पंजाब के खेतों में रसायनिक उर्वरक और रसायनिक कीटनाशी का प्रयोग बहुत ज्यादा चलन में है। यही वजह है कि यहां के खेत-खलिहान के साथ मनुष्य और पशुओं को बड़ी-बड़ी बीमारियां लग रही हैं...
स्वतंत्र मिश्र
विवादास्पद कीटनाशी इंडोसल्फान पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एसएच कपाडिया की अगुवाई वाली खंडपीठ ने 13 मई 2011 को अगले आठ हफ्तों के लिए पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि मनुष्य का जीवन सर्वोपरि है और वह किसी भी अन्य बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। खंडपीठ का निर्देश है कि अगले आदेश तक इस विवादास्पद कीटनाशी के उत्पादकों को आवंटित किए गए लाइसेंस भी जब्त कर लिए जाएं। खंडपीठ ने अगले दो हफ्तों के दौरान दो समिति को इस कीटनाशी के मनुष्य जीवन और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर के अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी है।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) के महानिदेशक और कृषि आयुक्त इन समितियों के प्रमुख होंगे। खंडपीठ ने विशेषज्ञ समिति से अपनी अंतरिम रिपोर्ट में इंडोसल्फान के प्रतिकूल प्रभावों और उसके विकल्पों पर चर्चा करने का निर्देश दिया है। विशेष समिति मुख्यतः इन तीनों बिन्दुओं पर इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने, इसके मौजूदा स्टॉक को कई चरणों में समाप्त करने या इसके विकल्प क्या हो सकते हैं, पर चर्चा करेगी। समिति को अपनी रिपोर्ट इन्हीं आठ हफ्तों यानि मध्य जुलाई तक सौंपनी है। यहां कुछ सवालों पर गौर करना जरूरी होगा। इंडोसल्फान पर प्रतिबंध क्यों लगाया जाना चाहिए? इसका मानव जीवन और पर्यावरण पर क्या प्रतिकूल असर पड़ रहा है? क्या दूसरे कीटनाशी मानव जीवन और पर्यावरण के लिहाज से ठीक हैं? क्या इंडोसल्फान के विकल्प सुरक्षित हैं? इंडोसल्फान की भारतीय बाजार में कितनी हिस्सेदारी है? क्या उस हिस्सेदारी पर कब्जा करने की साजिश के तौर पर तो इसपर प्रतिबंध की बात नहीं की जा रही है?
भारत में इंडोसल्फान के निर्माण में लगी कंपनियां इस कीटनाशी को 200-250 रुपये प्रति लीटर उपलब्ध करा रही हैं। लेकिन इसके विकल्प के तौर पर जिन कीटनाशकों की पैरवी की जा रही है, उसकी कीमत 3200 रुपये प्रति लीटर है। क्या भारत सहित उन गरीब मुल्कों के किसान जहां इंडोसल्फान को उपयोग में लाया जा रहा है, इन महंगे विकल्पों की कीमत चुका पाएंगे? मेरा मानना है कि मानव जीवन और पर्यावरण के लिए नुकसानदेह किसी भी कीटनाशी पर प्रतिबंध जरूर लगाया जाना चाहिए। लेकिन साथ उसके विकल्प सस्ते और मानकों पर सही उतरने वाले होने चाहिए। अन्यथा, ऐसे प्रतिबंधों के पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की षड्यंत्रों की संभावना नजर आने लगती है।
इंडोसल्फान के जोखिमों को देखते हुए कुल 87 देशों में प्रतिबंध लगाया जा चुका है। अमेरिका और यूरोपीय संघ में इस रसायन पर ही पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है। कुछ देशों में धान की खेती में इसके इस्तेमाल पर रोक लगाया गया है तो कुछ देशों में दूसरे फसलों की खेती में। एक अनुमान के अनुसार, भारत में इसका कुल कारोबार 500 करोड़ रुपये से ज्यादा का है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हेल्थ (एनआईओएच) ने केरल के कासरगॉड जिले में आयोजित किए गए एक अध्ययन के आधार पर रिपोर्ट तैयार करके केंद्र सरकार को सौंपी थी। एनआईओएच की रिपोर्ट के अनुसार, कासरगॉड जिले में इंडोसल्फान के इस्तेमाल से बच्चों में मंदता, बौद्धिक पिछड़ापन, सुनने की दिक्कतें आदि की समस्याएं पैदा होने लगीं हैं।
इसके अलावे कई अन्य अध्ययनों में यह पाया गया कि यह मानव जीवन और जलीय जीवन (खासकर मछियों) पर नकारात्मक असर डालती है। केरल में इस कीटनाशी की वजह से अबतक 400 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं। मनुष्य और पशुओं में जन्म के समय विकलांगता या अन्य किस्म की दिक्कतें शुरू हो जाती है। इसका जहर कैंसर जैसे जानलेवा रोग को जन्म दे रहा है। पंजाब के भठिंडा, मानसा और फरीदकोट जिले में कैंसर के व्यापक प्रसार की वजहों में से रसायनिक कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल लाया जाना है। भठिंडा के पुहली गांव के किसान और पंजाबी के कथाकार बंत सिंह चट्टा का कहना है, ‘‘राजस्थान में बीकानेर के पास अबोहर में कैंसर अस्पताल के लिए एक स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है, जिसे कैंसर टेªन के नाम से ही इस इलाके में पुकारा जाता है।
पंजाब के खेतों में रसायनिक उर्वरक और रसायनिक कीटनाशी का प्रयोग बहुत ज्यादा चलन में है। यही वजह है कि यहां के खेत-खलिहान के साथ मनुष्य और पशुओं को बड़ी-बड़ी बीमारियां लग रही हैं। कैंसर, नंपुसकता जैसी बीमारियां यहां के लोगों को अपने गिरफ्त में ले रही हैं। इंडोसल्फान ही नहीं बल्कि सभी रसायनिक कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।’’
दरअसल, इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने और उसकी जगह दूसरे रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग की बात जिनेवा सम्मेलन (25 अप्रैल 2011) में किए जाने के पीछे के उद्देश्यों को समझने की कोशिश होनी चाहिए। जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के चलन को खत्म करके उसकी जगह रसायनिक खाद व उर्वरकों के उपयोग के जरिये सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां खेती को उद्योग में तब्दील करना चाहती है।
खेती के जरिये जीवन जीने के लिए जरूरी फसलों को उगाने की बजाय बहु-राष्ट्रीय कंपनियां नकदी फसलों के उत्पादन, उसमें सस्ते और आसानी से उपलब्ध खाद और कीड़ों को मारने के उपायों की जगह त्वरित असर के नाम पर रसायनों को बढ़ावा दे रही है। क्योंकि रसायनों के बढ़ते चलन से उनका व्यापार बढ़ रहा है। बाजार में हिस्सेदारी बढ़ रही है। इसलिए सरकार को आम किसानों के हित की परवाह करते हुए इस लूट के खेल को समाप्त करने के उपायों पर गौर करना होगा।