Aug 2, 2011

पंजाब में आन्दोलनकारी किसान की मौत

 हिमांशु कुमार

पंजाब सरकार के बर्बर हमले से कल यानी 2 अगस्त को एक किसान सुरजीत सिंह शहीद हो गए. पुलिस ने उन्हें लाठियों से पीटकर मार डाला. पंजाब के मानसा जिले के ग्राम गोविन्दपुरा गाँव में राज्य सरकार द्वारा एक कंपनी के लिए किये जाने वाले अवैध भूमि अधिग्रहण का विरोध करने के लिए 2 अगस्त को किसानो ने रैली करने का प्रयास किया था.

सरकार ने किसानो के इस अहिंसक आन्दोलन को कुचलने के लिए भयंकर लाठीचार्ज किया, जिसमें लगभग पचास किसान बुरी तरह घायल हुए और एक किसान कार्यकर्ता सुरजीत सिंह की मौत हो गयी.  

गौरतलब है कि पंजाब के गोविन्दपुरा गाँव में थर्मल पावर प्लांट लगाने के नाम पर किसानो की 880 एकड़ सिंचित भूमि को पंजाब सरकार अवैध तरीकों से बलपूर्वक लेने की कोशिश कर रही है. पोना नामक कंपनी के लिए किसानो की इन ज़मीनों को लेने से पहले प्रशासन ने किसानो को कोई नोटिस नहीं दिया. किसानो का आरोप है कि सत्ता दल के नेताओं ने पोना नामक कंपनी के साथ मिलीभगत कर के उनकी ज़मीन को कंपनी के नाम कर दिया है.

इस वर्ष 21 जून को कंपनी के लोग पंजाब के 6 जिलों से जमा किये गए बड़े पुलिस बल के साथ जब इस ज़मीन पर कांटेदार तार लगाने पहुंचे तो उन्हें महिलाओं और किसानो के बड़े विरोध का सामना करना पड़ा था. 24 जुलाई को पुलिस ने इस गाँव पर हमला किया और घरों में सोये हुए 450 किसानो को ले जाकर जेल में डाल दिया. ये किसान अभी भी जेल में ही बन्द हैं.

पंजाब के 17 मजदूर किसान संगठनो ने इस अवैध भूमि अधिग्रहण और सरकारी दमन के विरोध में 2 अगस्त को ' गोविन्दपुरा चलो ' रैली की घोषणा की थी. किसानो की इस शांतिपूर्ण रैली को रोकने के लिए पंजाब सरकार ने सुबह से ही किसान नेताओं को घरों में सोते समय ही पकड़ लिया था.

प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र

रोजी-रोटी अधिकार अभियान आगाह करता है कि देश में संगठित रिटेल के प्रवेश का रास्ता तैयार करने के लिए जानबूझकर पीडीएस व्यवस्था खत्म की जा रही है...

प्रिय डॉ सिंह,

रोजी रोटी अधिकार अभियान. जैसा कि आप जानते हैं हाल ही में मंत्रियों के सशक्त समूह-ईजीओएम ने खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के विभाग द्वारा तैयार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक-एनएफएसबी के मसौदे को मंजूरी दी है। सरकार का दावा है इसे अब कैबिनेट के सामने रखा जाएगा। विधेयक का यह ड्राफ्ट सभी को खाद्य सुरक्षा देने के विचार का पूरा मखौल उड़ाता है और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से मिली वर्तमान हकदारियों को भी छीनता है।

गरीबी रेखा की असफलता के तमाम प्रमाणों के बावजूद इस ड्राफ्ट में भी गरीबी रेखा से ऊपर और नीचे रखने वालों के बीच स्पष्ट विभाजन जारी है। यह गरीबी रेखा इतनी कम है कि देश में भूख के विस्तार को प्रदर्शित नहीं करती है। इस मामले में लोगों की पहचान और उनके वंचित रह जाने से जुड़ी समस्याएं जगजाहिर हैं।

रोजी-रोटी अधिकार अभियान पीडीएस को खत्म करने और इसके स्थान पर कैश ट्रांसफर का कड़ा विरोध करता है...
बन्दा  जिले का एक गाँव : अन्न मांगता   भारत

किसानों और खाद्य सुरक्षा पर कैश ट्रांसफर का असर-हमारा मानना है कि राशन के स्थान पर पैसा बांटने से न केवल परिवारों की खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी बल्कि खाद्यान्न के उत्पादन,खरीद और संग्रह की व्यवस्था पर भी इसका बुरा असर पड़ेगा। चूंकि राशन की दुकानें नहीं चलानी पड़ेगी इसलिए सरकार अनाज की बड़े पैमाने पर खरीद नहीं करेगी। इससे किसान सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल पाएगा जो फिलहाल अनाज पैदा करने के पीछे सबसे बड़ा प्रोत्साहन है। अपने अनाज की बिक्री के लिए किसान बाजार के हवाले कर दिए जाएंगे जहां उन्हें बहुत कम भाव पर भी उपज बेचनी पड़ सकती है। ऐसे में एफसीआई को भी अब जितने गोदामों की जरूरत नहीं होगी और धीरे-धीरे यह भी एक महत्वहीन व्यवस्था बनकर रह जाएगी। यह राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा के अंत की ओर जाने वाला रास्ता है।

रोजी-रोटी अधिकार अभियान आगाह करता है कि देश में संगठित रिटेल के प्रवेश का रास्ता तैयार करने के लिए जानबूझकर पीडीएस व्यवस्था खत्म की जा रही है। खाद्यन्न की उपलब्धता सुनिष्चित किए बगैर जनता को बाजार के हवाले कर देना खाद्य असुरक्षा को बढाने वाला कदम साबित होगा। खाद्यान्न के बदले कैश देने को हम रिटेल कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश-एफडीआई की सीमा बढ़ाने के आपकी सरकार के फैसले से जोडकर देखते हैं। कोई षक नहीं है कि पूरी तरह बाजार पर आधारित वितरण प्रणाली ज्यादा खतरनाक साबित होगी।

बच्चों,महिलाओं और वंचित समूहों से संबंधित अन्य सभी प्रावधानों के मामले में भी प्रस्तावित विधेयक अत्यंत निराशाजनक है। छह महीने तक 1,000रुपये महीना मातृत्व अनुग्रह के तौर पर देना, एनएसी का एक जरूरी सुझाव था, जिसे छोड़ दिया गया है। कुपोषित बच्चों, स्कूल से वंचित बच्चों, प्रवासी मजदूरों, भुखमरी से होने वाली मौतों, बेसहारा लोगों का पेट भरने और सामुदायिक रसोई से जुड़े महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटा दिया गया है या फिर कमजोर कर दिया गया है। ऐसा लगाता है कि यह ड्राफ्ट पके हुए भोजन की जगह पहले से बने खाने की शुरुआत का अवसर दे रहा है तभी तो पके हुए भोजन को पके हुए पोषक और तुरंत खाने योग्य भोजन के तौर पर परिभाषित किया गया है। इस प्रकार ठेकेदारों और कंपनियों के लिए रास्ता तैयार हो रहा है।

वास्तव में,यह पूरा विधेयक व्यय सीमित करने, जिम्मेदारी को नकारने और मौजूदा वितरण प्रणाली को तबाह करने के असली सरकारी उद्ेश्यों का खुलासा करता है। धन की कमी एक बहाना बनाकर सरकार एक व्यापक कानून लाने में आनाकानी नहीं कर सकती खासकर जबकि सरकार हर साल 5 लाख करोड रूपये का टैक्स विभिन्न प्रकार कर कर छूट के जरिए उद्योग जगत और व्यक्तिगत करदाताओं पर छोड रही है। हैरानी की बात है कि इस राषि का पंचावा हिस्सा भी सरकार देष की खाद्य सुरक्षा सुनिष्चित करने के लिए खर्च करने को तैयार नहीं है।
सरकार की ओर से कृषि की उपेक्षा ने कृषि संकट को जन्म दिया है और लाखों लाचार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। आज 650 लाख टन से ज्यादा अनाज देष भर के एफसीआई गोदामों में रखा है या फिर गोदामों की कमी के चलते खुले में सड रहा रहा है। ऐसी स्थिति में सरकार सभी को सस्ता राषन नहीं देने के लिए अनाज की कमी का तर्क नहीं दे सकती है।

पीडीएस वितरण को छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, उड़ीसा आदि राज्यों के सफल प्रयोग के आधार पर पूरे देष में मजबूत किया जाना चाहिए।

रोजी-रोटी अधिकार अभियान सरकार के ड्राफ्ट खाद्य सुरक्षा विधेयक को अस्वीकार करने के लिए देषव्यापी आंदोलन का आवाहन करता है एवं मांग करता है कि एक व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून बने जिसमे उत्पादन से लेकर वितरण तक जनहित के पहलुओं को ध्यान में रखा जाए।

नई दिल्ली, 2 अगस्त




कायर सत्याग्रही और दमनकारी सरकार

अन्ना हजारे द्वारा  भ्रष्टाचारियों के मांस को गिद्धों -कुत्तों को खिलाने के आह्नान से लेकर बाबा रामदेव के ऊलजलूल बयानों और राजघाट पर भाजपाइयों के नाच तक,सत्याग्रह के विचार और तरीके के अवमूल्यन की पराकाष्ठा देखने को मिलती है...

प्रेम सिंह

पक्ष चाहे सरकार का हो या सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों का, भ्रष्टाचार-विरोध को लेकर दिल्ली में पिछले कुछ महीनों से जो दृश्य जारी है उसमें संगति कम और बेतुकापन ज्यादा दिखाई देता है। उससे भ्रष्टाचार मिटने वाला नहीं है। बात-बात पर और पहले ही दिन से आमरण अनशन पर बैठ जाने और सरकार या सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक के कानून बन जाने से भ्रष्टाचार पर लगाम भी नहीं कसी जा सकेगी। इस हकीकत के कई उदाहरण भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के दौरान ही देखने को मिलते हैं।

उनमें एक उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार का है। राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन पूरी तरह से भ्रष्टाचार का खेल बन जाने पर भी देश के प्रधानमन्त्री  से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री तक चुप्पी मारे रहे। जब घड़ा खेल होने से पहले ही पफूट गया तो प्रधनमंत्री ने डेमेज कंट्रोल के लिए आनन-फानन में जांच के लिए शुंगलु समिति नियुक्त की। शुंगलु समिति की रपट में दिल्ली की मुख्यमंत्री और राज्यपाल की भूमिका पर सीधे सवाल उठाए गए हैं। वैसे भी इतना बड़ा और खुला घोटाला मुख्यमंत्री और राज्यपाल की आंख बचा कर हो ही नहीं सकता था।

लेकिन दिल्ली मुख्यमंत्री ने शुंगलु समिति की रपट की ही जांच करा डाली है। होना तो यह चाहिए था कि शुंगलु समिति का गठन करने वाले प्रधनमंत्री को रपट आने के तुरंत बाद मुख्यमंत्राी और राज्यपाल की भूमिका पर जांच बिठानी चाहिए थी। आप गौर कर लें, भ्रष्टाचार का यह खेल  इंडिया अंगेस्ट करप्शन की नाक नीचे हुआ है, लेकिन इंडिया अंगेस्ट करप्शन के बांकुरे विरोध् के किसी भी मंच अथवा स्थल पर नहीं पहुंचे। न ही अपने मंच से कोई विरोध् किया। क्या वे बता सकते हैं उनका लोकपाल इस मामले में क्या करेगा?

स्पैक्ट्रम 2घोटाले में फंसे डी राजा ने अदालत में बयान दिया है कि जो हुआ पीएम,एफएम, केबिनेट और टेलकॉम मंत्रालय के आला अधिकारीयों  की जानकारी और सहमति से हुआ। टीम हजारे का लोकपाल किस-किस को फांसी पर चढ़ाएगा?कांग्रेस राजा के बयान को आरोपी का बयान कह कर खारिज कर सकती है,लेकिन कौन नहीं जानता मामला अगर एफडीआई का हो तो सहमति होगी, भले ही उसमें संवैधानिक प्रावधनों का कितना भी उल्लंघन और कितना भी भ्रष्टाचार होता हो। जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति के आने पर भारत की सुरक्षा व्यवस्था निरर्थक हो जाती है,उसी तरह एफडीआई के आने पर भारतीय संविधन निरर्थक हो जाता है। एफडीआई और भ्रष्टाचार नाभि-नाल जुड़े हैं।

सगुण विरोध् की जगह केवल निर्गुण विरोध् निरी हवाबाजी है,और हवाबाजी से भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता। लाख बचाने की कोशिशों के बावजूद किसी डी राजा या किसी कलमाडी के फंस जाने पर जिन भले लोगों को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलती नजर आने लगती है, उन्हें गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा कि अगर भ्रष्टाचार मिटाना है तो उसके लिए वास्तव में क्या करना होगा। वह कर्तव्य नवउदारवादी लूट पर कायम शाइनिंग इंडिया के ‘आदर्श’ पर तय नहीं किया जा सकता। उसके बाहर छूटे भारत के यथार्थ से वह तय होगा। मुक्तिबोध् ने पूछा था, ‘कामरेड आपकी पॉलिटिक्स क्या है?’ तय तो होना चाहिए आप किस जमीन पर खड़े होकर बहस कर रहे हैं।

गाँधी ने हिंसा,विग्रह और शोषण से ग्रस्त अधिनिक  औद्योगिक व्यवस्था में दमन और अत्याचार का प्रतिकार करने और अंततः उसे बदलने के उद्देश्य से दक्षिण अप्रफीका में सत्याग्रह के तरीके का संधन किया था। देश की आजादी के संघर्ष में उन्होंने सत्याग्रह और सिविल नापफरमानी के तरीके का उपयोग कियाऋ गोकि आजादी के संघर्ष में सशस्त्रा और भूमिगत क्रांतिकारी तरीके भी उपयोग में लाए गए थे और बलिदान की कसौटी पर उनकी सार्थकता कम नहीं थी। खुद गाँधी ने 1942में ‘करो या मरो’ का नारा दिया था जिसमें देश के हर नागरिक से उपनिवेशवादी सत्ता के जुझारू प्रतिरोध् का आह्नान था। आजाद भारत में डॉ. राममनोहर लोहिया ने गांध्ी की अन्याय के प्रतिकार की सत्याग्रह और सिविल नापफरमानी की कार्यप्रणाली को दुनिया की अभी तक की सबसे बड़ी क्रांति बताया।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचारियों के मांस को गिद्धों -कुत्तों को खिलाने के आह्नान से लेकर बाबा रामदेव के ऊलजलूल बयानों और राजघाट पर भाजपाइयों के नाच तक,सत्याग्रह के विचार और तरीके के अवमूल्यन की पराकाष्ठा देखने को मिलती है। जिस तरह से अस्सी और नब्बे के दशकों में र्ध्मनिरपेक्षता के पद ने चौतरपफा ठोकरें खाईं और अपना अर्थ गंवा दिया, वही हालत इध्र सत्याग्रह पद की बन गई है।

अगर आजादी के संघर्ष के नेताओं की अपनी और उनके बारे में उपनिवेशवादी सत्ता की लिखतें हमारे सामने नहीं होतीं तो नई पीढ़ियों को यही लगता कि भारत में शुरू से ही बकवादियों का बोलबाला रहा है। लोग यही मानते कि गांध्ी और उनका सत्याग्रह भी वैसा ही तमाशा थे जैसा जंतर-मंतर,रामलीला मैदान और राजघाट पर देखने को मिलता है। जिसमें कोई हिंसक ललकार दे रहा है,कोई जनाना कपड़ों में रात के अंध्ेरे में छिप कर भाग रहा है,कोई सत्ता की सूंघ से मतवाला होकर नाच रहा है।

हम यह नहीं कहते कि पूर्व प्रचलित पदों-अवधरणाओं और तरीकों का मौजूदा संदर्भों में नवोन्मेषकारी अर्थ व प्रयोग नहीं हो सकताऋ बल्कि वह होना चाहिए। लेकिन अपने स्वार्थवश या अपनी कमजोरियों पर परदा डालने के लिए उनका रूप बिगाड़ देना उनके आविष्कर्ताओं को लांछित करने के साथ संघर्ष की परंपरा और संवैधानिक मूल्यों के प्रति द्रोह है। नवउदारवाद के हमाम में जो हालत र्ध्मनिरपेक्षता की हो चुकी है,वही गांध्ी और सत्याग्रह की होने जा रही है।

दिल्ली से खदेड़े जाने के अगले दिन जब रामदेव का टीवी पर हरिद्वार से प्रसारण आया तो मेरे 14 साल के बेटे ने कहा कि बाबा तो बुरी तरह डर गया है। दुनिया को स्वास्थ्य और शक्ति के नुस्खे बांटने वाले रामदेव चार दिन के अनशन में बेहाल हो गए। नुस्खे वे आध्यात्मिकता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के भी बांटते हैं। लेकिन भोगियों के इस योगी में न आध्यात्मिक शक्ति का लेश निकला न शारीरिक शक्ति का। वह दरअसल उनमें कभी थी ही नहीं। आपको याद होगा,कुछ साल पहले उनके कारखाने में बनने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता और काम करने वाले मजदूरों के शोषण पर सवाल उठे थे। बाबा हल्की पेंदी के तवे की तरह गरम हो गया था और अनर्गल प्रलाप करने लगा था। नवउदारवाद की प्रयोगशाला में ऐसे ही योगी ढलते हैं।


दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक और राजनितिक -सामाजिक मसलों के लेखक.
 
 
 
 
 
 
नोट : प्रकाशित लेख 'नवउदारवाद की प्रयोगशाला में भ्रष्टाचार' का एक हिस्सा है. पुरे लेख को पढने के लिए दाहिनी तरफ ऊपर देखें.