May 31, 2011

ऐसी मुठभेड़ें तो चलती रहेंगी !

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पुलिस को ललकारा और कहा कि 'अगर वे एक मारें तो आप चार मारें।' उनके इस बयान के बाद सोनभद्र, चन्दौली और मीरजापुर में मुठभेड़ों की बाढ़ आ गयी... किस्त- 3

सोनभद्र से विजय विनीत 


मानवाधिकार संगठनों के दबाव के चलते ही भवानीपुर काण्ड की मानवाधिकार आयोग द्वारा जांच की गयीलेकिन दुर्भाग्यवश अभी तक यह रिर्पोट ज़ारी नहीं की गयी है। इसी बीच मारे गये देवनाथ और लालब्रत ने भी नौगढ़ में अपने को जिन्दा होने का दावा कर दिया। आज तक पुलिस यह बताने में नाकाम है कि देवनाथलालब्रतसुरेश बियार की जगह जो लोग मारे गये वे कौन थे। इसे मानवाधिकार संगठनों ने नरसंहार करार दिया और तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराते हुए पीयूसीएल ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की।

दुर्भाग्यवश यह याचिका उच्च न्यायालय ने यह कहकर स्वीकार नहीं की कि 'इस याचिका में कुछ खास नहीं है।' पुलिस ने भवानीपुर मुठभेड़ का जश्न मनाया। तत्कालीन डीजीपी एम.सी.द्विवेदी ने इस मुठभेड़ को जायज़ ठहराया और कहा कि ऐसी मुठभेड़ें तो होती रहेंगी। वहीं वाराणसी के आईजी वी.के.सिंह ने पुलिसकर्मियों को बधाई दी, जो कि स्वयं भवानीपुर में मुठभेड़ के दौरान मौजूद थे।

भवानीपुर हत्याकाण्ड ने प्रदेश स्तर पर तमाम मानवाधिकार संगठनों, प्रगतिशील ताकतों और बुद्धिजीवी वर्ग को लामबंद किया। इस हत्याकाण्ड के विरोध में कई कार्यक्रम हुए। सोनभद्र के मुख्यालय राबर्ट्सगंज में इस फर्जी मुठभेड़ को लेकर पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स ने दो दिवसीय मानवाधिकार सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें पूर्व न्यायाधीश इलाहाबाद उच्च न्यायालय वी.के.मेहरोत्रा और पूर्व न्यायाधीश पंजाब राजेन्द्र सच्चर समेत पीयूसीएल के उपाध्यक्ष चितरंजन सिंह, पूर्व जिला जज भगवन्त सिंह, पूर्व शिक्षा निदेशक उत्तर प्रदेश डा. कृष्णा अवतार पाण्डेय, सम्पादक अरूण खोटे अखिलेन्द्र प्रताप सिंह, सलीम समेत कई मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हुए।

पूर्व न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर ने भवानीपुर की घटना को पंजाब से जोड़ा और कहा कि वर्षों पूर्व बसों से उतारकर छः निर्दोष युवकों की हत्या कर दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई से करायी गयी जांच में मुठभेड़ फर्जी पायी गयी। ठीक यहीं स्थिति भवानीपुर की है। उन्होंने इस घटना का सबसे दुःखद पहलू इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा इन फर्जी मुठभेड़ों पर याचिका को स्वीकार न करना बताया। राजेन्द्र सच्चर द्वारा उत्तर प्रदेश में हो रहे मानवाधिकार हनन के मामले के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय को भेजे गये पत्र पर ही उच्चतम न्यायालय ने मानवाधिकार आयोग को भवानीपुर काण्ड की जांच करने के आदेश दिये।

सीबीआई जॉंच भी लम्बित है, लेकिन लगभग दस वर्ष बाद भी जॉंच रिपोर्ट सार्वजनिक न होना केंद्र और राज्य सरकारों की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़ा करती है। साथ ही यह भी आभास होता है कि सरकारें आज भी पूरी तरह सामन्ती व्यवस्था के तहत संचालित हैं और उन्हें दलितों और निर्दाषों के मुद्दे से कोई लेना-देना नहीं। भवानीपुर हो चाहे सोनभद्र का करहिया अथवा चन्दौली में हुई मुठभेड़े।

ऐसी हिंसा की शुरूआत क्यों हुई, इसके पीछे के कारणों पर गौर किया जाये तो उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह इस नरसंहार के लिये कहीं न कहीं जरूर दोषी हैं। राज्य द्वारा हिंसा का यह क्रूर खेल तब शुरू हुआ जब 13 अक्टूबर 2000 को सोनभद्र के करमा थाना क्षेत्र में रात में मुठभेड़ के दौरान चन्दौली के नौगढ़ थानाध्यक्ष ओ.पी. सिंह और सिपाही वेदप्रकाश की कथित माओवादियों की गोली लगने से मौत हो गयी। इस पर मृत थानाध्यक्ष और सिपाही को श्रद्धांजलि देने पहुंचे राजनाथ सिंह ने पुलिस को ललकारा और कहा कि 'अगर वे एक मारें तो आप चार मारें।' उनका यह बयान इस समूचे आदिवासी इलाके के लिए शोषण उत्पीड़न व दमन का कारण बन गया। उनके इस बयान के बाद सोनभद्र, चन्दौली और मीरजापुर में मुठभेड़ों की बाढ़ आ गयी।

भवानीपुर की घटना में शामिल तो इन तीनों जिलों की पुलिस थी, लेकिन पदोन्नति और पुरस्कार सिर्फ मिर्ज़ापुर पुलिस को मिली। सोनभद्र तथा चन्दौली पुलिस ने भी मिर्ज़ापुर पुलिस की तरह पदोन्नति व पुरस्कार पाने के लालच में माओवादियों के नाम पर दलितों-आदिवासियों की हत्या का अभियान शुरू कर दिया।

मई 2001 में करमा थाने की पुलिस ने टिकुरिया गॉंव निवासी राजेन्दर हरिजन को मार गिराया। राजेन्दर क्षेत्र में अपनी बिरादरी के स्वाभिमान, सम्मान और हक़ की आवाज़ उठाने लगा था। इसे भी पुलिस ने नक्सली की सूची में शामिल कर दिया था। इसी वर्ष जुलाई के प्रथम सप्ताह में पन्नूगंज पुलिस ने बगौरा गॉंव निवासी बचाउ हरिजन को मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया, जबकि रामगढ़ बाजार के तमाम लोगों का कहना था कि पुलिस ने उसे बाजार में खरीददारी करते वक्त पकड़ा। इसी तरह सितम्बर और नवम्बर में भी एक-एक दलित युवकों की पुलिस ने हत्या की।



विजय विनीत उन पत्रकारों में हैं,जो थानों पर नित्य घुटने टेकती पत्रकारिता के मुकाबले विवेक को जीवित रखने और सच को सामने लाने की चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी निभाते हैं.





विनायक के बाद अब पीयूष गुहा को मिली जमानत


पीयूष  की चिंता में मां-बाप दोनों मर गये। 2007  में हुई गिरफ्तारी के एक साल बाद पिताजी और फिर उसके एक साल बाद मां मर गयी। पीयूष को बड़ा दुख होगा कि उसके कारण मां-बाप मर गये...

अजय प्रकाश    

मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉक्टर विनायक सेन के सहअभियुक्त और आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कोलकाता के व्यापारी पीयूष गुहा को आज सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत दे दी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीष जीएस सिंघवी और सीके प्रसाद की एक अवकाश  प्राप्त खंडपीढ ने पीयूष गुहा के आजीवन कारावास की सजा को रद्द करते हुए उन्हें रिहा करने का आदेश दिया है। गौरतलब है कि इस मामले के तीसरे आरोपी और वरिष्ठ  माओवादी नारायण सान्याल अभी भी छत्तीसगढ़ की जेल में बंद हैं।

छत्तीसगढ़ सरकार ने 2007 में पीयूष गुहा को माओवादियों के संवदिया होने के आधार पर यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया था। सरकार के इस आरोप को सही मानते हुए 2010में पहले छत्तीसगढ़ की निचली अदालत और फिर उच्च न्यायालय ने इस मामले के तीनों अभियुक्तों बिनायक सेन,पीयूष गुहा और नारायण सान्याल की आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखी थी।
बिनायक सेन और नारायण सान्याल

सरकार का आरोप था कि पीयूष गुहा,विनायक सेन और जेल में बंद वरिष्ठ माओवादी नेता नारायण सान्याल के बीच की कड़ी थे,जो माओवादी पार्टी की अंदरूनी फैसले और जानकारी को विनायक सेन के जरिये नारायण सान्याल तक पहुंचाते थे। सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए दो लाख की जमानत और एक-एक लाख रूपये के मुचलके भरने के आदेश  के साथ पीयुश गुहा रिहा करने का आदेष दिया है। मानवाधिकार संगठन पीयूडीआर के सदस्य और असमिया प्रतिदिन के ब्यूरो चीफ आशीष  गुप्ता इसे सचाई की जीत मानते हुए कहते हैं,‘भविष्य में ऐसे गलत फैसले देने  की प्रवृति पर रोक लगेगी।'

अदालत में मौजूद रहे पीयूष गुहा  के भाई ओरूह गुहा  से जनज्वार  की  बातचीत

आजीवन कारावास की सजा काट रहे आपके भाई पीयूष  गुहा को सर्वोच्च न्यायालय से मिली जमानत पर आप क्या कहना चाहेंगे?

मेरे और परिवार के लिए बड़ी ख़ुशी  की बात है,लेकिन इस बात का दुख है कि एक निराधार मामले में हमें जमानत के लिए सर्वोच्च न्यायलय तक आना पड़ा। न्याय पाने की इस लंबी प्रक्रिया में परिवार को बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ीं।

कैसी मुसीबतें?
पीयूष  की चिंता में हमारे मां-बाप दोनों मर गये। 2007 में हुई गिरफ्तारी के एक साल बाद पिताजी और फिर उसके एक साल बाद मां मर गयी। पीयूष  को बड़ा दुख होगा कि उसके कारण मां-बाप मर गये।

इस बीच परिवार की माली हालत कैसी रही?

हमलोगों का धंधा तेंदुपत्ता और बीड़ी बेचने का था,जो पश्चिम  बंगाल के मुर्शिदाबाद  के सागोर पाड़ा गांव से चलता था। लेकिन पीयूष  की गिरफ्तारी के बाद व्यवसाय पूरी तरह बर्बाद हो गया क्योंकि उसे चलाने वाला कोई नहीं रहा।

आप इस जीत में किन लोगों का योगदान मानते हैं?

मानवाधिकार संगठन पीयूडीआर, पीयूसीएल और कोलकाता एपीडीआर अगर नहीं होते तो शायद हम अपने भाई को जमानत नहीं दिला पाते। प्रशन भूषण  और वृंदा ग्रोवर का बतौर वकील पीयूष के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय में खड़ा होना भी बेहद महत्वपूर्ण रहा।

क्या आपके भाई का माओवादियों के साथ कोई संबंध रहा है?

मैं ऐसा नहीं कह सकता,लेकिन जिस तरह सरकार माओवादियों को आतंकवादी बताने पर तुली है, हम ऐसा नहीं मानते।

जनता की भाषा में हो कविता - मैनेजर पांडेय

शमशेर की कविता को समझने के लिए जिंदगी को समझने पर जरुरत है. शमशेर की कविता की कुछ आलोचनाएँ  रहस्यवादी हैं और आलोचना  में रहस्यवाद बहुत घातक है...

कौशल किशोर

सुप्रसिद्ध आलोचक एवं जनसंस्कृति मंच के अध्यक्ष प्रो मैनेजर पांडेय ने कहा है कि कोई भी कविता तब जनतांत्रिक होती है जब वह संवेदना, संरचना व भाषा के स्तर पर जनता के लिए, जनता के बारे में और जनता की भाषा में बात करे। बड़ी  कविता वह है जो संकट के समय लोगों  के काम आए। नागार्जुन के काव्य लोक व्यापक विविधताओं का है तो शमशेर की कविता को जानने के लिए प्रकृति, संस्कृति और जिंदगी को समझना जरूरी है।

मैनेजर  पाण्डेय

प्रो पांडेय रविवार को जन संस्कृति मंच द्वारा हिन्दी के प्रसिद्ध कवियों शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन के जन्मशती समारोह के मौके पर ‘काल से होड़ लेती कविता’आयोजन में व्याख्यान दे रहे थे। यह आयोजन जयशंकर प्रसाद सभागार कैसरबाग में किया गया था। प्रो पांडेय ने कहा कि नागार्जुन एक ओर भारत के काश्मीर से मिजोरम के बारे में कविता लिखते हैं तो दूसरी तरफ अपने समय के लगभग सभी राजनैतिक व्यक्तियों पर कविता के जरिए सच कहने का साहस दिखाते हैं। उन्होंने प्रकृति पर जितनी कविताएं लिखी उतनी कविताएं शायद ही किसी कवि ने लिखी है। उनकी काव्य भाषा के विविध रूप और स्तर हमें चकित करते हैं।

प्रो पांडेय ने शमशेर की कविता को समझने के लिए जिंदगी को समझने पर जोर दिया। उन्होंने शमशेर की कविता की कुछ आलोचनाओं को रहस्यवादी आलोचना बताते हुए कहा कि आलोचना में रहस्यवाद बहुत घातक है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि यदि कविता लोगों की स्मृति में नहीं है तो वह किसी काम की नहीं है। जो कविता याद रहेगी वह काम करेगी। उन्होंने शमशेर और नागार्जुन को अपनी कविताओं में सभी कलाओं का इस्तेमाल करने वाला कवि बताया।

इसके पूर्व युवा आलोचक सुधीर सुमन ने केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर बोलते हुए कहा कि केदारनाथ अग्रवाल देशज आधुनिकता के कवि हैं जिनकी कविताएं अपनी परम्परा,प्रकृति और इतिहास से गहरे तौर पर जुडी हुई है। उनके जीवन और कविता में जनता के स्वाभिमान,संघर्ष चेतना ओर जिंदगी के प्रति एक गहरी आस्था मौजूद है। पूंजीवाद जिन मानवीय मूल्यों और सौन्दर्य को नष्ट कर रहा है और उस पूंजीवादी संस्कृति और राजनीति के प्रतिवाद में केदार ने अपनी कविताएं रचीं। उनकी कविताओं में जो गहरी उम्मीद है किसान, मेहनतकश जनता के जीत के प्रति वह आज भी हमें  उर्जावान बनाने में सक्षम है।

कार्यक्रम का आरम्भ शमशेर की कविता ‘काल तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू - तुझमें अपराजित मैं वास करूँ‘के पाठ से हुआ। इस मौके पर भगवान स्वरूप कटियार ने शमशेर की कविता ‘बात बोलेगी’ तथा ‘ निराला के प्रति’ का भी पाठ किया। ‘जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है/तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है/जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है/जो रवि के रथ का घोड़ा है/वह जन मारे नहीं मरेगा/नहीं मरेगा’केदार की इस कविता का पाठ किया ब्रहमनारायण गौड़ ने। उन्होंने केदार की कविता ‘मजदूर का जन्म’ व ‘वीरांगना’ भी सुनाईं। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने नागार्जुन की दो कविताओं का पाठ किया।  

जन्मशती समारोह में मैनेजर पाण्डेय ने चन्द्रेश्वर के कविता संग्रह ‘अब भी’’का लोकार्पण किया। आयोजन के अन्तिम सत्र में ‘हमारे सम्मुख शमशेर’ के अन्तर्गत शमशेर के कविता पाठ की वीडियो फिल्म दिखाई गई। इस फिल्म के माध्यम से लोगों ने शमशेर के मुख से उनकी कविताएँ सुनीं। कार्यक्रम के अन्त में मार्क्सवादी आलोचक चन्द्रबली सिंह को दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गई।
 
 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष : लूट, पैसा और पॉवर

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा  कोष नाम तीसरी दुनिया के देशों  पर यूरोपीय व अमेरीकी धौंसपट्टी व वित्तिय कब्जा करने के संस्थान के रूप में जाना जाता रहा है। यहां उनके हिटमैन बैठते हैं जो इथोपिया से लेकर भारत व चीन तक के राजनीतिक संस्थानों की बांह उमठने की नीति बनाते व अमल करते हैं...

अंजनी कुमार

डॉमिनिक स्ट्रॉस  केन यानी डीएसके पर अमेरीका के न्यूयार्क में बलात्कार के आरोप, गिरफ़्तारी व कोर्ट में पेशी  की खबर अंतर्राष्ट्रीय वित्त व राजनीतिक संस्थानों के लिए एक बड़ी खबर थी। खबर इसलिए बड़ी थी कि इससे डीएसके का जाना तय हो गया था। खबर के शेष  हिस्से में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे इस खबर का बाजार मूल्य इसे अखबारों के मुखपृष्ठ  तक ले आता।

डीएसके के ऊपर पैसा व पॉवर का प्रयोग कर महिलाओं को गिरफ्त  में लेने व उत्पीड़न करने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं। न्यूयार्क शहर वित्तिय संस्थानों का शहर माना जाता है। मंहगे होटल, विलासिता व अपराध वहां के जीवन का हिस्सा है। न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार जिस तीन हजार डॉलर प्रति रात सूइट वाले होटल में डीएसके ने महिला उत्पीड़न किया वहां इस तरह की घटनाएं आम हैं। डीएसके की इस घटना को चटपटी और सनसनीखेज बनाकर छापा गया। जिससे कि डीएसके का जाना तय हो गया। न्यूयार्क टाइम्स ने संस्थान के अध्यक्ष को हथकड़ी लगाकर पेश करने की अमेरीकी कार्यवाई को इस कारण से आलोचना रखी कि इससे वित्तिय संस्थानों व उनके कर्मचारियों के कार्य व्यवहार पर अनावश्यक  दबाव पड़ेगा।

न्यूयार्क की चिंता होटल व्यवसाय और वित्तिय संस्थान के पदाधिकारीयों के विलाषितापूर्ण जीवन को बचाए रखने की ही मुख्य है। द इकोनॉमिस्ट ने इसे ‘यूरोपीय मर्दाना व्यवहार’ बताकर अमेरीकी लोगों की गैरवाजिब ‘नैतिकता पर जोर’ बताकर इसके पीछे की कटु सच्चाई को मसालेदार बनाकर पेष किया। दरअसल यह अमेरीका की यूरोपीय हितों के मामले में एक गंभीर हस्तक्षेप है। मुद्रा कोष  के कर्मचारी इस बात से वाकिफ हैं। उन्होंने जब तय किया कि डीएसके के बाद किसी मर्द के बजाय महिला को ही इसका अध्यक्ष बनाया जाय तो उनका इशारा फ़्रांसिसी वित्त मंत्री क्रिस्टीना  लेगार्द की ओर था।

आमतौर पर मुद्रा कोष  का नाम तीसरी दुनिया के देशों  पर यूरोपीय व अमेरीकी धौंसपट्टी व वित्तिय कब्जा करने के संस्थान के रूप में जाना जाता रहा है। यहां उनके हिटमैन बैठते हैं जो इथोपिया से लेकर भारत व चीन तक के राजनीतिक संस्थानों की बांह उमठने की नीति बनाते व अमल करते हैं। ये तीसरी दुनिया के प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री तक का चुनाव और उनके कार्यव्यहार तक को तय करते हैं। भारत के संदर्भ में देखें तो यहां का गृहमंत्री, प्रधानमंत्रीए वित्त मंत्री और योजना आयोग के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष इसी कोष  की पैदाइश  हैं। वित्तिय नौकरषाहों की फौज का आयात अलग से किया गया है जिनकी घुसपैठ देष के हरेक संस्थान में  है। चाहे वह शिक्षा विभाग हो या टट्टी की साफ सफाई हो।

जो काम सेना नहीं कर पाती है उसे यहां के हिटमैन करते हैं और किसी भी देश  के संरचनागत बदलाव को अंजाम देकर उसे धीरे धीरे गुलामी व मौत के मुंह में ढ़केल देते हैं। लेकिन यूरोपीय व अमेरीकी मामले में इनका रूख एकदम भिन्न होता है। जरूरत पड़ने पर ये अपने हितों के लिए कोष की जेब तक पलट सकते हैं। डीएसके इसी मुद्रा कोष  के अध्यक्ष थे और अपना कार्यकाल समाप्त कर फ़्रांस  के अगले चुनाव में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने वाले था। डीएसके का नाम पिछले दिनों मुद्रा कोष में काम करने वाली एक अर्थशास्त्री पीरोस्का नैगी ने भी डीएसके पर उत्पीड़न करने का आरोप लगाया था।

डीएसके ने नैगी की प्रस्तावित योजना को काफी तवज्जो दी और उसके साथ मिलकर यूरोप के चार देषों पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बेलआउट देने की एक बड़ी योजना पर अमल करना तय किया। अकेले पुर्तगाल को 110 बिलियन डालर देने की योजना बनाई गई जिसमें से 36.8 बिलियन डालर का बेलआउट तत्काल मंजूर कर लिया गया। ग्रीस को यूरोपीय यूनियन व मुद्रा कोष  ने लगभग 145 बिलियन डालर का  बेलआउट देना तय किया। इस मद का आधा हिस्सा दिया जा चुका है। खबर है कि मुद्रा कोष इसकी आगामी किस्त रोक देने की फिराक में है। यूरोप में मंदी का जोर काफी है और वहां वित्तिय संकट लगातार बना हुआ है जिसके चलते वहां आंदोलनों का जोर बढ़ता जा रहा है और सरकारें किसी तरह राहत हासिल करने की फिराक में हैं।

पिछले दिनों पूरे यूरोप में काम के घंटे, पेंषन, वेतन और रोजगार को लेकर बड़े बड़े प्रदर्शन  हुए है। ग्रीस के युवाओं का 40 प्रतिशत हिस्सा बेरोजगार है और बिमार होने का अर्थ है नौकरी खो देना। स्पेन में युवाओं 45 प्र्रतिषत हिस्सा बेरोजगार है। वहां के हालात मिस्र  जैसा विस्फोटक है। स्थानीय निकाय चुनाव में 13 में से 11 सीट हार जाने के बाद सत्तासीन सोशलिस्ट पार्टी ने लोगों के इकठ्ठा होने की पाबंदी लगा दिया जिसके खिलाफत में देश  के 50 शहरों के सरकारी केंद्रों पर लोगों ने प्रतीकात्मक   कब्जेदारी कर इस आदेष का खुलकर माखौल उड़ाया गया। जर्मनी व इटली में मजदूर आंदोलन का जोर पिछले दो सालों से काफी बढ़ गया है।

खुद फ़्रांस  इन हालातों का षिकार है जहां डीएसके राष्ट्रपति बनने की उम्मीदवारी तय कर रखा था। पिछले साल के सितंबर- अक्टूबर में 60 लाख मजदूर सड़क पर उतर आए थे। अमेरीकी व यूरोप में मंदी से निपटने के तरीकों में सहमती नहीं है। खुद अमेरीका पर ऋण भार 14.3 tri लियन डालर हो चुका है। जिसके चलते बेघर व बेरोजगारों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। यूरोप में कम्युनिस्ट व समाजवादी आंदोलनों के चलते वहां की सरकारों पर सामुदायिक खर्च की जिम्मेदारी का दबाव है। इसमें कटौती करने का अर्थ राजनीतिक सामाजिक दबावों व आंदोलनों का सामना करना है। इसका दूसरा असर यूरोपीय समाज में फासिस्ट प्रवृत्तियों का उभार भी है। यूरोपीय वित्तीय गुट इस संकट से निकलने की छटपटाहट में हैं। और वे अमेरीका के सामुदायिक मदों पर खर्च के प्रस्ताव को स्वीकार करने के बजाय मुद्रा कोष  जैसे वित्तीय संस्थानों से बेलआउट के आधार पर मंदी से उबर आने  पर जोर लगाए हुए हैं।

यूरोपीय गुट की मुद्रा कोष  की सांगठनिक संरचना पर पकड़ भी है। जाहिर सी बात है कि  अमेरीका यूरोप से वैसे ही नहीं निपट सकता जैसा वह तीसरी दुनिया के देशों  के साथ निपटता रहता है। वह फिलहाल तो पैसा ताकत व सेक्स के इस बाजार में  नैतिकता पर जोर देकर ही डीएसके को बाहर जाने का दरवाजा दिखा सकता था। मगर अगले अध्यक्ष के चुनाव में अब भी यूरोपीय नाम ही प्रमुखता से उभरकर आया है। फ़्रांस  की वित्त मंत्री क्रिस्टीना  देगार्द डीएसके की तरह ही दक्षिणपंथी है। शायद यह नाम अमेरीका को रास आए। पर तीसरी दुनिया के देशों को यह नाम नहीं रूच रहा है।

देश  के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रूस, चीन, ब्राजील व अन्य देशों  के साथ मिलकर यह सवाल उठा रहे हैं कि हर बार मुद्रा कोष  का अध्यक्ष यूरोप से क्यों हो?  साथ ही यह बयान देकर रास्ते को खुला छोड़ दिया कि इसकी सांगठिन संरचना में बदलाव एक बार में नहीं हो सकता फिर भी तीसरी दुनिया के देशों  के हितों व दावों का ध्यान रखा जाय। इस कमजारे व लिजलिजे तर्क का निहितार्थ यही है कि देगार्द को अध्यक्ष बनने दिया जाय। क्रिस्टीना  देगार्द जी-20 की अध्यक्ष रहीं हैं। साम्राज्यवादियों के इस मंच से उन्होंने वैष्विक मंदी से निपटने के लिए तीसरी दुनिया, खासकर भारत, ब्राजील व चीन के बाजार की ओर रूख करने की नीति पर जोर दिया था। प्रणव मुखर्जी व वाणिज्य और उद्योगमंत्री आनंद शर्मा ने फ़्रांस  के इस उम्मीदवार को अनौपचारिक स्वीकृति दे दी है। क्रिस्टीना  देगार्द फ़्रांस में दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री मानी जाती हैं। जब फ़्रांस  आर्थिक तंगी से गुजर रहा था और मजदूरों व कर्मचारियों पर पूरा भार डालकर मंदी से उबरने के प्रयास चल रहे थे उस समय उन्होंने एक व्यापारी बनार्ड तेइपी को 285 मिलियन यूरो एक बैंक से उठाकर दे दिया। जिसका मामला वहां की कोर्ट में है।

सारकोजी व उनकी सरकार अपने दक्षिणपंथी रूख के लिए जानी जाती है। देगार्द का नाम न केवल यूरोपीय देशों बल्कि अमेरीका को भी रास आ जाएगा। और उनके  हितों के लिए वह बढ़िया हिटमैन साबित होगी। पैसा पॉवर व सेक्स के इस बाजार व संस्थान का खामियाजा आमजन व तीसरी दुनिया के देषों को ही उठाना है। लूट के इन विष्व संस्थानों में हिटमैनों की उठापटक हाथियों की धमाचौकड़ी ही है। फिर भी इससे इतना तो पता चलता ही है कि वहां विष्व मंदी से निपटने के लिए कितनी मारामारी मची हुई है। बहरहाल, डीएसके को ढ़ाई लाख डालर व अन्य मिलने वाली सुविधाओं के साथ मुद्रा कोष  से विदाई हो चुकी है। साथ ही महिला उत्पीड़न का मामला भी खात्मे की ओर बढ़ चुका है। साम्राज्यवादी लूट का नया चेहरा उन्हें मंदी से किस हद तक उबारेगा, यह देखना बाकी रहेगा। इस चेहरे का नाम जो भी हो हम इस देश  के लोग लूट के विद्रूप चेहरे को रोज ही देख रहे हैं।



स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता.फिलहाल मजदूर आन्दोलन पर कुछ जरुरी लेखन में व्यस्त.