Apr 7, 2011

अन्ना हजारे का सांप्रदायिक लोकपाल बिल


क्या हम ऐसे किसी सांप्रदायिक सोच के बदलाव का समर्थन कर सकते हैं? खासकर तब जबकि रामदेव 'स्वाभिमान मंच' के बैनर तले अगले लोकसभा में चुनाव लड़ने जा रहे हों...

जंतर मंतर डायरी - 3

दिल्ली में एक जगह है जंतर-मंतर। वहां तीन दिन से अन्ना हजारे धरना दे रहे हैं। उनके धरने को देखने बहुत लोग लगातार जा रहे हैं। वहां से लौट रहे लोग बता रहे हैं कि अन्ना हजारे के जज्बात देखने लायक हैं। 78 वर्ष की उम्र में उन्होंने महाराष्ट्र से दिल्ली आकर जो काम कर दिखाया है, वह कोई नहीं कर सका है। लोग यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने एक ऐसा अनशन किया है जो देश में भ्रष्टाचार खत्म करने के बाद ही खत्म होगा। जोशीले  लोग इसी बात को ‘दूसरे गांधी का दूसरा स्वतंत्रता आंदोलन’ के रूप में समझाने की कोशिश कर रहे हैं।

यह सब सुनकर मुझसे रहा नहीं गया, इसलिए कल मैं भी अन्ना के धरने से हो आया। वहां सबसे पहले कारों की कतार दिखी, फिर पुलिस वाले मिले और अंत में एक पुराने समाजवादी नेता मिले जो किशन पटनायक के साथ गुजारे पलों के भरोसे आज भी जीये जा रहे हैं।

हमने पूछा 'अन्ना से क्या उम्मीद है?' इतने पर वो चालू हो गये, ‘उम्मीद क्या पूछते हैं? यह सब नवटंकी है। वर्ल्ड कप के बाद मीडिया वालों को कोई काम नहीं है, इसलिए लगे हुए हैं। देश में कानूनों की क्या कमी है, जरूरत तो लागू कराने की है। एनजीओ का पैसा आ रहा है और धरना चल रहा है। इसी बहाने मीडिया भी अपने दलाली के धंधे में जनता की आवाज का छौंक लगा रही है। परसों से आइपीएल शुरू हो रहा है, उससे पहले किसी तरह सरकार इस मामले को निपटा देना चाहती है।’

उनकी इतनी सुनने के बाद एक मित्र ने इशारा किया आगे बढ़ते हैं। आगे बढ़ने के साथ मित्र ने कहा,‘ बड़ा निराश आदमी है! कहीं कुछ अच्छा हो रहा है, मानने को तैयार ही नहीं है।’ हां-हूं करते हुए मैं और मित्र वहां पहुंचे, जहां अन्ना बैठे थे।

अन्ना स्टेज पर एक तरफ अकेले बैठे थे और दूसरी ओर एक नौजवान लड़की टेर ले रही थी,‘जब सोये थे हम घरों में वो खेल रहे थे होली।’ बगल में एक नौजवान लड़का उसकी आवाज के साथ गिटार बजा रहा था। अन्ना के दाहिने तरफ वह 169  लोग सोये थे जो उनके समर्थन में अनशन कर रहे थे। और ठीक सामने तमाम कैमरे लगे थे जो हरपल देश को ताजातरीन करने में मशगूल थे।

तभी मित्र की निगाह एक पोस्टर पर पड़ी। पोस्टर में लिखा था, ‘गर्भ में शिशु को शिक्षा दीजिए,अभिमन्यु बनाइये।’ अभी हम लोग लिखे का मर्म समझ पाते की उससे पहले ही माईक से आवाज आयी,‘मैं कोई कवि नहीं हूं और न ही भाषण  देने आया हूं। बस समाज को बदलने की बात कहने आया हूं।’शुरू में तो नौजवान की कविता पर ध्यान नहीं गया,मगर ‘गौ मारने वालों को चुन-चुकर मारा जायेगा’ की पंक्तियां सुनकर लगा कि अन्ना हजारे का लोकपाल कहीं सांप्रदायिक तो नहीं है। यही बातें नौजवान ने इसाईयों के लिए भी कहीं।

इस कवि की साम्प्रदायिकता सुने...





कविता कह रहे नौजवान ने जैसे ही माइक छोड़ा, उसके बाद कविता की तारीफ करने वालों की भारी भीड़ ने हमें और हतप्रभ किया। बहरहाल, अपनी बारी के इंतजार में हम भी खड़े रहे और नौजवान से बाचतीत की। अन्ना हजारे के गांधीवादी मंच से साम्प्रदायिकता  की जुबान गाने वाला युवा बलराम आर्य हरियाणा के फरीदाबाद जिले के पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में कला अंतिम वर्ष का छात्र था। उसने अपना परिचय बताया कि वह योगगुरू स्वामी रामदेव के संरक्षण में चल रहे 'भारत स्वाभिमान मंच'से जुड़ा है और कला-संस्कृति ईकाई फरीदाबाद का जिला अध्यक्ष है।

जाहिर है उसके इस परिचय के बाद साफ था कि वह यूं ही चला आया लौंडा नहीं था, बल्कि बाकायदा स्वामी रामदेव की विचारधारा का एक महत्वपूर्ण वाहक था। ऐसे में सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार विरोध की सशक्त आवाज कहने वाले बाबा रामदेव आखिर किस तरह के भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहते हैं। सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अन्ना हजारे की टीम में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले जो मुख्य पुरोधा हैं उनमें प्रशांत भूषण, अरविंद केजरिवाल, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी के अलावा स्वामी रामदेव भी हैं। इतना ही नहीं, एक तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होने का साहस देने वाले रामदेव ही हैं,  जो मंचों से भ्रष्टाचार के खिलाफ लगातार बोलते रहे हैं।

लेकिन सवाल यह है कि क्या हम ऐसे किसी सांप्रदायिक सोच के बदलाव का समर्थन कर सकते हैं? खासकर तब जबकि रामदेव 'स्वाभिमान मंच' के बैनर तले अगले लोकसभा में चुनाव लड़ने जा रहे हों। हालांकि इन सवालों पर लोग कह सकते हैं कि जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बन रहा है तो इस तरह की बातें निरर्थक और निराश करने वाली हैं।

हमलोग लौटने लगे तो एक और समाजसेवी से हमारी मुलाकात हुई। हमने उनसे इस बाबत सवाल सवाल किया तो उनका जवाब था,‘सांप्रदायिक गीत ही क्यों? जिस पोस्टर के आगे अन्ना बैठते हैं, उसके पीछे जो फोटो लगी है वह क्या हिंदुवादियों का प्रतीक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक की पहचान नहीं है।’साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जन लोकपाल विधेयक की जरूरत सिर्फ हिंदुओं की ही है क्या, जो अबतक इस आंदोलन में कहीं मुसलमान नहीं नजर आ रहे हैं। इन सबके बावजूद वहां से लौटने वालों की यही राय है कि 'चलो कोई तो कुछ कर रहा है।'


क्रिकेट की राष्ट्रभक्ति या हजारे का आंदोलन

जन लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर जारी आमरण-अनशन के मसले पर जनज्वार लगातार आपके बीच है.  इसी कड़ी में जनज्वार ने अपने सहयोगियों की मदद से  'जंतर-मंतर' डायरी की शुरुआत की है. साथ ही हमारी कोशिश होगी कि  अन्ना आन्दोलन के पक्ष-विपक्ष में खुलकर बात हो, जिससे जनतांत्रिक आंदोलनों को और मजबूती मिले. ख़बरों और बहसों की इस पूरी कड़ी को आप दाहिनी और सबसे ऊपर   भी देख सकते हैं... मॉडरेटर  


अच्छा हो बाबा अन्ना हजारे का जिन्होंने राष्ट्र को एक सुखद संदेश दिया भ्रष्टाचार और नये भारत के निर्माण का, नहीं तो जीत के जश्न में हमारी मूल समस्याओं से ध्यान हटाने का पूरा इंतजाम व्यवस्था ने कर दिया है...
 

चारु तिवारी

भारत के क्रिकेट विश्वकप जीतने के बाद देश में राष्ट्रभक्ति का नया उभार आया है। उद्योगपतियों से लेकर मजदूरी करने वाले एक साथ जश्न में शामिल हुये हैं। दुनिया की सबसे मजबूत सुरक्षा व्यवस्था में रहने वाली सोनिया गांधी राजधानी दिल्ली की सडक़ों पर ऐसे उतर आयीं, जैसे वह कोई आम इंसान हों। इसे देखकर लोगों को भी लगा कि राष्ट्र एक है। यहां कोई छोटा-बड़ा नहीं है।

मुंबई की सडक़ों पर अमिताभ बच्चन, उनकी पत्नी, बेटे-बहू के सडक़ों में जश्न मनाने को राष्ट्र ने देखा। राष्टभक्ति नये रूप में परिभाषित हुयी। देश के वेटिंग प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी अपने घर में अपने समर्थकों के साथ मैच देखा। भारत-पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों ने सेमीफाइनल और भारत-श्रीलंका के राष्ट्रपतियों ने फाइनल मैच एक साथ देखा। क्रिकेट से इन देशों के साथ प्रगाढ़ता बढ़ी।

समाचार माध्यमों से पता चला कि एक क्रिकेटप्रेमी ऐसा था जिसने भारत-पाकिस्तान का मैच देखने के लिये अपनी किडनी तक दांव पर लगा दी। एक व्यक्ति मेरठ से मुबंई रिक्शे में मैच देखने पहुंचा। कई लोगों ने सचिन की पूजा की। एक ने सचिन के लिये मंदिर बनाने की घोषणा की। भारत ने जैसे ही श्रीलंका को हराया रांची के राजकुमार महेन्द्र सिंह धौनी देश के नये नायक बनकर उभरे हैं।

सचिन और धौनी को भारत रत्न देने की बातें जोर पकडऩे लगी हैं। मुंबई विधानसभा में सचिन और झारखण्ड में धौनी को भारतरत्न देने की संस्तुति भेजी है। क्रिकेट को भ्रष्टाचार की जननी बताने वाले योगगुरु रामदेव के स्वर भी बदल गये हैं। अब उन्हें भी सचिन के लिये भारत रत्न चाहिये।

बाजारपोषित नायकों के लिये ऐसी बैचेनी भारत में ही देखी जा सकती है। अच्छा हो बाबा अन्ना हजारे का जिन्होंने राष्ट्र को एक सुखद संदेश दिया भ्रष्टाचार और नये भारत के निर्माण का, नहीं तो जीत के जश्न में हमारी मूल समस्याओं से ध्यान हटाने का पूरा इंतजाम व्यवस्था ने कर दिया है। उम्मीद की जानी चाहिये कि अन्ना हजारे का आंदोलन देश में नई चेतना और स्फूर्ति का संचार करेगा।

इसी बहाने हम देश की उन तमाम सवालों को समझने और उनके लिये जनगोलबंदी का कोई रास्ता तैयार कर पायेंगे। इसलिये इस क्रिकेट उत्सव से बाहर निकलकर हम उन तथ्यों की पड़ताल भी करें जो छद्म राष्ट्रभक्ति के नीचे दब जाते हैं।

देश राष्ट्रध्वज, राष्ट्रीय गान और भौगोलिक सीमा से नहीं बनता, इसमें निवास करने वाले लोगों से बनता है। नागरिक खुशहाल होंगे तो देश भी खुशहाल होगा। प्रतीक चिन्ह हमें सिर्फ देश होने का अहसास कराते हैं। इसलिये ‘फीलगुड’ वाली राष्ट्रभक्ति देश को आगे नहीं ले जा सकती।

अन्य राज्यों के तरह उत्तराखण्ड भी क्रिकेट की राष्ट्रभक्ति में शामिल हो गया। यहां के मुखिया जो हमेशा राष्ट्रभक्ति की कविता करते रहे हैं, उनके लिए इसे दिखाने का इससे अच्छा और कोई मौका नहीं हो सकता था। लगे हाथ उन्होंने सचिन तेंदुलकर और भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धौनी को मसूरी में प्लाट या कोठी बनाकर देने की घोषणा कर दी है। उन्होंने एक स्टेडियम का नाम धौनी के नाम रखने की बात भी कही है।

मुख्यमंत्री की इन घोषणाओं को कई संदर्भों में देखने की जरूरत है। पिछले वर्ष उत्तराखण्ड में भीषण आपदा आयी। इस आपदा में बागेश्वर के सुमगढ़ के एक स्कूल में 18 बच्चों समेत 172  लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। राज्य के 17हजार गांवों में से छह हजार गांव इस आपदा की चपेट में आये।

साढ़े तीन हजार गांव ऐसे थे जहां लोगों के मकान पूरी तरह या तो ध्वस्त हो गये या उनमें इतनी बड़ी दरारें आ गयीं कि वे रहने लायक नहीं रहे। गांवों की जमीन नष्ट हो गयी। कुछ दिन तक तो लोग टैंटों या स्कूलों में रहे, बाद में उनके सिर से छत भी नहीं रही।

राज्य सरकार ने कहा था कि इस आपदा से पार पाने के लिये उसे केन्द्र सरकार से 21हजार करोड़ रुपये चाहिये। केन्द्र ने तात्कालिक सहायता के रूप में 650 करोड़ रुपये भेजे भी। जो सरकार 21 हजार करोड़ की बात कर रही थी, वह अभी 650 करोड़ को भी खर्च नहीं कर पायी है। लोगों को 40 रुपये के राहत चैक पकड़ाये गये हैं। घरों की हालत छह महीने बाद वैसी है। राहत के पैसों को अन्य कामों में खर्च करने की शिकायतें भी मिल रही हैं।

राज्य में इस तरह की आपदा को विज्ञापनों में निपटा देने वाली सरकार के पास अचानक मसूरी में ऐसी जमीन निकल आयी जिसे वह सचिन और धौनी को देने को आतुर दिखी। जहां तक खेलों को प्रोत्साहन देने का सवाल है इसमें भी इस सरकार की उदारता के कोई मायने नहीं है।

झारखण्ड और उत्तराखण्ड एक साथ बने राज्य हैं। झारखण्ड के कई खिलाड़ी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न खेलों में नाम कमा रहे हैं। रांची निवासी धौनी ने जहां अपने प्रदेश का नाम ऊंचा किया है,वहीं पिछले दिनों संपन्न हुये राष्ट्रीय खेलों का न केवल उन्होंने सफल संचालन किया, बल्कि अनेक मेडल भी जीते।

उत्तराखण्ड में अभी भी अधिकतर खेलों की एसोसिएशनें अस्तित्व में नहीं हैं। राष्ट्रीय खेलों के लिये अल्मोड़ा के एक खिलाड़ी ने झारखण्ड की ओर से खेलते हुये तीन पदक जीते। पिथौरागढ़ का उन्मुक्त चंद, पौड़ी का पवन सुयाल दिल्ली के लिये रणजी ट्राफी में खेल रहे हैं। आईपीएल में पहला शतक बनाने वाला बागेश्वर का मनीष पांडे भी बाहर के राज्यों के लिये खेलने को मजबूर है।

टेनिस के स्टार खिलाड़ी अधिकारी बंधु प्रायोजक के लिये लंबा संघर्ष करते रहे। फिलहाल दिल्ली में रहने वाली गरुड़ निवासी पारूल जैसी राष्ट्रीय स्तर की टेनिस खिलाड़ी है,जिन्हें आगे बढ़ाने की सुध प्रदेश सरकार ने नहीं ली। इसलिये ये सवाल उठने लजिमी हैं कि आखिर जिन सरकारों के पास अपनी जनता और समाज को बढ़ाने की समझ और इच्छाशक्ति नहीं है,उन्हें इस बात का अधिकार किसने दिया कि वह सामंती युग की तरह जिस पर चाहे जनता की गाढ़ी कमाई लुटा दे। इसलिये खेल से उभरी राष्ट्रभक्ति और अन्ना हजारे के आंदोलन में फर्क करना होगा। यह भी तय करना होगा कि हम किस ओर हैं।




पत्रकारिता में जनपक्षधर रुझान के प्रबल समर्थक और जनसंघर्षों से गहरा लगाव और उत्तराखंड के राजनितिक-सामाजिक मामलों के अच्छे जानकार हैं.फिलहाल जनपक्ष आजकल पत्रिका के संपादक, tiwari11964@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.




अन्ना के आसपास से कुछ फुटकर नोट


जन लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर जारी आमरण-अनशन के मसले पर जनज्वार लगातार आपके बीच है.  इसी कड़ी में जनज्वार ने अपने सहयोगियों की मदद से  'जंतर-मंतर' डायरी की शुरुआत की है. साथ ही हमारी कोशिश होगी कि  अन्ना आन्दोलन के पक्ष-विपक्ष में खुलकर बात हो, जिससे जनतांत्रिक  आंदोलनों को और मजबूती मिले. ख़बरों और बहसों की इस पूरी कड़ी को आप दाहिनी और सबसे ऊपर   भी देख सकते हैं... मॉडरेटर        

 
जंतर मंतर डायरी - 2

जबसे दिल्ली में रह रहा हूँ तबसे कई बार राजनीतिक-अराजनितिक, संतों-असंतों के धरना-प्रदर्शनों में जंतर-मंतर जाना हुआ है,लेकिन कभी इतनी कारों वाले प्रदर्शनकारी नहीं दिखे,जितना बुधवार को अन्ना के साथ दिखे...
अन्ना के साथ नकली मनमोहन सिंह: असली का इंतजार

किशन बाबूराव हजारे ऊर्फ अण्णा हजारे मंगलवार से दिल्ली के जंतर-मंतर पर बैठे हैं. वे कुछ खा -पी नहीं रहे हैं.उनकी मांग है कि सरकार जन लोकपाल विधेयक को पास करे.उन्होंने घोषणा की है कि अगर सरकार जन लोकपाल विधेयक को पास नहीं करेगी तो वे यहीं बैठे-बैठे जान दे देंगे.

उनके समर्थन में वहाँ 169 अन्य लोगों ने भी आमरण  अनशन  कर लिया है. मीडिया में लगातार खबरे आ रहीं हैं कि अण्णा के समर्थन में देश के अन्य शहरों में भी बड़ी संख्या में लोगों ने खाना-पीना छोड़ दिया है. अण्णा कहते हैं, भ्रष्टाचार रूपी कैंसर देश को चट कर रहा है.

अण्णा और उनके आंदोलनकारियों की मांग है कि सरकार उनकी ओर से तैयार जन लोकपाल विधेयक को लेकर आए और लोकपाल की नियुक्ति करने वाली समिति में गैर सरकारी लोगों को भी 50 फीसद का आरक्षण दिया जाए.

मीडिया अण्णा के अनशन को बहुत प्रमुखता दे रहा है.देना भी चाहिए आखिर क्रिकेट के महाकुंभ विश्व कप के बाद और भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े तमाशे आईपीएल से पहले कुछ तो चाहिए जगह भरने के लिए, सो अण्णा की जय हो. आठ अप्रैल के बाद क्या होगा?

 सबसे पहले जंतर-मंतर.बुधवार शाम इंडियन काफी हाउस में कुछ मित्रों के साथ बैठा था.वहीं से विचार बना की जंतर-मंतर की ओर कूच किया जाए जहाँ अण्णा खाना-पीना छोड़कर बैठे हैं. सो हम तीन दोस्त काफी हाउस से जंतर-मंतर कि ओर कूच कर गए.

वहाँ पहुंचे तो लगा कि किसी बड़ी पार्टी में आ गए हैं,चारों तरफ लंबी-चौड़ी और छोटी-बड़ी कारों का जमावड़ा था.जिधर देखो कारें ही कारें नजर आ रही थीं.जबसे दिल्ली में रह रहा हूँ तबसे कई बार राजनीतिक-अराजनीतिक   और संतों-असंतों के धरना-प्रदर्शनों में जंतर-मंतर जाना हुआ है,लेकिन कभी भी मुझे इतनी कारों वाले प्रदर्शनकारी नहीं दिखे,जितना बुधवार को दिखे.चारो तरफ एक साफ-सफ्फाक लकदक चेहरे घूम-टहल रहे थे.

एक और चीज सबसे अधिक ध्यान खींच रही थी वह थी टीवी चैनलों की ओवी वैन (जिससे किसी खबर का घटनास्थल से ही सजीव प्रसारण किया जाता है शार्टकट में कहें तो लाइव करते हैं.). शायद ही कोई चैनल हो जिसकी ओवी वैन वहां नहीं थी. सब चले आए थे उस अभियान की खबर लेने, जो भ्रष्टाचार के विरोध में चल रहा है. इन चैनलों के संवाददाता एक अदद एक्सक्लूसिव बाइट की आस में इधर-उधर भागदौड़ कर रहे थे.

इन्हीं वीर बालक-बालिकाओं में से एक को लाइव करने के लिए कोई अच्छा शॉट नहीं मिल रहा था. वह अनशन कर रही एक महिला को पटा लाई और अपने पीछे उनके छोले-छंटे के साथ सुलाकर स्टूडियों में बैठे एंकर को खबर देने लगी.

अन्ना के साथ अन्ना के तारे
 यह देखकर पंजाब की एक घटना याद आ गई जब इन्हीं वीर बालक-बालिकाओं के कहने पर एक व्यक्ति ने कैमरों के सामने आग लगाकर जान दे दी थी, वह भी भ्रष्टाचार से परेशान था. ठीक उसी तरह अभियानकारी महिला रिपोर्टर के कहने पर किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह चुपचप आकर लेट गई थी.

अण्णा जहाँ खाना-पीना छोड़कर बैठे हैं,उसके पीछे एक पोस्टर लगा है जिस पर अभियान के संबंध में कुछ बातें लिखी गई हैं और देश के कुछ महान लोगों की फोटो के साथ-साथ ‘भारत माता’की बड़ी सी फोटो लगीं है, ठीक वैसा ही जैसा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की प्रचार सामग्रियों और सरस्वती शिशु मंदिरों की किताबों में अक्सर छपी  रहती है. अभियान के कर्ता-धर्ताओं ने बताया कि कृपया इसे अन्यथा न लें.यह फोटो राष्ट्रवाद का प्रतीक है लेकिन अल्लाह की कसम  इसका संबंध किसी राइट विंग से बिल्कुल नहीं.

जंतर-मंतर पर जो जुटान थी उसमें मेरी आंखें किसी ऐसे इंसान की तलाश कर रहीं थीं जो भ्रष्टाचार से रोज दो-चार होता है,जिसे जन लोकपाल की जरूरत हो.लेकिन वहाँ मुझे कोई ऐसा आम आदमी नजर नहीं आया जिसकी गाड़ी भ्रष्टाचार की वजह से फंस जाती हो.वहाँ जो भी नजर आ रहे थे सबकी गाड़ी भ्रष्टाचार की वजह से ही फर्राटे भरती है, तो भइये,जन लोकपाल विधेयक के आने-जाने और लोकपाल की चयन समिति में आरक्षण मिल जाने से फायदा किस जीव का होगा?