Jul 28, 2011

बाबा रामदेव और अन्ना एक साथ क्यों नहीं ?

जो बाबा रामेदव आगे से चलकर जन्तर-मन्तर पर अन्ना हजारे को समर्थन देने गये थे, उन्हीं बाबा रामेदव को अब अन्ना हजारे अपने मंच पर नहीं आने देना चाहते हैं! यह अकारण नहीं हो सकता...

पुरुषोत्तम मीना 'निरंकुश'

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बाबा रामेदव लम्बे समय से अपने योग शिविरों में जनान्दोलन चलाते आ रहे हैं| उन्होंने कुछ बड़ी रैलिया भी की हैं और देशभर में जनजागरण अभियान चलाया हुआ है| वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे भी लम्बे समय से महाराष्ट्र में रहकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ते आ रहे हैं| जन्तर-मन्तर पर अनशन से पूर्व उनको बाबा रामदेव की तुलना में बहुत कम लोग जानते थे| अन्ना के अनशन का असर यह हुआ कि बाबा रामेदव ने स्वयं अन्ना के मंच पर पहुँचकर, अन्ना हजारे के आन्दोलन को समर्थन दिया| जिससे देश को लगा कि बाबा रामेदव का असल मकसद भ्रष्टाचार को नेस्तनाबूद करना है, न कि उन्हें स्वयं सत्ता हासिल करनी है|

अनशन समाप्त हुआ और जन लोकपाल बिना बनाने की कमेटी के गठन के साथ ही बाबा रामेदव एवं अन्ना हजारे के बीच वैचारिक मतभेद की खबरें भी मीडिया के माध्यम से जनता तक आने लगी| जो लोक अन्ना का प्रचार-प्रसार करते नहीं थक रहे थे, अचानक वे अन्ना के विरोधी और बाबा रामेदव के समर्थक हो गये| बाबा रामेदव ने रामलीला मैदान में अनशन किया| पहले सरकार ने बाबा की अगवानी की| बाबा से बन्द कमरें में चर्चाएँ की और उसी सरका ने अनशन को समाप्त करने के लिये अनैतिक, असंवैधानिक और अमानवीय रास्ता अख्तियार किया| इसके बाद बिना किसी उपलब्धि के बाबा का अनशन टूट गया|

इससे बाबा रामेदव का ग्राफ एकदम से नीचे  आ गया| इसके बाद फिर से अन्ना हजारे ने अनशन करने की घोषणा कर दी और साथ ही अपने मंच पर बाबा रामेदव के आने पर सार्वजनिक रूप से शर्तें लगा दी हैं| जो बाबा रामेदव आगे से चलकर जन्तर-मन्तर पर अन्ना हजारे को समर्थन देने गये थे, उन्हीं बाबा रामेदव को अब अन्ना हजारे अपने मंच पर नहीं आने देना चाहते हैं! यह अकारण नहीं हो सकता| देश के लोगों के बीच इस बारे में अनेक प्रकार की भ्रान्तिया पनप रही हैं|इस प्रकार से दोनों अनशनों के बाद से देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाले दो बड़े नाम उभरकर सामने आ रहे हैं-बाबा रामेदव एवं अन्ना हजारे|

इस कारण से देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रहा आन्दोलन बौंथरा होता जा रहा है| जनता को समझ में नहीं आ रहा है कि देश का मीडिया बता रहा है, उसमें कितनी सच्चाई है?दूसरी ओर इस देश के मीडिया की विश्‍वसनीयता सन्देह के घेरे में है| ऐसे में आम व्यक्ति का मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी वैकल्पिक मीडिया की है| जिसे वैकल्पिक मीडिया एक सीमा तक निभा भी रहा है, लेकिन वैकल्पिक मीडिया भी सामन्ती मीडिया, साम्प्रदायिक मीडिया, वामपंथी मीडिया, धर्मनिरपेक्ष मीडिया, दलित मीडिया, धर्मनिरपेक्ष मीडिया, अल्पसंख्यक मीडिया आदि कितने ही हिस्सों में बंटा हुआ नजर आ रहा है|

केवल इतना ही नहीं, वैकल्पिक मीडिया पर आधारही आलेखों के प्रकाशन और लेखन का ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ नहीं जानने वाले घटिया पाठकों की घटिया, संकीर्ण, स्तरहीन और असंसदीय टिप्पणियों को बिना सम्पादकीय नियन्त्रण के प्रकाशन के कारण भी वैकल्पिक मीडिया की उपस्थिति एवं समाज में विश्‍वसनीयता संन्देह के घेरे में है|ऐसे में बाबा रामेदव और अन्ना हजारे के बीच बंट चुके भ्रष्टाचार विरोधी जनान्दोलन के बारे में आम जनता को सही, पुष्ट एवं विश्‍वसनीय जानकारी नहीं मिल पाना दु:खद और निराशाजनक है| इन हालातों में देशभर में प्रभावी प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से तो पूर्ण निष्पक्षता की आशा नहीं की जा सकती और ले-देकर वैकल्पिक मीडिया से ही इस बारे में कुछ करने की अपेक्षा की जा सकती है|

अत: वैकल्पिक मीडिया को चाहिये कि देशहित में बाबा रामदेव एवं अन्ना हजारे के बारे में अभी तक सामने आये पुष्ट एवं विश्‍वसनीयों तथ्यों और जानकारी के प्रकाश में कुछ बातें ऐसी हैं, जिन पर खुलकर चर्चा की जाये और देश के लोगों को अवगत करवाया जाये कि ये दोनों अलग-अलग क्यों हैं और देश के प्रमुख तथा विवादास्पद मुद्दों पर दोनों के क्या विचार हैं| जिससे देश की जनता को दोनों में से एक को चुनने में आसानी हो सके या दोनों को मिलकर कार्य करने के लिये सहमत किया जा सके| इस चर्चा को विस्तार देने के लिये विद्वान लेखकों और पाठकों को आगे आना चाहिये|

मेरा मानना है कि बाबा रामदेव एवं अन्ना हजारे के बारे में निम्न विषयों पर चर्चा होनी चाहिये और भी बिन्दु जोड़े जा सकते हैं:-१. संविधान की गरिमा के प्रति कौन कितना संवेदनशील हैं?२. आमजन से जुड़े भ्रष्टाचार, अत्याचार, व्यभिचार, कालाबाजारी, मिलावट आदि विषयों के प्रति दोनों के क्या विचार हैं?३. देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में किसको कितनी आस्था है?४. संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार के तहत स्त्रियों को समान नागरिक मानने और हर एक क्षेत्र में स्त्रियों को समान भागीदारी के बारे में दोनों के विचार?५. चुनावी भ्रष्टाचार के समाधान के बारे में दोनों के विचार और समाधान के उपायों का कोई खाका?६. इस देश की व्यवस्था पर आईएएस का कब्जा है जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबकर भी पाक-साफ निकल जाते हैं| इनकी तानाशाही पर नियन्त्रण पर दोनों के विचार?७. दलित, आदिवासी और पिछड़े, जिनकी देश में लगभग ६५ प्रतिशत आबादी मानी जाती है को प्रदत्त आरक्षण एवं इसकी सभी क्षेत्रों में अनुपातिक भागीदारी के बारे में दोनों के विचार क्या हैं? मेरी दृष्टि में इस देश में इस ६५ प्रतिशत आबादी का यह मुद्दा किसी भी मामले में निर्णायक भूमिका निभाने वाला है, क्योंकि लोकतन्त्र में वोटबैंक की ताकत सबसे बड़ी ताकत है और इस वर्ग का वोट ही सत्ता का निर्धारक है|८. अल्पसंख्यकों, विशेषकर इस्लाम के अनुयाईयों के बारे में दोनों के क्या विचार हैं?

यह मुद्दा इस कारण से अधिक संवेदनशील है, क्योंकि भारत में से पाकिस्तान का विभाजन इस्लामपरस्त लोगों की अलग राष्ट्र की मांग को पूरा करने के लिये हुआ था| लेकिन देश के स्वतन्त्र और निष्पक्ष चिन्तकों के एक बुद्धिजीवी वर्ग का साफ मानना है कि इस्लाम के नाम पर अलग से राष्ट्र का निर्माण हो जाने के बाद भी इस्लाम के जो अनुयाई धर्मनिरपेक्ष भारत में ही रुक गये| उनकी देशभक्ति विशेष आदर और सम्मान की हकदार है| अत: उनके धार्मिक विश्‍वास एवं राष्ट्रीय आस्था को जिन्दा रखना भारत की धर्मनिरपेक्ष सरकारों का संवैधानिक दायित्व है|९. भूमि-अधिग्रहण के बारे में आजादी से पूर्व की नीति ही जारी है| जिसका खामियाजा देश के किसानों को भुगतना पड़ रहा है| इस बारे में दोनों के विचार|१०. जिन धर्मग्रंथों में हिन्दु धर्म की बहुसंख्यक आबादी का खुलकर अपमान और तिरस्कार किया गया है| यह देश के भ्रष्टाचार से भी भयंकर त्रासदी है| इन सभी धर्मग्रंथों पर स्थायी पाबन्दी के बारे में दोनों के विचार? ११. भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली बार आन्दोलन नहीं हो रहा है| पूर्व में भी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को सफलता मिली थी|

सरकारें भी बदली, लेकिन स्थिति जस की तस बनी रही| ऐसे में अब सत्ता नहीं, व्यवस्था को बदलना जनता की प्राथमिकता है| अत: दोनों में से कौन तो व्यवस्था को बदलने के लिये कार्य कर रहे हैं और कौन स्वयं सत्ता पाने या किसी दल विशेष को सत्ता दिलाने के लिये काम करे हैं|पाठकों, विचारकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि इस बारे में खुलकर चर्चा (बहस नहीं) करनी चाहिये| इन विषयों में कोई गलत चयन किया गया है तो उसे सतर्क सुचिता पूर्वक नकारें और यदि कोई महत्वूपर्ण विषय शेष रह गया है, तो उसे जोड़ें| आशा है कि इस बारे में देश का प्रबुद्ध वर्ग अवश्य ही विचार करेगा?


सवालों में सीबीआई


इस मामले में सीबीआई का दोहरापन इस बात से भी साफ हो जाता है कि बालकृष्ण के फर्जी पासपोर्ट में तत्काल कार्रवाई शुरू हो गई, लेकिन सुब्बा के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने में एक दशक से भी ज्यादा समय लग गया...

आशीष वशिष्ठ

बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण पर सीबीआई का शिकंजा धीरे-धीरे कसता चला जा रहा है। सीबीआई ने बालकृष्ण के खिलाफ धारा 420 (ठगी), 120 बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत मामला दर्ज किया है। उनके खिलाफ फर्जी डिग्री और भारतीय पासपोर्ट अधिनियम की धारा 12 के उल्लंघन के तहत भी मामला दर्ज किया गया है।

बालकृष्ण को लेकर जिस तरह से सीबीआई ने तेजी और फुर्ती दिखाई, वह वाकई काबिलेतारीफ है। हालाँकि अधिकतर मामलों को सालोंसाल टालने वाली सीबीआई में अचानक आई फुर्ती की वजह किसी से छिपी नहीं है। कालेधन और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को घेरने की मुहिम के मुखिया बाबा रामदेव के दाहिने हाथ माने जाने वाले बालकृष्ण पर सीबीआई का शिकंजा लगभग कस चुका है।

सूत्रों की मानें तो सीबीआई कभी भी उन्हें गिरफ्तार कर सकती है। हालांकि बालकृष्ण अण्डरग्राउण्ड चल रहे हैं और बालकृष्ण के अंगरक्षक जयेंद्र सिंह असवाल ने हरिद्वार के कनखल थाने में उनकी गुमशुदगी की रपट दर्ज कराई है। लेकिन जो तेजी और कार्यकुशलता सीबीआई बालकृष्ण के मामले में दिखा रही है और उन पर जो आरोप हैं, उससे कहीं ज्यादा गंभीर आरोप असम से कांग्रेस के पूर्व सांसद एम. के. सुब्बा पर हैं। कांग्रेसी सांसद सुब्बा की भारतीय नागरिकता पर सवाल उठाते हुए सीबीआई चार्जशीट दायर कर चुकी है। इसके बावजूद सिर्फ एफआईआर के बाद बालकृष्ण का पासपोर्ट रद्द कराने पर आमादा सीबीआई ने सुब्बा का पासपोर्ट रद्द कराने की कोई कोशिश तक नहीं की है। इससे सीबीआई ने साबित कर दिया है कि वह स्वतंत्र जांच एजेंसी नहीं, बल्कि केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने वाला संगठन है।

गौरतलब है कि काले धन और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्र की संप्रग सरकार को  योगगुरु रामदेव और आचार्य बालकृष्ण ने बड़े जोर-शो से घेरा था। 4-5 जून की रात को बाबा रामदेव और उनके सर्मथकों पर डंडे बरसाकर संप्रग सरकार खुद को फ्रंटफुट पर मान रही है। बाबा रामदेव के उठाए सवालों का जवाब और कोई कार्रवाई करने की बजाय कांग्रेस ने ये ठान लिया कि वो रामदेव को भी अपने स्तर पर लाकर ही दम लेगी, अर्थात उन्हें और उनके सहयोगियों को भी भ्रष्ट साबित करके छोड़ेगी। 

इसी कड़ी में रामदेव और बालकृष्ण पर सरकार की नजरें टेढ़ी हैं। नागरिकता, फर्जी डिग्रियों संबंधी जो भी केस बालकृष्ण पर दर्ज करके सीबीआई ने उनके खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी कर दिया है और विदेश मंत्रालय से बालकृष्ण के पासपोर्ट को रद्द करने की मांग की है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि सीबीआई किसी दबाव या इशारे पर काम कर रही है।

सीबीआई की चार्जशीट के बावजूद सुब्बा सिर्फ अपना बिजनेस आराम से चला रहे हैं, बल्कि एक पूर्व सांसद को मिलने वाले सुविधाओं का लाभ भी ले रहे हैं इस मामले में सीबीआई का दोहरापन इस बात से भी साफ हो जाता है कि बालकृष्ण के फर्जी पासपोर्ट में तत्काल कार्रवाई शुरू हो गई, लेकिन सुब्बा के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने में एक दशक से भी ज्यादा समय लग गया। लंबे समय तक सुब्बा के मामले में निष्क्रिय रहने पर सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गंभीरता से जांच शुरू करनी पड़ी। बाद में अदालत के निर्देश पर ही उसने चार्जशीट भी दाखिल की।

सीबीआई ने अभी तक बालकृष्ण की भारतीय नागरिकता पर उंगली नहीं उठाई है। उन पर केवल पासपोर्ट ऑफिस में जमा की गईं शैक्षिक डिग्रियों के फर्जी होने के प्रमाण हैं। यहां सवाल यह नहीं है कि सीबीआई बालकृष्ण के पीछे क्यों पड़ी है, हां अगर बालकृष्ण ने सच्चाई को छुपाया है या दस्तावेजों से हेराफेरी करके पासपोर्ट या अन्य सुविधाएं प्राप्त की हैं तो उन पर कार्रवाई अवश्य होनी चाहिए। लेकिन इन सबके बीच एक बात जो अखरती है वो यह है कि क्या केवल बालकृष्ण ही एकमात्र ऐसे गुनाहगार हैं? नागरिकता के मामले से लेकर फजी पासपोर्ट के कई अन्य मामले सरकार के संज्ञान में हैं, लेकिन उन केसों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती ऐसे हालातों में ये लगता है कि सरकार जान-बूझकर कानून की आड़ लेकर निजी स्वार्थ, खुन्नस और बदला लेने की भावना से बालकृष्ण के विरुद्ध कार्रवाई करवा रही है।

एम. के. सुब्बा : सीबीआई ने
दिखाई रहमदिली 
सीबीआई को चाहे जितनी बार स्वतंत्र जांच एजेंसी का तमगा दिया जाए, लेकिन उसकी कार्यशैली और व्यवहार हर बार यही सिद्ध करता है कि वो दिल्ली की गद्दी पर काबिज (केंद्र में सत्तासीन) दल की गुलाम से अधिक कुछ नहीं है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के इशारे पर सीबीआर्इ्र हर मामले को अंजाम देती है। इतना ही नहीं, अगर ऊपर से हरी झंडी नहीं है तो संगीन से संगीन मामलों में जान-बूझकर देरी और लटकाने का रवैया अपनाया जाता है।

आज संप्रग सरकार के सबसे धड़े कांग्रेस के पूर्व सांसद सुब्बा के मामले को जिस तरह से सीबीआई दबाकर बैठी हुई हैउससे यही प्रतीत होता है कि बिना सरकार के इशारे के स्वतंत्र जांच एजेंसी का दम ठोंकने वाली सीबीआई दो कदम चलने को मोहताज है। सीबीआई या अन्य जांच एजेंसियों को स्वतंत्र तब कहा जा सकता है, जब वे छोटे-बडे़, अपने-पराये, अमीर-गरीब में बिना किसी भेदभाव के निष्पक्ष तरीके से कार्रवाई करें।  विपक्ष वैसे भी सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन ही कहता है। बालकृष्ण दोषी हैं तो उन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए, लेकिन वहीं सीबीआई के पास पेडिंग पड़े मामलों को इसी तत्परता से निपटाए तो अपराधियों का हौंसला गिरेगा और आम आदमी का पुलिस-प्रशासन पर भरोसा बढेगा।




स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक- सामाजिक मसलों के टिप्पणीकार.