May 24, 2011

प्रतिबंध सिर्फ इंडोसल्फान पर ही क्यों ?


पंजाब के खेतों में रसायनिक उर्वरक और रसायनिक कीटनाशी का प्रयोग बहुत ज्यादा चलन में है। यही वजह है कि यहां के खेत-खलिहान के साथ मनुष्य और पशुओं को बड़ी-बड़ी बीमारियां लग रही हैं...

स्वतंत्र मिश्र                              

विवादास्पद कीटनाशी इंडोसल्फान पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एसएच कपाडिया की अगुवाई वाली खंडपीठ ने 13 मई 2011 को अगले आठ हफ्तों के लिए पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि मनुष्य का जीवन सर्वोपरि है और वह किसी भी अन्य बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। खंडपीठ का निर्देश है कि अगले आदेश तक इस विवादास्पद कीटनाशी के उत्पादकों को आवंटित किए गए लाइसेंस भी जब्त कर लिए जाएं। खंडपीठ ने अगले दो हफ्तों के दौरान दो समिति को इस कीटनाशी के मनुष्य जीवन और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर के अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी है।

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) के महानिदेशक और कृषि आयुक्त इन समितियों के प्रमुख होंगे। खंडपीठ ने विशेषज्ञ समिति से अपनी अंतरिम रिपोर्ट में इंडोसल्फान के प्रतिकूल प्रभावों और उसके विकल्पों पर चर्चा करने का निर्देश दिया है। विशेष समिति मुख्यतः इन तीनों बिन्दुओं पर इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने, इसके मौजूदा स्टॉक को कई चरणों में समाप्त करने या इसके विकल्प क्या हो सकते हैं, पर चर्चा करेगी।  समिति को अपनी रिपोर्ट इन्हीं आठ हफ्तों यानि मध्य जुलाई तक सौंपनी है। यहां कुछ सवालों पर गौर करना जरूरी होगा। इंडोसल्फान पर प्रतिबंध क्यों लगाया जाना चाहिए? इसका मानव जीवन और पर्यावरण पर क्या प्रतिकूल असर पड़ रहा है? क्या दूसरे कीटनाशी मानव जीवन और पर्यावरण के लिहाज से ठीक हैं? क्या इंडोसल्फान के विकल्प सुरक्षित हैं? इंडोसल्फान की भारतीय बाजार में कितनी हिस्सेदारी है? क्या उस हिस्सेदारी पर कब्जा करने की साजिश के तौर पर तो इसपर प्रतिबंध की बात नहीं की जा रही है?

भारत में इंडोसल्फान के निर्माण में लगी कंपनियां इस कीटनाशी को 200-250 रुपये प्रति लीटर उपलब्ध करा रही हैं। लेकिन इसके विकल्प के तौर पर जिन कीटनाशकों की पैरवी की जा रही है, उसकी कीमत 3200 रुपये प्रति लीटर है। क्या भारत सहित उन गरीब मुल्कों के किसान जहां इंडोसल्फान को उपयोग में लाया जा रहा है, इन महंगे विकल्पों की कीमत चुका पाएंगे? मेरा मानना है कि मानव जीवन और पर्यावरण के लिए नुकसानदेह किसी भी कीटनाशी पर प्रतिबंध जरूर लगाया जाना चाहिए। लेकिन साथ उसके विकल्प सस्ते और मानकों पर सही उतरने वाले होने चाहिए। अन्यथा, ऐसे प्रतिबंधों के पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की षड्यंत्रों की संभावना नजर आने लगती है।

इंडोसल्फान के जोखिमों को देखते हुए कुल 87 देशों में प्रतिबंध लगाया जा चुका है। अमेरिका और यूरोपीय संघ में इस रसायन पर ही पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है। कुछ देशों में धान की खेती में इसके इस्तेमाल पर रोक लगाया गया है तो कुछ देशों में दूसरे फसलों की खेती में। एक अनुमान के अनुसार, भारत में इसका कुल कारोबार 500 करोड़ रुपये से ज्यादा का है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हेल्थ (एनआईओएच) ने केरल के कासरगॉड जिले में आयोजित किए गए एक अध्ययन के आधार पर रिपोर्ट तैयार करके केंद्र सरकार को सौंपी थी। एनआईओएच की रिपोर्ट के अनुसार, कासरगॉड जिले में इंडोसल्फान के इस्तेमाल से बच्चों में मंदता, बौद्धिक पिछड़ापन, सुनने की दिक्कतें आदि की समस्याएं पैदा होने लगीं हैं।

इसके अलावे कई अन्य अध्ययनों में यह पाया गया कि यह मानव जीवन और जलीय जीवन (खासकर मछियों) पर नकारात्मक असर डालती है। केरल में इस कीटनाशी की वजह से अबतक 400 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं। मनुष्य और पशुओं में जन्म के समय विकलांगता या अन्य किस्म की दिक्कतें शुरू हो जाती है। इसका जहर कैंसर जैसे जानलेवा रोग को जन्म दे रहा है। पंजाब के भठिंडा, मानसा और फरीदकोट जिले में कैंसर के व्यापक प्रसार की वजहों में से रसायनिक कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल लाया जाना है। भठिंडा के पुहली गांव के किसान और पंजाबी के कथाकार बंत सिंह चट्टा का कहना है, ‘‘राजस्थान में बीकानेर के पास अबोहर में कैंसर अस्पताल के लिए एक स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है, जिसे कैंसर टेªन के नाम से ही इस इलाके में पुकारा जाता है।

पंजाब के खेतों में रसायनिक उर्वरक और रसायनिक कीटनाशी का प्रयोग बहुत ज्यादा चलन में है। यही वजह है कि यहां के खेत-खलिहान के साथ मनुष्य और पशुओं को बड़ी-बड़ी बीमारियां लग रही हैं। कैंसर, नंपुसकता जैसी बीमारियां यहां के लोगों को अपने गिरफ्त में ले रही हैं। इंडोसल्फान ही नहीं बल्कि सभी रसायनिक कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।’’ 

दरअसल, इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने और उसकी जगह दूसरे रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग की बात जिनेवा सम्मेलन (25 अप्रैल 2011) में किए जाने के पीछे के उद्देश्यों को समझने की कोशिश होनी चाहिए। जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के चलन को खत्म करके उसकी जगह रसायनिक खाद व उर्वरकों के उपयोग के जरिये सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां खेती को उद्योग में तब्दील करना चाहती है।

खेती के जरिये जीवन जीने के लिए जरूरी फसलों को उगाने की बजाय बहु-राष्ट्रीय कंपनियां नकदी फसलों के उत्पादन, उसमें सस्ते और आसानी से उपलब्ध खाद और कीड़ों को मारने के उपायों की जगह त्वरित असर के नाम पर रसायनों को बढ़ावा दे रही है। क्योंकि रसायनों के बढ़ते चलन से उनका व्यापार बढ़ रहा है। बाजार में हिस्सेदारी बढ़ रही है। इसलिए सरकार को आम किसानों के हित की परवाह करते हुए इस लूट के खेल को समाप्त करने के उपायों पर गौर करना होगा।



पत्रकारिता में जनपक्षधर रूझान के साथ सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लेखन और सामाजिक सक्रियता.

    




मजदूर आत्महत्याओं पर रिपोर्ट जारी


कारखानों में नवयुवतियों को बतौर मजदूर तीन साल के लिए ठेके पर काम दिया जाता है.ठेका अवधि की समाप्ति पर 30000 से 60000 के बीच एक मुश्त रकम दहेज़ के लिए इन नवयुवतियों को थमा दी जाती है...

विष्णु शर्मा

कमिटी ऑफ कंसर्न्ड सिटीजन-स्टुडेंट्स एंड यूथ द्वारा 22मई को दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में जारी  तिरुपुर रिपोर्ट वहां के मजदूरों की दुर्दशा जानने का महत्वपूर्ण दस्तावेज है.तमिलनाडू का तिरुपुर शहर कपड़ा उत्पादन के लिए विश्व  प्रसिद्ध है. यह शहर वालमार्ट, सी एंड ए, डीज़ल, फिला रीबौक अदि जैसे बड़े अंतरारष्ट्रीय ब्रांडो के लिए कपड़ों की आपूर्ति करता है.लेकिन दूसरी ओर इसी शहर में पिछले दो सालों में 800से अधिक मजदूरों ने आत्महत्या की है ओर हर रोज आत्महत्या की 20 कोशिश होती है. रिपोर्ट के अनुसार इसके लिए उत्पीडन की वह परिस्थियाँ जिम्मेदार हैं जो अत्यधिक मुनाफे कमाने के लिए वहा के कारखाना मालिकों ने उत्पन्न की हैं.

रिपोर्ट जारी होने के बाद अपनी बात रखते टीम के सदस्य

तिरुपुर के कारखाना मालिकों ने उत्पीडन के नए नए प्रयोग किये है.इसमें से एक है सुमंगली योजना. यह योजना विवाह योग्य लड़कियों के लिए है. कारखानों में नवयुवतियों को बतौर मजदूर तीन साल के लिए ठेके पर काम दिया जाता है. ठेका अवधि की समाप्ति पर 30000 से 60000 के बीच एक मुश्त रकम दहेज़ के लिए इन नवयुवतियों को थमा दी जाती है. यदि इस अवधि में इन में से कोई बीमारी या किन्ही कारणोंवश काम में उपस्थित नहीं हो पता तो मालिक रकम देने से इनकार कर सकता है. ठेके की अवधि के दौरान लड़कियां हॉस्टल में रहती है ओर अपने निकट के परिचितों (जिनका नाम और फोटो उनके रजिस्टर में दर्ज है) के आलावा किसी से नहीं मिल सकती. उनके बहार जाने में पाबन्दी होती है.हॉस्टल में घटिया किस्म का खाना दिया जाता है जो लगातार इनके स्वस्थ पर बुरा असर डालता है. सुमंगली के रूप में काम करने वाली लड़कियों को 'प्रशिक्षार्थी' या 'प्रशिक्षु' में वर्गीकृत किया जाता है और इस तरह वे नियमित मजदूरी दरों की हकदार नहीं होती.

एक अन्य 'कैम्प कूली' व्यवस्था के तहत श्रम ठेकेदार बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा तथा राजस्थान से सस्ते मजदूर लाते है.ठेकेदार इन मजदूरों पर नज़र रखते है तथा प्रबंधन ठेकेदारों के माध्यम से मजदूरों के साथ सम्बन्ध रखते है. यह मजदूर फेक्टरी मालिक द्वारा उपलब्ध शयनशाला में रखे जाते है. ये मजदूर युनियन से नहीं जुड़ सकते. इस तरह तिरुपुर के करीब 4 लाख मजदूरों में से केवल 10 प्रतिशत ही युनियन के सदस्य है. यहाँ के मजदूरों को सप्ताह में करीब 1710 रु की मजदूरी मिलती है और ये अन्य किसी प्रकार की सुविधा के हकदार नहीं है.यहाँ के मजदूर अलगाव का जीवन जीने को मजबूर है. ये अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते सप्ताह में 6 दिन १२ से १८ घंटे के बीच काम करना पड़ता है.

रिपोर्ट के अनुसार, 'तिरुपुर की कामयाबी मजदूरों की लूटखसोट पर आधारित है. तिरुपुर के कपडा उद्योग के मजदूरों के रहने-सहने वा काम करने की परिस्थितियाँ उनके जीवन को भारी नुक्सान पहुचती है. मजदूरों को न केवल उद्योग से सम्बंधित पेशागत जोखिम उठाना पड़ता है बल्कि उनसे जो अत्यधिक काम किया जाता है उसके चलते कम उम्र में ही उनके काम करने की क्षमता का ह्रास हो जाता है.'

कार्यक्रम में बोलते हुए अशोक ने कहा कि यह घटना तिरुपुर की नहीं बल्कि पूरे देश की है. देश के राजनीतिज्ञ, साहित्यकार देश को विकसित देश बताते है जबकि वे उत्पीडन की इन परिस्थितियों को नजरंदाज करते है. उन्होंने कहा कि देश में जहाँ भी विकास हुआ है वहां उसकी की कीमत किसानो और मजदूरों को चुकानी पड़ रही है.बिहार के रोहतास को धन का कटोरा कहा जाता है और वहां लोग बेरोजगार हो गये है. बिहार में कहावत है कि 'नरेगा जो करेगा वो मरेगा' इसका मतलब है कि नरेगा योजना के अंतर्गत काम करने वालों को 2वर्षों तक भुगतान नहीं किया जाता.और जब भुगतान होता है तो आमदनी का 30 प्रतिशत सरकारी अधिकार ले लेते है.

संतोष ने इस अवसर पर कहा कि आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों ने हमें दो वक्त से एक वक्त का खाना खाने की स्थिति में पंहुचा दिया है.और अब सरकार यह कह रही है कि एक वक्त का खाना खाने वाले गरीब नहीं है! राजनितिक कार्यकर्त्ता  अंजनी कुमार ने बताया कि तिरुपुर में जो हालत है उसका एक कारण मजदूर आन्दोलन का न होना है और किसानों के लिए भी ऐसा ही कहा जा सकता है.उन्होंने कहा कि मजदूरों और किसानों के बीच अंतर सम्बन्ध है और हमें सही दिशा में आन्दोलन को ले जाने के लिए इस लिंक को समझना होगा.उन्होंने कहा कि गुडगाँव और अन्य जगह के आंदोलनों से पता चलता है कि वहां के मजदूरों के बीच एकता पुराने ट्रेड युनियन के खिलाफ बनी है.इन आन्दोलनों में जो मांगे प्रमुखता से उठी है वे है, एक संगठन, ऊँची मजदूरी और मजदूरों के बीच बराबरी.जो मजदूर संगठन खुद को वामपंथी मानते है वे मजदूरों की मांगो पर काम करने की बजाये आंदोलनों को अपनी सुविधा के अनुसार आगे ले जाना चाहते है.

 
पीडीएफआई के संयोजक अर्जुन सिंह ने कहा कि देश के कपडा उद्योग में बहुत बदलाव आया है. कानपुर पूरी तरह उजाड़ गया है और सूरत, कोयंबटूर के हालत भी ख़राब है. मजदूर एकता कमिटी के सतीश ने कहा कि इस रिपोर्ट को विस्तार से लोगो के पास ले जाना चाहिए. नागरिक पत्रिका के संपादक श्यामवीर ने कहा की फक्ट्रियों में युनियन बनाना मुश्किल है.ठेकेदारी प्रथा का बोल बाला है. मजदूरों के साथ मार पीट, गली गलौज आम चलन है. भारत में पूंजीवाद, सामंतवाद, दास प्रथा सब घुल मिल गई है.कम्युनिस्ट  ग़दर पार्टी की कामरेड रेखा ने कहा कि आज के दौर में मजदूर और किसानों को एक साथ खड़े होना होगा.इस कार्यक्रम के शुरू  में पार्थ  सरकार ने तिरुपुर रिपोर्ट को प्रस्तुत किया और अंत में धन्यवाद ज्ञापन जाँच समिति के  के संतोष ने दिया.