प्रिय अजय,
यह मेरी प्रतिक्रिया है ......... नीलाभ
प्रिय अजय प्रकाश और विश्वदीपक,
दोस्तो या तो तुम लोग बहुत भोले हो या फिर सब कुछ जानते-बूझते हुए मामले को व्यर्थ ही उलझा रहे हो.हंस ने अगर इस बार की सालाना गोष्ठी में विश्वरंजन और अरुन्धती राय दोनों को एक ही मंच पर लाने की योजना बनायी है तो इसके निहितार्थ साफ़ हैं. पहली बात तो यह है कि इस बार की गोष्ठी को "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसा शीर्षक दे कर राजेन्द्र जी यह भ्रम देना चाहते हैं कि वे एक गम्भीर बहस का सरंजाम कर रहे हैं. वे यह भ्रम भी पैदा करना चाहते हैं कि हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं और इसमें सबको अपनी बात कहने का अधिकार है.
दर असल, सत्ता की तरफ़ झुके लोगों का यह पुराना वतीरा है. ख़ून ख़्रराबा भी करते रहो और बहस भी चलाते रहो.अब तक राजेन्द्र जी ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ और उड़ीसा या फिर आन्ध्र और महाराष्ट्र में सरकार द्वारा की जा रही लूट-मार और ख़ून ख़्रराबे और आदिवासियों की हत्या पर कोई स्पष्ट स्टैण्ड नहीं लिया है,लेकिन बड़ी होशियारी से वे अण्डर डौग्ज़ के पक्षधर होने की छवि बनाये हुए हैं. इसके अलावा वे यह भी जानते हैं कि जब सभी कुछ ढह रहा हो,जब सभी लोग नंगे हो रहे हों तो एक चटपटा विवाद उन्हें कम से कम चर्चा में बनाये रखेगा और इतना हंस की दुकानदारी चलाने के लिए काफ़ी है,गम्भीर चर्चा से उन्हें क्या लड्डू मिलेंगे !अब यही देखिये कि बी जमालो तो भुस में तीली डाल कर काला चश्मा लगाये किनारे जा खड़ी हुई हैं और आप सब चीख़-पुकार मचाये हुए हैं.
उधर,हंस के मंच पर और वह भी अरुन्धती राय के साथ आने पर विश्व रंजन को जो विश्वसनीयता हासिल होगी वह नामवर सिंह,आलोक धन्वा,अरुण कमल और खगेन्द्र ठाकुर जैसे महारथियों से अपनी किताब का विमोचन कराने से कहीं ज़्यादा बैठेगी.साथ ही एक जन विरोधी पुलिस अफ़सर की काली छवि को कुछ ऊजर करने का कम भी करेगी. आख़िर हंस "प्रगतिशील चेतना का वाहक" जो ठहरा.
असली मुश्किल अरुन्धती की है.अगर वह शामिल होती है तो राजेन्द्र जी की चाल कामयाब हो जाती है और विश्व रंजन के भी पौ बारह हो जाते हैं. नहीं शामिल होती तो राजेन्द्र जी, विश्व रंजन और उनके होते-सोते हल्ला करेंगे कि देखिये, कितने खेद की बात है, इन लोगों में तो जवाब देने की भी हिम्मत नहीं, भाग गये, भाग गये, हो, हो, हो, हो !
इसलिए प्यारे भाइयो,इस सारे खेल को समझो.यह पूरा आयोजन कुल मिला कर सत्ताधारी वर्ग के हाथ मज़बूत करने की ही कोशिश है.
अब रहा सवाल हिन्दी साहित्य का --तो दोस्तो विश्व रंजन के कविता संग्रह के विमोचन में जो चेहरे दिख रहे हैं, उनसे हिन्दी साहित्य के गटर की,उसकी ग़लाज़त की,सड़ांध की सारी असलियत खुल कर सामने आ जाती है.वैसे इसकी शुरुआत मौजूदा दौर में करने का सेहरा भी आदरणीय राजेन्द्र जी के सिर बंधा था जब उन्होंने बथानी टोला हत्याकाण्ड के बाद बिहार के सारे लेखकों की बिनती ठुकरा कर लालू प्रसाद यादव से एक लाख का पुरस्कार ले लिया था.उनका पक्ष बिलकुल साफ़ है.यही वजह है कि वे किसी ऐसे स्थान पर नहीं नज़र आते जहां सत्ता के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा बनने की आशंका हो.वे किसी पत्रकार के बेटे की शादी की दावत में आई आई सी में " खाने-पीने" का न्योता नहीं ठुकराएंगे,लेकिन फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ में जिसे कहते हैं "इन कोल्ड ब्लड"मार दिये गये युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डे की अन्त्येष्टि में शामिल होने का ख़तरा कभी नहीं मोल लेंगे.कहां जाना है कहां नहीं जाना इसे ये सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं जिन्हें आप हिन्दी के पुरोधा और सामाजिक परिवर्तन के सूत्रधार बनाये हुए, कातर भाव से उनके कर्तव्यों की याद दिला रहे हैं.
इनमें से कौन नहीं जानता कि बड़े पूंजीपति घरानों के इशारे पर हमारी मौजूदा सरकार झारखण्ड, छत्तीसगढ़,उड़ीसा,आन्ध्र और महाराष्ट्र में कैसा ख़ूनी और बेशर्म खेल खेल रही है.लेकिन ये अपने अपने सुरक्षा के घेरे में सुकून से "साहित्य चर्या"में लीन हैं,इसी ख़ूनी सरकार के लोहे के पंजे के कविता संग्रह के क़सीदे पढ़ रहे हैं.क्या इन्हें माफ़ किया जा सकता है ?मत भूलिए कि जो समाज की बड़ी बड़ी बातें करते हैं उनका उतना ही पतन होता है.यह हमारे ही वक़्त की बदनसीबी है कि "गोली दागो पोस्टर" का रचनाकार उसी दारोग़ा के साथ है जिसके उत्पीड़न पर उसने सवाल उठाया था.ये वही अरुण कमल हैं जिन्हों ने लिखा था :"जिनके मुंह मॆं कौर मांस का उनको मगही पान". बाक़ियों की तो बात ही छोड़िए.
तो भी,मैं तुम दोनों को इस बात पर ज़रूर बधाई देना चाहता हूं कि इस चौतरफ़ा ख़ामोशी और गिरावट के माहौल में तुम दोनों ने इस ज़रूरी मुद्दे को उठाया है हालांकि चोट हलकी है साथियो,बहरों को सुनाने के लिए ज़ोरदार धमाका चाहिये.
अन्त में अपने एक प्रिय कवि का कवितांश जिसे हम अब धीरे-धीरे भूल रहे हैं :
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दु:खों के दाग़ों को तमग़े सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्य किया,
जीवन क्या जिया!!
................
भावना के कर्तव्य त्याग दिये,
हॄदय के मन्तव्य मर डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ ही उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए फंस गये,
अपने ही कीचड़ में धंस गये !!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में,
आदर्श खा गये.
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम !
बहस की पुरानी कड़ियाँ पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ
शायद ऐसे ही (राजेन्द्र यादव सरीखे) लोगों के लिए किसी ने ठीक ही लिखा है -
ReplyDeleteऐसी लचीली रीढ़ की हड्डी जो हवा के रुख पर अपनी पीठ बदल ले । शहर में रहने वाले ये बुद्धिवादी दो टांगोँ वाले ऐसे कीड़े - मकोड़े हैं , जो मौसम देखकर ही सैर को निकलते हैं ।
बेहतर हो कि आप राजेन्द्र यादव और अरूंधती राय का स्टैण्ड लेकर प्रकाशित करें।
ReplyDeleteसबसे पहले जब आलोक मेहता के बिकने की खबर आई थी तो हैरत के साथ-साथ यह संदेह भी जताया गया था कि सत्ता द्वारा पूरे खेल में कई और मोहरों को भी आगे किया जा सकता है. मगर यहाँ तो उसके द्वारा बड़े-बड़े महारथियों को मोहरों की तरह खड़ा किया जा रहा है. अच्छे अच्छों के चाल चरित्र में आ रहा अचानक बदलाव किसी गहरी साजिश की तरफ़ संकेत कर रहा है. कहीं सत्ता द्वारा राजनेताओं कि तरह अब बुध्दिजीविओं की भी बड़े पैमाने पर ख़रीद फरोख्त तो नहीं की जा रही है ?
ReplyDeleteनीलाभ सही कह रहे हैं…आप देखिये न यहां भी स्टैण्ड कौन ले रहा है?
ReplyDeleteबढिया। जुबानी जमाखर्च अच्छा है। लेकिन विश्वदीपक, अजय और नीलाभ जी, आप सभी बहुत बेहतर ढंग से जानते हैं कि ऐसे छुटपुट लेखों को राजेन्द्र जी अपने काले चश्मे के कारण ठीक से पढ नहीं पाते। जिस तेज आवाज की आप बात कर रहे हैं वह राजेन्द्र जी को कार्यक्रम स्थल पर ही सुनाई दे पायेगी। सुना है कानों के कच्चे भी हैं। सत्ता ऐसे आयोजन करती रहेगी तो जन को भी उनके विरोध में उठ खडा होना होगा।
ReplyDeleteअपील कीजिए समानधर्मा, समानचेता पत्रकार, लेखकों से कि कार्यक्रम वाले दिन धरना दें और राजेन्द्र जी को इस (कु)कृत्य के लिए माफी मांगने पर विवश करें। यह उनका निजी आयोजन नहीं है, हंस की प्रतिबद्धता भी साबित होनी चाहिए। अगर राजेन्द्र जी अपनी गलती नहीं मानते हैं तो वहीं प्रस्ताव धर लिया जाए।
नीलाभ जी, आपके प्रिय कवि को ही याद करते हुए
"सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !
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..........
इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में
मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !ओ"
sachin ne theek kaha, lekin baat dharne vaghairah se aur aage ki hai. jo kutil jal ve rach rahe use klatne ki aur bhi tarkeeben sochni hongi -- yaad keejiye
ReplyDeleteउधर उस ओर...वह बेनाम.. मुहैय्या कर रह लश्कर. हमारी हार का बद्ला चुकाने आयेगा
Bhai Maamla vaakai gambhir hai.
ReplyDeleteBahas karne ke pahle aajkal niyat dekhni jaroori jaan padhti hai.
Kab koun kaha kaise bik jaye ko bharosha nahi hai.
Vakai jaroori aur buniyadi mudda uthaya gaya hai. badaai.
magar badhai se baat nahi banegi. ladaai jaroori hai.
Nayan Jyoti. Mumbai se
Vishv Ranjan Jaise 2 kOUDI kE AADMI KO aRUNDHATI rOY kE sAMANE kHADA kARNE kA Kya Matlab Tha. Chidambaram hota to bhi baat theek thee.
ReplyDeleteYah rajendr jee ne soch bhi kaise liya tha. Tajjub kee baat hai.
Jaroor kuch lafda hai.
रंगनाथ सिंह ने जो सलाह दी है, अगर उस पर गौर किया जाता तो इससे कोई छोटा नहीं हो जाता। यह किसी भी मसले पर सही स्टैंड लेने के लिए एक जरूरी पहलू होता है। सुनी-सुनाई बातों पर स्टैंड लेने वाले संचार क्रांति के नायकों का हश्र हमने भी खूब देखा है।
ReplyDeleteविश्वरंजन को मंच मुहैया कराना सचमुच एक अपराध जैसा ही है, लेकिन अरुंधति राय ने हंस की गोष्ठी में आने का फैसला सार्वजनिक करने से पहले अगर राजेंद्र यादव से एक बार बात कर ली होती, तो इससे किसी का कद नहीं छोटा हो जाता।
बल्कि एक महत्त्वपूर्ण शख्सियत के रूप में अरुंधति राय की विश्वसनीयता में इजाफा ही होता।
अभी तक इस मसले पर राजेंद्र यादव की राय कहीं भी पढ़ने को नहीं मिली।