सभी उपनिवेशवादी,ख़्वाह वे पुराने हों या नये,अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए स्थानीय पिट्ठुओं पर ही निर्भर करते हैं.और अगर ये पिट्ठू अपने वर्गीय और सामाजिक रुझान से उनके साथ हों तो सोने में सुहागा हो जाता है.
नीलाभ
मेरे खयाल में अंजनी ने मृणाल वल्लरी के दुष्प्रचार का बहुत सही जवाब दिया है, हालांकि जनसत्ता, उसके गुर्गे, आम मीडिया, और कुछ स्वघोषित ब्लौगिये समाज सेवी और "सच्चाई के ठेकेदार" अपना शोर जारी रखे हुए हैं. यहां कुछ बातों को समझ लेना बहुत ज़रूरी है.
पहली बात तो यह है कि हमारी जनता जिन मुद्दों पर अपनी लड़ाई लड़ रही है,वे पहले की तरह सिर्फ़ ज़मीन या श्रम पर अधिकार की लड़ाई नहीं रह गयी है,न यह किसी एक फ़िरन्गी ताक़त और उसके पिट्ठुओं के ख़िलाफ़ किया जा रहा संघर्ष है.यह लड़ाई विश्व पूंजी और उनके दलालों के ख़िलाफ़ है जो एक नये उपनिवेशवादी ढांचे को लागू करके हमारे देश पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं.वेदान्त हो या पॉस्को या एनरौना या टाटा या जिन्दल -- इनका सूत्र संचालन अब amrika , जापान, विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश और आवारा पूंजी के हाथ में है.
दूसरी बात यह है कि सभी उपनिवेशवादी,ख़्वाह वे पुराने हों या नये,अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए स्थानीय पिट्ठुओं पर ही निर्भर करते हैं.और अगर ये पिट्ठू अपने वर्गीय और सामाजिक रुझान से उनके साथ हों तो सोने में सुहागा हो जाता है. इसलिए नरसिंह राव हों या मनमोहन सिंह, पी. चिदम्बरम हों या मोनटेक सिंह आहलूवालिया -- ये सब उनके प्राक्रितिक सहयोगी हैं.
तीसरी बात,नव उपनिवेश्वादियों और उनके स्वाभाविक सहयोगियों के मनसूबे तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक "बांटो और लूटो"की पुरानी आज़मूदा नीति पर अमल न किया जाये,चुनांचे देशवासियों के एक अच्छे-ख़ासे तबक़े को इस लूट का चूरा देना अनिवार्य होता है.परम्परागत रूप से मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा इसका लाभार्थी बनता है.यही वजह है कि पत्रकारिता और शिक्षक दिवसों पर पराड़कर और गणेश शंकर विद्यार्थी और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के गुण गानेवाले और त्याग और बलिदान और संयम का राग अलापने वाले आज अश्लील तनख़्वाहों का मज़ा लेते हुए सच्चाई के अलमबरदार बने हुए हैं.दिलचस्प बात यह है कि परम्परागत रूप से यही तबका परिवर्तन का विरोधी भी होता है और परिवर्तन का पक्षधर भी इसलिए सत्ताधारी और उसके गुर्गे इसके परिवर्तन विरोधी हिस्से को अपने आक्रमण के हाथ और हथियार बनाते हैं.
पढाई करतीं महिला गुरिल्ला फोटो: अजय प्रकाश |
स्वामी अग्निवेश और मृणाल वल्लरी इसी परिवर्तन विरोधी,सत्ता समर्थक तबक़े के सबल प्रतिनिधि हैं और इन्हें पूंजीवादियों के पिट्ठुओं के रूप में ही देखा जाना चाहिए.एक अगर बाहर से दुष्प्रचार करते हुए जनद्रोह कर रहा है तो दूसरा भीतरघात करके.
खैर,ये बातें बहुत प्राथमिक स्तर की बातें हैं और आप सब इन्हें जानते ही हैं.इस पृष्ठभूमि को पेश करने के पीछे मेरा आशय दोहरा है.
पहले तो यह कि अगर हम स्वामी अग्निवेश के वर्गीय चरित्र और भीतर्घत के उनके इतिहास से परिचित थे तो हमने उन्हें छत्तीसगढ़,झारखण्ड और अन्य इलाक़ों में आदिवासियों से कन्धा मिला कर लड़ रहे साथियों और हमारी दमनकारी,जनविरोधी सरकार के बीच इतने संवेदनशील मामले पर स्वयंभू मध्यस्थ बनने का अवसर ही क्यों प्रदान किया ?आज़ाद और उनके साथियों ने भी उन्हें अपनी ओर से मध्यस्थता करने की ज़िम्मेदारी क्यों सौंपी ?शान्ति-वार्ता को विफल करने का इरादा गृहमन्त्री पी.चिदम्बरम का ही नहीं था,कहीं-न-कहीं इस में स्वामी अग्निवेश का भी बहुत योगदान है.और जिस तरह से आज़ाद और हेम चन्द्र पाण्डेय की निर्मम हत्या की गयी और फिर उसके बाद गिरफ़्तारियों और सनसनीखेज़ और सरासर झूठे रहस्योद~घाटनों का सिलसिला शुरू हो गया है,उससे यह साफ़ है कि स्वामी अग्निवेश और मृणाल वल्लरी एक ही विराट थैली के चट्टे-बट्टे हैं.झूठी ख़बरों और दुष्प्रचार का जो तूमार मृणाल वल्लरी ने बांधा है वह गृहमन्त्री और सरकार की धोखेधड़ी का ही एक शाख़साना है.
ऐसे में इस भूल-ग़लती के लिए कौन ज़िम्मेदार है जो कवि मुक्तिबोध के शब्दों में "आज बैठी है जिरह-बख़्तर पहन कर तख़्त पर दिल के" ? कितनी prophetic, भविष्यसूचक हैं आगे की पंक्तियां --
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुल्तानी जिरह-बख़्तर बना है सिर्फ़ मिट्टी का,
वो -- रेत का-सा ढेर -- शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ़ सन्नाटा !!
( लेकिन, ना ज़माना सांप का काटा )
भूल ( आलमगीर )
मेरी आपकी कमज़ोरियों के स्याह
लोहे का जिरह-बख़्तर पहन, ख़ूंख़ार
हां ख़ूंख़ार आलीजाह;
वो आंखें सचाई की निकाले डालता,
करता, हमें वह घेर ,
बेबुनियाद, बेसिर-पैर...
हम सब क़ैद हैं उसके चमकते ताम-झाम में,
शाही मुक़ाम में ! !
लिहाज़ा, अगर हमें आगे स्वामी अग्निवेशों के भीतरघात से बचना है तो हमें और भी सावधान रहना होगा और यहां "हम"से मेरा आशय उन सभी से है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस संघर्ष में जुटे हुए हैं. रही बात मृणाल वल्लरी जैसी पत्रकारों की, तो वे दुष्प्रचार के बल पर ही पनपते हैं. बैक्टीरिया की तरह. उनके पास कुछ पिटे-पिटाये वाक्य होते हैं, कुछ परम्परागत गालियां, बिना पढ़े कुछ भी उध्रृत करने की ग़ैर-ईमानदारी --चाहे वह मार्क्स का कोई वाक्य हो या एंगेल्स का या मौक़ा-मुहाल पडने पर वेदों का.
जनसत्ता के सम्पादक को अपनी बिक्री से ग़रज़ है सच-झूठ से नहीं.कवि शमशेर के हवाले से कहूं तो "जो नहीं है जैसे कि ईमानदारी उसका ग़म क्य,वो नहीं है."और इसलिए क्या अब समय नहीं आ गया कि एक वैकल्पिक मीडिया,एक सबल सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा किया जाये और छिट्पुट ढंग से काम करने की बजाय एकाग्र ढंग से लोगों को गोलबन्द किया जाये.