जनज्वार पर हमारे खिलाफ इतना छपने के बाद चुप्पी को देखकर वाकई कहा जा सकता है कि भारत के बुद्धिजीवी समाज के अंतर्विवेक को लकवा मार गया है। संजीव जैसे 'नारसिसस कांप्लेक्स' से ग्रस्त लेखक को पटाकर (जिन्हें मठाधीश बनने के लिए भी राजेंद्र यादव का उतारा हुआ जूता ही मिला) 'हंस' में 'जनचेतना' और 'राहुल फाउण्डेशन' पर टिप्पणी करा लें, इससे हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इसी सोच के तहत राहुल फ़ाउंडेशन, अनुराग ट्रस्ट, परिकल्पना आदि खड़े किये गये हैं और डेढ़ दशक से अपने लक्ष्य को साकार करते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इसे ये छिछोरे जानते हैं- मीनाक्षी, रिवोलुशनरी कोम्युनिस्ट लीग (भारत) की केन्द्रीय समिति सदस्य
शशिप्रकाश और कात्यायिनी ने तीसरा जवाब भी भेज दिया है. उसमें भी उन्होंने कमोबेश वही बातें कहीं हैं जो वह कहते आये हैं. उनका सारा संकट आकर शरीर के मध्य क्षेत्र में अटक गया है. एक दूसरी श्रेणी उन्होंने मुंशियों, पागलों आदि की भी बना ली है, लेकिन पूछे गए किसी सवाल का जवाब नहीं भेजा है, शायद अगले जवाब में कात्यायिनी कुछ कहें. अब उन्होंने अगली रणनीति के तहत हिंदी साहित्कारों और बुद्धिजीवियों को लताड़ना शुरू कर दिया है.
मीनाक्षी
मीनाक्षी: हिंदी में लकवा ग्रस्त बुद्धिजीवी हैं |
पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग जगत के धोबीघाट पर कम्युनिस्ट आन्दोलन को कलंकित करने के लिए एक जमात अपनी समझ से कम्युनिस्ट आन्दोलन के गन्दे कपड़े धो रही है, जबकि वास्तव में वह अपने ही गन्दे कपड़ों को कछार कर अपनी कुत्सित मानसिकता को बेनक़ाब कर रही है।
इनके व्यक्तिगत आक्षेपों-आरोपों-लांछनों का जवाब देना बहुत महत्वपूर्ण नहीं होता अगर हम एक जिम्मेदार,संजीदा समय में जी रहे होते। लेकिन आज जैसे गतिरोध,विपर्यय और ठहराव-बिखराव से उपजी निराशा के दौर में गाली-गलौज को भी लोग 'बहस' का नाम देने में सफल हो जाते हैं। आज वामपंथी आंदोलन की जो हालत है,उसमें आश्चर्य नहीं कि कुछ बुद्धिजीवी अपने को तटस्थ दिखाते हुए भी यहाँ-वहाँ चिमगोइयाँ लेने से बाज़ न आ रहे हों। आखिर स्तालिन ने यूँ ही नहीं कहा था कि एशियाई देशों की क्रान्तियाँ झूठ-फरेब, चुगली, साज़िशों और दुरभिसंधियों से भरी होंगी।
मैं अरविन्द की कामरेड और जीवनसाथी हूँ और मुझे फ़ख़्र है कि उनके जाने के बाद भी उसी रास्ते पर अडिग हूँ जिस पर हमने साथ-साथ चलने की कसम खायी थी। आज कुछ लोग बार-बार अरविन्द, उनके संगठन और व्यक्तिगत रूप से मुझे निशाना बनाकर निहायत शर्मनाक और गन्दे आक्षेप लगा रहे हैं। कम्युनिस्ट हर समाज में तमाम तरह की गालियाँ सुनते रहे हैं और इनसे कभी विचलित नहीं होते, लेकिन अगर किसी दिवंगत साथी को इस तरह से लांछित किया जाये तो चुप नहीं रहा जा सकता।
जो लोग अरविंद के जीवित रहते उनके ख़िलाफ़ घटिया से घटिया आक्षेपों और दुष्प्रचारों में लगे हुए थे, वही उनकी मृत्यु के बाद भी अरविंद को बदनाम करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे हैं। वे कह रहे हैं कि अरविंद को सज़ा के तौर पर गोरखपुर में अलग-थलग छोड़ दिया गया था, कि उनसे लोगों को बाहर निकलवाने का काम कराया जाता था, आदि-आदि।
पहला सवाल तो यह है कि क्रान्तिकारी आन्दोलन के अधिकांश लोग अरविन्द से परिचित हैं। क्या वे नहीं जानते कि अरविन्द ऐसे डोसाइल और कमज़ोर व्यक्ति नहीं थे कि उनसे उनकी मर्जी के बगैर कोई भी कुछ भी करवा सकता था।1986 में समाजवादी क्रान्ति की लाइन के दस्तावेज़ को लेकर देशभर के अनेक क्रान्तिकारी वाम संगठनों के नेतृत्व से अरविन्द ने मुलाकात की थी। फिर 1990 में मार्क्सवाद ज़िन्दाबाद मंच के पाँच दिवसीय सेमिनार के दौरान और विभिन्न क्रान्तिकारी संगठनों से मिलने के लिए दो बार की लम्बी यात्राओं के दौरान आन्दोलन के ज़िम्मेदार लोगों का उनसे नज़दीक से परिचय हुआ। नेपाल में हुए अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार के दौरान भी भारत और नेपाल के क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से उनके रिश्ते बने। बनारस, गोरखपुर, लखनऊ और दिल्ली में काम करते हुए और देशभर में विभिन्न आयोजनों में वे जिन लोगों से मिले, वे क्या इस बात में यकीन करेंगे कि अरविन्द ऐसे व्यक्ति थे जिनसे कुछ भी करा लिया जाये?
दूसरा सवाल। एक तथ्य रेखांकित करना ज़रूरी है कि इस जमात के अधिकांश व्यक्ति वे हैं जिन्हें पिछले 5-6 वर्षों के दौरान अलग-अलग आरोपों में खुद अरविन्द द्वारा ही निष्कासित/निलम्बित किया गया था। ये स्वतः किसी मतभेद के कारण या किसी राजनीतिक मसले के कारण अलग नहीं हुए और न ही एक साथ संगठन से गये। इनमें से कुछ तो वे हैं जो 10-12 साल पहले ही यह कहते हुए घर बैठ गये थे कि इतना कठिन जीवन हमारे बस का नहीं है। कुछ को नैतिक कदाचार के आरोप में निलम्बित किया गया था। अगर इनमें दम है तो बतायें कि नोयडा की टीम से अजय प्रकाश, प्रदीप और घनश्याम को किस वजह से निलम्बित किया गया था? अगर 'जनज्वार' के संचालक में ज़रा भी कमिटमेंट है तो उन्हें यह सब छोड़कर भारत में समलैंगिक आन्दोलन को बढ़ाने में लग जाना चाहिए।
कात्यायिनी: बहन मीनाक्षी को उतारा |
मुकुल,जिसके अर्थवाद और मुंशीगीरी के विरुद्ध संगठन में लम्बे समय से संघर्ष था, वह ज़रा बताये कि तराई क्षेत्र में उसके कामों की क्या आलोचना रखी गयी थी? अगर खटीमा आन्दोलन के दौरान अरविन्द डेढ़ महीने तक वहाँ न रहे होते तो पता ही न चलता कि उसके अर्थवाद ने कामों और संगठन की छवि को कितना नुकसान पहुँचाया है। अपनी हरकतों की वजह से उस आन्दोलन में साथ रहे बिरादर संगठन की नज़रों में मुकुल की छवि एक तिकड़मबाज और मुंशीगीरी करने वाले व्यक्ति की थी, न कि एक साहसी क्रान्तिकारी कार्यकर्ता की। लेनिन ने कहा है कि कम्युनिस्ट को ट्रेड यूनियन सेक्रेटरी जैसा नहीं बन जाना चाहिए, लेकिन यह तो उससे भी नीचे, अर्थवादी यूनियनों के जोड़-तोड़ करने वाले नेताओं जैसे आचरण पर उतर चुका था। इसके व्यवहार से तंग आकर एक मज़दूर संगठनकर्ता 40 पृष्ठ का शिकायती पत्र लिखकर पहले ही संगठन छोड़ गया था और लखनऊ से उसकी मदद के लिए भेजे गये एक युवा संगठनकर्ता आशीष निरन्तर मानसिक तनाव में रहा करते थे। उसकी कार्यशैली और जीवनशैली की आलोचना के बाद मुकुल जब भागा तो वह कुछ राजनीतिक सवालों का धुँआ छोड़ते हुए भागा, लेकिन बाकी तो नैतिक कदाचार, षड्यंत्र, गबन आदि के कारण अलग-अलग समयों में निकाले गये या 'हमारे बस का नहीं' कहकर घर बैठ गये।
आदेश कुमार सिंह नामक वह शख़्स जो नेपाल की तराई के एक धनी किसान का बेटा है और लम्बे समय तक डिप्रेशन का इलाज कराता रहा,रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा तथा इंडियन रेलवे टेक्निकल एंड आर्टीज़न स्टाफ एसोसिएशन में अपने घनघोर अर्थवाद और व्यक्तिवाद के बावजूद बार-बार अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से पैदा हुई वैयक्तिक कुंठाओं का रोना रोकर छूट लेता रहा। वह तो भोकार छोड़ते रोते हुए संगठन से यह कहकर गया था कि अपनी कमजोरियों के चलते जा रहा है, मगर 'साथी तो उसे बहुत प्रिय हैं।' वह भी आज ब्लॉग पर चुटपुटिया छोड़ रहा है और समझ रहा है कि धमाके कर रहा है।
सत्येंद्र कुमार साहू नाम का व्यक्ति तो लम्बे समय से छुट्टी लेकर 'सम्पत्ति और परिवार' को व्यवस्थित करने में लगा था, इसके साथ तो संगठन मानो एक प्रयोग कर रहा था कि क्या कई पीढ़ी के सूदखोर खानदान से आये एक वर्गशत्रु को रगड़-घिसकर कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है? दरअसल, इसका असली मक़सद तो था अपनी तीन बेटियों को आधुनिक बनाना। संगठन के साथ लगकर इसका यह प्रोजेक्ट जब पूरा हो गया तो उसे संगठन में रहना भारी लगने लगा। इसके निखट्टूपन और हर जगह वर्ग सहयोग तथा बनियागीरी करने की आलोचनाएँ इसे बुरी लगने लगीं। पिछले दो वर्ष से अधिक समय से यह छुट्टी पर था और संगठन के साथ मज़बूती से खड़ी अपनी एक बेटी (शालिनी) को घरेलू जीवन में लौट आने के लिए कनविंस करने की कोशिश में लगा रहा। ये इन कुत्साप्रचारकों की मंडली का फाइनेंसर भी है और अपने मूर्खतापूर्ण और घटिया आरोपों की एक पुस्तिका भी छपवाकर बाँटता रहा है।
ज़रा देखिये कि ये आखिर कह क्या रहे हैं। किस व्यक्ति को किस नाम से पुकारा जाता है, कौन किसका क्या लगता है? ये कौन-सी राजनीतिक बात है? मतभेद के नाम पर जो लोग यह छापकर बाँट रहे हैं कि किसी संगठन ने फलां सरकारी गेस्टहाउस में कांफ्रेस या मीटिंग की, क्या उन्हें राज्यसत्ता का एजेंट नहीं माना जाना चाहिए? यह तो कोई राजनीतिक मसला नहीं है। वाम क्रान्तिकारी धारा के संगठन गेस्टहाउस, रेस्टहाउस या होटल में भी ज़रूरत के अनुसार मीटिंगें करते रहे हैं। प्रश्न यह भी नहीं कि ऐसी किसी जगह मींटिंग/कांफ्रेंस हुई या नहीं हुई। प्रश्न तो यह है कि अगर कोई संगठन ऐसा करता भी है और इस तथ्य को कुछ लोग छापकर बड़े पैमाने पर सर्कुलेट करते हैं तो उन्हें क्या माना जाना चाहिए? क्या ऐसे लोगों की बातों को संजीदगी से लिया जाना चाहिए?
ग्वालियर में बैठकर इस कीचड़फेंक मुहिम में अपनी गन्दगी जोड़ने में लगे अशोक कुमार पाण्डेय की भी सुन लीलिए। लखनऊ में एक अखबार के गुण्डों ने जब 1995 में उसके दफ्तर पर धरना दे रहे राहुल फाउण्डेशन के कार्यकर्ताओं पर हमला किया था,जिसमें सैकड़ों की भीड़ के सामने गुण्डों की फौज से दो दर्जन कार्यकर्ता आधे घण्टे तक भिड़ते रहे थे, आधा दर्जन से ज्यादा महिलाओं सहित दर्जन भर लोगों के सिर फटे थे, तो गोरखपुर से टोली के साथ गया एक शख्स था जिसकी डर के मारे पैंट गीली हो गयी थी और वह अपने साथियों को छोड़कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ था। जिस वक्त जेल से बाहर रह गये साथी लखनऊ के बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर इस घटना के खिलाफ कार्रवाई की तैयारियाँ कर रहे थे,यह व्यक्ति बहाना बनाकर गोरखपुर लौट गया और फिर किनारा कर गया। यह वही व्यक्ति है। वैसे संगठन में रहने के दौरान इसने ज्ञान की जो पंजीरी ग्रहण की थी उसे ही ब्लॉग पर बाँटते हुए यह भी छोटा-मोटा बुद्धिजीवी बन गया है। मठ बनाने की तो इसकी औकात नहीं है,पर छोटी-मोटी कुटिया बनाकर बैठने लायक ज्ञान तो यह पा ही गया था। भला हो गुण्डों के हमले का -पैंट भले ही गीली हो गयी, मगर सिर पर पाँव रखकर भागने का अवसर तो मिल ही गया। इसकी राजनीतिक बहस का स्टैंडर्ड यही है कि संगठन में किसी को भाई जी, भाई साहब, चाचा आदि-आदि क्या कहा जाता है। ये अपने आप में भला कौन-सा मुद्दा है?
इस सब के बाद भी छाई चुप्पी को देखकर वाकई कहा जा सकता है कि भारत के बुद्धिजीवी समाज के अंतर्विवेक को लकवा मार गया है।
इन सब लोगों की वर्ग-अवस्थिति तो इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि क्रान्तिकारी कामों के लिए जनता से स्रोत-संसाधन जुटाने को ये 'भीख माँगना' कहते हैं। हम गर्व से कहते हैं कि इतने विपरीत, ठण्डे, बेरहम समय में, पाँच स्रोतों (सरकार या सरकारी विभागों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीपति घरानों तथा उनके ट्रस्टों, चुनावी पार्टियों और विदेशी फंडिंग एजेंसियों) से किसी प्रकार का अनुदान लिये बिना केवल जनसहयोग के दम पर हम अपने कामों को संचालित कर रहे हैं। हम अपनी पत्र-पत्रिकाओं के घाटे के भरपाई के लिए अभियान चलाते हैं, मज़दूर अखबार के लिए मज़दूरों के बीच नियमित रूप से कूपन काटते हैं, व्यवस्था-विरोधी आम राजनीतिक प्रचार के लिए 'क्रान्तिकारी लोकस्वराज अभियान' चलाते हैं और इसकी गतिविधियों के लिए सहयोग जुटाते हैं, वैकल्पिक जन मीडिया खड़ा करने के प्रयासों के लिए 'हमारा मीडिया अभियान' के तहत घर-घर, दफ्तर-दफ्तर जाकर एक-एक व्यक्ति से बात करके सहयोग लेते हैं। इसे कोई ''कार्यकर्ताओं से भीख मँगवाना'' कहे तो उसकी घटिया सोच का ही पता चलता है।
आज अपनी हुआँ-हुआँ का शोर मचा रहे ये सारे गीदड़ और चमगादड़ एनजीओ और प्रिंट मीडिया के भीटों और मांदों में रहते हैं, इनमें लोगों के बीच जाने का साहस कहाँ। ये ब्लॉग पर चाहे जितना विषवमन कर लें,संजीव जैसे 'नारसिसस कांप्लेक्स' से ग्रस्त किसी लेखक को पटाकर (जिन्हें मठाधीश बनने के लिए भी राजेंद्र यादव का उतारा हुआ जूता ही मिला)'हंस'में 'जनचेतना'और 'राहुल फाउण्डेशन' पर टिप्पणी करा लें, इससे हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। इन बातों से फर्क पड़ना होता तो 1990 से अब तक बार-बार कहा जाता रहा कि हम एक पारिवारिक मंडली हैं, कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी हैं, घरों में भागने के लिए सुरक्षित रास्ता तलाश रहे हैं, केवल किताब बेचते हैं, वगैरह-वगैरह -- हम तो कब के मिट गये होते। पुरानी कहावत है, कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी अपनी राह चलता जाता है।
हमें अपने बोल्शेविक होने पर गर्व है,और जिनके बीच रहकर हम लड़ रहे हैं उन पर भरोसा है। सोचना तो उन बुद्धिजीवियों को है जो बहस के नाम पर मचाई जा रही इस गंदगी पर चुप हैं या अन्दर-अन्दर मज़ा ले रहे हैं, या आन्दोलन को नसीहतबाज़ी की मुद्रा अपनाये हुए हैं। सोचना उन्हें है कि वे किस तरह के लोगों के साथ खड़े हैं और किस तरह की राजनीतिक संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं।
जो लोग संजीदगी के साथ इस मसले पर सोचते हैं (बहुत से लोगों ने हमें फोन करके कहा कि हमें इनका जवाब देना चाहिए), उनसे हमारा कहना है कि ज़रा सोचें, अलग-अलग समयों में संगठन से निकाले या बैठ गये इन तमाम लोगों का एक ही कॉमन एजेंडा कैसे हो गया?मुकुल तो फिर भी कुछ राजनीतिक मुद्दों का स्मोकस्क्रीन खड़ा करता हुआ भागा था,बाकी ने तो न संगठन में रहते कभी कोई सवाल उठाया न बाद में उनका कोई राजनीतिक सवाल था।
हमारे लिए यह सब कोई आश्चर्य की बात नहीं है, मगर बुद्धिजीवियों और राजनीतिक संगठनों के लोगों को देखना चाहिए कि ऐसी बातें करने वाले लोग कौन हैं, क्या कर रहे हैं, और इनका अपना सकारात्मक एजेंडा क्या है, या कुछ है भी या नहीं। हम तो मार्क्सवाद की इस बात में विश्वास करते हैं, जिसे लेनिन ने बार-बार दोहराया है कि किसी संगठन की राजनीतिक लाइन ग़लत होने से यदि उसके लोगों के व्यक्तिगत आचरण का भी पतन होता है, या कुछ लोगों के व्यक्तिगत पतन की वजह से भी यदि राजनीतिक लाइन ग़लत होती है,तो कम्युनिस्ट पहले राजनीतिक लाइन को ही निशाना बनाता है। जो लोग राजनीतिक लाइन के बजाय इन चीजों की बात करते हैं वे स्वतः अपने चरित्र को नंगा करते हैं क्योंकि कुत्सा-प्रचार की अपनी एक विचारधारा और राजनीति होती है।
आज के दौर में विभिन्न प्रकार की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं खड़ी करके राज्यसत्ता के सामाजिक अवलंबों के बरक्स जनक्रान्ति के सामाजिक अवलंबों का विकास करना क्रान्ति का एक ज़रूरी उद्यम है --यह हमारी सुस्पष्ट और घोषित राजनीतिक सोच है। इसी सोच के तहत राहुल फ़ाउंडेशन, अनुराग ट्रस्ट, परिकल्पना आदि खड़े किये गये हैं और डेढ़ दशक से अपने लक्ष्य को साकार करते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इसे ये छिछोरे जानते हैं। फिर भी, महज़ गाली देने के लिए यह कहना कि हम लोग राहुल सांकृत्यायन, अरविंद आदि के नाम पर पैसे बटोरने के लिए यह सब कह रहे हैं, कितनी घटिया बात है। हां, हम गर्वपूर्वक घोषित करते हैं कि हमारी राजनीति में वह ताकत है कि सच्चे लेनिनवादी अर्थों में पेशेवर क्रान्तिकारी सभी संपत्ति-संबंधों से निर्णायक विच्छेद करते हैं। इसी प्रकार की सामाजिक संस्थाओं के लिए अनेक पेशेवर क्रान्तिकारियों ने अपने घर-बार भी दिये हैं। जिन्हें महज़ गाली देने का बहाना चाहिए और जिनकी औकात ही नहीं है कि अपने बूते पर कोई संस्था खड़ी करने का सपना भी देख सकें, वे अगर इन उपक्रमों को संपत्ति खड़ी करने के उपक्रम के रूप में देखते हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। इनके द्वारा प्रचारित एक सफेद झूठ के विरुद्ध हम सार्वजनिक रूप से घोषणा करते हैं कि तकनीकी-क़ानूनी कारणों से एकाध अपवाद को छोड़कर हमारे बीच किसी पूरावक़्ती कार्यकर्ता की कोई निजी संपत्ति नहीं है।
सच्चा कम्युनिस्ट पड़ोसी के बच्चों से पहले अपनी पत्नी, बच्चों और परिवार को क्रान्ति से जोड़ता है। हम गर्वपूर्वक कहते हैं कि अपने परिवार को क्रान्ति की आंच से सुरक्षित रखने वाले भारत के बहुतेरे कम्युनिस्टों के विपरीत हमने अपने स्वजनों, परिजनों, संबंधियों, घनिष्ठ मित्रों को क्रान्तिकारी कामों से जोड़ा है या उनसे रिश्ते तय कर लिए हैं। संगठन के बहुत से साथियों ने सामाजिक परंपराओं को तोड़कर एक-दूसरे का जीवनसाथी बनने का कदम उठाया है। अगर कोई इसे संगठन में परिवार बढ़ाना कहता है तो इस निकृष्ट सोच को क्या कहा जाए? हमारे राजनीतिक जीवन में इन रिश्तों की कोई अहमियत कभी नहीं रही है। कुनबापरस्ती का आरोप लगाने वाले ये गीदड़ यह क्यों नहीं बताते कि विचारधारा और राजनीति के मतभेदों पर हमारे बीच कितने ही परिवार टूटे भी हैं। भाई-भाई, बाप-बेटे/बेटी, घनिष्ठतम मित्र तक उसूलों के सवाल पर दो जगह खड़े हैं।
जो किसी भी कम्युनिस्ट के लिए गर्व की बात हो सकती है, उसे जो लोग कलंकित और लांछित करने का प्रयास करते हैं, उनकी नस्ल पहचानना ज़रूरी है।