अरिंदम के एक या दो लेखों में ऐसा होता तो इसे इत्तेफाक कहकर छुटकारा मिल जाता, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है. वे लगातार ऐसे मुद्दों पर लिख रहे है,जिन्हें लिखने पर भारत में आप सहज ही सरकार-संविधान-राष्ट्र विरोधी घोषित किये जा सकते हैं...
विष्णु शर्मा
ताज्जुब है कि इतनी तीखी और सच्ची बात लिखने पर भी सरकार अरिंदम चौधुरी को अब तक बर्दाश्त कैसे कर रही है? प्रोफेसर चौधुरी, जो प्लानमैन ग्रुप ऑफ कम्प्नीज के संस्थापक और दी सन्डे इंडियन के प्रधान संपादक हैं,को क्यों सरकार माओवादी कहकर किसी कुख्यात दफा में आजीवन कारावास नहीं दे देती! वे उन चंद उद्योगपतियों (शायद वे अकेले ही है) में से हैं, जिन पर लक्ष्मी का वाहन उल्लू की पुरानी भारतीय कहावत असर नहीं करती. उनके लेखों,खासकर दी सन्डे इंडियन के सम्पादकीय में, भारतीय जनमानस की भावना को लगातार स्थान मिलता है.
वे उन विचारों को व्यक्त करने में भी नहीं झिझकते, जिनके बारे में लिखने की कल्पना बहुत से जनपक्षधर लेखक कर तो सकते है, लेकिन लिखने का साहस नहीं जुटा पाते. उन्हें पढ़ते हुए आश्चर्य होता है कि एक उद्योगपति जिसका दिल्ली के सीआर पार्क जैसे पाश इलाके में आलीशान मकान हो, जिसके सामने ढेरों गार्ड पहरेदारी करते हों , वह आम जनता के सरोकार को इतनी संवेदनशीलता से कैसे रख सकता है.
यदि अरिंदम के एक या दो लेखों में ऐसा होता तो इसे इत्तेफाक कह कर छुटकारा मिल जाता, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है. वे लगातार ऐसे मुद्दों पर लिख रहे है जिन्हें लिखने पर भारत में आप सहज ही सरकार-संविधान-राष्ट्र विरोधी घोषित किये जा सकते हैं! और यदि आप इस तरह के लेखों का व्यापक प्रसार किसी भारतीय भाषा में करते हैं तो जेल जाना आपकी नियति है. अरिंदम चौधुरी तो एक कदम आगे बढ़ कर भारत की चौदह भाषाओं में एक साथ इस तरह के लेखों को प्रकाशित करते है, बढ़ावा देते है!
मार्च 2011 में अरिंदम चौधुरी ने राजद्रोह कानून पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए लिखा ‘यह बड़े शर्म की बात है कि आज भी हम औपनिवेशिक अतीत और उस दौर के पक्षपाती कानूनों के चंगुल से खुद को बाहर नहीं निकाल पाए हैं,जिनका मकसद लोगों को सरकार चलाने वाले चुनिंदा लोगों के तलवे चाटने पर मजबूर करना है.’ पेशे से अर्थशास्त्री कहलाना पसंद करने वाले प्रोफेसर चौधुरी सार्वजनिक जीवन में सरकार की हिस्सेदारी को जरुरी मानते है.वे अंधाधुन्ध निजीकरण के खिलाफ हैं, जिसका मकसद मुठ्ठी भर लोगों को असीमित संसाधनों का मालिक बना देना है.
11 मार्च 2011 के अपने लेख मे वे लिखते है ‘हम अजीबो-गरीब अर्थव्यवस्था हैं, जहां अरबपतियों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है,जबकि हमारे पास अरब डॉलर वाला शायद ही कोई वैश्विक उत्पाद है. ऐसी अजीब,गूढ़ और अद्भुत बात- जहां बगैर किसी वैश्विक उत्पाद के ही अरबों बनाए जा रहे हों- यह केवल भारत में ही संभव है.’
11 मार्च 2011 के अपने लेख मे वे लिखते है ‘हम अजीबो-गरीब अर्थव्यवस्था हैं, जहां अरबपतियों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है,जबकि हमारे पास अरब डॉलर वाला शायद ही कोई वैश्विक उत्पाद है. ऐसी अजीब,गूढ़ और अद्भुत बात- जहां बगैर किसी वैश्विक उत्पाद के ही अरबों बनाए जा रहे हों- यह केवल भारत में ही संभव है.’
भूमि अधिग्रहण के सवाल पर उनका मानना है कि ‘भारत में जमीन खरीदने वाला कानून 110 साल से भी अधिक पुराना है (भूमि अधिग्रहण कानून-1894). हालांकि इस कानून में कई बार संशोधन हुए, लेकिन संशोधनों ने सरकार की जमीन हथियाने की ताकत में और इजाफा ही किया.’और ‘राजनेताओं से लेकर नौकरशाह और उद्यमी तक, सभी की निगाहें विभिन्न विकास योजनाओं पर लगी रहती हैं,ताकि मौके की जमीन का एक टुकड़ा हथियाया जा सके.’
अरिंदम माओवादी आन्दोलन को बिना समझे आतंकवाद कहकर नकार देने के खिलाफ है. 16 मई 2010 की सम्पादकीय ‘हमारी सरकारों ने मानवता के खिलाफ माओवादियों से अधिक आतंकवाद मचा रखा है’ मे उन्होंने लिखा ‘जब भारत और भारतीय मीडिया फोर्ब्स सूची में अरबपतियों की बढ़ती संख्या का जश्न मनाती है, तब ये गरीबी और भूख की वजह से अनजाने और अनसुने ही दम तोड़ रहे होते हैं. इस धारणा के उलट सरकार जिन माओवादियों को आतंकवादी बनाना चाहती है,वे गरीब परिवारों से आते हैं,जिन्हें हाशिए पर धकेल कर भूखे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. दुनियाभर में जब नेता इस तरह से बड़ी संख्या में लोगों को हाशिए पर डाल देते हैं तो वहां क्रांतियां जन्म लेती हैं.’
पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम के बाद जब सभी मीडिया घराने वाम पार्टियों की हार को वाम दर्शन की हार के रूप मे प्रस्तुत कर रहे थे, तब अपने सम्पादकीय में उन्होंने बड़े सीधे तर्कों के साथ सीपीएम की हार के कारणों पर लिखा -‘यह बंगाल में मार्क्सवाद के सात दुष्कर्म का अंत है’. उन्होंने आगे लिखा‘मार्क्सवाद के नाम पर जो कुछ भी किया गया,वह सब गैर मार्क्सवादी था, और मार्क्सवाद विचारधारा के केंद्र में रहने वाले गरीबों को ही सबसे अधिक आतंकित किया गया.उन्हीं का सबसे अधिक शोषण हुआ.’
अरिंदम मानते है कि सीपीएम ने अपने कुख्यात शासन के शुरुआती दस सालों में पूरी ईमानदारी के साथ काम किया, लेकिन वह बाद में ‘स्तालिनवादी’सोच का शिकार होकर जनविरोधी बन गई. अभी हाल में बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर हुए सरकारी जुल्म पर जिस प्रकार से उन्होंने लिखा है वह उनकी लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता को व्यक्त करता है.
‘चापलूसों की तानाशाही’शीर्षक अपनी सम्पादकीय मे उन्होंने लिखा है,‘रामलीला मैदान पर हुआ आधुनिक जालियांवाला बाग कांड, केंद्र सरकार के दानवी रवैये, विपक्ष की कमजोर रीढ़ और भारत के प्रति मीडिया के पाखंड का दर्शन कराता है!मेरा सवाल यह है कि हम किसी लोकतंत्र में रह रहे हैं या फिर गलती न मानने वाले तानाशाही शासन में? क्या सरकार नाम की कोई चीज नहीं रह गई है. या फिर वे मानते हैं कि देश के लोग मूर्ख हैं और वे चुपचाप इस तरह की तानाशाही स्वीकार कर लेंगे तथा 2014में एक बार फिर उन्हें वोट देकर सत्ता में वापस ले आएंगे?’
भारत के बड़े मीडिया संस्थानों में शायद दी सन्डे इंडियन ही एक मात्र पत्रिका है,जिसने इतने कड़े शब्दों मे रामलीला में सरकारी आतंक की निंदा की हो. बीजेपी के पूर्व अध्धक्ष लाल कृष्ण आडवाणी 1975-1977की भारतीय आपातकाल का हवाला देते हुए अक्सर कहते हैं कि ‘उस वक्त पत्रकारों को झुकने का आदेश मिला तो वो रेंगने लगेंगे.’
लेकिन आज जबकि औपचारिक तौर पर आपातकाल नहीं है,ऐसे में सरकार की तानाशाही को बिना सवाल किये स्वीकार करना लोकतंत्र में अक्षम्य है. ऐसे में अरिंदम चौधुरी की गिनती उन संपादकों में हैं जो अपने वर्ग की सीमा को तोड़ने का प्रयास करते है और लोकतंत्र पर विश्वास रखते हुए ‘लीक’ से हटकर सोच सकते है.