शादियों में सबके अपने कोने होते हैं और हर कोई अपने परिचितों—दोस्तों
के साथ किसी न किसी टॉपिक पर लगा रहता है। मुझे भी एक कोने में जगह मिली और
कुछ लोग वहां एक हॉट सामाजिक सवाल पर लगे हुए थे। सवाल बिल्कुल समय से था
और वास्ता उसका सबसे था।
टॉपिक था मोबाइल में पासवर्ड डालना सही है या गलत, नैतिक है या अनैतिक। और क्या जो लोग अपनी मोबाइल में पासवर्ड डालते हैं उन्हें संदेहास्पद माना जाए, अनैतिक कहा जाए। क्या मोबाइल पासवर्ड को डिजिटल चरित्र प्रमाण पत्र के तौर पर लिया जाए!
देर तक इस मसले पर बहस होती रही। सबने अपने अनुभव और समझदारी की बातें कीं। बहस कर रहे लोगों ने एक स्वर में माना भी कि जो पासवर्ड डालते हैं, वह संदेहास्पद होते हैं।
टॉपिक था मोबाइल में पासवर्ड डालना सही है या गलत, नैतिक है या अनैतिक। और क्या जो लोग अपनी मोबाइल में पासवर्ड डालते हैं उन्हें संदेहास्पद माना जाए, अनैतिक कहा जाए। क्या मोबाइल पासवर्ड को डिजिटल चरित्र प्रमाण पत्र के तौर पर लिया जाए!
देर तक इस मसले पर बहस होती रही। सबने अपने अनुभव और समझदारी की बातें कीं। बहस कर रहे लोगों ने एक स्वर में माना भी कि जो पासवर्ड डालते हैं, वह संदेहास्पद होते हैं।
बहस कर रहे ये लोग
ईमानदार किस्म के थे कि इन्होंने उदाहरण के तौर पर खुद को भी शामिल करने से
गुरेज नहीं किया। माना कि वे सभी खुद भी पासवर्ड डालते हैं और सबको भाई,
बाप, दोस्त , पति , पत्नी, प्रेमी, प्रेमिका से कुछ न कुछ छुपाना होता
है। एक ने तो यह भी कहा कि वह इसलिए पासवर्ड डालता है क्योंकि उसका बॉस
इधर—उधर टहलते हुए किसी का फोन उठाकर देखने लगता है।
हमारी सरकार और पार्टियां भले ही जनता को किसी और सामाजिक मसले की ओर खींचकर ले जाएं लेकिन आप भी मानेंगे कि आजकल मोबाइल में पासवर्ड का सवाल एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक विमर्श का विषय बना हुआ है। कोई ऐसी सार्वजनिक जगह नहीं जहां युवा आपको ऐसी बातें करते न दिख जाएं।
लेकिन आप इस सवाल पर सोचें और कुछ राय दें उससे पहले बात यह कि पासवर्ड डालना ही क्यों है? यह समस्या बनी ही क्यों? किसी और कि मोबाइल, कोई और छूता ही क्यों है, किस नैतिक साहस के साथ देखता है, उसे चेक करता है। थोड़ी भी शर्म नहीं आती ऐसे लोगों को। फिर वह क्यों रहते हैं एक साथ, एक छत के नीचे या क्यों खाते हैं कसमें एक—दूसरे के संग होने की, जीने की। इतना न्यूनतम विश्वास एक दूसरे के लिए हमारे में नहीं बचा है फिर हम बराबरी और भरोेसे का समाज बना कैसे सकते हैं।
पर इन सबके बीच सबसे घातक तो यह है कि जिसकी मोबाइल चेक हो रही है वह भी और जो चेक कर रहा है वह भी, इस घटिया हरकत को महान भारतीय परंपरा की मान रहा है। वह प्राइवेसी जैसे किसी मानवाधिकार या अधिकार को समझता ही नहीं है। वह इस खेल में खुद को भागीदार बना रहा है पर इस वाहियात हरकत पर नफरत या विरोध में दो शब्द नहीं दर्ज करा पा रहा। हालत यह है कि जब जिसको मौका मिलता है, वह चेक कर लेता है। इस मामले में सभी आरोपी हैं और सभी पीड़ित। कभी जो आरोपी है वह पीड़ित बन जाता है और कभी पीड़ित, आरोपी।
हमारे भीतर इतनी जनतांत्रिक चेतना और भरोसा का बोध नहीं है कि हम बुलंद हो बोल सकें कि प्राइवेसी भी कोई चीज होती है भाई।
मैं डिजिटल होते समाज का इसे एक बड़ा सवाल मानता हूं क्योंकि इससे समाज तकनीकी से तो आधुनिक हो रहा है पर चेतना के स्तर पर हमारी समझ पुरानी, दकियानूस और डिक्टेट करने वाली बनी हुई है। इस समझदारी के रहते चाहे हम इंसान ही डिजिटल क्यों न बना लें पर हम अपने देश और समाज को बराबरी, सहजता और सम्मान वाला कभी न बना पाएंगे। #hamtobolenge
हमारी सरकार और पार्टियां भले ही जनता को किसी और सामाजिक मसले की ओर खींचकर ले जाएं लेकिन आप भी मानेंगे कि आजकल मोबाइल में पासवर्ड का सवाल एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक विमर्श का विषय बना हुआ है। कोई ऐसी सार्वजनिक जगह नहीं जहां युवा आपको ऐसी बातें करते न दिख जाएं।
लेकिन आप इस सवाल पर सोचें और कुछ राय दें उससे पहले बात यह कि पासवर्ड डालना ही क्यों है? यह समस्या बनी ही क्यों? किसी और कि मोबाइल, कोई और छूता ही क्यों है, किस नैतिक साहस के साथ देखता है, उसे चेक करता है। थोड़ी भी शर्म नहीं आती ऐसे लोगों को। फिर वह क्यों रहते हैं एक साथ, एक छत के नीचे या क्यों खाते हैं कसमें एक—दूसरे के संग होने की, जीने की। इतना न्यूनतम विश्वास एक दूसरे के लिए हमारे में नहीं बचा है फिर हम बराबरी और भरोेसे का समाज बना कैसे सकते हैं।
पर इन सबके बीच सबसे घातक तो यह है कि जिसकी मोबाइल चेक हो रही है वह भी और जो चेक कर रहा है वह भी, इस घटिया हरकत को महान भारतीय परंपरा की मान रहा है। वह प्राइवेसी जैसे किसी मानवाधिकार या अधिकार को समझता ही नहीं है। वह इस खेल में खुद को भागीदार बना रहा है पर इस वाहियात हरकत पर नफरत या विरोध में दो शब्द नहीं दर्ज करा पा रहा। हालत यह है कि जब जिसको मौका मिलता है, वह चेक कर लेता है। इस मामले में सभी आरोपी हैं और सभी पीड़ित। कभी जो आरोपी है वह पीड़ित बन जाता है और कभी पीड़ित, आरोपी।
हमारे भीतर इतनी जनतांत्रिक चेतना और भरोसा का बोध नहीं है कि हम बुलंद हो बोल सकें कि प्राइवेसी भी कोई चीज होती है भाई।
मैं डिजिटल होते समाज का इसे एक बड़ा सवाल मानता हूं क्योंकि इससे समाज तकनीकी से तो आधुनिक हो रहा है पर चेतना के स्तर पर हमारी समझ पुरानी, दकियानूस और डिक्टेट करने वाली बनी हुई है। इस समझदारी के रहते चाहे हम इंसान ही डिजिटल क्यों न बना लें पर हम अपने देश और समाज को बराबरी, सहजता और सम्मान वाला कभी न बना पाएंगे। #hamtobolenge