Jul 13, 2010

अरुंधती ने भेजा जवाब, नहीं जाएँगी हंस के सालाना जलसे में

जनज्वार के पाठकों, सहयोगियों आप सबका आभार. जैसी की हमें उम्मीद थी, जनता की लेखिका अरुंधती राय  ने हमेशा की तरह जनता का ही पक्ष चुना.

प्रिय भाइयों,

हंस ने जो अगले सालाना आयोजन कि रूप रेखा प्रचारित की थी उसमें सब को यह आभास दिया था कि इस बार वे पुलिस अधिकारी विश्व रंजन और अरुंधती राय को एक ही मंच पर लायेंगे.लोगों में इस पर बड़ा आक्रोश था. मैंने दो-तीन दिन पहले हंस कार्यालय में राजेंद्र जी से पूछा तो उन्हों भी तस्दीक की. लेकिन जब मैं ने अरुंधती से पूछा तो उन्हों ने साफ़ कहा कि वे ऐसे कार्यक्रम में नहीं जा रहीं हैं. उनका जवाब संलग्न है

नीलाभ

अरुंधती का जवाब-

प्रिय नीलाभ,


बैठक के बारे में मुझे सावधान करने के लिए धन्यवाद. मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. राजेंद्र यादव ने कुछ सप्ताह पहले मुझे फोन कर यह पूछा था कि क्या जुलाई में होने वाले ‘हंस’ के कार्यक्रम में मैं शामिल होऊँगी. मैं उस समय यात्रा कर रही थी इसलिए मैंने उनसे कहा कि मैं बाद में बात करूंगी. लेकिन अब आपने मुझे बताया कि बिना मेरी सहमती के यह प्रचार किया जा रहा है कि मेरे और कुख्यात पुलिस अधिकारी श्री विश्वरंजन के बीच बहस होगी. मुझे इन सबके बारे में कोई जानकारी नहीं हैं.

मेरा वहाँ जाने का कोई इरादा नहीं है. वह भी पीटीआई के साथ मेरे हाल के अनुभव और छ्त्तीसगढ़ पुलिस के व्यवहार व इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अनाप-शनाप सुर्खियों के बाद. आपने बताया है कि कुछ युवा मुझसे इस कार्यक्रम में शामिल न होने का अनुरोध करने के लिए ज्ञापन तैयार कर रहे हैं..आप कृपया उन्हें बता दें कि मुझे मनाने के लिए किसी ज्ञापन की जरूरत नहीं है. मैंने वहाँ जाने के लिए कभी हामी नहीं भरी थी लेकिन अब यह लगने लगा है कि यह सब पहले से नियोजित था.

आप इसे (ईमेल) को उन लोगों में प्रसारित कर सकते हैं जो मेरे वहाँ जाने को लेकर चिंतित हैं.(अगर इसमें अनुवाद से मदद मिले तो करा लें.). मुझे लगता है कि बहस के और भी बहुत से अच्छे रास्ते हो सकते हैं जहाँ सत्ता के संरक्षण और पुलिस द्वारा नियंत्रित मीडिया आपकी बात को गलत ढंग से पेश नहीं केरगी.

शुभकामनाओं के साथ

अरुंधती

(original english text send by Arundhati)

Dear Neelabh

Thanks for alerting me about a meeting I had no idea about! Rajendra Yadav did call a few weeks ago and ask whether I could come to a Hans event in July. I was travelling at the time and said I'd speak to him later. And now you tell me that without my ever having agreed, it's being billed as a debate between me and the notorious policeman Mr Vishwaranjan! I had no idea about all this. I have no intention of being there. Not after my recent experience with PTI and the rubbish that is being put out by the Chhattisgarh police and headlined in the Indian Express. You say a bunch of youngsters are putting together a petition asking me not to go...please tell them that I don't need a petition to persuade me! I never agreed to go in the first place. And now it's beginning to look like a set up . You can circulate this to anyone who is worried that I might walk into this trap. (translate it if it will help?) I think there are better ways of having debates in which co-opted media people controlled by the police cannot misquote you.

All the best
Arundhati

मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम

प्रिय अजय,

यह मेरी प्रतिक्रिया है ......... नीलाभ

प्रिय अजय प्रकाश और विश्वदीपक,

दोस्तो या तो तुम लोग बहुत भोले हो या फिर सब कुछ जानते-बूझते हुए मामले को व्यर्थ ही उलझा रहे हो.हंस ने अगर इस बार की सालाना गोष्ठी में विश्वरंजन और अरुन्धती राय दोनों को एक ही मंच पर लाने की योजना बनायी है तो इसके निहितार्थ साफ़ हैं. पहली बात तो यह है कि इस बार की गोष्ठी को "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसा शीर्षक दे कर राजेन्द्र जी यह भ्रम देना चाहते हैं कि वे एक गम्भीर बहस का सरंजाम कर रहे हैं. वे यह भ्रम भी पैदा करना चाहते हैं कि हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं और इसमें सबको अपनी बात कहने का  अधिकार है.

दर असल, सत्ता की तरफ़ झुके लोगों का यह पुराना वतीरा है. ख़ून ख़्रराबा भी करते रहो और बहस भी चलाते रहो.अब तक राजेन्द्र जी ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ और उड़ीसा या फिर आन्ध्र और महाराष्ट्र में सरकार द्वारा की जा रही लूट-मार और ख़ून ख़्रराबे और आदिवासियों की हत्या पर कोई स्पष्ट स्टैण्ड नहीं लिया है,लेकिन बड़ी होशियारी से वे अण्डर डौग्ज़ के पक्षधर होने की छवि बनाये हुए हैं. इसके अलावा वे यह भी जानते हैं कि जब सभी कुछ ढह रहा हो,जब सभी लोग नंगे हो रहे हों तो एक चटपटा विवाद उन्हें कम से कम चर्चा में बनाये रखेगा और इतना हंस की दुकानदारी चलाने के लिए काफ़ी है,गम्भीर चर्चा से उन्हें क्या लड्डू मिलेंगे !अब यही देखिये कि बी जमालो तो भुस में तीली डाल कर काला चश्मा लगाये किनारे जा खड़ी हुई हैं और आप सब चीख़-पुकार मचाये हुए हैं.

उधर,हंस के मंच पर और वह भी अरुन्धती राय के साथ आने पर विश्व रंजन को जो विश्वसनीयता हासिल होगी वह नामवर सिंह,आलोक धन्वा,अरुण कमल और खगेन्द्र ठाकुर जैसे महारथियों से अपनी किताब का विमोचन कराने से कहीं ज़्यादा बैठेगी.साथ ही एक जन विरोधी पुलिस अफ़सर की काली छवि को कुछ ऊजर करने का कम भी करेगी. आख़िर हंस "प्रगतिशील चेतना का वाहक" जो ठहरा.

असली मुश्किल अरुन्धती की है.अगर वह शामिल होती है तो राजेन्द्र जी की चाल कामयाब हो जाती है और विश्व रंजन के भी पौ बारह हो जाते हैं. नहीं शामिल होती तो राजेन्द्र जी, विश्व रंजन और उनके होते-सोते हल्ला करेंगे कि देखिये, कितने खेद की बात है, इन लोगों में तो जवाब देने की भी हिम्मत नहीं, भाग गये, भाग गये, हो, हो, हो, हो !

इसलिए प्यारे भाइयो,इस सारे खेल को समझो.यह पूरा आयोजन कुल मिला कर सत्ताधारी वर्ग के हाथ मज़बूत करने की ही कोशिश है.

यारी देख ली, अब ईमान खोजें : दाहिने से खगेन्द्र ठाकुर, नामवर सिंह, किताब विक्रेता अशोक महेश्वरी, डीजीपी विश्वरंजन और आलोक धन्वा : चचा आलोक आप गाय घाट पर माला जपते, तो भी अपने बुजुर्गों पर हम शर्मिंदा न होते.



अब रहा सवाल हिन्दी साहित्य का --तो दोस्तो विश्व रंजन के कविता संग्रह के विमोचन में जो चेहरे दिख रहे हैं, उनसे हिन्दी साहित्य के गटर की,उसकी ग़लाज़त की,सड़ांध की सारी असलियत खुल कर सामने आ जाती है.वैसे इसकी शुरुआत मौजूदा दौर में करने का सेहरा भी आदरणीय राजेन्द्र जी के सिर बंधा था जब उन्होंने बथानी टोला हत्याकाण्ड के बाद बिहार के सारे लेखकों की बिनती ठुकरा कर लालू प्रसाद यादव से एक लाख का पुरस्कार ले लिया था.उनका पक्ष बिलकुल साफ़ है.यही वजह है कि वे किसी ऐसे स्थान पर नहीं नज़र आते जहां सत्ता के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा बनने की आशंका हो.वे किसी पत्रकार के बेटे की शादी की दावत में आई आई सी में " खाने-पीने" का न्योता नहीं ठुकराएंगे,लेकिन फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ में जिसे कहते हैं "इन कोल्ड ब्लड"मार दिये गये युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डे की अन्त्येष्टि में शामिल होने का ख़तरा कभी नहीं मोल लेंगे.कहां जाना है कहां नहीं जाना इसे ये सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं जिन्हें आप हिन्दी के पुरोधा और सामाजिक परिवर्तन के सूत्रधार बनाये हुए, कातर भाव से उनके कर्तव्यों की याद दिला रहे हैं.

इनमें से कौन नहीं जानता कि बड़े पूंजीपति घरानों के इशारे पर हमारी मौजूदा सरकार झारखण्ड, छत्तीसगढ़,उड़ीसा,आन्ध्र और महाराष्ट्र में कैसा ख़ूनी और बेशर्म खेल खेल रही है.लेकिन ये अपने अपने सुरक्षा के घेरे में सुकून से "साहित्य चर्या"में लीन हैं,इसी ख़ूनी सरकार के लोहे के पंजे के कविता संग्रह के क़सीदे पढ़ रहे हैं.क्या इन्हें माफ़ किया जा सकता है ?मत भूलिए कि जो समाज की बड़ी बड़ी बातें करते हैं उनका उतना ही पतन होता है.यह हमारे ही वक़्त की बदनसीबी है कि "गोली दागो पोस्टर" का रचनाकार उसी दारोग़ा के साथ है जिसके उत्पीड़न पर उसने सवाल उठाया था.ये वही अरुण कमल हैं जिन्हों ने लिखा था :"जिनके मुंह मॆं कौर मांस का उनको मगही पान". बाक़ियों की तो बात ही छोड़िए.

तो भी,मैं तुम दोनों को इस बात पर ज़रूर बधाई देना चाहता हूं कि इस चौतरफ़ा ख़ामोशी और गिरावट के माहौल में तुम दोनों ने इस ज़रूरी मुद्दे को उठाया है हालांकि चोट हलकी है साथियो,बहरों को सुनाने के लिए ज़ोरदार धमाका चाहिये.

अन्त में अपने एक प्रिय कवि का कवितांश जिसे हम अब धीरे-धीरे भूल रहे हैं :


ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!



उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,



दु:खों के दाग़ों को तमग़े सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्य किया,
जीवन क्या जिया!!

................

भावना के कर्तव्य त्याग दिये,
हॄदय के मन्तव्य मर डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ ही उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए फंस गये,
अपने ही कीचड़ में धंस गये !!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में,
आदर्श खा गये.
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम !


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