Aug 18, 2010

छिछोरों की मुंशीगीरी में साहित्यकार लगे हैं


जनज्वार  पर हमारे खिलाफ इतना छपने के बाद   चुप्पी को देखकर वाकई कहा जा सकता है कि भारत के बुद्धिजीवी समाज के अंतर्विवेक को लकवा मार गया है। संजीव जैसे 'नारसिसस कांप्लेक्स' से ग्रस्त लेखक को पटाकर (जिन्हें मठाधीश बनने के लिए भी राजेंद्र यादव का उतारा हुआ जूता ही मिला) 'हंस' में 'जनचेतना' और 'राहुल फाउण्डेशन' पर टिप्पणी करा लें, इससे हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इसी सोच के तहत राहुल फ़ाउंडेशन, अनुराग ट्रस्‍ट, परिकल्‍पना आदि खड़े किये गये हैं और डेढ़ दशक से अपने लक्ष्‍य को साकार करते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इसे ये छिछोरे जानते हैं- मीनाक्षी, रिवोलुशनरी कोम्युनिस्ट लीग (भारत) की केन्द्रीय समिति सदस्य


शशिप्रकाश और कात्यायिनी ने तीसरा जवाब भी भेज दिया है. उसमें भी उन्होंने कमोबेश वही बातें कहीं हैं जो वह कहते आये हैं. उनका सारा संकट आकर शरीर के मध्य क्षेत्र में अटक गया है. एक  दूसरी श्रेणी उन्होंने मुंशियों, पागलों आदि की भी बना ली है, लेकिन पूछे गए किसी सवाल का जवाब नहीं भेजा है, शायद अगले जवाब में कात्यायिनी कुछ कहें. अब उन्होंने अगली रणनीति के तहत हिंदी साहित्कारों और बुद्धिजीवियों को लताड़ना शुरू कर दिया है. 


मीनाक्षी
मीनाक्षी: हिंदी में लकवा ग्रस्त बुद्धिजीवी हैं

पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग जगत के धोबीघाट पर कम्युनिस्ट आन्दोलन को कलंकित करने के लिए एक जमात अपनी समझ से कम्युनिस्ट आन्दोलन के गन्दे कपड़े धो रही है, जबकि वास्तव में वह अपने ही गन्दे कपड़ों को कछार कर अपनी कुत्सित मानसिकता को बेनक़ाब कर रही है।

इनके व्यक्तिगत आक्षेपों-आरोपों-लांछनों का जवाब देना बहुत महत्वपूर्ण नहीं होता अगर हम एक जिम्मेदार,संजीदा समय में जी रहे होते। लेकिन आज जैसे गतिरोध,विपर्यय और ठहराव-बिखराव से उपजी निराशा के दौर में गाली-गलौज को भी लोग 'बहस' का नाम देने में सफल हो जाते हैं। आज वामपंथी आंदोलन की जो हालत है,उसमें आश्‍चर्य नहीं कि कुछ बुद्धिजीवी अपने को तटस्थ दिखाते हुए भी यहाँ-वहाँ चिमगोइयाँ लेने से बाज़ न आ रहे हों। आखिर स्तालिन ने यूँ ही नहीं कहा था कि एशियाई देशों की क्रान्तियाँ झूठ-फरेब, चुगली, साज़िशों और दुरभिसंधियों से भरी होंगी।

मैं अरविन्द की कामरेड और जीवनसाथी हूँ और मुझे फ़ख़्र है कि उनके जाने के बाद भी उसी रास्ते पर अडिग हूँ जिस पर हमने साथ-साथ चलने की कसम खायी थी। आज कुछ लोग बार-बार अरविन्द, उनके संगठन और व्यक्तिगत रूप से मुझे निशाना बनाकर निहायत शर्मनाक और गन्दे आक्षेप लगा रहे हैं। कम्युनिस्ट हर समाज में तमाम तरह की गालियाँ सुनते रहे हैं और इनसे कभी विचलित नहीं होते, लेकिन अगर किसी दिवंगत साथी को इस तरह से लांछित किया जाये तो चुप नहीं रहा जा सकता।


जो लोग अरविंद के जीवित रहते उनके ख़ि‍लाफ़ घटिया से घटिया आक्षेपों और दुष्‍प्रचारों में लगे हुए थे, वही उनकी मृत्‍यु के बाद भी अरविंद को बदनाम करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे हैं। वे कह रहे हैं कि अरविंद को सज़ा के तौर पर गोरखपुर में अलग-थलग छोड़ दिया गया था, कि उनसे लोगों को बाहर निकलवाने का काम कराया जाता था, आदि-आदि।

पहला सवाल तो यह है कि क्रान्तिकारी आन्दोलन के अधिकांश लोग अरविन्द से परिचित हैं। क्या वे नहीं जानते कि अरविन्द ऐसे डोसाइल और कमज़ोर व्यक्ति नहीं थे कि उनसे उनकी मर्जी के बगैर कोई भी कुछ भी करवा सकता था।1986 में समाजवादी क्रान्ति की लाइन के दस्तावेज़ को लेकर देशभर के अनेक क्रान्तिकारी वाम संगठनों के नेतृत्व से अरविन्द ने मुलाकात की थी। फिर 1990 में मार्क्‍सवाद ज़िन्दाबाद मंच के पाँच दिवसीय सेमिनार के दौरान और विभिन्न क्रान्तिकारी संगठनों से मिलने के लिए दो बार की लम्बी यात्राओं के दौरान आन्दोलन के ज़िम्मेदार लोगों का उनसे नज़दीक से परिचय हुआ। नेपाल में हुए अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार के दौरान भी भारत और नेपाल के क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से उनके रिश्ते बने। बनारस, गोरखपुर, लखनऊ और दिल्ली में काम करते हुए और देशभर में विभिन्न आयोजनों में वे जिन लोगों से मिले, वे क्या इस बात में यकीन करेंगे कि अरविन्द ऐसे व्यक्ति थे जिनसे कुछ भी करा लिया जाये?

दूसरा सवाल। एक तथ्य रेखांकित करना ज़रूरी है कि इस जमात के अधिकांश व्यक्ति वे हैं जिन्हें पिछले 5-6 वर्षों के दौरान अलग-अलग आरोपों में खुद अरविन्द द्वारा ही निष्कासित/निलम्बित किया गया था। ये स्वतः किसी मतभेद के कारण या किसी राजनीतिक मसले के कारण अलग नहीं हुए और न ही एक साथ संगठन से गये। इनमें से कुछ तो वे हैं जो 10-12 साल पहले ही यह कहते हुए घर बैठ गये थे कि इतना कठिन जीवन हमारे बस का नहीं है। कुछ को नैतिक कदाचार के आरोप में निलम्बित किया गया था। अगर इनमें दम है तो बतायें कि नोयडा की टीम से अजय प्रकाश, प्रदीप और घनश्याम को किस वजह से निलम्बित किया गया था? अगर 'जनज्वार' के संचालक में ज़रा भी कमिटमेंट है तो उन्हें यह सब छोड़कर भारत में समलैंगिक आन्दोलन को बढ़ाने में लग जाना चाहिए।

कात्यायिनी: बहन मीनाक्षी को उतारा
मुकुल,जिसके अर्थवाद और मुंशीगीरी के विरुद्ध संगठन में लम्बे समय से संघर्ष था, वह ज़रा बताये कि तराई क्षेत्र में उसके कामों की क्या आलोचना रखी गयी थी? अगर खटीमा आन्दोलन के दौरान अरविन्द डेढ़ महीने तक वहाँ न रहे होते तो पता ही न चलता कि उसके अर्थवाद ने कामों और संगठन की छवि को कितना नुकसान पहुँचाया है। अपनी हरकतों की वजह से उस आन्दोलन में साथ रहे बिरादर संगठन की नज़रों में मुकुल की छवि एक तिकड़मबाज और मुंशीगीरी करने वाले व्यक्ति की थी, न कि एक साहसी क्रान्तिकारी कार्यकर्ता की। लेनिन ने कहा है कि कम्युनिस्ट को ट्रेड यूनियन सेक्रेटरी जैसा नहीं बन जाना चाहिए, लेकिन यह तो उससे भी नीचे, अर्थवादी यूनियनों के जोड़-तोड़ करने वाले नेताओं जैसे आचरण पर उतर चुका था। इसके व्यवहार से तंग आकर एक मज़दूर संगठनकर्ता 40 पृष्ठ का शिकायती पत्र लिखकर पहले ही संगठन छोड़ गया था और लखनऊ से उसकी मदद के लिए भेजे गये एक युवा संगठनकर्ता आशीष निरन्तर मानसिक तनाव में रहा करते थे। उसकी कार्यशैली और जीवनशैली की आलोचना के बाद मुकुल जब भागा तो वह कुछ राजनीतिक सवालों का धुँआ छोड़ते हुए भागा, लेकिन बाकी तो नैतिक कदाचार, षड्यंत्र, गबन आदि के कारण अलग-अलग समयों में निकाले गये या 'हमारे बस का नहीं' कहकर घर बैठ गये।

आदेश कुमार सिंह नामक वह शख़्स जो नेपाल की तराई के एक धनी किसान का बेटा है और लम्बे समय तक डिप्रेशन का इलाज कराता रहा,रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा तथा इंडियन रेलवे टेक्निकल एंड आर्टीज़न स्‍टाफ एसोसिएशन में अपने घनघोर अर्थवाद और व्यक्तिवाद के बावजूद बार-बार अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से पैदा हुई वैयक्तिक कुंठाओं का रोना रोकर छूट लेता रहा। वह तो भोकार छोड़ते रोते हुए संगठन से यह कहकर गया था कि अपनी कमजोरियों के चलते जा रहा है, मगर 'साथी तो उसे बहुत प्रिय हैं।' वह भी आज ब्लॉग पर चुटपुटिया छोड़ रहा है और समझ रहा है कि धमाके कर रहा है।

सत्येंद्र कुमार साहू नाम का व्यक्ति तो लम्बे समय से छुट्टी लेकर 'सम्पत्ति और परिवार' को व्यवस्थित करने में लगा था, इसके साथ तो संगठन मानो एक प्रयोग कर रहा था कि क्या कई पीढ़ी के सूदखोर खानदान से आये एक वर्गशत्रु को रगड़-घिसकर कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है? दरअसल, इसका असली मक़सद तो था अपनी तीन बेटियों को आधुनिक बनाना। संगठन के साथ लगकर इसका यह प्रोजेक्ट जब पूरा हो गया तो उसे संगठन में रहना भारी लगने लगा। इसके निखट्टूपन और हर जगह वर्ग सहयोग तथा बनियागीरी करने की आलोचनाएँ इसे बुरी लगने लगीं। पिछले दो वर्ष से अधिक समय से यह छुट्टी पर था और संगठन के साथ मज़बूती से खड़ी अपनी एक बेटी (शालिनी) को घरेलू जीवन में लौट आने के लिए कनविंस करने की कोशिश में लगा रहा। ये इन कुत्साप्रचारकों की मंडली का फाइनेंसर भी है और अपने मूर्खतापूर्ण और घटिया आरोपों की एक पुस्तिका भी छपवाकर बाँटता रहा है।

ज़रा देखिये कि ये आखिर कह क्या रहे हैं। किस व्यक्ति को किस नाम से पुकारा जाता है, कौन किसका क्या लगता है? ये कौन-सी राजनीतिक बात है? मतभेद के नाम पर जो लोग यह छापकर बाँट रहे हैं कि किसी संगठन ने फलां सरकारी गेस्टहाउस में कांफ्रेस या मीटिंग की, क्या उन्हें राज्यसत्ता का एजेंट नहीं माना जाना चाहिए? यह तो कोई राजनीतिक मसला नहीं है। वाम क्रान्तिकारी धारा के संगठन गेस्टहाउस, रेस्टहाउस या होटल में भी ज़रूरत के अनुसार मीटिंगें करते रहे हैं। प्रश्न यह भी नहीं कि ऐसी किसी जगह मींटिंग/कांफ्रेंस हुई या नहीं हुई। प्रश्न तो यह है कि अगर कोई संगठन ऐसा करता भी है और इस तथ्य को कुछ लोग छापकर बड़े पैमाने पर सर्कुलेट करते हैं तो उन्हें क्या माना जाना चाहिए? क्या ऐसे लोगों की बातों को संजीदगी से लिया जाना चाहिए?

ग्वालियर में बैठकर इस कीचड़फेंक मुहिम में अपनी गन्दगी जोड़ने में लगे अशोक कुमार पाण्डेय की भी सुन लीलिए। लखनऊ में एक अखबार के गुण्डों ने जब 1995 में उसके दफ्तर पर धरना दे रहे राहुल फाउण्डेशन के कार्यकर्ताओं पर हमला किया था,जिसमें सैकड़ों की भीड़ के सामने गुण्डों की फौज से दो दर्जन कार्यकर्ता आधे घण्टे तक भिड़ते रहे थे, आधा दर्जन से ज्यादा महिलाओं सहित दर्जन भर लोगों के सिर फटे थे, तो गोरखपुर से टोली के साथ गया एक शख्स था जिसकी डर के मारे पैंट गीली हो गयी थी और वह अपने साथियों को छोड़कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ था। जिस वक्त जेल से बाहर रह गये साथी लखनऊ के बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर इस घटना के खिलाफ कार्रवाई की तैयारियाँ कर रहे थे,यह व्यक्ति बहाना बनाकर गोरखपुर लौट गया और फिर किनारा कर गया। यह वही व्यक्ति है। वैसे संगठन में रहने के दौरान इसने ज्ञान की जो पंजीरी ग्रहण की थी उसे ही ब्लॉग पर बाँटते हुए यह भी छोटा-मोटा बुद्धिजीवी बन गया है। मठ बनाने की तो इसकी औकात नहीं है,पर छोटी-मोटी कुटिया बनाकर बैठने लायक ज्ञान तो यह पा ही गया था। भला हो गुण्डों के हमले का -पैंट भले ही गीली हो गयी, मगर सिर पर पाँव रखकर भागने का अवसर तो मिल ही गया। इसकी राजनीतिक बहस का स्टैंडर्ड यही है कि संगठन में किसी को भाई जी, भाई साहब, चाचा आदि-आदि क्या कहा जाता है। ये अपने आप में भला कौन-सा मुद्दा है?

इस सब के बाद भी छाई चुप्पी को देखकर वाकई कहा जा सकता है कि भारत के बुद्धिजीवी समाज के अंतर्विवेक को लकवा मार गया है।

इन सब लोगों की वर्ग-अवस्थिति तो इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि क्रान्तिकारी कामों के लिए जनता से स्रोत-संसाधन जुटाने को ये 'भीख माँगना' कहते हैं। हम गर्व से कहते हैं कि इतने विपरीत, ठण्डे, बेरहम समय में, पाँच स्रोतों (सरकार या सरकारी विभागों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीपति घरानों तथा उनके ट्रस्टों, चुनावी पार्टियों और विदेशी फंडिंग एजेंसियों) से किसी प्रकार का अनुदान लिये बिना केवल जनसहयोग के दम पर हम अपने कामों को संचालित कर रहे हैं। हम अपनी पत्र-पत्रिकाओं के घाटे के भरपाई के लिए अभियान चलाते हैं, मज़दूर अखबार के लिए मज़दूरों के बीच नियमित रूप से कूपन काटते हैं, व्‍यवस्‍था-विरोधी आम राजनीतिक प्रचार के लिए 'क्रान्तिकारी लोकस्वराज अभियान' चलाते हैं और इसकी गतिविधियों के लिए सहयोग जुटाते हैं, वैकल्पिक जन मीडिया खड़ा करने के प्रयासों के लिए 'हमारा मीडिया अभियान' के तहत घर-घर, दफ्तर-दफ्तर जाकर एक-एक व्यक्ति से बात करके सहयोग लेते हैं। इसे कोई ''कार्यकर्ताओं से भीख मँगवाना'' कहे तो उसकी घटिया सोच का ही पता चलता है।

आज अपनी हुआँ-हुआँ का शोर मचा रहे ये सारे गीदड़ और चमगादड़ एनजीओ और प्रिंट मीडिया के भीटों और मांदों में रहते हैं, इनमें लोगों के बीच जाने का साहस कहाँ। ये ब्लॉग पर चाहे जितना विषवमन कर लें,संजीव जैसे 'नारसिसस कांप्लेक्स' से ग्रस्त किसी लेखक को पटाकर (जिन्हें मठाधीश बनने के लिए भी राजेंद्र यादव का उतारा हुआ जूता ही मिला)'हंस'में 'जनचेतना'और 'राहुल फाउण्डेशन' पर टिप्पणी करा लें, इससे हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। इन बातों से फर्क पड़ना होता तो 1990 से अब तक बार-बार कहा जाता रहा कि हम एक पारिवारिक मंडली हैं, कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी हैं, घरों में भागने के लिए सुरक्षित रास्ता तलाश रहे हैं, केवल किताब बेचते हैं, वगैरह-वगैरह -- हम तो कब के मिट गये होते। पुरानी कहावत है, कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी अपनी राह चलता जाता है।

हमें अपने बोल्शेविक होने पर गर्व है,और जिनके बीच रहकर हम लड़ रहे हैं उन पर भरोसा है। सोचना तो उन बुद्धिजीवियों को है जो बहस के नाम पर मचाई जा रही इस गंदगी पर चुप हैं या अन्दर-अन्दर मज़ा ले रहे हैं, या आन्दोलन को नसीहतबाज़ी की मुद्रा अपनाये हुए हैं। सोचना उन्हें है कि वे किस तरह के लोगों के साथ खड़े हैं और किस तरह की राजनीतिक संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं।

जो लोग संजीदगी के साथ इस मसले पर सोचते हैं (बहुत से लोगों ने हमें फोन करके कहा कि हमें इनका जवाब देना चाहिए), उनसे हमारा कहना है कि ज़रा सोचें, अलग-अलग समयों में संगठन से निकाले या बैठ गये इन तमाम लोगों का एक ही कॉमन एजेंडा कैसे हो गया?मुकुल तो फिर भी कुछ राजनीतिक मुद्दों का स्मोकस्क्रीन खड़ा करता हुआ भागा था,बाकी ने तो न संगठन में रहते कभी कोई सवाल उठाया न बाद में उनका कोई राजनीतिक सवाल था।

हमारे लिए यह सब कोई आश्चर्य की बात नहीं है, मगर बुद्धिजीवियों और राजनीतिक संगठनों के लोगों को देखना चाहिए कि ऐसी बातें करने वाले लोग कौन हैं, क्या कर रहे हैं, और इनका अपना सकारात्मक एजेंडा क्या है, या कुछ है भी या नहीं। हम तो मार्क्‍सवाद की इस बात में विश्वास करते हैं, जिसे लेनिन ने बार-बार दोहराया है कि किसी संगठन की राजनीतिक लाइन ग़लत होने से यदि उसके लोगों के व्यक्तिगत आचरण का भी पतन होता है, या कुछ लोगों के व्यक्तिगत पतन की वजह से भी यदि राजनीतिक लाइन ग़लत होती है,तो कम्युनिस्ट पहले राजनीतिक लाइन को ही निशाना बनाता है। जो लोग राजनीतिक लाइन के बजाय इन चीजों की बात करते हैं वे स्वतः अपने चरित्र को नंगा करते हैं क्योंकि कुत्सा-प्रचार की अपनी एक विचारधारा और राजनीति होती है।

आज के दौर में विभिन्न प्रकार की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं खड़ी करके राज्यसत्ता के सामाजिक अवलंबों के बरक्स जनक्रान्ति के सामाजिक अवलंबों का विकास करना क्रान्ति का एक ज़रूरी उद्यम है --यह हमारी सुस्पष्ट और घोषित राजनीतिक सोच है। इसी सोच के तहत राहुल फ़ाउंडेशन, अनुराग ट्रस्‍ट, परिकल्‍पना आदि खड़े किये गये हैं और डेढ़ दशक से अपने लक्ष्‍य को साकार करते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इसे ये छिछोरे जानते हैं। फिर भी, महज़ गाली देने के लिए यह कहना कि हम लोग राहुल सांकृत्यायन, अरविंद आदि के नाम पर पैसे बटोरने के लिए यह सब कह रहे हैं, कितनी घटिया बात है। हां, हम गर्वपूर्वक घोषित करते हैं कि हमारी राजनीति में वह ताकत है कि सच्चे लेनिनवादी अर्थों में पेशेवर क्रान्तिकारी सभी संपत्ति-संबंधों से निर्णायक विच्छेद करते हैं। इसी प्रकार की सामाजिक संस्थाओं के लिए अनेक पेशेवर क्रान्तिकारियों ने अपने घर-बार भी दिये हैं। जिन्हें महज़ गाली देने का बहाना चाहिए और जिनकी औकात ही नहीं है कि अपने बूते पर कोई संस्था खड़ी करने का सपना भी देख सकें, वे अगर इन उपक्रमों को संपत्ति खड़ी करने के उपक्रम के रूप में देखते हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। इनके द्वारा प्रचारित एक सफेद झूठ के विरुद्ध हम सार्वजनिक रूप से घोषणा करते हैं कि तकनीकी-क़ानूनी कारणों से एकाध अपवाद को छोड़कर हमारे बीच किसी पूरावक़्ती कार्यकर्ता की कोई निजी संपत्ति नहीं है।

सच्चा कम्युनिस्ट पड़ोसी के बच्चों से पहले अपनी पत्‍नी, बच्चों और परिवार को क्रान्ति से जोड़ता है। हम गर्वपूर्वक कहते हैं कि अपने परिवार को क्रान्ति की आंच से सुरक्षित रखने वाले भारत के बहुतेरे कम्युनिस्टों के विपरीत हमने अपने स्वजनों, परिजनों, संबंधियों, घनिष्ठ मित्रों को क्रान्तिकारी कामों से जोड़ा है या उनसे रिश्ते तय कर लिए हैं। संगठन के बहुत से साथियों ने सामाजिक परंपराओं को तोड़कर एक-दूसरे का जीवनसाथी बनने का कदम उठाया है। अगर कोई इसे संगठन में परिवार बढ़ाना कहता है तो इस निकृष्ट सोच को क्या कहा जाए? हमारे राजनीतिक जीवन में इन रिश्तों की कोई अहमियत कभी नहीं रही है। कुनबापरस्ती का आरोप लगाने वाले ये गीदड़ यह क्यों नहीं बताते कि विचारधारा और राजनीति के मतभेदों पर हमारे बीच कितने ही परिवार टूटे भी हैं। भाई-भाई, बाप-बेटे/बेटी, घनिष्ठतम मित्र तक उसूलों के सवाल पर दो जगह खड़े हैं।

जो किसी भी कम्युनिस्ट के लिए गर्व की बात हो सकती है, उसे जो लोग कलंकित और लांछित करने का प्रयास करते हैं, उनकी नस्ल पहचानना ज़रूरी है।






संदेशा शशिप्रकाश का 'वे कम्युनिस्ट नहीं "मउगा" हैं ?'


कोई सच्‍चा कम्‍युनिस्‍ट कभी भी कठिन हालात,अकेलापन,जीवन साथी की अनुपस्थिति और दुत्‍कार से त्रस्‍त नहीं होता। जो इन चीजों से त्रस्‍त होते हैं उन्‍हें कम्‍युनिस्‍ट नहीं मउगा कहा जाता है- कात्यायिनी और सत्यम वर्मा की पार्टी रिवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत ) की ओर से अधिकृत प्रवक्ता जय सिंह के विचार.


कुछ महीने पहले जनज्वार ने ‘ठगी का एक सामाजिक अभियान’लेख प्रकाशित किया था कि कैसे एनजीओ वाले पीड़ितों के उत्थान के नाम पर फरेब रचते हैं। यह लेख हिंदी की प्रमुख वेबसाइट रविवार समेत कुछ अन्य भी वेब माध्यमों पर प्रमुखता से छपा था। सच पढ़ एनजीओ के कर्ताधर्ता ने जवाब में पहली ही लाइन में दर्ज किया कि ‘आप जैसे लोग दारू और सिगरेट पीकर सामाजिक बात करते है!’बहरहाल इन पंक्तियों को पढ़ हम चकित नहीं हुए क्योंकि हमारा मानना है कि इनका सेवन करने वाला भी सामाजिक परिवर्तन की बात कर सकता है। बहरहाल इत्मिनान से हम पूरा लेख इस उम्मीद से पढ़ गये कि चलो कहीं तो कोई बात कही गयी होगी जो हमारे सवालों के बरक्स होगी।



पर ऐसा नहीं हुआ। रविवार के संपादक समेत वेब माध्यमों के ज्यादातर जनपक्षधर पाठक परिचित हैं कि एनजीओ के कर्ताधर्ता महोदय ने दर्जनों लेख तो भेजे मगर किसी एक लेख में भी वह नहीं बता पाये कि जो सवाल जनज्वार ने उठाये थे वो कहां गये। तब हमने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि ‘वह चाहता था कि हम सुचिता में फंसकर कुछ उलुल-जुलूल-जैसे कि हम नहीं पीते हैं,तुम्हारे पास क्या सबूत है,यह व्यक्तिगत आरोप है आदि कहें और बात मूल सवाल से कोसो दूर वहां अटक जाये कि लोग कहें ‘आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास।’



कुछ ऐसा ही प्रपंच शशिप्रकाश का कुनबा यहाँ भी रच रहा है.सवालों को भटकाने के मकसद से यहाँ भी  क्रांति के दुकानदारों के  मेंठ  का पेट जब  हिजड़ा कहने से नहीं भरा तो उन्होंने हमें मऊगा कहा कि हम हिजड़ा और  मऊगा न होने का प्रमाण देनें में लग जाएँ. बहरहाल हम उनके दोनों आरोपों को तहेदिल से जगह देते हैं और मानते हैं कि हिजड़ा और मऊगा यानी गे लोगों को भी सवाल उठाने का बराबर का ही अधिकार है और उनके हकों के लिए जनज्वार हमेशा आगे रहेगा.रिवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत ) के प्रवक्ता जय सिंह इतने अधीर हो जाते हैं कि खुद के ब्लॉग अपने ही नाम से कमेन्ट कर बताते हैं कि वह तो मऊगा  है.

शशिप्रकाश के चलन के मुताबिक अब विरोधियों से निपटने के लिए मारपीट कर चुप कराने की कोशिश होगी जो हर बार इनका अंतिम रास्ता रहा है.गार्गी प्रकाशन से जुड़े दिगंबर,पत्रकार देवेन्द्र और भी ऐसे कई लोग इसके जीवित उदहारण हैं जबकि बिगुल के संपादक की बेटी उन तमाम गवाहों में से एक है और प्रमाण नोएडा के सेक्टर २४ में आज भी सुरक्षित है. बस हरबार की तरह चालाकी यह बरती गयी कि कुनबे का कोई नहीं हो.

बगैर किसी काट-छांट के  रिवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत )के प्रवक्ता और अरविन्द सिंह न्यास के सदस्य जय सिंह के विचार और पार्टी कार्यकर्ताओं की ओर जारी एक पत्र...

जवाब भाग- २  'जनज्वार' की कुत्‍सा-प्रचार मुहिम के पीछे का सच...

हिन्दी के एक ब्लॉग पर पिछले दिनों क्रान्तिकारी वाम धारा से जुड़े एक संगठन और उससे जुड़े कुछ व्यक्तियों तथा संस्थाओं के खिलाफ घिनौने कुत्सा-प्रचार की एक मुहिम छेड़ दी गयी थी। 'जनज्वार' नाम के इस ब्लॉग पर 22 से 28 जुलाई तक प्रकाशित इन पोस्टों और उन पर डाली/डलवायी गयी टिप्पणियों को पढ़कर कोई भी संजीदा व्यक्ति यह समझ सकता है कि इनका मकसद किन्हीं राजनीतिक-सामाजिक सवालों को उठाना नहीं है, जैसाकि कुछ पोस्टों में दिखाने की कोशिश की गयी है। इनका एकमात्र मकसद है कुछ लोगों, संस्थाओं, विचारों पर कीचड़ उछालना और इसके लिए घटिया से घटिया झूठे आरोपों,फर्जी मनगढ़न्त किस्सों और अनर्गल व्यक्तिगत आक्षेपों का धुआँ छोड़ने और अपनी कुण्ठाओं का विषवमन करने में वे सारी सीमाओं को पार कर गये हैं।

सत्यम वर्मा : कुछ तो बोलो, मुंह तो खोलो
दरअसल,पिछले दो दशकों के दौरान आन्दोलन से भागे या संगठनों से निकाले गये लोगों की यह प्रतिशोधी जमात पिछले चार साल से कुत्सा-प्रचार की इस मुहिम में लगी हुई है। देशभर में तमाम व्यक्तियों-संगठनों को पत्रों के पुलिन्दे भेजने से लेकर पुस्तिका छपाकर बाँटने और छद्म नामों से सरकारी तंत्र के पास शिकायतनामे भेजकर जनसंगठनों के दफ्तरों पर छापे-तलाशी करवाने जैसी गलीज़ हरकतों के बाद अब बौखलाहट में इन्होंने अपना सारा बदबूदार कचरा ब्लॉग पर सार्वजनिक कर दिया है। हम लोगों ने कभी इस गन्दे अभियान का जवाब देने की कोशिश नहीं की क्योंकि एक तो हम ऐसी नीचता का जवाब देना किसी भी क्रान्तिकारी सामाजिक कार्यकर्ता की शान के खिलाफ समझते हैं, दूसरे,हमें बुद्धिजीवियों के विवेक पर भरोसा था। ब्लॉग पर इस मुहिम के शुरू होने पर भी हम इस पर ध्यान दिये बिना दूसरी अरविंद स्मृति संगोष्ठी के आयोजन में लगे रहे क्योंकि हमें लगा कि बुद्धिजीवी समुदाय में से कोई तो इसका प्रतिवाद करेगा। मगर अन्ततः हमें जवाब देने का फैसला करना पड़ा क्योंकि ये लोग केवल कुछ व्यक्तियों या संगठनों को ही नहीं बल्कि कम्युनिस्ट आदर्शों को, क्रान्तिकारी विचारों और तौर-तरीकों को, सामाजिक परिवर्तन के लक्ष्य के लिए समर्पण और कुर्बानी के जज़्बे को ही बदनाम करने में लगे हैं।

इसकी शुरुआत गोरखपुर से बिगुल मज़दूर दस्ता, दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के युवा कार्यकर्ताओं की टीम द्वारा भेजे पत्र से की जा रही है।

का. अरविंद की स्‍मृति को लांछित-कलंकित करने वालों की असलियत पहचानिए...

जुलाई के अंतिम सप्‍ताह में जिस वक्‍त हम लोग अपने प्‍यारे कामरेड अरविंद की याद में दूसरी अरविंद स्‍मृति संगोष्‍ठी के आयोजन की तैयारियों में व्‍यस्‍त थे तभी हमें पता चला कि कई साल से संगठन को गरियाते घूम रहे लोगों ने अब अपना गाली पुराण ब्‍लॉग पर फैला दिया है। स्‍पष्‍ट था कि ऐन संगोष्‍ठी के पहले शुरू की गई इस कार्रवाई का मकसद इस आयोजन में विघ्‍न डालना है। बाद में हमें पता चला कि इन लोगों ने तो बाकायदा संगोष्‍ठी के बहिष्‍कार का नारा दे रखा था। बहरहाल,इनके मुंह पर तमाचा जड़ते हुए संगोष्‍ठी शानदार तरीके से संपन्‍न हुई। तीन दिनों के पांच सत्रों में 'इक्कीसवीं सदी में भारत का मजदूर आन्दोलनः निरन्तरता और परिवर्तन, दिशा और सम्भावनाएँ,समस्याएँ और चुनौतियाँ'विषय पर चार विस्‍तृत आलेख पढ़े गए जिन पर गंभीर और विचारोत्तेजक बातचीत हुई। प्रथम सत्र में अरविंद स्‍मृति न्‍यास और अरविंद मार्क्‍सवादी अध्‍ययन संस्‍थान की स्‍थापना और इनके जरिए किए जाने वाले कामों पर विचार किया गया। बाहर से आए और स्‍थानीय लोगों को मिलाकर कुल करीब 500 लोगों ने आयोजन में शिरकत की जिनमें अच्‍छी-खासी संख्‍या गोरखपुर में विभिन्‍न उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की थी। पिछले एक साल के दौरान चले मजदूर आंदोलन के क्रम में राजनीतिक रूप से शिक्षित-दीक्षित इन अगुआ मजदूरों ने न सिर्फ संगोष्‍ठी में बहुत दिलचस्‍पी से हिस्‍सा लिया बल्कि कुछ ने बहस में भी हस्‍तक्षेप किया।

जो लोग न जानते हों उन्‍हें हम बताना चाहते हैं कि दशकों बाद गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुई मजदूर आंदोलन की इस नई शुरुआत की नींव कामरेड अरविंद ने ही रखी थी और उन्‍हीं के नेतृत्‍व में काम करते हुए हम युवा कार्यकर्ताओं ने विचारधारा,संगठन और आंदोलन की बुनियादी शिक्षा-दीक्षा पायी थी। हम उन्‍हीं के शुरू किए हुए काम को आगे बढ़ा रहे हैं और हम खुद को का.अरविंद का मानसपुत्र मानते हैं। ऐसे साथी के जीवन और व्‍यक्तित्‍व पर कीचड़ उछालने और कलंकित करने की कोशिश ने हमें गहरे क्षोभ और ऐसा करने वालों के प्रति घृणा से भर दिया है। ये वे लोग हैं जो जीते जी का.अरविंद के पीठ पीछे कुत्‍साप्रचार करते रहे और फिर उनकी मृत्‍यु को भी अपनी गंदी मुहिम के लिए इस्‍तेमाल करने से बाज नहीं आ रहे हैं। का.अरविंद के हमदर्द बनने का पाखंड कर रहे इन लोगों को तो ये भी मालूम नहीं कि उनका निधन कैसे हुआ,ब्‍लॉग में लिख मारा कि उनकी मृत्‍यु अल्‍सर से हुई। ये ऐसे लोग हैं जिन्‍होंने उसी रात से अपना घिनौना प्रचार शुरू कर दिया था जिस रात उनका निधन हुआ। हम लोग जो आखिरी सांस तक उनके साथ रहे, गोरखपुर में का. अरविंद के राजनीतिक और सामाजिक मित्र और संगठन के साथी अच्‍छी तरह जानते हैं कि लंबे समय से स्‍वास्‍थ्‍य की परेशानियों के बावजूद वे लगातार कामों में लगे हुए थे और एक बार लगकर पूरा इलाज कराने के लिए साथियों के दबाव को ''कुछ ज़रूरी काम पूरे करने तक'' टालते रहते थे। फिर भी किसी को ये उम्‍मीद नहीं थी कि अचानक ऐसा कुछ अप्रत्‍याशित घट जाएगा। 24 जुलाई की उस काली रात से करीब एक महीने पहले भूमि अधिग्रहण के विरोध में कुशीनगर में हुए सम्‍मेलन में जाने के लिए हमारी टोली की करीब 55किलोमीटर की साइकिल यात्रा का उन्‍होंने नेतृत्‍व किया था। गोरखपुर में सफाई कर्मचारियों के जुझारू आंदोलन में वे अगुआ भूमिका निभा रहे थे और जब एक उद्दंड प्रशासनिक अधिकारी ने वार्ता के दौरान कह दिया कि आप लोग मजदूरों को भड़काकर अनशन करवा रहे हो, आप खुद क्‍यों नहीं अनशन पर बैठ जाते, तो का. अरविंद हम लोगों के विरोध के बावजूद तत्‍काल भूख हड़ताल पर बैठ गए। निश्चित तौर पर इसने भी उनके शरीर को और कमजोर किया लेकिन उस वक्‍त तो आंदोलन को एक नई ताकत मिल गई थी। इन कुत्‍साप्रचारकों की नीयत तो हमारे सामने शुरू से साफ रही है लेकिन हम यह नहीं समझ पाते कि पिछले दो साल के दौरान इनकी बातें सुनकर जो बुद्धिजीवी यहां-वहां जुमलेबाजियां करते रहे हैं उनमें से किसी ने भी कभी भी हमसे संपर्क करने और सच जानने की कोशिश क्‍यों नहीं की।

बजा बिगुल तू अब तो जाग
आज का.अरविंद के शुभचिंतक बन रहे इनमें से अधिकांश लोग वे हैं जिन्‍हें खुद का. अरविंद ने चारित्रिक पतन से लेकर संगठन के लक्ष्‍यों के खिलाफ आचरण करने जैसी हरकतों के कारण निष्‍कासित किया था या निलंबित किया था जिसके बाद वे लौटकर ही नहीं आए। इस तथ्‍य से सामना होते ही ये फट से कह देते हैं कि अरविंद तो संगठन के नेतृत्‍व के कहने पर लोगों को निकाल देते थे। मानो का. अरविंद एक दब्‍बू, विवेकहीन, रीढ़विहीन व्‍यक्ति थे जो नेतृत्‍व के कहने पर कुछ भी करने को तैयार रहते थे। का. अरविंद के जीते-जी भी ये छिछोरे उनके खिलाफ घटिया आरोप लगाते रहे और उनके जाने के बाद भी उन्‍हें लांछित करने में लगे हुए हैं। अपने को दिशा छात्र संगठन का पूर्व संयोजक बताने वाला अरुण कुमार यादव दरअसल गोरखपुर में दिशा की विश्‍वविद्यालय इकाई का कुछ समय के लिए संयोजक बनाया गया था और उसमें भी महीनों तक तो वह छुट्टी पर था और राजनीतिक जीवन की कठिनाइयों से थका-हारा जिंदगी की गोटी सेट करने की तिकड़मों में लगा था। इस शख्स में अगर जरा भी नैतिक साहस है तो वह बताए कि उसे का.अरविंद ने किस नैतिक घटियाई के कारण संगठन से बाहर किया था।

और 'जनज्‍वार' चलाने वाले अजय प्रकाश को यह बताना चाहिए कि उसे, घनश्‍याम और प्रदीप को नोएडा की टीम से अरविंद ने किस कारण से 3महीने के लिए सस्‍पेंड किया था जिसके बाद ये तीनों अपने को बदलने के बजाय चुपचाप किनारे हो गए।

एक शख्‍स है सतेंद्र कुमार जिसने ब्‍लॉग पर अपना परिचय परिकल्‍पना प्रकाशन और जनचेतना वैन के ''मालिक'' के रूप में दे रखा है। इसी के दिए परिचय से हमें पता चला कि यह सूदखोर का बेटा है। पूछने पर मालूम हुआ कि किसी ऐसे-वैसे सूदखोर का नहीं, ये तो नक्‍सलबाड़ी के इलाके के गरीब किसानों का कई पीढ़ी तक खून चूसने वाले सूदखोर खानदान से आता है। कई साल संगठन में रहने के बाद भी इसकी मानसिकता यही है कि ये लिखता है ''जनचेतना के मजदूर, बेगार करें भरपूर''। बेशक, हम जनचेतना के मजदूर हैं, क्रांतिकारी आंदोलन के मजदूर हैं, हम अपने को मजदूरों के प्रतिनिधि मानते हैं और इस देश के आम मजदूरों की ही तरह अपने लक्ष्‍य के लिए 12-14 घंटे काम करते हैं। और हमें इस पर गर्व है। लेकिन मालिक की मानसिकता से ग्रस्‍त इस व्‍यक्ति को क्रांतिकारी विचारों का प्रचार-प्रसार ''बेगारी'' लगता है और मजदूर शब्‍द को ये गाली की तरह इस्‍तेमाल करता है।

हिंदी कवि   कात्यायिनी  : जवाब प्रवक्ता ही देगा
हमें इस बात पर नाज है कि हम अपने तमाम कामों के लिए किसी तरह की संस्‍थागत,सशर्त मदद लिए बिना केवल और केवल जनता से जुटाए गए संसाधनों पर भरोसा करते हैं,और इसके लिए नियमित रूप से लोगों के बीच सहयोग जुटाने जाते हैं। इसे ये लोग ''भीख मांगना'' कहते हैं तो सिर्फ हमें नहीं इस देश के उन तमाम जनसंगठनों को गाली देते हैं जो एनजीओ या सरकारी अनुदानों के बजाय अपने कामों के लिए जनता से संसाधन इकट्ठा करते हैं।

गोरखपुर में मई दिवस 2010 को मजदूरों की रैली

इनकी बदनीयती और बेईमानी तो इसी बात से जाहिर हो जाती है कि ये अपने मनगढ़त आरोपों का पहाड़ खड़ा करने के लिए सिर्फ साहित्‍य के प्रकाशन और उसे लोगों के बीच ले जाने की बात करते हैं जो हमारे कामों का बेहद अहम मगर केवल एक हिस्‍सा है। ये कभी भी इस बात की चर्चा नहीं करते कि गोरखपुर जैसे सांप्रदायिक ताकतों के गढ़ में धमकियों-हमलों-साजिशों का मुकाबला करते हुए किस तरह हम लोग लगातार उन्‍हें चुनौती देते रहे हैं। ये भयंकर शोषण और बर्बर उत्‍पीड़न में जी रहे गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूरों को संगठित करने के हमारे कामों की कभी चर्चा नहीं करते। ये गोरखपुर के जुझारू मजदूर आंदोलन की,योगी आदित्‍यनाथ के नेतृत्‍व में गोरखपुर के उद्योगपतियों द्वारा हमें ''आतंकवादी'' साबित करने की मुहिम, उनके खिलाफ महीनों चले आंदोलन, हमारे साथियों की गिरफ्तारी और फर्जी एनकांउटर में मारने की साजिश, और पहली बार गोरखपुर में योगी, उद्योगपतियों और प्रशासन के गंठजोड़ को मिली शिकस्‍त की कोई चर्चा नहीं करते। ये दिल्‍ली के करावल नगर में 25,000 असंगठित बादाम मजदूरों के बीच वर्षों से जारी हमारे काम की और बादाम मजदूरों की 16दिन चली जबर्दस्‍त हड़ताल का कभी जिक्र नहीं करते। ये दिल्‍ली मेट्रो में ठेके पर काम करने वाले हजारों सफाई कर्मचारियों, कामगारों और मेट्रो फीडर बस सेवा के कर्मचारियों को संगठित करने के हमारे प्रयासों और आंदोलनों की कभी बात नहीं करते, लुधियाना में मजदूरों के बीच हमारे कामों और संघर्षों की कभी चर्चा नहीं करते। करें भी कैसे। ऐसा करते ही झूठों की बुनियाद पर खड़ा उनका सारा प्रचार अभियान भरभराकर ध्‍वस्‍त नहीं हो जाएगा। हम तो ये जानते हैं और मार्क्‍सवाद यही सिखाता है कि अगर किसी की जीवनशैली गलत है तो उसकी राजनीति और विचार को भ्रष्‍ट होते देर नहीं लगती। सिर्फ कार्यकर्ताओं से पैसे इकट्ठा करवाने और उसपर ऐश करने वाला नेतृत्‍व एक कायर और काहिल संगठन ही खड़ा कर सकता है,साहस के साथ जनता को संगठित और आंदोलित करने वाले जमीनी कार्यकर्ताओं के जुझारू दस्‍ते नहीं। दरअसल, खुद इन भगोड़ों की सोच इनकी जीवनशैली से निकली है। ये सब के सब आज कहीं भी जमीनी कामों में नहीं लगे हैं, कई तो एनजीओ की चाकरी कर रहे हैं, कुछ ''बुद्धिजीवी'' बनने की लालसा में छुटभैये पत्रकार बने फिर रहे हैं, तो कुछ को कोई काम करने की जरूरत ही नहीं है, उड़ाने के लिए बहुत कुछ पड़ा हुआ है जिसके दम पर घूम-घूम कर वे अपना कचड़ा फैलाने और कम्‍युनिज्‍म को बदनाम करने में जुटे हैं।
गांव में कहा जाता है कि जब सांप का अंडा खराब हो जाता है तो उसमें से लरछुत नाम का घिनौना, चिपकू कीड़ा पैदा होता है। ऐसे तत्‍व दरअसल कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के लरछुत ही हैं।

-- प्रशांत, प्रमोद, अवधेश, अपूर्व, राजू, बबलू, बीरेश, समर

बिगुल मजदूर दस्‍ता, दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा, गोरखपुर के कार्यकर्ता

प्रस्तुतकर्ता बेबाक-बेलौस पर जय सिंह. ६:०३ पूर्वाह्न इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें 2 टिप्पणियाँ:

JAI SINGH ने कहा…  

जनज्‍वार पर टिप्‍पणी करने वालों का स्‍टैंडर्ड क्‍या है यह उन्‍हीं के शब्‍दों में देखिए।

एक कोई डा.विवेक कुमार है जिसकी आत्‍मा की तरह लेखनी ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। का. अरविंद के बारे में वह लिखता है कि वे 'कठिन हालात, अकेलापन, जीवन साथी की अनुपस्थिति और दुत्कार से त्रस्त'थे। अब इस छिछोरे को कौन बताए कि कोई सच्‍चा कम्‍युनिस्‍ट कभी भी कठिन हालात,अकेलापन, जीवन साथी की अनुपस्थिति और दुत्‍कार से त्रस्‍त नहीं होता। जो इन चीजों से त्रस्‍त होते हैं उन्‍हें कम्‍युनिस्‍ट नहीं मउगा कहा जाता है जैसा कि डा.विवेक कुमार पर एकदम फिट बैठता है।

August 16, 2010 12:07 PM

GP ने कहा…
I agree with the content of the text. It is important that all attempts to slander is timely and suitably replied.