Mar 14, 2011

आवाम के शायर हबीब जालिब की याद में


हबीब जालिब पहली बार अय्यूब खान के सैनिक शासन में जेल गए। यह जेल अय्यूब खान की पूंजीवादी नीतियों के विरोध का सिला थी। इस दौरान जेल में उन्होंने अपनी मशहूर नज्म ‘दस्तूर’ लिखी...


सचिन  श्रीवास्तव  


यह पोस्ट कल डाली जानी थी,लेकिन वक्त की कमी और अखबारी मसरूफियत की वजह से यह हो न सका। कल हबीब जालिब की पुण्यतिथि थी। 12 मार्च 1993 को वे हमारे बीच नहीं रहे थे, लेकिन वे ऐसे शायर हैं,जिन्हें याद करने के लिए तारीखों की जरूरत नहीं।

हबीब : अवाम की आवाज
हबीब उन चंद नामों में से हैं कि कोई पूछे कि एक शायर, कवि, साहित्यिक या इंसान को कैसा होना चाहिए, तो हम बिना दिमाग पर जोर डाले जिन नामों को जवाब की शक्ल में उछाल सकते हैं,उनमें से एक नाम इस आवाम के शायर का भी है। जिन लोगों ने हबीब को पढा-सुना है वे मेरी बात से सहमत होंगे। हालांकि ऐसे लोग कम ही होंगे,जिन्होंने हबीब जालिब को नहीं पढा। फिर भी उन बदकिस्मत लोगों के लिए अफसोस के अलावा चंद बातें और कुछ नज्में।

पाकिस्तान में 24मार्च 1928 को पैदा हुए जालिब उम्र भर अपनी कविताओं के माध्यम से पाकिस्तान के सैनिक कानून, तानाशाही और राज्य की हिंसा के खिलाफ लिखते, बोलते और तकरीरें करते रहे। उम्र भर सत्ता की आंख में चुभते रहे जालिब की कविताएं पाकिस्तान की सीमा पर कर दुनिया के हर संघर्ष और सत्ता की खिलाफत करने वाले इंसान की आवाज बन गई हैं।

अंग्रेजी राज में पैदा हुए जालिब का शुरुआती नाम हबीब अहमद था। बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान का रुख कर गए और कराची से निकलने वाले डेली इमरोज में प्रूफरीडर हो गए। प्रगतिशीलता के पक्षधर जालिब ने इसी दौरान कुछ अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद किया, जिनसे वे पाठकों की नजरों में आए। उस दौर के स्थापित नामों से अलग शैली अपनाते हुए उन्हें सपाट बयानी और पाठक को संबोधित करने वाली भाषा की बुनावट में जुल्म,ज्यादती,मुफलिसी और गैर बराबरी को अपनी कविताओं का हिस्सा बनाया। अपने समय की राजनीति पर लयबद्ध कविताओं के जरिए चोट करने वाले जालिब जल्द ही आवाम के शायर हो गए थे।
पाकिस्तान की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे जालिब मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित थे और अपनी कविताओं के विषय कम्यूनिज्म की बारीकियों से ही चुनते थे। पाकिस्तान में जब कम्यूनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया गया था और इसके सदस्य राष्ट्रीय आवामी पार्टी के बैनर तले काम कर रहे थे, तब हबीब जालिब भी एनएपी के साथ जुड़ गए। इस दौरान भी हबीब जालिब के तेवर तीखे ही रहे और इसी कारण उन्हें अपना ज्यादातर समय जेल में बिताना पड़ा।

वे पहली बार अय्यूब खान के सैनिक शासन में जेल गए। यह जेल अय्यूब खान की पूंजीवादी नीतियों के विरोध का सिला थी। इस दौरान जेल में उन्होंने अपनी मशहूर नज्म ‘दस्तूर’लिखी। 1962 में जब अय्यूब खान के संविधान को पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी मुहम्मद अली ने लायलपुर के क्लॉक टॉवर से सराहा,तो हबीब ने इसके जवाब में नज्म ‘मैं नहीं मानता’लिखी। शासन के विरुध अपने तीखे तेवरों के कारण उस दौर के सरकारी मीडिया में जालिब को प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन वे झुके नहीं और अन्य मोर्चों पर निरंकुश शासन की खिलाफत करते रहे।
फातिमा जिन्ना ने जब अय्यूब खान के खिलाफ चुनाव लड़ने की तैयारी की,तो तमाम लोकतांत्रिक ताकतें उनके इर्दगिर्द इकट्ठा हो गईं  और सरकारी प्रतिबंध के बावजूद जालिब ने पूरी पाकिस्तानी आवाम के दर्द को अपनी लेखनी में उतारते हुए बड़े जनसमूहों को उस दौर में अपनी शायरी के जरिए संबोधित किया। उस दौर में उन्होंने ‘मां के पांव तले जन्नत है,इधर आ जाओ’ जैसी कविताएं भी लिखीं,जो उनकी भावुकता का चरम मानी जाती है। यूं भी जालिब को अपनी कविताएं पूरी भावुकता के साथ पढ़ने के लिए भी याद किया जाता है।

घटनाएं जालिब को शायरी के लिए किस कदर प्रभावित करती थीं, इसका एक और बड़ा उदाहरण है। यह घटना पाकिस्तान की प्रतिरोधी संस्कृति की लोकगाथाओं में भी शुमार की जाती है। हुआ यूं कि एक बार पश्चिमी पाकिस्तान (तब बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था और मूल पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान कहा जाता था)के गर्वनर से मिलने ईरान के शाह रेजा पहलवी आए। उनके मनोरंजन के लिए गवर्नर ने फिल्म कलाकार नीलू को डांस करने के लिए बुलाया। नीलू ने इससे इंकार कर दिया,तो उसे लेने के लिए पुलिस भेजी गई। जिस पर नीलू ने आत्महत्या का प्रयास किया। इस घटना पर हबीब जालिब ने कविता लिखी,जो बाद में नीलू के पति रियाज शाहिद ने अपनी फिल्म ‘जर्का’ में इस्तेमाल की। ये कविता थी- ‘तू क्या नावाकिफ-ए-आदाब-ए-गुलामी है अभी/ रक्स जंजीर पहन कर भी किया जाता है।’

जब जुल्फिकार अली भुट्टो के शासन 1972 में आने के बाद जालिब के कई साहित्यिक और राजनीतिक साथी सत्ता का लुत्फ लेने लगे और भुट्टो के साथ हो लिए। जालिब ने इस दौरान विपक्ष की भूमिका को ही पसंद किया। बताया जाता है कि एक बार जालिब भुट्टो से मिलने उनके घर पहुंचे। भुट्टो ने अपनी पार्टी में आने का न्यौता देते हुए जालिब से पूछा-‘कब शामिल हो रहे हो?’ जिस पर जालिब ने जवाब दिया-‘क्या कभी समुंदर भी नदियों में गिरा करते हैं?’तब भुट्टो ने जवाब दिया- ‘कभी-कभी समुद्र नदियों की तरफ जाते हैं, लेकिन नदियां ही उन्हें पीछे धकेल देती हैं’। अपनी शासन विरोधी कार्रवाइयों के कारण जालिब को एक बार पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, तब जुल्फिकार भुट्टो ने ही उन्हें रिहा करने का आदेश दिया था।



पत्रकार हसन अली के साथ हबीब जालिब  
 इसके बाद जनरल जिया उल हक की तानाशाही के दौरान जालिब ने लोकतांत्रिक आंदोलन में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने अपनी मशहूर कविता ‘क्या लिखना’ लिखी। जिया का अर्थ होता है, प्रकाश और जालिब इसीलिए पूछते हैं, ‘जुल्मत को जिया क्या लिखना’। जिया उल हक के शासन में ज्यादातर वक्त जालिब जेल में रहे।

1988 में जनरल जिया उल हक की हवाई दुर्घटना में मौत के बाद हुए आम चुनाव जीतकर बेनजीर भुट्टो शासन में आर्इं,उन्होंने हबीब जालिब को जेल से रिहा कराया। तानाशाही के बाद आए लोकतंत्र में कुछ लोगों को राहत मिली,लेकिन आवाम के तरफदारों के लिए यह मुसीबत का दौर था। निरंकुश तानाशाही के बाद लोकतंत्र की बयार में पाकिस्तान के कई लेखकों-शायरों के लिए वैचारिक संकट था।

अगर वे बेनजीर के लोकतंत्र की खिलाफत करते थे,तो उन्हें तानाशाही की याद दिलाई जाती थी, कि उस दौर से तो यह दौर बेहतर है। ऐसे में एक बार जालिब से पूछा गया कि वे इस लोकतंत्र में क्या बदलाव चाहते हें,तो उन्होंने अपनी एक नज्म के जरिए मुल्क पर चढ़े कर्ज और औरतों के हालात का जिक्र करते हुए जवाब दिया-हाल अब तक वही हैं गरीबों के,दिन फिरे हैं फकत वजीरों के हर ‘बिलावल’ है देश का मकरोज पांव नंगे हैं ‘बेनजीरों’ के

जालिब की कविता में उनके दर्शन और जिंदगी की करीबी सच्चाइयों को साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। वे कभी अपने रास्ते से नहीं डिगे। वे इंसान से प्यार करते थे,मजलूमों के लिए उनके दिल में हमदर्दी थी और यह उनके हर एक लिखे,बोले हर्फ में दिखाई देती है। हबीब अपने समय के उन दुर्लभ कवियों में शामिल हैं,जिनका अन्याय और क्रूरता के खिलाफ गुस्सा ताजिंदगी रचनात्मक ऊर्जा के साथ एक राजनीतिक हस्तक्षेप भी मुहैया कराता रहा। जालिम हमारे दौर के क्रूर सामाजिक ढांचे के भुक्तभोगी भी हैं। उन्हें कई बार ऐसे अपराधों में फंसाकर जेल भेजा गया, जो उन्होंने किए ही नहीं थे।

अपने आखिरी वक्त तक जालिब पाकिस्तान की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। उनकी मौत के बाद 1994 में कम्यूनिस्ट पार्टी का मजदूर किसान पार्टी में विलय हो गया, अब इसे कम्यूनिस्ट मजदूर किसान पार्टी के नाम से जाना जाता है। कम्यूनिस्ट मजदूर किसान पार्टी के दो सदस्यों शहराम अजहर और तैमूर रहमान ने उनकी याद में एक म्यूजिक वीडियो लांच किया था। जालिब के संघर्ष के रूपक को इस्तेमाल करते पाकिस्तान बैंड ‘लाल’ ने भी काफी काम किया है। 2009 में इस बैंड ने ‘उम्मीद ए सहर’ नाम से भी एक अलबम निकाला। 2009 में 23 मार्च को पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने हबीब जालिब को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार दिया।

जालिब के बारे में लिखने-पढ़ने-कहने-सुनने को इतना कुछ है कि उसे एक बार में याद नहीं किया जा सकता। फिलवक्त उनकी चंद नज्मों,गजलों का लुत्फ उठाएं। और इजाजत दें। फिर वक्त मिला तो किसी और फनकार के साथ हाजिर होउंगा। शब्बा खैर।




मेरठ से प्रकाशित दैनिक जनवाणी में फीचर संभाल रहे सचिन पत्रकारिता के साथ साहित्य में दखल रखते हैं. उनसे   chefromindia@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.


 
 

 

लीबिया के विद्रोह पर साम्राज्यवादियों की गिद्ध दृष्टि


अमेरिका अगर लीबिया में लोकतंत्र स्थापितकरने का हिमायती है तो उससे   मधुर संबंध रखने  वाले कई  देशों में राजशाही -तानाशाही है। कई देश अमेरिका के मित्र हैं जहां लीबिया से अधिक भूख,बेरोज़गारी, मंहगाई व भ्रष्टाचार है...

तनवीर जाफरी

ट्यूनीशिया तथा मिस्र के जनविद्रोह के बाद लीबिया में उपजे जनाक्रोश से ऐसा लगने लगा था कि  कर्नल मोअमार गद्दाफी भी उन  देशों के राष्ट्र प्रमुखों की ही तरह पद को त्याग कर देश छोड़ अन्यत्र चले जाऐंगे। ईरान सहित कई उन यूरोपिय देशों के नाम भी सामने आने शुरू हो गए थे जहां गद्दाफी को पनाह मिल सकती है। ऐसी ख़बरें भी आयीं   कि गद्दाफी देश छोड़ कर जाने को तैयार हैं बशर्ते   उनके परिवार के किसी भी व्यक्ति को कोई शारीरिक नुकसान न पहुंचाया जाए तथा उनकी धन संपत्ति तथा सोना- आभूषण आदि को उनके पास सुरक्षित रहने दिया जाए।

लेकिन इन खबरों की विश्वसनीयता तब संदिग्ध हो जाती है जब कभी कर्नल गद्दाफी तो कभी उनके पुत्र किसी टीवी चैनल को साक्षात्कार देते समय यह कहते सुनाई देते हैं कि -'मैं लीबिया का हूं और लीबिया में ही जिऊंगा और यहीं मरूंगा।' गद्दाफी का दावा है कि लीबिया में रह रहे तमाम अलग अलग क़बीलों के लोगों को संगठित कर एकजुट रखना केवल उन्हीं जैसे नेता के वश की बात है। बकौल गद्दाफी अगर उनकी पकड़ ढीली हुई तो देश टूट जाएगा तथा इसका हश्र बोसनिया जैसा होगा।


लीबिया में मची उथल पुथल पर नज़र डाली जाए  तो  कोई शक नहीं कि पूरे लीबिया में गद्दाफी के विरुद्ध भारी जनाक्रोश है। कारण वही हैं  भूख,बेरोज़गारी,भ्रष्टाचार,गरीबी तथा मंहगाई जो मिस्र व ट्यूनीशिया में  थे। इतना ज़रूर है कि एक प्रमुख तेल उत्पादक देश होने के कारण लीबिया की आर्थिक स्थिति अन्य इस्लामिक देशों की तुलना में काफी सुदृढ़ ज़रूर है।

 मगर  मिस्र तथा लीबिया  में एक  बड़ा अंतर है.जहां मिस्र के शासक हुस्नी मुबारक को अमेरिका का समर्थन प्राप्त था वहीं कर्नल गद्दाफी दुनिया के उन कुछेक  शासकों में हैं जो अमेरिका के विरुद्ध मुखर हैं. ऐसे में लीबिया जैसा तेल उत्पादक देश और उस देश का गद्दाफी जैसा मुखिया जो कि अमेरिका विरोधी विचारधारा रखता हो, आखिर  अमेरिका ज्य़ादा समय तक यह स्थिति कैसे बर्दाश्त कर सकता है? 
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा इस बात को लेकर चिंतित नज़र आ रहे हैं कि कर्नल गद्दाफी अपने विद्रोहियों को कुचलने के लिए सेना के साथ-साथ हवाई हमलों का सहारा भी ले रहे हैं। अमेरिका गद्दाफी द्वारा चलाए जा रहे इस दमनचक्र को रोकने हेतु जहां लीबियाई आकाश को उड़ान निषिध क्षेत्र अर्थात् (नो फलाई ज़ोन ) बनाना चाह रहा है वहीं अमेरिका यह भी चाहता है कि लीबिया में नॉटो सेना दखल अंदाज़ी करे।

ओबामा ने स्वयं पिछले दिनों यह कहा भी कि-'ब्रसेल्स में नॉटो कई विकल्पों पर विचार कर रहा है जिसमें संभावित सैन्य कार्रवाई भी एक विकल्प है। यह लीबिया में जारी हिंसा के जवाब में किया जा रहा है। हम लीबिया की जनता को स्पष्ट संदेश देते हैं कि इस अनचाही हिंसा के सामने हम उनके साथ खड़े होंगे। हम लोकतांत्रिक आदर्शों के जवाब में दमनचक्र देख रहे हैं। उधर लीबिया को नो फ्लाई   ज़ोन बनाने की बात भी  अमेरिका ने  शुरु की थी परंतु बाद में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के ऊपर यह निर्णय छोड़ दिया।

गौरतलब है गद्दाफी की सेना विद्रोहियों पर हवाई हमला भी कर रही है. विद्रोहियों व सैनिकों के बीच के इस टकराव में अब तक एक हज़ार से अधिक लोगों के मारे जाने का भी समाचार है। ऐसे में यदि लीबिया को उड़ान निषिध क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है फिर किसी भी विमान को लीबियाई आकाश पर उडऩे की इजाज़त नहीं होगी। कोई विमान लीबिया पर उड़ता नज़र आया तो अंतर्राष्ट्रीय सेना उस जहाज़ के विरुद्ध कोई भी कार्रवाई कर सकती है।

लीबिया में नॉटो की दखलअंदाज़ी के विषय में भी फैसला सुरक्षा परिषद् को ही लेना है। सवाल यह है कि लीबिया को लेकर अमेरिका की नीति कितनी स्पष्ट व पारदर्शी है। यदि अमेरिका लोकतंत्र स्थापित करने तथा विद्रोहियों द्वारा राजनैतिक सुधार लागू करने का हिमायती है तो अमेरिका के मधुर संबंध और भी तमाम ऐसे देशों से हैं जहां या तो राजशाही है या तानाशाही है। कई देश अमेरिका के मित्र हैं जहां लीबिया से कहीं अधिक भूख, बेरोज़गारी, मंहगाई व भ्रष्टाचार है।

ऐसे में अमेरिका द्वारा गद्दाफी का हटाने की जि़द क्यों?क्या सिर्फ इसलिए कि कर्नल गद्दाफी अमेरिका की कठपुतली बनकर नहीं रहते?या वास्तव में अमेरिका लीबिया के विद्रोहियों के प्रति हमदर्दी का भाव रखता है?इस मुद्दे पर स्वयं गद्दाफी का यह कहना कि पश्चिमी देशों तथा कई यूरोपीय देशों की नज़रों में लीबिया के तेल भंडार खटक रहे हैं। और इसी जन विद्रोह के बहाने यह देश लीबिया में प्रवेश करना चाह रहे हैं।
गद्दाफी की इस बात को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि 1990 से 2003 में इराक में प्रवेश करने तक अरब व मध्य-पूर्व क्षेत्र को लेकर अमेरिकी नीति को दुनिया बहुत गौर से देख रही है। इराक पर हमले के बाद तो पूरी दुनिया में अमेरिका को इसी नज़र से देखा जाने लगा है कि उसकी गिद्ध दृष्टि प्राय: तेल के भंडारों पर ही रहती है। ऐसे में गद्दाफी द्वारा अमेरिका को संदेह की नज़रों से देखना भी बिल्कुल गलत नहीं आंका जा सकता।

दूसरी तरफ समय बीतने के साथ-साथ लीबिया में गद्दाफी समर्थक सैनिकों तथा विद्रोहियों के बीच लगातार उतार-चढ़ाव तथा एक-दूसरे पर बढ़त लेने की भी खबरें प्राप्त हो रही हैं । ऐसा नहीं है कि लीबिया की शत-प्रतिशत जनता ही गद्दाफी के विरुद्ध हो। तमाम जगहों पर भारी तादाद में आम जनता भी गद्दाफी समर्थक सेना का साथ दे रही है। कई जगहों पर सेना, विद्रोहियों के कब्ज़े से कई कस्बों व शहरों को छुड़ा चुकी है। ज़ाबिया तथा रास लानुफ जैसे प्रमुख तेल उत्पादक शहर जिन पर कि पहले विद्रोहियों का कब्ज़ा था अब पुन:गद्दाफी समर्थकों व सेना के कब्ज़े में वापस आ गये हैं।

इससे यह साफ लगने लगा है कि गद्दाफी को सत्ता से हटाना उतना आसान नहीं है जितना कि दुनिया समझ रही है। परंतु साथ-साथ ऐसा भी महसूस किया जा रहा है कि शायद गद्दाफी को सत्ता मुक्त करने की जितनी जल्दी विद्रोही संगठन अर्थात् नेशनल लीबियन कौंसिल को है उससे भी कहीं ज्य़ादा जल्दी में फ्रांस जैसे देश दिखाई दे रहे हैं। संभवत:यही वजह है कि फ्रांस दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने कि एनएलसी अर्थात् नेशनल लीबियन कौंसिल को यह मान्यता दे दी है कि एनएलसी ही लीबिया वासियों का वैध प्रतिनिधित्व कर रही है।

 यह फैसला गत् दिनों फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी तथा एन एल सी के प्रतिनिधि मंडल के मध्य हुई एक बैठक में लिया गया। हालांकि यूरोपीय संघ सरकोज़ी की इस जल्दबाज़ी के पक्ष में नहीं है। यूरोपीय संघ का मानना है कि अभी लीबिया पर नज़रें रखने की ज़रूरत है तथा यह देखना ज़रूरी है कि विद्रोही कौन हैं, क्या चाहते हैं और यह वास्तव में सच्चे लीबियाई प्रतिनिधि हैं भी या नहीं। यूरोपियन यूनियन इस बात की भी पक्षधर है कि लीबिया के विषय पर अरब लीग के साथ मिलजुल कर काम किया जाए तथा उसकी सहमति से ही कोई निर्णय लिया जाए।

उपरोक्त सभी परिस्थितियों के मध्य लीबिया के ताज़ातरीन हालात यही हैं कि वहां गृह युद्ध जैसे हालात बने हुए हैं। इन्हीं हालात के परिणामस्वरूप तीन लाख से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ 6लाख विस्थापितों हेतु सोलह करोड़ बीस लाख डॉलर जुटाने की अपील भी कर चुका है। इन सब के बावजूद लीबिया पर लगभग 42वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहने वाले कर्नल गद्दाफी की पकड़ देश पर अभी भी उतनी कमज़ोर नहीं हुई है जितना कि गद्दाफी विरोधी शासक या देश उम्मीद कर रहे हैं।

वैसे भी राष्ट्रपति ओबामा चाहे लीबिया में नॉटो कार्रवाई के पक्षधर हों या वहां नो फ्लाई  ज़ोन बनाने के। परंतु राष्ट्रपति ओबामा के प्रमुख ख़ुफ़िया  सलाहकार जनरल जेम्स क्लेपर का आखिरकार  यही मानना है कि लीबिया में विद्रोहियों की जीत बहुत मुश्किल है। क्लेपर मानते हैं कि आखिरकार  जीत गद्दाफी की ही होगी। क्योंकि उनके सैनिक ज़्यादा अच्छी तरह से प्रशिक्षित हैं और उनके पास बेहतर हथियार भी हैं। साथ ही साथ न केवल गद्दाफी समर्थकों बल्कि गद्दाफी विरोधियों के मन में भी कहीं न कहीं यह बात समाई हुई है कि कहीं ऐसा न हो कि गद्दाफी को अपदस्थ करने के बहाने तथा विद्रोहियों को समर्थन देने की आड़ में अमेरिकी सेना लीबिया में प्रवेश कर जाए।

ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने से पूर्व ईरान भी अमेरिका को चेतावनी भरे लहज़े में अपना संदेश दे चुका है। कुल मिलाकर यही हालात कर्नल गद्दाफी को उर्जा प्रदान कर रहे हैं ऐसे में आसान नहीं है कर्नल गद्दाफी की बिदाई।




लेखक  हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय  मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafari1@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.




बंदियों के परिजनों की जेल में पिटाई


जनज्वार. बरेली जेल में बंद आतंकवाद के आरोपियों से मिलने गए परिजनों को पुलिस द्वारा पिटे जाने का विरोध शुरू हो  गया है.सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पाण्डेय ने जारी विज्ञप्ति में इस घटना की निंदा की है और दोषी पुलिकर्मियों पर करवाई की मांग की है. वहीं  मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल ने पुरे मामले की उच्च स्तरीय जांच की मांग करते हुए दोषी जेल और पुलिस अधिकारियों को तत्काल निलंबित करने की भी मांग की है।

पीयूसीएल के प्रदेश  संगठन सचिव राजीव यादव और शहनवाज आलम ने जारी विज्ञप्ति मे घटना के पीछे गहरी साजिश का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि चुंकि पुलिस रामपुर सीआरपएफ कैम्प पर हुए कथित आतंकी हमले में गिरतार लोंगों के खिलाफ कोई  सुबूत कोर्ट में पेश नही कर पाई है इसलिए उसने निराशा में आरोपियों के परिजनों की, जो उनसे जेल में मिलनें आये थे, आधे घंटे तक बर्बर पिटाई की। जेल में हुई इस आपराधिक घटना के दौरान बच्चों सहित कई महिलाओं को चोट आई है. 

मानवाधिकार नेताओं का आरोप है कि पुलिस आरोपियो के परिजनों को मारपीट कर उनके  मनोबल को तोड़ना चाहती है ताकि वे ठीक से पैरवी ना कर सकें। वहीं,साम्प्रदायिकता के खिलाफ काम करने वाले संगठन डिबेट सोसायटी ने भी इस पुलिसिया कार्यवाही की आलोचना की है। संगठन के नेता रवि षेखर और एकता सिहं नें सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि रामपुर सी0आर0पी0एफ0 कैम्प की घटना की सत्यता  पर शुरू से ही सवाल उठते रहें हैं।

 यहाँ तक कि प्रदेश की कचहरियों में हुए धमाकों पर जब तत्कालीन केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश  जायसवाल नें सीबीआई जांच की मांग की थी तब प्रदेश  की मुख्यमंत्री ने उन्हें पहले रामपुर की घटना की सीबीआई जांच कराने की चुनौती दी थी। इसके बाद जांच का मामला ठंडे बस्ते में चला गया।