Sep 11, 2010

दुष्प्रचार और भीतरघात साथ-साथ


सभी उपनिवेशवादी,ख़्वाह वे पुराने हों या नये,अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए स्थानीय पिट्ठुओं पर ही निर्भर करते हैं.और अगर ये पिट्ठू अपने वर्गीय और सामाजिक रुझान से उनके साथ हों तो सोने में सुहागा हो जाता है.


नीलाभ



मेरे खयाल में अंजनी ने मृणाल वल्लरी के दुष्प्रचार का बहुत सही जवाब दिया है, हालांकि जनसत्ता, उसके गुर्गे, आम मीडिया, और कुछ स्वघोषित ब्लौगिये समाज सेवी और "सच्चाई के ठेकेदार" अपना शोर जारी रखे हुए हैं. यहां कुछ बातों को समझ लेना बहुत ज़रूरी है.

पहली बात तो यह है कि हमारी जनता जिन मुद्दों पर अपनी लड़ाई लड़ रही है,वे पहले की तरह सिर्फ़ ज़मीन या श्रम पर अधिकार की लड़ाई नहीं रह गयी है,न यह किसी एक फ़िरन्गी ताक़त और उसके पिट्ठुओं के ख़िलाफ़ किया जा रहा संघर्ष है.यह लड़ाई विश्व पूंजी और उनके दलालों के ख़िलाफ़ है जो एक नये उपनिवेशवादी ढांचे को लागू करके हमारे देश पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं.वेदान्त हो या पॉस्को  या एनरौना  या टाटा या जिन्दल -- इनका सूत्र संचालन अब amrika  , जापान, विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश और आवारा पूंजी के हाथ में है.

दूसरी बात यह है कि सभी उपनिवेशवादी,ख़्वाह वे पुराने हों या नये,अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए स्थानीय पिट्ठुओं पर ही निर्भर करते हैं.और अगर ये पिट्ठू अपने वर्गीय और सामाजिक रुझान से उनके साथ हों तो सोने में सुहागा हो जाता है. इसलिए नरसिंह राव हों या मनमोहन सिंह, पी. चिदम्बरम हों या मोनटेक सिंह आहलूवालिया -- ये सब उनके प्राक्रितिक सहयोगी हैं.

तीसरी बात,नव उपनिवेश्वादियों और उनके स्वाभाविक सहयोगियों के मनसूबे तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक "बांटो और लूटो"की पुरानी आज़मूदा नीति पर अमल न किया जाये,चुनांचे देशवासियों के एक अच्छे-ख़ासे तबक़े को इस लूट का चूरा देना अनिवार्य होता है.परम्परागत रूप से मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा इसका लाभार्थी बनता है.यही वजह है कि पत्रकारिता और शिक्षक दिवसों पर पराड़कर और गणेश शंकर विद्यार्थी और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के गुण गानेवाले और त्याग और बलिदान और संयम का राग अलापने वाले आज अश्लील तनख़्वाहों का मज़ा लेते हुए सच्चाई के अलमबरदार बने हुए हैं.दिलचस्प बात यह है कि परम्परागत रूप से यही तबका परिवर्तन का विरोधी भी होता है और परिवर्तन का पक्षधर भी इसलिए सत्ताधारी और उसके गुर्गे इसके परिवर्तन विरोधी हिस्से को अपने आक्रमण के हाथ और हथियार बनाते हैं.

पढाई करतीं महिला गुरिल्ला                  फोटो: अजय प्रकाश
स्वामी अग्निवेश और मृणाल वल्लरी इसी परिवर्तन विरोधी,सत्ता समर्थक तबक़े के सबल प्रतिनिधि हैं और इन्हें पूंजीवादियों के पिट्ठुओं के रूप में ही देखा जाना चाहिए.एक अगर बाहर से दुष्प्रचार करते हुए जनद्रोह कर रहा है तो दूसरा भीतरघात करके.

खैर,ये बातें बहुत प्राथमिक स्तर की बातें हैं और आप सब इन्हें जानते ही हैं.इस पृष्ठभूमि को पेश करने के पीछे मेरा आशय दोहरा है.

पहले तो यह कि अगर हम स्वामी अग्निवेश के वर्गीय चरित्र और भीतर्घत के उनके इतिहास से परिचित थे तो हमने उन्हें छत्तीसगढ़,झारखण्ड और अन्य इलाक़ों में आदिवासियों से कन्धा मिला कर लड़ रहे साथियों और हमारी दमनकारी,जनविरोधी सरकार के बीच इतने संवेदनशील मामले पर स्वयंभू मध्यस्थ बनने का अवसर ही क्यों प्रदान किया ?आज़ाद और उनके साथियों ने भी उन्हें अपनी ओर से मध्यस्थता करने की ज़िम्मेदारी क्यों सौंपी ?शान्ति-वार्ता को विफल करने का इरादा गृहमन्त्री पी.चिदम्बरम का ही नहीं था,कहीं-न-कहीं इस में स्वामी अग्निवेश का भी बहुत योगदान है.और जिस तरह से आज़ाद और हेम चन्द्र पाण्डेय की निर्मम हत्या की गयी और फिर उसके बाद गिरफ़्तारियों और सनसनीखेज़ और सरासर झूठे रहस्योद~घाटनों का सिलसिला शुरू हो गया है,उससे यह साफ़ है कि स्वामी अग्निवेश और मृणाल वल्लरी एक ही विराट थैली के चट्टे-बट्टे हैं.झूठी ख़बरों और दुष्प्रचार का जो तूमार मृणाल वल्लरी ने बांधा है वह गृहमन्त्री और सरकार की धोखेधड़ी का ही एक शाख़साना है.

ऐसे में इस भूल-ग़लती के लिए कौन ज़िम्मेदार है जो कवि मुक्तिबोध के शब्दों में "आज बैठी है जिरह-बख़्तर पहन कर तख़्त पर दिल के" ? कितनी prophetic, भविष्यसूचक हैं आगे की पंक्तियां --

छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुल्तानी जिरह-बख़्तर बना है सिर्फ़ मिट्टी का,
वो -- रेत का-सा ढेर -- शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ़ सन्नाटा !!
( लेकिन, ना ज़माना सांप का काटा )
भूल ( आलमगीर )
मेरी आपकी कमज़ोरियों के स्याह
लोहे का जिरह-बख़्तर पहन, ख़ूंख़ार
हां ख़ूंख़ार आलीजाह;

वो आंखें सचाई की निकाले डालता,
करता, हमें वह घेर ,
बेबुनियाद, बेसिर-पैर...

हम सब क़ैद हैं उसके चमकते ताम-झाम में,
शाही मुक़ाम में ! !

लिहाज़ा, अगर हमें आगे स्वामी अग्निवेशों के भीतरघात से बचना है तो हमें और भी सावधान रहना होगा और यहां "हम"से मेरा आशय उन सभी से है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस संघर्ष में जुटे हुए हैं. रही बात मृणाल वल्लरी जैसी पत्रकारों की, तो वे दुष्प्रचार के बल पर ही पनपते हैं. बैक्टीरिया की तरह. उनके पास कुछ पिटे-पिटाये वाक्य होते हैं, कुछ परम्परागत गालियां, बिना पढ़े कुछ भी उध्रृत करने की ग़ैर-ईमानदारी --चाहे वह मार्क्स का कोई वाक्य हो या एंगेल्स का या मौक़ा-मुहाल पडने पर वेदों का.

जनसत्ता के  सम्पादक को अपनी बिक्री से ग़रज़ है सच-झूठ से नहीं.कवि शमशेर के हवाले से कहूं तो "जो नहीं है जैसे कि ईमानदारी उसका ग़म क्य,वो नहीं है."और इसलिए क्या अब समय नहीं आ गया कि एक वैकल्पिक मीडिया,एक सबल सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा किया जाये और छिट्पुट ढंग से काम करने की बजाय एकाग्र ढंग से लोगों को गोलबन्द किया जाये.




जनसत्ता की कालिमा में, राजसत्ता की चमक


जनसत्ता के सम्पादकीय पेज पर छपे लेख ' लाल क्रांति के सपने की कालिमा'में मृणाल वल्लरी  ने 'हिंदी अख़बारों की लघुपत्रिका में,सिरमौर बनी अंग्रेजी की उतरन'  को पत्रकारिता के न्यूनतम मानदंडों का मखौल  उड़ाते हुए जिस अधिकारिता से पेश किया है उसपर अंजनी कुमार का आलेख.
अंजनी  कुमार

एक अखिल भारतीय क्रांतिकारी पार्टी भी इन सारे मोर्चों पर न तो एक साथ लड़ सकती है और न ही लड़ते हुए गलतियों से बच सकती है। लेकिन गलतियों के खौफ से न तो सपने छोड़े जा सकते हैं और न ही उन्हें मारा जा सकता है। सपने देखना जरूरी है,लेकिन वह दिवास्वप्न न हो। सवाल उठाना जरूरी है,लेकिन वह खारिज करने वाला न हो। उनका जमीनी रिश्ता हो तो वह परिवेश से संवाद और खुद के भीतर एक सर्जक को जन्म देता है। अन्यथा सपने मारने की परम्परा तो चलती ही आ रही है। आप भी इसमें शामिल हैं तो यह कोई नई बात नहीं होगी। आज जरूरत सनसनीखेज खबर की नहीं,वस्तुगत सच्चाई से रू-ब-रू कराने वाली ख़बरों और इसे पेश करने वाले साहसी पत्रकारों की है।

उमा मांडी यानी सोमा मांडी के आत्मसमर्पण एवं सीपीआई (माओवादी)के नेताओं पर बलात्कार के आरोप की कहानी 24अगस्त को टाइम्स ऑफ  इंडिया ने सनसनीखेज तरीके से पेश  की। एक स्त्री की गरिमा और आम परम्परा तथा विशाखा निर्देशों (महिला हितों की रक्षा के लिए बना कानून)की धज्जी उड़ाते हुए इस अखबार ने उमा मांडी के फोटो और मूल नाम को भी छापा। इस घटना के लगभग दो हफ्ते बाद जनसत्ता में उसी कहानी को सच मानते हुए न केवल माओवादियों पर बल्कि लाल क्रांति पर कीचड़ उछालने वाला मृणाल वल्लरी का लेख छपा।

बीच के दो हफ़्तों में इस संदर्भ में तथ्य संबधी लेख,खबर और प्रेस रिपोर्ट भी छपकर सामने आये,लेकिन न तो लेखिका को पत्रकारिता के न्यूनतम उसूलों की चिंता थी और न ही 'जनसत्ता'को सच को प्रतिष्ठा प्रदान करने की। लगता है कि उनकी चिंता 'कालिमा'को सनसनीखेज तरीके से पेश  करने की थी और इसके लिए माओवादी आसान पात्र थे। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी जनपक्षधर नेतृत्व को माओवादी घोषित कर पूरे जनांदोलन को सनसनीखेज बनाकर कुचल देने के लिए पूर्व कहानी गढ़ लेना। आइए, दो हफ्ते में गुजरे कुछ तथ्यों पर नजर डालें।

द टेलीग्राफ में 29अगस्त को प्रणब मंडल के हवाले  से सोमा यानी उमा मांडी के कथित आत्मसमर्पण की कहानी पर खबर छपी। इस रिपोर्ट के अनुसार उमा मांडी 20अप्रैल को कमल महतो के साथ मिदनापुर से 15किमी दूर राष्ट्रीय राजमार्ग-6पर पोरादीही में गिरफ्तार हुई थीं। कमल महतो को पुलिस ने 17अगस्त को कोर्ट में पेश कियालेकिन  सोमा की गिरफ्तारी नहीं दिखाई गयी। इस रिपोर्टर के अनुसार इस बात की पुष्टि  न केवल उनके रिश्तेदार, बल्कि पुलिस के एक हिस्से ने भी की।

 इसी तारिख को  'यौन उत्पीड़न और राजकीय हिंसा के खिलाफ महिला मंच'ने एक प्रेस रिपोर्ट जारी कर टाइम्स ऑफ़  इंडिया के खबर की तीखी आलोचना करते हुए कुछ सवाल उठाये। एक सवाल का तर्जुमा देखिये :-आत्मसमर्पण के समय उमा द्वारा दिये गये बयान को ही आधार बनाकर खबर दे दी गयी। इसे अन्य स्रोतों से परखा नहीं गया। इस खबर को बाद में भी अन्य स्रोतों के बरक्स नहीं रखा गया। ज्ञात हो कि उपरोक्त मंच में एपवा से लेकर स्त्री अधिकार संगठन और एनबीए जैसे 60संगठन और सौ से ऊपर व्यक्तिगत सदस्य हैं। 11सितम्बर  के तहलका (अंग्रेजी) में बोधिसत्व मेइती की खबर के अनुसार ज्ञानेश्वरी रेल त्रासदी के आरोप में 26मई को हीरालाल महतो को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के समय पुलिस ने हीरालाल को एक दूसरी पुलिस जीप में हथकड़ी के साथ बांधी गयी उमा मांडी के सामने पेश करते हुए कहा- यह तुम्हें जानती है कि तुम माओवादी सहयोगी हो। उमा मांडी को पुलिस की जीप में और साथ में पुलिस को  वर्दी में देखने वाले ग्रामीणों के बयान को भी इस रिपोर्ट में पढ़ा जा सकता है।

 मानिक मंडल ने 31अगस्त को प्रेस क्लब, दिल्ली में बताया कि उमा मांडी की कहानी पुलिस द्वारा गढ़ी गयी है। उन्होंने अपने जेल अनुभव सुनाते हुए जेल में बंद पीसीपीए के कार्यकर्ताओं के उन पत्रों का हवाला दिया जिसमें उमा मांडी के पुलिस इन्फोर्मर होने की बात कही गयी है। इस पत्र के कुछ अंश तहलका ने जारी किये हैं। पूरा पत्र संहति ब्लॉग पर कुछ दिनों बाद अंग्रेजी में देखा जा सकेगा।

उपरोक्त तथ्यों के अलावा यदि हम प.मिदनापुर के एसपी मनोज वर्मा के उमा मांडी के आत्मसमर्पण के समय के और बाद के बयानों को देखें तब भी इस मुद्दे के ढीले पेंच नजर आयेंगे। एक संवेदनशील एवं गंभीर मुद्दे पर इन तथ्यों को नजरअंदाज कर लेख लिख मारने और छाप देने के पीछे न तो जल्दीबाजी का मामला दिख रहा है और न ही लापरवाही का। क्योंकि यहाँ हम इस तथ्य से भी वाकिफ हैं कि मृणाल वल्लरी लंबे समय से पत्रकारिता कर रही हैं, 'जनसत्ता' से जुड़ी हुई हैं और उन्हें युवा संभावनाशील पत्रकारों में शुमार किया जाता है। इसी तरह संपादक ओम थानवी के नेतृत्व वाली जनसत्ता की संपादकीय टीम भी ऊँचे दर्जे की पत्रकारिता के लिए स्थापित है।

राजेन्द्र यादव के शब्दों में ले-देकर यही एक अखबार है। यह अखबार भी सीपीआई माओवादी के बारे में अपनी ही पत्रकार के लेख को छापते समय पत्रकारिता की न्यूनतम नैतिकता को तक नजरअंदाज कर जाता है कि उमा मांडी उस पार्टी की सदस्य है भी या नहीं और इस पूरे मामले में पुलिस की भूमिका संदिग्ध है भी है या नहीं। यह अखबार पीसीपीए और सीपीआई माओवादी के बीच के फर्क को भी नजरअंदाज कर जाता है। ठीक वैसे ही जैसे गॉधीवादी हिमांशु को माओवादी घोषित कर दिया जाता है। इसी अंदाज में मृणाल वल्लरी सीपीआई माओवादी पार्टी, माओवादी और मार्क्सवादी होने का फर्क मिटाकर मनमाना लिखने की खुली छूट हासिल कर लेती हैं। गोया पत्रकारिता न होकर सब धान बाइस पसेरी वाली दुकान हो।

ऐसा ही मनमानापन कुछ समय पहले इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में दिखा। पुलिस के बयान पर एक आदिवासी युवा लिंगाराम जोकि दिल्ली में पत्रकारिता कि पढाई कर रहा है, को सीपीआई माओवादी को प्रवक्ता घोषित करते हुए यह बताया गया कि वह दिल्ली में माओवादी समर्थक के यहाँ छिपा हुआ है। यदि यह अपढ़ होने तथा  अधकचरेपन का परिणाम होता तो इसे दुरूस्त किया जा सकता है, लेकिन यह सचेत और सतर्कता का परिणाम है। इस मनमानेपन के पीछे पुलिस व शासन तंत्र की डोर कसकर बंधी हुई है। अन्यथा सिर्फ सरकारी बयान के संस्करण के आधार पर लाल क्रांति की चिंता का मनोजगत इस तरह खड़ा नहीं होता और न ही इस तरह की पत्रकारिता से हम रू-ब-रू होते।

मसलन,किसी आंदोलन का मूल्यांकन पार्टी संगठन,विचारधारा और कार्य अनुभव तथा हासिल के मद्देनजर करते हैं। सीपीआई माओवादी पार्टी के संगठन, विचारधारा,कार्य और हासिल के बारे में लेखों, रिपोर्टों आदि की लंबी फेहरिस्त है। ये आमतौर पर उपलब्ध हैं। ठीक इसी तरह अन्य पार्टियों,संगठनों तथा सरकारी तंत्र के कार्यों के बारे में भी तथ्य उपलब्ध हैं। मृणाल वल्लरी यह जरूर बताएं कि किस सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट में माओवादी बलात्कारी के रूप में चित्रित हैं। इसी तरह आप सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्टों में सीपीएम व हरमाद वाहिनी,भाजपा,कांग्रेस तथा उनके सलवा जुडुम इत्यादि के चेहरे को भी देखें। ऑपरेशन ग्रीन हंट के कारनामों को देखें।

 नक्सलबाडी उभार के समय 1967में सिद्धार्थ शंकर  रे ने एक तकनीक अपना रखी थी। इसमें पुलिस या आम छोटे दुकानदार को गोली मारने का काम खुफिया के आदमी किया करते थे,लेकिन परचे नक्सलियों के छोड़े जाते थे। आज छत्तीसगढ़ से लेकर मिदनापुर तक में यही कहानी चल रही है। इसमें नये तत्व शामिल हो गये हैं और नये खिलाड़ी भी शामिल हुए हैं। आपने 'लापता' महिलाओं का जिक्र करते हुए पीसीपीए के मिलिशिया पर बलात्कारी और अपहरणकर्ता होने का आरोप मढ़ा है। जिस दिन आपका लेख छपा है उसी दिन के 'जनसत्ता' में यह भी खबर है कि सीपीएम ने नंदीग्राम में 2500लोगों के बेघर होने की सूची सौपी है। आप बंगाल के प्रति चिंतित हैं और इससे निष्कर्ष निकालना चाहती हैं तो वहॉ के गैर माक्र्सवादियों से लेकर आईबी की सरकारी रिपोर्ट पर भी नजर डालें।

अब तक सीपीएम के नेतृत्व में पूरे जंगलमहल में हरमद वाहिनी ने 86 कैंप लगा रखे हैं, एकदम सलवा जुडुम की तर्ज पर। हत्या के बाद शव पर माओवादी साहित्य का जल चढ़ाने वाले हरमद वाहिनी के बलात्कार,हत्या और  गायब करने के कारनामों के बारे में 'नारी इज्जत बचाओ कमेटी'के पत्र और प्रेस रिपोर्ट देखिये। पीसीपीए के डुप्लीकेट पर्चे और पोस्टर जिनका रंग मूल पीसीपीए से अलग है, के बारे में जानने के लिए एपीडीआर की रिपोर्ट को देखिए। किसी भी आन्दोलन में भटकाव हो सकता है। इन पर बात करते समय ठोस सच्चाइयों का जिक्र जरूरी है। स्रोत के बारे में न्यूनतम जॉच-पड़ताल जरूरी है।

हिंदी अख़बारों की लघुपत्रिका  
इन संदर्भों को भूलकर आन्दोलन,नक्सलवाद व माओवाद पर पत्रकारिता करना भोलापन नहीं है। यह एक ऐसा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार है जिसके चलते आंदोलनों के प्रति संवेदनहीनता और उदासीनता का माहौल बनता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी तरह की पत्रकारिता ने हर विस्फोट को मुस्लिम समुदाय से जोड़कर एक ऐसा माहौल बनाया जिसका फायदा फासिस्ट हिन्दूत्ववादी ताकतों ने उठाया। इसने बहुसंख्यक आबादी को मुस्लिम समुदाय के प्रति पूर्वाग्रही और उनकी तकलीफों के प्रति संवेदनहीन बनाने में एक कारक की भूमिका अदा की।

मृणाल वल्लरी महिला आंदोलन की चुनौतियों को जिस संदर्भ में रखकर चिंता जाहिर कर रही हैं और निष्कर्ष निकाल रही हैं उसमें पुलिसिया संस्करण छोड़ कोई संदर्भ नहीं है। उनकी चिंता और तर्क महिला के प्रति उनके सरोकार के प्रकटीकरण हो सकते हैं,लेकिन महिला मुक्ति का सवाल पुलिसिया संस्करण से हल करने का उनका प्रयास उस संस्करण की व्याख्या होकर ही रह गया है।

मृणाल वल्लरी पूछती हैं कि ”मार्क्स और एंगेल्स के विचारों की बुनियाद पर खड़े कॉमरेडों के कंधों पर लटकती बंदूकों के खौफ से किस सपने का जन्म हो रहा है?“जाहिरा तौर पर उनका जोर कॉमरेडों की बंदूक एवं खौफ पर है और उत्तर नकारात्मक है। वह मानकर चल रही हैं कि बंदूकें सिर्फ कॉमरेडों यानी पुरुषों के पास हैं। जो भी आन्दोलन के बारे कखग जानता होगा वह इस अज्ञानता पर हंस ही सकता है। खौफ से सपने टूटते भी हैं और खौफ पैदाकर सपने देखे भी जाते हैं। यह अपने देश में विभिन्न पार्टियॉ व उनकी सरकारें खूब करती आ रही हैं। आप जहाँ रह रही हैं वहॉ अनुभव से इसी तर्क तक ही पहुंचा जा सकता है और उसे ही आप आजमाने की कोशिश कर रही हैं।

खौफ के खिलाफ खड़े होने की भी एक तर्क प्रणाली है और उससे उपजा हुआ सपना एक तर्क और लोकरंजकता से लबरेज भी होता है। यह एक ऐसी आम सच्चाई है जिसे गीत में भी ढाला जा सकता है और विचार व सिद्धांत में बदला भी जा सकता है। इस पूरी प्रकिया में गलतियाँ भी हो सकती हैं, ठीक वैसे ही जैसे शासक वर्ग की लूट में कुछ अच्छाईंयां दिखती रह सकती हैं। लेकिन मूल मसला सपने का है। सामंती व्यवस्था वाले हमारे समाज में दलित, स्त्री,अल्पसंख्यक,आदिवासी और राष्ट्रियताएँ जिस उत्पीडन की शिकार हैं उससे मुक्ति का रास्ता बहुस्तरीय संघर्षों से होकर जाता है।