी बहस छेड़ दी और विश्व रंजन जैसे काफिर के साथ अरुंधती जैसी निरीह को एक मंच पर लाने के लिए हमारी लानत-मलामत कर डाली.दिल्ली में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को आतुर नीलाभ ने भी 'वंदना के इन सुरों में एक सुर मेरा मिला लो' के भाव से एक लेख पेल डाला.इसमें उन्होंने पूछा कि मैं किधर हूं,यह मैंने कभी साफ नहीं किया.जो कुछ पढ़ते-सुनते न हों,उन्हें क्यों जवाब दिया जाए? चाहे तो वे इस बार जुलाई 2010 के संपादकीय पर नजर डाल लें.
हमारी मंशा इस ज्वलंत मुद्दे के अनेक पक्षों पर खुल कर बात करने की ही रही है. अगर इसे सिर्फ 'सहमतों का प्रस्ताव पारित'करने का संवाद ही बनाना है तो बात दूसरी है.मैं मित्रों से अनुरोध करता हूं कि वे कोई दूसरा विकल्प बताएं. लगता है अब यह विवाद और जगहों पर भी चलेगा।सबसे पहले तो मैं स्पष्ट कर दूं कि वक्ताओं के नाम तब तक चुने जा रहे थे,फाइनल नहीं थे. दूसरे यह कि बुद्धिजीवियों का यह कौन सा आचरण है कि वे दूसरे पक्ष की बात सुनेंगे ही नहीं. यह विचारों का लोकतंत्र नहीं, बौद्धिक तानाशाही है.
'मैं तुम्हारे विचारों को एक सिरे से खारिज करता हूं, मगर मरते दम तक तुम्हारे ऐसा कहने के अधिकार का समर्थन करूंगा.'यह कहा-बताया जाता है लोकतंत्र के पुरोधा वॉल्टेयर का.दूसरे को बोलने ही न दो,यह कैसा फासीवाद है? क्या हमारे तर्क इतने कमजोर हैं कि 'दुश्मन' के सामने ठहर ही नहीं पाएंगे? इस वैचारिक तानाशाही का एक कुत्सित रूप कुतर्कों का पिंजड़ा खड़ा करना भी है.आप किसी भी विषय पर बात कीजिए,वे तर्क देंगे कि जब मुंबई-पंजाब में बाढ़ ने तबाही मचा रखी हो, बस्तर के आदिवासियों का कत्लेआम जारी हो, खाप पंचायतें चुन-चुनकर युवाओं को फांसी पर लटका रही हों,किसान हजारों की संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हों,तब आप एसी कमरों में बैठकर एक फालतू मुद्दे पर मगजपच्ची कर रहे हैं –यह भयानक देशद्रोह है और भर्त्सनीय है.
इस बाजारू वाग्जाल के हिसाब से तो कोई भी बौद्धिक,साहित्यिक या सांस्कृतिक उपक्रम ऐय्याशी ही नहीं, मानव-द्रोह है. क्या यह हर बौद्धिक विचार-विमर्श को खारिज कर देने की साजिश नहीं है?
हमें इस माहौल में बैठकर सोचना है कि किसी भी विचार-विमर्श की उपयोगिता या जरूरत ही क्यों है?जब तक सारी दुनिया में अमन-चैन न हो जाए, तब तक क्या सारे वैचारिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक कार्यक्रम तालिबानी सख्ती से बंद कर दिये जाने चाहिए? वैसे शायद उन्हें याद दिलाना जरूरी है कि शास्त्रार्थ की परंपरा हमारे यहां बहुत पुरानी है,जहां विभिन्न विश्वासों और धर्मों के लोग खुलकर एक ही मंच पर अपने अपने पक्ष रखते थे.ईसाइयों और मुसलमानों से आर्य समाजियों के शास्त्रार्थ दूसरे महायुद्ध से पहले तक चलते रहे हैं.
बहरहाल, इन अफवाहों से अरुंधती राय जैसों को जो असमंजस हुआ, उसके लिए हमें खेद है.
(हंस से साभार)