Jul 10, 2011

मेट्रो मज़दूरों के हकों की लूट


आज दिल्ली के सैकड़ो मेट्रो मज़दूरों ने जन्तर-मन्तर पर डीएमआरसी अधिकारियों और डीएमआरसी की ठेका कम्पनियों खि़ला़फ प्रदर्शन किया। डीएमआरसी के ठेका मज़दूर,जिसमें किटकिट-वेंडिंग स्टाफ,हाउस कीपर और सुरक्षा गार्ड शामिल हैं,लम्बे समय से न्यूनतम मज़दूरी के भुगतान, ईएसआई,पीएफ, डबलरेट ओवरटाइम भुगतान, साप्ताहिक छुट्टी और ठेका मज़दूर कानून अधिकारों की मांग कर रहे हैं।

श्रम कानूनों के इस उल्लंघन के खि़ला़फ आज सैकड़ों मेट्रो मज़दूर जन्तर-मन्तर पर एकत्र हुए और उन्होंने श्रीधरन और डीएमआरसी प्रशासन का पुतला फूँका। डीएमकेयू ने ज्ञापन समेत एक माँग पत्रक क्षेत्रीय श्रमायुक्त के कार्यालय को सौंपा,जिसपर सैकड़ों मज़दूरों के हस्ताक्षर थे। मज़दूरों ने दावा किया कि बेदी एंड बेदी, ट्रिग, आल सर्विसेज़, प्रहरी,ए 2जेड, आदि जैसी ठेका कंपनियों खुलेआम रम कानूनों की डीएमआरसी में धज्जियां उड़ा रही हैं। ये कंपनियां वे हैं जिन्हें टिकट ऑफिस मशीन चलाने, सफाई कराने और सुरक्षा का ठेका मिला हुआ है।

सरकार की नवीनतम अधिसूचना के अनुसार, टॉम ऑपरेटरों को करीब 8 हज़ार रुपये मिलने चाहिए, लेकिन उन्हें सिर्फ साढ़े चार से पांच हज़ार रुपये तक ही दिये जाते हैं। सफाई कर्मचारियों को भी कानूनी न्यूनतम मज़दूरी का केवल आधा दिया जाता है और अधिकांश मामलों में तो उन्हें साप्ताहिक छुट्टी तक नहीं मिलती। सुरक्षा गार्डों की स्थिति भी दयनीय है। ऐसा नहीं है कि डीएमआरसी अधिकारी इस स्थिति से वाकिफ नहीं हैं,लेकिन वे डीएमकेयू की बार-बार मांग के बावजूद कोई कदम नहीं उठा रहे हैं।

डीएमकेयू के सचिव अजय स्वामी ने कहा कि डीएमआरसी खुलेआम सभी श्रम कानूनों को तोड़ रही है और इसने अनजाने में इस बात को मान भी लिया है। श्री स्वामी ने कहा कि एक सूचना अधिकार आवेदन के जवाब में डीएमआरसी ने माना है कि उस के पास ठेका मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं है, जो स्टेशन स्टाफ और निर्माण मज़दूरों के रूप में काम कर रहा है। डीएमआरसी हमें बता रही है कि ये लोग उसके नहीं बल्कि ठेका कम्पनियों के कर्मचारी हैं,लेकिन ठेका मज़दूर कानून 1971 के अनुसार इन मज़दूरों का प्रधान नियोक्ता डीएमआरसी ही है और यह कानूनन उसकी जिम्मेदारी है कि वह सभी श्रम कानूनों के पालन को सुनिश्चित करे और इस की नियमित जांच करे।

सवाल यह भी है कि अगर डीएमआरसी के पास ठेका मज़दूरों का रिकॉर्ड ही नहीं है तो वह यह सुनिश्चित कैसे कर सकता है कि उनके श्रम अधिकारों की पूर्ति हो रही है? श्री स्वामी ने कहा कि यह प्रदर्शन डीएमआरसी प्रशासन को एक चेतावनी है कि अगर यह श्रम कानूनों के उल्लंघन में ठेका कम्पनियों ने मिलीभगत को जारी रखेगी तो हज़ारों मेट्रो ठेका कर्मचारी सड़कों पर उतरकर अपने हक़ों की लड़ाई लड़ेंगे।


नागार्जुन के नाम

पीयूष पन्त की कविता


शब्द हुए बंधक
कलम हुई दासी
जनता में फैली अजब उदासी
मुट्ठी जब भिंचती है उठने को ऊपर
त्योरियां तब चढ़ जाती हैं उनकी क्यों कर
नारे उछलते हैं गगनभेदी
मानो बजती हो दुन्दुभी जनयुद्ध की

होते इशारे फिर कहर है बरपाता
जनता पर डंडे और गोली बरसाता
बार- बार लोकतंत्र की कसमें है खाता
सत्ता के नशे में रहता मदमाता
फिर भी वो जनता का नेता कहलाता

कैसा ये लोकतंत्र कैसी आज़ादी
बोलने समझने की, जहाँ ना हो मुनादी



विदेशी मामलों के महत्वपूर्ण टिप्पणीकार और सामाजिक आन्दोलन से जुडी 'लोक संवाद' पत्रिका के संपादक.

अलीगढ में कांग्रेस की सियासी महापंचायत

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने भट्ठा-पारसौल से लेकर अलीगढ़ के नुमाइश मैदान तक जो भी किया वो मीडिया में छाया रहा,लेकिन असल सवाल यह है कि क्या राहुल किसानों के एक बेहतर और सर्वमान्य भूमि अधिग्रहण कानून अपने दल की सरकार के रहते बनवा पाएंगे...

आशीष वशिष्ठ 

आजादी के 67 सालों के भीतर जब कोई भी सरकार (सर्वाधिक 55 सालों तक) किसानों की भलाई के लिए काम नहीं कर पायी तो राजनीति में ट्रेनी राहुल किसानों के भले के लिए कोई ठोस कार्यवाही या पुख्ता कानून बनवा पाएंगे, ये पत्थर में से पानी निकालने जैसा ही होगा। एक तरह से देखा जाए तो राहुल की पदयात्रा और किसान महापंचायत ने मायावती को कम और अजित सिंह की रालोद को ही ज्यादा नुकसान पहुँचाया है,क्योंकि राहुल ने जिन किसानों की बात जोर-शोर से उठाई है उनमें से अधिकतर जाट बिरादरी से हैं।

दलितों के पास यूपी क्या देशभर में ही जमीन का बहुत छोटा हिस्सा है, ऐसे में भट्ठा-पारसौल को राजनीति का अखाड़ा बनाकर और मौजूदा भूमि अधिग्रहण को नकारा बताकर कांग्रेस के नौसिखिये  युवराज ने स्वयं अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। वैसे में उम्मीद बहुत कम है कि राहुल ऐसा कर पाएंगे, लेकिन राजनीतिक नफा-नुकसान से वाकिफ राहुल फौरी राहत के लिए किसानों का कुछ भला तो करेंगे ही।
भट्ठा-पारसौल के कंधें पर बंदूक रखकर राहुल कहां निशाना लगा रहे हैं ये किसी से छिपा नहीं है। लेकिन यूपी की माया सरकार पर दर्जनभर चापलूस मंत्रियों की फौज के साथ अलीगढ़ के नुमाइश मैदान से मायावती को ललकारने वाले राहुल ये क्यों भूल जाते हैं कि देश के जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारे हैं वहां के किसान भी यूपी की तरह दुःखी और परेशान हैं।ऐसे में किसानों के मुद्दे पर ओछी,घटिया और वोट बटोरू राजनीति कृषि प्रधान देश में किसानों के साथ भद्दा और घिनौने मजाक से बढ़कर कुछ और नहीं है।

उदारीकरण की 1991 में जो बयार देश में बही उसने कृषि प्रधान देश की उपाधि हमसे छीन ली। यह कड़वी सच्चाई है कि आज देश में कृषि पर से निर्भरता कम हुई है और विकास, विशेष आर्थिक क्षेत्र, उद्योगों की स्थापना और एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर किसानो की उपजाऊ जमीनों को कोड़ियों के दामों पर खरीदकर सरकार कारपोरेट घरानों और बिल्डरों को खुश  करने में मगन है। सीधे अर्थों में सरकार जनता और अन्नदाता किसानों के साथ गद्दारी और धोखाधड़ी कर रही है। क्योंकि सरकार जिस मकसद से किसानों से जमीन लेती है उसका उपयोग उसके काम में नही होता है और सरकार और उसकी पालतू मशीनरी कमीशन की मलाई से पेट तर कर रही है।

अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नोएडा में यूपी सरकार द्वारा अधिग्रहित की गई जमीन किसानों को वापिस करने का आदेश देकर सरकार को तगड़ा झटका और किसानों को बड़ी राहत दी है। ऐसा नहीं है कि केवल यूपी की में ही किसानों की जमीनें सरकार ने हड़पी है। उपजाऊ जमीनों की ये लूट देशभर में जारी है। देश के भोले-भाले किसान सरकारी चालबाजियों और गलत नीतियों से ठगे जा रहे हैं। यूपी की वर्तमान माया सरकार और पूर्ववर्ती मुलायम सिंह की सरकार ने औद्योगिक घरानों और बिल्डरों को प्रदेश की उपजाऊ जमीनें थाली में सजाकर देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। आगरा, टप्पल, इलाहाबाद, लखनऊ और हाल ही भट्ठा-पारसौल की घटना ने सूबे में किसान राजनीति को तो गर्माया ही है, वहीं यह भी सोचने को मजबूर किया है कि आखिरकार सरकार विकास के नाम पर जिस उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण कर रही है उसका क्या औचित्य है?

विकास के नाम पर पिछले एक दशक में नोएडा में सरकार ने 8500 एकड़ जमीन अधिग्रहित की है, उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण रोजी-रोटी की समस्या को बढ़ाने में अहम् भूमिका निभा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के तलख तेवरों के बाद शायद इस प्रवृत्ति पर आंशिक रोक लगने की उम्मीद तो जगी है, लेकिन भ्रष्ट और कारपोरेट घरानों के हाथों बिकी सरकार षडयंत्र और कुचक्र रचने से तौबा करेगी इसकी संभावना कम ही है।

देश के लगभग हर राज्य में स्थानीय सरकारें औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए अधिक से अधिक खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण कर तो लेती है, लेकिन जिन उद्देश्यों के लिए जमीन ली जाती है वो जमीन उस काम न लाकर व्यवासियक या अन्य बिजनेस में व्यर्थ गंवा दी जाती है। यूपी में यमुना और गंगा एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर हजारों एकड़ जमीन किसानों से हथियाकर जेपी ग्रुप को दी है। सरकार अपनी योजनाओं के लाभ बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है, लेकिन एक्सप्रेस हाईवे और राजमार्गो के निकलने से भूमिहीन किसानों को क्या लाभ होगा ये बात समझ से परे हैं। जब किसान अपनी जमीन ही बेच देगा तो वो क्या किसी कारखाने में मजदूरी करेगा या फिर हाईवे के किनारे फल या सब्जी का ठेला लगाएगा।

सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई को अगर 'भूमि हड़प' कहकर संबोधित किया जाए तो कोई बुराई नहीं होगी। क्योंकि इस प्रक्रिया में छोटे व सीमांत किसान तेजी से भूमिहीन श्रमिक बन रहे हैं। इसीलिए, स्थानीय किसान और समुदाय सरकारी जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहा है। हालांकि इन किसानों का रोजगार, बिजली, सड़क, उत्पादकता और आय में बढ़ोतरी, तकनीकी हस्तांतरण आदि का प्रलोभन दिया जा रहा है, लेकिन इससे होने वाले नुकसान के बारे में स्थानीय सरकारें खामोश हैं। फिर मुआवजा, रोजगार, आय आदि के मामले में असंगठित और छोटे किसानों के हितों की अनदेखी की जा रही है।

विडंबना यह है कि देश के किसान भी भूमि अधिग्रहण से जुड़ी अनेक समस्याओं को समझ नहीं पा रहे हैं। कर्ज के बोझ तले दबे और नगदी फसलों की पैदावार के लोभ के फेर में पड़े किसान आत्महत्या से मुक्ति पाने के जिस गलत मार्ग पर चल पड़े हैं वो इस देश और देशवासियों के लिए अफसोसजनक और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है।

नंदीग्राम से भट्ठा-पारसौल तक किसानों का दुःख-दर्द ज्यों का त्यों बरकरार है और नेता नगरी राजनीति करने में मशगूल है। अलीगढ़ के नुमाइश मैदान में कांग्रेस के युवराज ने किसान पंचायत (नुमायश) करके किसानों का सबसे बड़ा हितैषी और हमदर्द बनने की जो पॉलिटिक्स की है वो ऊपर से तो भली और सार्थक पहल लगती है कि कोई युवा और प्रभावशाली नेता जमीन और किसान की बात कर रहा है, लेकिन दर्द और गुस्सा तब आता है कि वो नेता सक्षम होने के बावजूद भी किसानों को मीठी गोली और झूठे वायदों की चाशनी में डूबी जलेबी खिलाकर अपने साथ जोड़ने और वोट बटोरने को अधिक आतुर दिखाई देता है।

राहुल अगर असल में ही किसानों के साथ हैं तो आगामी मानसून सत्र में उन्हें भूमि अधिग्रहण के लिए एक पुख्ता कानून बनवाने का पूरा प्रयास करना चाहिए। वहीं किसानों को भी नेतागिरी और नेताओं से जुदा होकर खुद एकजुट होकर अपनी समस्याओं के लिए संघर्ष करना चाहिए। क्योंकि जो हाथ जमीन से सोना पैदा कर सकते हैं, वो हाथ मिलाकर अपने हक-हकूक की लड़ाई लड़ और जीत भी सकते हैं।


स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक .


धरातल की राजनीति करते राहुल

राहुल ने लगभग 70किलोमीटर की अपनी पहली सबसे लंबी दूरी की पदयात्रा पूरी करने के बाद राज्य के किसानों से मिलकर यह एहसास कराना चाहा कि वे उनकी मांगों व समस्याओं के प्रति गंभीर हैं...

तनवीर जाफरी           


कल अलीगढ में किसान महापंचायत करके कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य पर अपनी राजनीति केंद्रित करने का पुख्ता प्रमाण दे दिया है। गौरतलब है कि केंद्र में स्वतंत्रता के पश्चात चार दशकों तक लगातार शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य में हमेशा अपना पूरा प्रभाव रखती थी। परंतु उत्तर प्रदेश की सत्ता गैर कांग्रेसी दलों विशेषकर समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के हाथों में जाने का सिलसिला शुरू होने के बाद कांग्रेस लडख़ड़ाती नज़र आने लगी। अब एक बार फिर राहुल गांधी ने केंद्र में कांग्रेस पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाए जाने के दृष्टिगत् उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से अपनी राजनीति केंद्रित कर दी है। और उत्तर प्रदेश में मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी की सक्रियता ने पिछले पांच वर्षों में बड़ी तेज़ी से जो जान फूंकी है उसका राज्य के कांग्रेसजन भी अंदाज़ा नहीं लगा सकते थे।

ग़ौरतलब है कि 72 जि़लों वाला यह राज्य लोकसभा के लिए 80 सांसद निर्वाचित करता है। वर्ष 2004 में मात्र 4 लोकसभा सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश में किए गए तूफानी दौरों के बाद कांग्रेस पार्टी को इस स्थिति तक पहुंचा दिया कि पार्टी 2009 के लोकसभा चुनावों में 23 सीटों तक पहुंच गई। कांग्रेस की इस अप्रत्याशित सफलता ने एक ओर राज्य में जहां कांग्रेसियों के हौसले बुलंद किए, वहीं कांग्रेस विरोधी दलों विशेषकर राज्य की सत्तारुढ़ बहुजन समाज पार्टी की नींद हराम कर डाली। परंतु राहुल गांधी हैं कि अपने विशेष अंदाज़ से लोगों से मिलने, आम गरीब लोगों के बीच जाने तथा उन्हीं के घरों में खाना खाने व चारपाई पर सोकर रात बिताने का सिलसिला नहीं छोड़ रहे हैं। राहुल गांधी के इस धरातलीय ‘गांधी दर्शन’ से प्रदेश की मुख्यमंत्री इतना घबराई हुई हैं कि वे स्वयं प्रेस कांफ़्रेंस बुलाकर कई बार राहुल गांधी की ऐसी यात्राओं व जनसंपर्क को ‘नौटंकी’ कहकर संबोधित कर चुकी हैं।

भारतीय जनता पार्टी भी राहुल गांधी के इस धरातलीय राजनीतिक अंदाज़ से काफी घबराई हुई है। कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में जहां मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को पार्टी प्रभारी बनाया हुआ है, वहीं भारतीय जनता पार्टी ने भी दिग्विजय सिंह के बराबर का कार्ड खेलने के लिए मध्य प्रदेश की ही पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को पहले तो पुन: भाजपा में शामिल किया और बाद में उन्हीं को उत्तर प्रदेश का पार्टी प्रभारी भी बना दिया। यह और बात है कि मध्य प्रदेश की जनता द्वारा खारिज की जा चुकी उमा भारती के उत्तर प्रदेश भाजपा प्रभारी बनते ही भाजपा में भी ज़बरदस्त घमासान छिड़ गया है।

राहुल गांधी से जुड़ा ताज़ातरीन घटनाक्रम किसानों के ज़मीन अधिग्रहण मामले से जुड़ा है। उत्तर प्रदेश व दिल्ली की सीमा से सटे नोएडा के भट्टा-पारसौल नामक गांवों में इसी वर्ष 7 मई को उत्तर प्रदेश पुलिस और किसानों के मध्य भीषण संघर्ष हुआ था। इस संघर्ष में पांच व्यक्ति मारे गए थे। इस संघर्ष के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने पूरे क्षेत्र में धारा 144 लगा दी थी। इस घटना के चौथे दिना 11 मई को प्रात:काल लगभग 5 बजे राहुल गांधी पुलिस-प्रशासन को चकमा देकर भट्टा-पारसौल गांवों में पहुंच गए थे। वहां उन्होंने यह पाया कि पुलिस के भयवश पूरे गांव के मर्द,युवा व बुज़ुर्ग अधिकांशतया गांव को छोडक़र अन्यत्र चले गए थे।

राहुल गांधी ने 11 मई को भट्टा-पारसौल गांव में पहुंच कर राज्य सरकार के विरुद्ध धरना दिया तथा किसानों व उनके परिजनों को यह आश्वासन दिया कि वे राज्य सरकार द्वारा किसानों की भूमि जबरन अधिग्रहण किए जाने के विरुद्ध हैं। वे अंत तक किसानों की लड़ाई लड़ेंगे तथा उनके साथ खड़े रहेंगे। अभी इस घटना को मात्र दो महीने ही बीते थे कि 4जुलाई को राहुल गांधी पुन: भट्टा-पारसौल गांव जा पहुंचे तथा उन्होंने भट्टा-पारसौल से अलीगढ़ तक का पैदल मार्च भी कर डाला। राहुल गांधी की इस पदयात्रा को कांग्रेस द्वारा किसान संदेश यात्रा का नाम दिया गया जो 9 जुलाई को अलीगढ़ के नुमाईश मैदान में किसान महापंचायत में पहुंचने पर समाप्त हुई।

राहुल ने लगभग 70किलोमीटर की अपनी पहली सबसे लंबी दूरी की पदयात्रा पूरी करने के बाद राज्य के किसानों से मिलकर यह एहसास कराना चाहा कि वे उनकी मांगों व समस्याओं के प्रति गंभीर हैं। राहुल ने किसान महापंचायत में जहां प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती पर यह कहते हुए सीधा आक्रमण किया कि ‘अपना हक मांगने पर किसानों को उत्तर प्रदेश सरकार गोली मार देती है। वहीं उन्होंने किसानों को यह आश्वासन भी दिया कि भूमि अधिग्रहण कानून में आवश्यक संशोधन की सिफारिश की जाएगी।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम नि:संदेह केंद्र सरकार द्वारा बनाया गया कानून है तथा इसमें संशोधन के भी सभी अधिकार केंद्र सरकार के ही पास हैं। लिहाज़ा इसमें कोई शक नहीं कि भूमि अधिग्रहण को लेकर किसानों को होने वाली परेशानियों का समाधान केंद्र सरकार ही कर सकती है। परंतु जिस प्रकार राहुल गांधी किसानों के बीच स्वयं जाकर बार-बार किसानों से यह कह रहे थे कि 'भूमि अधिग्रहण किस प्रकार हो रहा है इसे मैं समझना चाहता हूं और भूमि अधिग्रहण पर बने नए कानून के बारे में लोगों की राय जानना चाहता हूं।' इससे यह ज़ाहिर हो रहा है कि राहुल गांधी एक तीर से कई शिकार खेल रहे हैं। अर्थात् अपने ही कथनानुसार जहां वे भूमि अधिग्रहण संबंधी कानून के वास्तविक प्रभाव तथा इस कानून से किसानों को होने वाले नफे-नुकसान,उनकी शिकायतों व परेशानियों के बारे में जान व समझ रहे हैं, वहीं वे अपने अत्यंत धरातलीय जनसंपर्क के माध्यम से किसानों के दिलों में अपनी गहरी छाप भी छोड़ रहे हैं। यही वजह है कि 2012 में विधानसभा चुनावों का सामना करने जा रहे कांग्रेस विरोधी दल राहुल गांधी के इस प्रकार के आश्चर्यचकित कर देने वाले दौरों से काफी भयभीत नज़र आ रहे हैं।

राहुल गांधी कभी बुंदेलखंड में किसी दलित परिवार में जाकर उसका हालचाल पूछते हैं और रात वहीं बिताते हैं। और कभी बहराईच जैसे दूर-दराज़ इलाकों में गरीबों व दलितों के घर जाकर उन्हें अपनत्व का एहसास कराते हैं। बलात्कार के लिए पिछले दिनों चर्चा में रहे उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी कभी बांदा के बीएसपी विधायक द्वारा किए गए बलात्कार की पीडि़ता से संपर्क करते हैं, तो कभी लखीमपुर के निघासन में अचानक पहुंचकर उस कन्या के परिजनों को ढाढ़स बंधाते हैं जिसे पुलिसवालों ने कथित रूप से मारकर पेड़ पर लटका दिया था।

और अब राहुल ने किसानों के बीच जाकर उनके दु:ख-दर्द को समझने और उसमें शरीक होने तथा समय आने पर उसका समाधान करने का संकल्प लिया है। वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ साधारण किसानों के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर उन्हें किसानों की समस्याओं से भी अवगत करा चुके हैं। गोया राहुल गांधी जैसे कांग्रेस के शीर्ष नेता एवं पार्टी महासचिव जिस ज़मीनी स्तर पर आकर राजनीति में ज़ोर-आज़माईश कर रहे हैं, उसे देखकर यही अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि कांग्रेस राहुल गांधी के कठोर परिश्रम और उनकी ‘गांधी दर्शन’ का आभास कराती धरातलीय राजनीतिक शैली के बलबूते पर केंद्र में पूर्ण बहुमत में आने की दूरगामी रणनीति पर काम कर रही है।


लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.

राहुल की महापंचायत किसानों के साथ धोखा

लखनऊ. पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलनरत किसानों की उठ रही मांग के अनुरूप मानसून सत्र में केन्द्र की यूपीए सरकार द्वारा अंग्रेजों के बनाए 1894 के भूमि अधिग्रहण के काले कानून को रद्द करने की स्पष्ट घोषणा न करके राहुल गांधी ने कल अलीगढ किसान पंचायत में बुलाए किसानों को धोखा ही दिया है। यह प्रतिक्रिया जन संघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने आज अलीगढ़ में कांग्रेस द्वारा बुलायी किसान पंचायत पर दी।

            
अखिलेन्द्र ने कहा कि कारपोरेट का हित और किसानों के भले के लिए लफ्फाजी एक साथ नही चल सकती। हरियाणा जिसका राहुल बार-बार जिक्र कर रहे है वहां भी किसानों के लिए कोई स्वर्गराज नहीं है और यह भी कि इस इलाके के सभी किसान विकास के लिए जमीन देना चाहते है सच नहीं है। क्योकि ग्रेटर नोएडा के दादरी, भट्टा पारसोल, अलीगढ़ के टप्पल, कृपालपुर, जहानगढ़, कनसेका, आगरा के एत्मादपुर, खंदौली, चौगान, छलेसर, गढ़ीरामी और मथुरा तक में कई किसान है जो किसी भी कीमत पर अपनी जीविका के साधन जमीन को नही देना चाहते है।

हाल ही में दिए अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट तक ने इस बात को माना है कि विकास के नाम पर ही किसानों को छला गया है। दरअसल 1894 के कानून में जनहित की स्पष्ट व्याख्या न होने से ही सरकारें किसानों को विकास के नाम पर ठगती रही है और यही काम हरियाणा में भी कांग्रेस की सरकार कर रही है। बिल्डरों और कारपोरेट घरानों के हितों के लिए किसानों को बर्बाद करने की कांग्रेस और मायावती की नीतियां एक ही है।

उन्होनें कहा कि 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को रद्द करने और नयी भूमि उपयोग नीति बनाने के सवाल पर जन संघर्ष मोर्चा, भारतीय किसान पार्टी समेत देष में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलनरत किसान संगठनों के प्रतिनिधि आगामी 8 अगस्त को दिल्ली में किसान सम्मेलन करेगें।