Oct 31, 2010

विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं भरे जा रहे हैं आरक्षित पद?

दिल्ली विश्वविद्यालय में आरक्षण के कोटे को पूरा कराने के लिए संघर्षरत संगठनों की ओर से जारी पर्चे के संपादित अंश.
भारतीय संविधान लागू होने के बाद अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया. शुरू में यह केवल अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए क्रमश: 15 और 7.5 फीसदी था. इसके बाद समाज का एक वर्ग जो आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक रूप से कमजोर था उसे तात्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग के तहत 1991 में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दिया. एक वर्ग जो अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़े वर्गों से भी दुर्बल है यानी विक्लांग, इन्हें सरकार ने 1995 में नौकरियों में तीन फीसदी आरक्षण देने की घोषणा.

आजादी के 63 साल बाद केंद्रीय, राज्य और मानद विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति/जनजाति के शिक्षकों को आरक्षण लंबी लड़ाई लड़ने के बाद 1997 में विश्लविद्यालय और कॉलेजों में आरक्षण लागू हुआ.पिछड़े वर्गों का आरक्षण विश्वविद्यालय और कॉलेजों में 2007 में व विक्लांगों को हई कोर्ट के आदेश के बाद 2005 में तीन फीसदी आरक्षण दिया गया.
सवाल यह उठता है कि दलितों, पिछड़ों और विक्लांगों के संदर्भ में आरक्षण को पूरी तरह लागू क्यों नहीं किया जा रहा है. शिक्षा के क्षेत्र में आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक कारणों पर नजर डालने पर यह तथ्य सामने आता है कि आजादी के 63 साल बाद भी रूढ़िवाद ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा है. पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने पर जिस प्रकार का हंगामा हुआ, इस पर कुछ सवर्णों ने आत्महत्या तक कर ली, आखिर यह सब क्या दर्शाता है? आरक्षण के मुद्दे पर खासकर शिक्षा के क्षेत्र में सरकार केवल औपचारिकता से ही संतुष्ट हो जाना चाहती है. समाज के इस शोषित, वंचित वर्गों को दिए गए आरक्षण को सवर्ण पचा नहीं पा रहे हैं. आखिर इसका कारण क्या है?
आज भी अधिकांष दलित गरीब हैं. उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है. वोट बैंक की राजनीति में नारों और तुष्टीकरण की राजनीति हावी होती जा रही है. प्राचीनकाल में विक्लांगों को दया का पात्र समझा जाता था. आज भी नौकरशाह उन्हें अपनी रूढ़िवादी हथकंडों का उपयोग कर, विक्लांगों को अक्षम और बेकार साबित करने में लगे हुए हैं.
शिक्षा के क्षेत्र में एक ओर सरकार सबको शिक्षा का अधिकार देने की वकालत करती है, लेकिन दूसरी ओर आरक्षण का ब्योरा भरने के प्रति शातिर दिमाग का उपयोग किया जा रहा है. बार-बार दलितों, विक्लांगों, पिछड़े वर्ग का कोटा कागजों और फाइलों में पूरा कर दिया जाता है. वास्तव में ऐसा होता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के साल 2000 में आदेश  देने के बाद भी विक्लांगों के लिए (2005)  आरक्षण का कोटा तक पूरा नहीं किया गया.
दिल्ली विश्वविद्यालय में दस हजार शिक्षक कार्यरत हैं. आरक्षण के हिसाब से अनुसूचित जाति के लिए 1500 और जनजाति के लिए 750 सीटें आरक्षित हैं, लेकिन वर्तमान में लगभग 650 ही शिक्षक इन वर्गों के हैं. इसी तरह विक्लांगों के 300 पदों में केवल 115 ही भरे गए हैं. पिछड़े वर्गों के 2700 में से 100 शिक्षक ही लग पाए हैं. बाकी तीन श्रेणियों का बैकलॉग लंबे समय से खाली पड़ा है, वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालय का कहना है कि हमने आरक्षण पूरा कर दिया है.
शिक्षा के क्षेत्र में उच्चवर्गीय मानसिकता के लेाग आरक्षण को समाप्त करना चाहते हैं. अगर आरक्षण का कोटा नहीं भरा गया तो परिस्थितियां और भी विकराल हो सकती हैं. अगर आर्थिक कारणों पर नजर डालें तो विभिन्न विश्विवद्यालयों और महाविद्यालयों में सवर्णों का लिखित आरक्षण है. आजादी के 63 साल बाद भी दलितों के प्रति घृणा की भावना ज्यों की त्यों बनी हुई है. अधिकांश दलित गरीब होने के कारण दबाव समूह नहीं बन पाते. प्रजातंत्र में दबाव समूह की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. आखिर मीडिया क्यों पिछड़े दलितों को महत्व दे रहा है? सामाजिक रूप से जातिवाद नए-नए रूप में सामने आ रहा है. चुनाव के समय बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, दलितों का मत प्राप्त करने के लिए आरक्षण का सवाल मजबूरी में रखा जा रहा है. सवर्ण हृदय से आरक्षण पसंद नहीं करते. राजनीतिक दृश्टि से नेताओं में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है. संसद में पहुंचने के बाद दलित नेता भी उदासीन हो जाते हैं. उन्हें केवल पद की चिंता रहती है. आज शिक्षा के क्षेत्र में पैसे का बोलबाला है. हमारा समाज जातियों और वर्गों में आज भी बंटा हुआ है.महंगी शिक्षा के कारण दलित, पिछड़े, विक्लांग उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं. केवल कुछ दलित, पिछड़ों, विक्लांगों की नियुक्तियों से यह कार्य पूरा नहीं होगा. इसके लिए विषेश प्रकार के आंदोलन की जरूरत है, जबतक कि नीचे के दलित संघर्ष के लिए तैयार नहीं होंगे तब तक आरक्षण का कोटा नहीं भरा जा सकता.
शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण लागू करने के लिए एक आंदोलनधर्मी जीवन दर्शन की जरूरत है. ऐसे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियां रास्ता दिखाती हैं, अधिकार खोकर बैठे रहना,  यह महादुश्कर्म है, न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है.
आज अगर शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण लागू नहीं हो पा रहा है तो हमें आज की परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करते हुए संघर्ष के लिए तैयार रहना होगा. समाज की पूरी मानसिकता को बदले बगैर इन परिस्थितियों पर काबू पाना कठिन है.

सौजन्य से
दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए संघर्षरत प्रगतिशील संगठनों का साझा मंच.
संपर्क सूत्र:  9210315231, 9958797409, 9868606210, 9313730069, 9968815757, 9868485583, 9868238186

                            

Oct 30, 2010

पेडों के साथ गई, पेडों की छाँव रे

नर्मदा आंदोलन के पचीस वर्ष पूरे होने पर संघर्ष  को समर्पित एक गीत...


प्रशांत दुबे


देखो देखो देखो देखो, उजड़ गए गाँव रे ।

पेडों के साथ गई, पेडों की छाँव रे॥

हम माझी बन खेते रहे, समय की धार को ।

जाने काये डुबो दई, हमरी ही नाव रे॥



खेत हमरा जीवन है, धरती हमरी माता है।

इनसे हमारा सात जन्मों का नाता है॥

बांध तुम बनाते हो, हमें क्यूँ डुबाते हो।

हमारे खेतों में क्यूँ, बारूदें बिछाते हो॥

अपने स्वार्थ को विकास कह के तुमने।

हमरा तो लगा दिया, जीवन ही दाँव रे॥

पेडों के साथ गई........................................।




पुरखों से जीव और, हम साथ रह रहे।

पत्थरों को चीर कर, प्रेम झरने बह रहे॥

हम जंगल में जीते हैं, हमें क्यूँ भगाते हो।

पर्यावरण के झूठे आंसू क्यों बहाते हो॥

हमरी रोजी,हमरी बस्ती छीन कर सरकार ने ।

अपनों से दूर कर, कैसा दिया घाव रे॥

पेडों के साथ गई........................................।



http://www.cgnetswara.org/   से साभार

Oct 26, 2010

न्याय की गुहार पर सजा मुक़र्रर


 उन दलित सिपाहियों के लिए न्याय बात की है जो कश्मीर में मारे गए हैं और कूढ़े के ढेर पर बनी जिनकी कब्रों को मैंने देखा है.मैंने भारत के उन गरीबों की बात की है जो इसकी कीमत चुका रहे हैं और अब एक पुलिस राज्य के आंतक तले जीवित रहने का अभ्यास कर रहे हैं.


अरुंधती  राय  

मैं यह कश्मीर से लिख रही हूं.सुबह अखबारों से पता चला कि हाल ही में मैंने कश्मीर मसले पर जो सार्वजनिक बैठकों में  जो कुछ कहा उसके कारण देशद्रोह के आरोप में मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है.मैंने वही कहा है जो लाखों लोग यहां हर दिन कहते हैं.

मैंने वही कहा है जो मैं और दूसरे बुद्धिजीवी कई सालों से कहते आ रहे हैं.कोई भी इंसान जो मेरे भाषण की लिखित कॉपी पढ़ने का कष्ट करेगा समझ जाएगा कि मेरी बातें मूल रूप से न्याय के पक्ष में एक गुहार है.मैंने कश्मीरियों के लिए न्याय के बारे में बात की है जो दुनिया के सबसे क्रूर सैन्य आधिपत्य में रहने के लिए मजबूर हैं.मैंने उन कश्मीरी पंडितो के लिए न्याय की बात की है जो अपनी जमीन से बेदखल किए जाने की त्रासदी भुगत रहे हैं.

मैंने उन दलित सिपाहियों के लिए न्याय बात की है जो कश्मीर में मारे गए हैं और कूढ़े के ढेर पर बनी जिनकी कब्रों को मैंने देखा है.मैंने भारत के उन गरीबों की बात की है जो इसकी कीमत चुका रहे हैं और अब एक पुलिस राज्य के आंतक तले जीवित रहने का अभ्यास कर रहे हैं.
कल मैं सोपियां गई थी. दक्षिण कश्मीर का सेव-नगर जो पिछले वर्ष 47दिनों तक आशिया और नीलोफर के बलात्कार और हत्या के विरोध में बंद रहा था. आशिया और सोफिया के शव उनके घर के नजदीक बहने वाले झरने में पाए गए थे और उनके हत्यारों को अभी तक सजा नहीं मिली है.मैं नीलोफर के पति और आशिया के भाई शकील से भी मिली.

हम दुख और गुस्से से भरे उन लोगों के बीचो बीच बैठे थे जो ये मानते है कि भारत से अब उन्हे इंसाफ की उम्मीद नहीं हैं.और अब ये मानते हैं कि आजादी अब आखिरी विकल्प है.मैं उन पत्थर फेंकने वाले लड़कों से भी मिली जिनकी आंख में गोली मारी गई थी.एक नवयुवक ने मुझे बताया कि कैसे उसके तीन दोस्तों को अनंतनाग जिले में गिरफ्तार कर लिया गया था और पत्थर फेंकने की सजा के रूप में उनके नाखून उखाड़ दिए गए थे.

अखबारों में कुछ लोगों ने मुझ पर नफरत फैलाने वाला भाषण देने और देश को विखंडित करने की इच्छा रखने का आरोप लगाया है.जबकि इसके उलट मैंने जो कुछ कहा है वो गर्व और प्रेम की निष्पत्ति है.यह उस इच्छा का नतीजा है जो लोगों की हत्या नहीं चाहती,लोगों का बलात्कार नहीं चाहती,नहीं चाहती कि किसी को जेल हो और किसी को भारतीय कहलवाने के लिए उनके नाखून उधेड़ दिए जाएं.

यह उस समाज में रहने की इच्छा के फलस्वरूप है जो केवल और केवल न्यायसंगत होने की जद्दोजहद मे है.धिक्कार है उस देश को अपने लेखकों को उनके विचार रखने पर चुप कराना चाहता है.धिक्कार है उस देश को उन लोगों को जेल में रखना चाहता है जो न्याय की मांग करते हैं.धिक्कार है उस देश को जहां सांप्रदायिक हत्यारे, लोगों की जान लेने वाले, कारपोरेट भ्रष्टाचारी, लुटेरे, बलात्कारी, गरीबों का शिकार करने वाले खुलेआम घूमते हैं.

 अरूंधति रॉय
अक्टूबर 26, 2010
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तो अरुंधती देशद्रोही हो जाएँगी

प्रसिद्ध लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्ता अरुंधती राय ने दिल्ली के मंडी हाउस स्थित एलटीजी सभागार में २१ अक्टूबर को 'आज़ादी- द ओनली वे' नाम से आयोजित सम्मलेन में जो बोला उसको आधार बनाकर भारत सरकार १२४ए के तहत देशद्रोह मुक़दमा दर्ज कराने की तैयारी में है,जिसके तहत उन्हें आजीवन कारावास की सजा हो सकती है.सरकार यही मुक़दमा ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता सैएद अली शाह गिलानी पर भी दर्ज कराने के लिए विशषज्ञों से रायशुमारी कर रही है.

अरुंधती पर मुक़दमा दर्ज हो या नहीं इसको लेकर सरकारी महकमें में दो मत उभर रहे हैं.एक पक्ष का कहना है कि अरुंधती रॉय की गिरफ़्तारी होने से कश्मीर मसला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का कारण बनेगा और इससे भारत के मुकाबले आज़ादी की मांग करने वालों को फायदा होगा.साथ ही यह कहा जा रहा है कि अरुंधती की गिरफ़्तारी होते ही भारत में भी माहौल गरमायेगा.दूसरी तरफ भाजपा इस मुद्दे को लगातार भुनाने में लगी हुई है,जिससे केंद्र की कांग्रेस सरकार तय नहीं कर पा रही है कि वह  क्या करे.

अरुंधती का भाषण जिसके आधार पर सरकार उन्हें देशद्रोही साबित करने पर तुली है....




कुछ और नहीं आज़ादी दो


मनुष्य-विरोधी कट्टरपन्थियों की चीख़-पुकार के आगे झुकने की बजाय और अपनी ख़ामियों का दोष कभी अंग्रेज़ों के,कभी पाकिस्तान के और कभी अमरीका के मत्थे मढ़्ने से बेहतर होगा कि हमारी सरकार अपने गरेबान में झांके और हर मतभेद को फ़ौजी कार्रवाई द्वारा सुलझाने से गुरेज़ करे...


नीलाभ

जैसे-जैसे हमारे देश में आन्तरिक विग्रह बढ़ता जा रहा है और लूट-खसोट का बाज़ार अपने उरूज़ पर है,जिसकी सबसे नुमायां मिसालें हैं हाल के कॉमनवेल्थ खेल और पिछले कई वर्षों से छत्तीसगढ़,झारखण्ड,आन्ध्र, महाराष्ट्र,उड़ीसा और बंगाल के आदिवासी इलाक़ों में सरकार की मदद से बड़े पूंजीवादी निगमों के दमन और अत्याचार का कसता शिकंजा. 

उसी तरह  कश्मीर का सवाल और अयोध्या के प्रस्तावित राम मन्दिर का प्रश्न --ये दो मसले और सभी सवालों को पीछे छोड़ कर आगे आ गये हैं और इनके बारे में किसिम-किसिम के बयान और फ़तवे दिये जाने लगे हैं जबकि ये मसले स्थायी और न्यायपूर्ण समाधान की मांग करते हैं.जहां तक अयोध्या का मसला है,उस पर हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने जो फ़ैसला दिया है,उसने आस्था को आधार बना कर तथ्य और तर्क को परे रखते हुए,होशमन्द-से-होशमन्द आदमी को चकरा दिया है.

खुश हैं तो सिर्फ़ संघ परिवार के लोग जिनकी पिटी हुई नौटंकी को इस फ़ैसले से नयी ज़िन्दगी और नयी मीयाद मिल गयी है और अब उनके हाथों में दो लड्डू हैं.सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ज़रूर सांसत में है, क्योंकि उसकी स्थिति दांतों के बीच जीभ जैसी है.

रहा सवाल कश्मीर का,तो यह मसला भी अपने ताज़ा दौर में लगभग उतना ही पुराना है जितना अयोध्या का मसला. कश्मीर में क़बाइलियों का हमला 1948 में हुआ था तो बाबरी मस्जिद के सिलसिले में मुक़द्दमा भी 1948 में ही दायर हुआ और अयोध्या में षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति न्यायालय में विचाराधीन वाद को प्रभावित करने की ख़ातिर 1949में रखी गयी जिसका हवाला सब-इन्सपेक्टर की रिपोर्ट में है और जिसका संज्ञान तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले में नहीं लिया गया है.सच तो यह है कि ये दोनों ही मसले आधुनिक हिन्दुस्तान की तारीख़ में सीधे-सीधे उस विराट अनर्थकारी घटना के परिणाम हैं जिसे हिन्दुस्तान का बंटवारा कहते हैं.
वैसे तो किसी भी भूभाग में सीमा-निर्धारण कभी अन्तिम नहीं होता.देशों के इतिहास में सत्ता के बदलते समीकरणों के अनुसार भूभाग इधर-उधर होते रहे हैं, होते रहते हैं, 1945 में बांटा गया जर्मनी आज एक है. लेकिन दो राष्ट्रों के सिद्धान्त पर 1947में हिन्दुस्तान का बंटवारा ऐसा बदक़िस्मती-भरा हादसा है जिसकी मिसाल हमारे इतिहास में सदियों से नहीं मिलती.

दो राष्ट्रों के इस नक़ली और जन-विरोधी सिद्धान्त पर देश को बांटने का फ़ैसला जितने ख़ून-ख़राबे और जितनी मानवीय पीड़ा की क़ीमत पर,बांटे जा रहे लोगों की इच्छा-अनिच्छा जाने और उसका ख़याल किये बग़ैर,और आगे भविष्य में विग्रह और वैमनस्य के आधार पैदा करते हुए जिस निर्णायक ढंग से किया गया वह पिछले तीन-चार हज़ार साल के इतिहास में अभूतपूर्व है.इस फ़ैसले को रूप देने वाले तो हिन्दुस्तान की जनता के तईं गुनहगार हैं ही, इसे तस्लीम करने वाले नेता भी उतने ही गुनहगार हैं.

ऐसी हालत में यह सवाल उतना सीधा नहीं रह जाता कि कश्मीर (या देश का कोई भी हिस्सा)हिन्दुस्तान का अभिन्न और अखण्ड अंग है या नहीं, था या नहीं, और रहना चाहिए या नहीं और अगर नहीं रहना चाहिए तो फिर उसके अस्तित्व का क्या स्वरूप होना चाहिए.
इसमें कोई शक नहीं है कि हिन्दुस्तान की सरकार ने एक लम्बे समय तक कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए कुछ खास क़िस्म के "पैकेज" देने का बन्दोबस्त किया हुआ है. लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि वहां के आम लोगों के हालात बद-से-बदतर होते चले गये हैं और वहां अरसे से असन्तोष पनपता रहा है जिसका कोई मुकम्मल समाधान नहीं किया गया. इससे भी कोई मुकर नहीं सकता कि एक बहुत लम्बे अरसे से केन्द्रीय सरकार ने कश्मीर में सेना तैनात कर रखी है और "सैन्य बल विशॆष अधिकार क़ानून" वहां लागू कर रखा है. 1989 से अब तक लगभग बीस बरसों में हज़ारों कश्मीरी लोग मार दिये गये हैं या फ़ौजों और अन्य सुरक्षा बलों द्वारा लापता कर दिये गये हैं.

ख़ुद भारत सरकार ने माना है कि अब तक 47,000लोग जानें गंवा बैठे हैं जिनमें फ़ौजियों और सुरक्षाकर्मियों की संख्या 7,000है और इनमें लापता लोगों की तादाद शामिल नहीं है.अन्य सूत्रों का कहना है कि मारे गये और लापता लोगों की संख्या 1,00,000से ऊपर है.चूंकि फ़ौजियों और सुरक्षाकर्मियों के बारे में आंकड़े ग़लत नहीं हो सकते, इसलिए हैरत होती है कि वहां किस पैमाने पर और किस क़िस्म की कार्रवाई हो रही है.यह कैसा समाधान है जो लोगों को नेस्त-नाबूद करके किया जा रहा है और क्यों इसे जनसंहार नहीं कहा जाना चाहिए ?

कश्मीर में हिन्दुस्तानी फ़ौज का रिकार्ड बहुत ख़राब रहा है.ऐसा कोई अमानवीय कृत्य नहीं है जो उसने वहां न किया हो --हत्या से ले कर बलात्कार तक.ज़ाहिर है कि केन्द्रीय सरकार ने ख़ुद प्रकारान्तर से यह मान लिया है कि कश्मीर में उसकी फ़ौज हमलावर फ़ौज की तरह उपस्थित है.यहां तक कि आम हिन्दुस्तानियों को भी महसूस होने लगा है कि तीस से भी अधिक वर्षों तक देश के किसी हिस्से और उसके वासियों को केवल फ़ौज के बल पर क़ाबू में रखना एक तरह से उस हिस्से और उसके वासियों पर युद्ध थोपने के बराबर है.

कभी अंग्रेज़ों की तो कभी पकिस्तान की साज़िशों का हवाला दे कर सरकार ने कश्मीर के स्थायी राजनैतिक समाधान को टाले रखा है. शायद ऐसी ही चालें पकिस्तान के जन-विरोधी, अलोकप्रिय हुक्मरान भी अपनी जनता के प्रति अपने वादों को निभा न पाने के कारण असली मुद्दों से ध्यान बंटाने की ख़ातिर करते आ रहे हैं. सच तो यह है कि दोनों देशों की सरकारें अपने बाशिन्दों के तईं समान रूप से गुनहगार हैं और हिन्दुस्तान की सरकार लोकतन्त्र का जितना राग अलापे,लोकतन्त्र और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की दृष्टि से उसका रिकार्ड अनन्त दाग़ों और धब्बों से भरा है.

ऐसी हालत में अगर कश्मीरी जनता इस अन्तहीन सैनिक शासन से तंग आ कर आज़ादी की मांग करने लगी है तो इसमें हैरत कैसी? अब तक के मानव इतिहास में आत्म-निर्णय का अधिकार देशों का बुनियादी अधिकार होता है.इसी अधिकार के चलते अतीत में किसी मोड़ पर महाराष्ट्र और सौराष्ट्र जैसी राष्ट्रिकताओं ने हिन्दुस्तान में रहने का फ़ैसला किया था.इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हिन्दुस्तान अनेक राष्ट्रिकताओं, भाषाओं, धर्मों, जातियों, विश्वासों और रहन-सहन की शैलियों का देश है.यह उसकी ख़ासियत है.ऐसी स्थिति में कश्मीर हो या पूर्वोत्तर के प्रान्त,उनमें पनपने वाले असन्तोष का निराकरण फ़ौज के बल पर नहीं किया जा सकता और नहीं किया जाना चाहिए.

यहां तक कि पुराने नाम से पुकारूं तो जम्बू द्वीप के किसी भी हिस्से के स्वरूप और उसकी क़िस्मत का फ़ैसला इतिहास की गवाही के आधार पर और राजनैतिक ढंग से,जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार को तस्लीम करके ही किया जाना चाहिए. 1947 में हमारे नेताओं ने अंग्रेज़ों के प्रति अपनी ग़ुलामाना ज़ेहनियत के चलते (जो, प्रधान मन्त्री के औक्सफ़ोर्ड भाषण को देखें तो,आज तक बरक़रार है)इस बुनियादी सिद्धान्त को ताक पर धर दिया जिसका ख़मियाज़ा हम आज तक भुगत रहे हैं.

जहां तक कश्मीर के मसले को उलझाने में बाहरी (कथित रूप से पाकिस्तानी)साज़िश वाली मान्यता का सवाल है,एक बुनियादी सत्य यह है कि जब तक आन्तरिक भेद-भाव और विभाजन न हो तब तक कोई बाहरी ताक़त हावी नहीं हो सकती.इसलिए पाकिस्तान को पूरी तरह दोषी ठहराने की बजाय या फिर संघ परिवार और उन जैसे हिंसक मनुष्य-विरोधी कट्टरपन्थियों की चीख़-पुकार के आगे झुकने की बजाय और अपनी ख़ामियों का दोष कभी अंग्रेज़ों के,कभी पाकिस्तान के और कभी अमरीका के मत्थे मढ़्ने से बेहतर होगा कि हम और हमारी सरकार अपने गरेबान में झांके और हर मतभेद को फ़ौजी कार्रवाई द्वारा सुलझाने से गुरेज़ करे.राजनैतिक समस्याओं का राजनैतिक हल ही खोजना और लागू करना चाहिए.ऐसा न करने पर ही यह हुआ है कि आज कश्मीरी जनता आज़ादी की मांग करने लगी है.हिन्दुस्तान से भी और पाकिस्तान से भी क्योंकि जहां तक कश्मीरियों का सवाल है ये दोनों देश एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हुए हैं.
अगर हम अन्धे नहीं हैं तो दीवार पर लिखी इबारत साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है.कश्मीर को कभी "फ़िरदौस बर रुए ज़मीन" कहा गया था -- धरती पर स्वर्ग -- ज़मीन पर जन्नत. ज़रा देखिए कि हमने किस ख़ूबी से उस जन्नत को जहन्नुम में, फ़िरदौस को दोज़ख़ में तब्दील कर दिया है और इस गुनाह में हमारे हाथ भी उतने ही मुब्तिला हैं जितने पकिस्तान के.

जो हम अब भी न चेते तो फिर इस देश को खण्डित होने से हम बचा नहीं पायेंगे और शायद कश्मीर ही वह पहला हिस्सा होगा जो किसी अंग्रेज़ी हुकूमत की साज़िश के कारण नहीं,बल्कि विशुद्ध रूप से हमारे निर्मम, क्रूर, अमानवीय, अन्यायपूर्ण और हिंसक व्यवहार के कारण अलग होगा और कोई भी ताक़त या तर्क इसे रोक नहीं पायेगा.


(नीलाभ हिंदी  कवि और  सामाजिक-राजनितिक मसलों के टिप्पणीकार हैं, उनसे neelabh1945@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)


Oct 25, 2010

गिलानी का सपना, इस्लामिक राज हो अपना


कश्मीर को स्वायतता  मिले या आजादी या फिर जैसा है उसी में प्रशासनिक   बेहतरी अमल में लायी  जाये,इन पहलुओं पर भारतीय समाज क्या सोचता है,को लेकर जनज्वार में बहस जारी  है और सरोकारी लेखक आमंत्रित हैं.इसी कड़ी में आज शाम चंडीगढ़ उच्च न्यायालय  के वरिष्ठ वकील राजीव गोदारा ने फेसबुक के जरिये सन्देश भेजा, 'Hello! socialism nahnin chalega? what to about authenticity of this u tube, I watch on face बुक'.  सन्देश पढ़ने के बाद जो  विडियो दिखा, वह आप भी देखिये और तय कीजिये कि ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के प्रमुख सैयद  अली शाह गिलानी दिल्ली में कैसी जुबां बोलते हैं और कश्मीर में कैसी.

हमें नहीं पता कि यह वीडियो कितना पुराना है.इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि इस्लामिक कट्टर नजरिया रखने वाले गिलानी का रूपांतरण हुआ होगा,क्योंकि राजनीति में कोई स्टैंड अंतिम नहीं होता. अगर ऐसा नहीं हुआ है तो जिंदगी को जहन्नुम की तरह जी रहा कश्मीरी आवाम अगले वर्षों को भी भुगतेगा और जिम्मेदार गिलानी जैसे लोग होंगे,क्योंकि ऐसे लोग ही भारत सरकार को कश्मीर में दबंगई  करने का आसान  बहाना मुहैया करते हैं. 


रास्ता खोलें, नेताओं को छोड़ें


कश्मीर के मीरवाइज मौलवी उमर फारूक हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के उदारवादी धड़े के नेता हैं। अलगाववादियों के बरक्स वे कश्मीरियत के समर्थक माने जाते हैं और दूसरे नेताओं के मुकाबले उनके तर्क संयत होते हैं। उनसे बातचीत के अंश...
 
 
हुर्रियत कांन्फेंस के नेता मीरवाइज उमर फारूक से इफ्तिखार गिलानी  की  बातचीत


आप भारत सरकार से शांति वार्ता में शामिल थे। इस बातचीत की क्या उपलब्धि रही है?

हम लोग केंद्र सरकार से औपचारिक तौर पर बातचीत से कभी  जुड़े नहीं रहे। कुछ वार्ताकारों ने हमें ऐसा प्रस्ताव दिया था। हमने इस पर चर्चा की। हमने भारत  सरकार से पहले भी प्रधानमंत्री और उप-प्रधानमंत्री के स्तर पर बातचीत की है। यह एक मसला नहीं है। मसला तो यह है कि मानवाधिकारों के उल्लंघन के साथ-साथ बातचीत नहीं हो सकती। आपको मानवाधिकारों का उल्लंघन,गलियों में लोगों की हत्या करना बंद करना होगा,ताकि बातचीत का माहौल तैयार हो सके। मैं केवल दिल्ली को आगाह करना चाहूंगा कि शांति प्रकि‘या में देरी और ऐसी गतिविधियों में शामिल होकर वे अपनी स्थिति को और खतरनाक बना रहे हैं।

क्या आप फिर से राज्य में आतंकवाद की वापसी देखते हैं?

राज्य में बंदूकों का दौर अभी खत्म नहीं हुआ है। यह बात सच है कि आतंकवाद की घटनाओं में कमी आयी है, लेकिन उसका स्वरूप ज्यों का त्यों है। आज भी ऐसे आतंकवादी मौजूद हैं,जो अपने इरादों के लिए समर्पित हैं। कश्मीर में हथियारों से लड़ने वाले व्यक्ति का लक्ष्य और हुर्रियत का लक्ष्य एक ही है। वे हथियारों से लड़ रहे हैं और हम राजनीतिक जंग लड़ रहे हैं। लेकिन अगर लोग देखते हैं कि लोकतांत्रिक तरीके से कुछ हासिल होने की उम्मीद नहीं है, तो आतंकवाद फिर से सर उठा सकता है। कल अगर हुर्रियत असफल होती है, तो कश्मीरी आतंकवादी फिर से हिंसा का रास्ता चुन सकते हैं।

राज्य सरकार पुरानी गलतियों को ही फिर से दोहरा रही है। इससे माहौल और खराब हुआ है। उन्होंने अर्धसैनिक बलों और सेना को खुली छूट दे रखी है। यहां के लोग हताशा में जी रहे हैं। वे जल्द ही एक समाधान चाहते हैं। यहां कई ऐसे भी लोग हैं, जो यह समझते हैं कि हिंसक संघर्ष में तेजी लायी जाये और बातचीत की बजाय बंदूकों पर ज्यादा ध्यान दिया जाये।

आप कश्मीर में एक धार्मिक दर्जा भी रखते हैं। आप भारत में रहने के लिए भारतीय मुसलमानों के साथ हाथ क्यों नहीं मिलाते? कश्मीर का अलगाव उनके लिए और ज्यादा तनाव का कारण बनेगा।

कश्मीर को हिंदू-मुस्लिम मसला कहना गलत होगा। यह एक राजनीतिक और मानवीय समस्या है। हमें उस जगह पर डाल दिया गया है कि हम अपनी पहचान खो दें। भारतीय मुसलमानों को 1947में अपना नसीब चुनने का मौका मिला था। कश्मीरियों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि वे भारत के नागरिक हैं। इसीलिए हम लोगों को बंधकों के तौर पर नहीं रखा जा सकता। भारतीय मुसलमान भारत के नागरिक हैं और यह भारत की सरकार के जिम्मे है कि वह उनका खयाल रखे।

कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए आपके क्या सुझाव हैं?
हम हमेशा से भारत को व्याहारिक और तर्कसंगत प्रस्ताव देते आये हैं। श्रीनगर-मुजफ्फराबाद,पुंछ-रावलकोट और करगिल-अस्कर्दू जैसे रास्तों को लोगों की बेरोकटोक आवाजाही के लिए खोल दिया जाना चाहिए। भारतीय अधिकारियों ने खुद ही कहा है कि आतंकवाद की घटनाएं कम हुई हैं। इस हालत में ारत सरकार को अपनी सेना को कठोर कानूनों से लैस करने का क्या औचित्य है?हम सभी जानते हें कि जेल में बंद हमारे ज्यादातर राजनीतिक नेता फर्जी मामलों में फंसाये गये हैं। भारत सरकार को वे सभी कदम उठाने चाहिए,जिनसे कि कश्मीरियों को लगे कि भारत सरकार कश्मीर समस्या को सुलझाने के प्रति गंभीर है। यदि ऐसा किया जाता है,तो ऐसे कदमों से समस्या को शांतिपूर्वक सुलझाने में मदद मिलेगी।
ऐसी मांगों का समर्थन पीडीपी जैसी मुख्यधारा की पार्टियों ने भी  किया है। क्या आप उनके साथ किसी गठबंधन की संभावना देखते हैं?

हमारे लिए ये तीनों मांगें ही अंत नहीं हैं,बल्कि यह तो एक शुरुआत है। मुख्य  मुद्दा तो यह है कि कश्मीर समस्या सुलझाई जाये। पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस  जैसे दलों ने कश्मीर पर भारत के नजरिये का हमेशा समर्थन किया है। अब वे हमारी भाषा में बात कर रहे हैं। उनको यह साफ करना चाहिए कि वे भारत के साथ हैं या कश्मीर के लोगों के साथ।

 आपने पिछले साल कहा था कि अगर जम्मू के लोग अलग राज्य चाहते हैं,तो इसके लिए वे आजाद हैं। क्या आपने मजहबी  आधार पर राज्य के विभाजन की मांग को आपने मंजूर कर लिया है?

ऐसा कतई नहीं है। हम राज्य की अखंडता पर यकीन करते हैं। मैंने ऐसा कहा था क्योंकि मैं कट्टरपंथियों को उनकी औकात बताना चाहता था। जम्मू के लोग सांप्रदायिक उन्माद और कश्मीर-विरोधी भावनाओं का समर्थन नहीं कर रहे, जैसा कि कुछ कट्टरपंथी दिखाना चाहते हैं। इसीलिए मैंने कहा था कि अगर कुछ लोग अलग राज्य चाहते हैं,तो राज्य ढाई जिले बताना उनको दे दिये जाये। हमलोग पूरे राज्य को बंधक बनाने की अनुमति नहीं दे सकते।

आपने कई धमकियों को दरकिनार करते हुए नयी दिल्ली के साथ बातचीत की प्रक्रिया में हिस्सा लिया है। क्या इसके लिए आपको कोई पछतावा है?

बिल्कुल नहीं। मेरा यह मानना है कि बातचीत समस्याओं को सुलझाने का सबसे प्रभावशाली तरीका है। लेकिन भारत ने बातचीत की गरिमा का खयाल नहीं रखा। हमने उन्हें कश्मीर की वास्तविक समस्या को सुलझाने के लिए कुछ प्रस्ताव दिये थे, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया।

लेकिन आपने प्रधानमंत्री के बातचीत के प्रस्तावों को खारिज कर दिया?

हमें लगता है कि इस समय कि बातचीत की प्रक्रिया  को जारी रखने का कोई अर्थ नहीं। नयी दिल्ली को कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे,जिनसे कश्मीरियों का यह एहसास हो कि बातचीत से उन्हें फायदा हुआ है। हमने सरकार को तीन प्रस्ताव दिये हैं। अगर वे बातचीत के माध्यम से समस्या को सुलझाने के प्रति गंभीर हैं,तो उन्हें इसे स्वीकार करना होगा। मुझे लगता है कि हमने अपना काम कर दिया है। अब उन्हें अपना काम करना चाहिए।

आपके परवेज मुशर्रफ के साथ काफी मधुर संबंध थे। क्या उनकी सता  से विदाई पर आपको दुख नहीं हुआ?

यह पाकिस्तान का आंतरिक मुद्दा है। हालांकि मेरा मानना है कि अगर कोई तार्किक सुझावों को लेकर आता है, तो उसका समर्थन किया जाना चाहिए। मुशर्रफ साहब का कश्मीर को लेकर काफी सकारात्मक रवैया रहा। मैं समझता हूं कि अगर यही रवैया आगे  रहता है, तो हम कश्मीर मसले पर अपने कदम आगे बढ़ाने की स्थिति में होंगे। हमें उम्मीद है कि नयी सरकार इसी दिशा में आगे बढ़ेगी।


इफ्तिखार गिलानी कश्मीर से निकलने वाले अंग्रेजी  दैनिक 'कश्मीर टाइम्स'के दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख हैं.उन्होंने यह साक्षात्कार पाक्षिक हिंदी पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा' के लिए लिया था,यहाँ साभार प्रकाशित किया जा रहा है.



Oct 24, 2010

बंटवारा समाधान नहीं

ये सच है कि बंदूकों और बूटों के बल पर देशभक्त नहीं पैदा किये जा सकते कश्मीर ही नहीं समूचे देश में मानवाधिकारों की स्थिति बेहद चिंताजनक है,लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए ये हमारे समय की समस्या है.

आवेश तिवारी

कश्मीर मसले पर  वहां की जनता का मत महत्वपूर्ण है,इससे  इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि किसी को भी वहां की जनता पर जबरिया या फिर वैचारिक तौर पर गुलाम बनाकर या उनका माइंडवाश करके उन पर शासन करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता.

अरुंधती जब कश्मीरियों को आजादी देने के लिए हिंदुस्तान में हिन्दू और आर्थिक अधिनायकवाद का उदाहरण देती हैं ,तो ये साफ़ नजर आता है कि वो श्रीनगर में रहने वाले उन २० हजार हिन्दू परिवारों या फिर ६० हजार सिखों के साथ-साथ उन मुसलमानों के बारे में बात नहीं कर होती हैं जिन्हें आतंकवाद ने अपनी धरती,अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया. 

ये सच है कि बंदूकों और बूटों के बल पर देशभक्त नहीं पैदा किये जा सकते कश्मीर ही नहीं समूचे देश में मानवाधिकारों की स्थिति बेहद चिंताजनक है,लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए ये हमारे समय की समस्या है. इसका समाधान राजनैतिक और गैर राजनैतिक तौर से किये जाने की जरुरत है.

कभी अरुंधती ने देश की जनता या फिर अपने चाहने वालों से कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर आन्दोलन चलाने की बात तो नहीं की,हाँ पुरंस्कारों के लिए कुछ निबंध या किताबें लिख डाली हो तो मैं नहीं जानता. लेकिन अरुंधती जैसे लोगों के द्वारा मानवाधिकारों की आड़ में राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती दिया जाना कभी कबूल नहीं किया जा सकता.

दिल्ली : कश्मीरियों को मिले न्याय  सम्मलेन में अरुंधती  
मुझे याद है अभी एक साल पहले मेरे एक मित्र ने अरुंधती से जब ये सवाल किया कि आप कश्मीर फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं… "मैं कश्मीर के फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हूं ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि वहां एक मिलिटरी ऑकुपेशन (सैन्य कब्जा) हैं। कश्मीर में आजादी का आंदोलन बहुत पेचीदा है। अगर मैं कहूं कि मैं उसके समर्थन में हूं तो मुझसे पूछा जाएगा कि किस मूवमेंट के। ये उन पर निर्भर करता है। एज ए पर्सन हू लिव्स इन दिस कंट्री आई कैन नॉट सपोर्ट द सेपेरेशन ऑफ पीपुल इन दिस मिलिट्री ऑकुपेशन"। और अब वही अरुंधती कहती हैं भारत को कश्मीर से और कश्मीर से भारत को अलग किये जाने की जरुरत है .

एक ही सवाल पर बयानों में ये दुहरापन चरित्र का संकट है ,जो अरुंधती पर निरंतर हावी होता जा रहा है. अरुधती जैसे लोगों के अस्तित्व के लिए पूरी तौर पर समकालीन राजनीति जिम्मेदार है ,वो राजनीति जिसने भ्रष्टाचार के दलदल में पैदा हुई आर्थिक विषमता और अप-संस्कृति को ख़त्म करने के कभी इमानदार प्रयास नहीं किये ,कभी ऐसे प्रयोग नहीं किये जिससे कश्मीर की जनता देश की मिटटी ,देश के पानी ,देश के लोगों से प्रेम कर सके.

कांग्रेस और फिर भाजपा ने सत्तासीन होने के बावजूद कभी भी कश्मीर और कश्मीर की अवाम की आत्मा को टटोलने और फिर उसे ठेंठ हिन्दुस्तानी बनाने के लिए किसी  किस्म के प्रयोग नहीं किये,अगर कोई प्रयोग हुआ तो सिर्फ सेना का या पाकिस्तान से जुड़े प्रोपोगंडा का. जिसने हमें बार बार बदनाम किया,और अब अरुंधती और गिलानी जैसे लोगों के हाँथ में हिंदुस्तान को कोस कर अपना खेल खेलने का अवसर दे दिया.

अरुंधती और उनकी टीम का यह रवैया  नाकाबिले बर्दाश्त है. बाबरी पर हमला या फिर गोधरा एवं बाद में पूरे गुजरात में हुई हत्याएं भी इसी श्रेणी में आती हैं. कहते हैं व्यक्ति को तो माफ़ किया जा सकता है मगर राजनीति में माफ़ी नहीं होती.हिंदुस्तान की राजनीति में जो गलतियाँ हुई उनका खामियाजा न सिर्फ कश्मीर बल्कि पूरा देश भुगत रहा है.व्यवस्था के पास बहाने हैं और झूठे अफ़साने हैं. अगर गांधी जीवित होते तो शायद कश्मीर में जाकर वहीँ अपना आश्रम बनाकर रहने लगते और कश्मीरियों से कहते हमें एक और मौका दो,फिर से देश को न बांटने को कहो. 



आवेश तिवारी  इलाहाबाद और लखनऊ  से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख हैं उनसे   awesh29@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

कहते हैं पाकिस्तान गए होंगे !


अफगानिस्तान में 1000 लोगों पर 25 अमेरिकन आर्मी है, जबकि कश्मीर में 1000 पर 70 आर्मी है। बावजूद इसके भारत-पाक दोनों देशों की इस समस्या को सुलझाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखती और हम कश्मीरियों को  सिर्फ मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है...
 
सुनील गौतम

‘मैं हिंसा और विरोधाभास के बीच पैदा हुई हूं। मैंने जितनी सांसें नहीं ली हैं,उससे भी कहीं ज्यादा गालियों की आवाजें सुनी हैं।’इन्शाह मलिक द्वारा कही गयी उपरोक्त बातें अपनी पहचान की जद्दोजहद में जूझते जम्मू और कश्मीर की हालत खुद-ब-खुद बयां करते हैं.
कश्मीर से ताल्लुकात रखने वाली और टाटा इनस्टीट्यूट ऑफ  सोशल साइंस मुंबई की छात्रा इन्शाह आगे कहती हैं -‘यह संघर्ष सिर्फ ‘कश्मीर बचाओ आंदोलन’के सदस्यों का नहीं,बल्कि उन तमाम कश्मीरी युवाओं का है जो अपनी अस्मिता और पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं। हम भारतीय सेना के एके-47का मुकाबला पत्थरों से कर रहे हैं।

इस लड़ाई में मुझ जैसे लाखों  कश्मीरी शामिल हैं,जो डर और विरोधाभास के साये में पैदा हुए हैं। यह लड़ाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। हमारे साथ आतंकवादियों जैसा व्यवहार किया जाता है। हम अपने ही देश में दूसरे ग्रह के जीव के रूप में जीवन-यापन कर रहे हैं और यही हमारी लड़ाई का मूल कारण है। हमारी यह लड़ाई नेता विहीन है और इसका कोई राजनीतिक मकसद भी नहीं है।’

‘कश्मीर बचाओ आंदोलन’ द्वारा 23 अगस्त 2010 को जारी की गयी प्रेस रिलीज में साफ तौर पर कहा गया है कि जून 2010 से अब तक 63 युवक भारतीय फौज की गोलियों के शिकार हो चुके हैं। पिछले तीस सालों में एक लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। आखिर कब तक हम इस तरह की फौजी कार्रवाई को मूकदर्शक बनकर देखते रहेंगे।

दिल्ली के जामिया इस्लामिया में पढ़ने वाली फरीदा खान ने कहा कि ‘कश्मीर के हर युवक में गुस्सा काफी ज्यादा है। साथ ही वो असमंजस के शिकार भी हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि वे हिन्दुस्तान में हैं या पाकिस्तान में। 15 से 17 साल के छोटे-छोटे बच्चों को आतंकवादी का नाम देकर आर्मी द्वारा उठा लिया जाता है। उन्हें बुरी तरह पीटा जाता है। कई कश्मीरी युवक तो घर से ही गायब हैं। पूछने के वास्ते पुलिस के पास जाओ तो पुलिस द्वारा बुरा व्यवहार किया जाता है और ‘पाकिस्तान गये होंगे’जैसे वाक्यों का प्रयोग किया जाता है। इस संबंध में भारत सरकार द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाता। हम संगीनों के साये में जिंदगी जीते हैं। हमारे चारों तरफ पुलिस और आर्मी तैनात रहती है। रात को 12बजे जब कोई दरवाजे पर दस्तक देता है तो यह भेद करना मुश्किल हो जाता है कि पुलिस है या आतंकवादी।’

मीडिया को भी लताड़ते हुए डॉ.फरीदा खान ने कहा-‘मीडिया भी अब अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से नहीं निभा रहा है। मीडिया हमें गलत तरीके से पेश करता है। आखिर हमारे साथ इस तरह का जुल्म क्यों किया जा रहा है। हमारे यहां भी जनता द्वारा चुनी गयी सरकार है। लोकतंत्र भी मौजूद है,फिर क्यों हमारे विरोध करने पर गोलियां चलायी जाती हैं। भारत सरकार हमारे वोट लेकर हमें भूल जाती है।’
कश्मीर में होने वाली फौजी कार्रवाई का यह रूप काफी दर्दनाक है। इस कार्रवाई में अब बच्चों को भी शिकार बनाया जा रहा है। इसकी शुरुआत 8जनवरी 2010से हुई जिसमें इनायत खान नामक एक 16साल के लड़के को गोली मार दी गयी। इस संबंध में बात करते हुए इन्शाह मलिक ने हमें बताया कि ‘अफगानिस्तान में 1000लोगों पर 25 अमेरिकन आर्मी है, जबकि कश्मीर में 1000 पर 70 आर्मी है। लेकिन हम इन्हें याद दिलाना चाहते हैं कि ये लोग जितना हमें दबाने की कोशिश करें हमारी यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक हमें हमारी पहचान नहीं मिल जाती।’
निःसंदेह जितनीभी बातें कही गयीं वो सभी सत्य थीं,लेकिन सवाल यह उठता है कि यह आंदोलन आखिर उन अलगाववादियों से जो कि कश्मीर के नाम पर भारत में जेहाद फैला रहे हैं,से कैसे अलग है। इस सवाल के जवाब में इन्शाह ने कहा-‘देखिये,ये एक अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा है। भारत-पाक दोनों देशों की यह समस्या सुलझाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। हमें सिर्फ मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है। और रही बात अलगाववादियों की तो हम आपको बता दें कि हम उनसे काफी अलग हैं। हम सिर्फ पत्थर फेंककर ही विरोध का प्रदर्शन करते हैं। नई पीढ़ी के कश्मीरी युवक किसी भी अलगाववादी नेता या कट्टरपंथी की नहीं सुनते। हमारा विरोध हमारा है।’
कश्मीर के मुद्दे पर जारी की गयी प्रेस रिलीज में सरकार से निम्न कदम उठाने के लिए कहा गया-
1. कश्मीर से तुरंत आर्मी हटा ली जाये।
2. एएफएसपीए (आम्र्ड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट) को निरस्त किया जाये।
3. विरोध प्रदर्शन के दौरान गिरफ्तार हुए बेकसूर युवाओं को तुरंत रिहा किया जाये।
4. निष्पक्ष न्याय प्रणाली को लागू किया जाये ताकि वहां के लोगों को न्याय मिल सके।


(जनता का आइना अख़बार से साभार)

पड़ोसी की गुलामी में दिखती गिलानी की आज़ादी


राजा ने कहा कश्मीर भारत के साथ जा रहा है क्योंकि भारत ने उसकी आज़ादी की रक्षा की है जबकि पाकिस्तान, हमेशा के लिए गुलाम बनाना चाहता है.उसी पाकिस्तान के गुलाम और उसी के खर्चे पर ऐश कर रहे गिलानी के मुंह से आज़ादी की बात समझ में नहीं आती है...


शेष नारायण सिंह

दिल्ली में मीडियाजीवियों का एक वर्ग है जो प्रचार के वास्ते कुछ भी कर सकता है.इसी जमात के कुछ लोग कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी एजेंट सैय्यद अली शाह गिलानी को पकड़ कर ले आये और दिल्ली में मंच दिया.समझ में नहीं आता कि जो आदमी घोषित रूप से पाकिस्तानी तोड़फोड़ का समर्थक है,कश्मीर को पाकिस्तान की गुलामी में सौंपना चाहता है उसे भारतीय संविधान की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के तहत क्यों महिमामंडित किया जा रहा है.

दिल्ली में बहुत सारे धतेंगण घूम रहे हैं जो धार्मिक कठमुल्लापन की भी सारी हदें पार कर जाते हैं ,हिन्दू महासभा की राजनीति में गले तक डूबे रहते हैं,मंदिर मार्ग की हिन्द महासभा  की प्रापर्टी पर क़ब्ज़ा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं और और मौक़ा मिलते ही मुसलमानों और माओवादियों के शुभचिंतक बन जाते हैं .इस तरह के दिल्ली में करीब एक हज़ार लोग हैं जो हमेशा विवादों के रास्ते मीडिया में मौजूद पाए जाते हैं.

इसी प्रजाति के कुछ जीवों ने दिल्ली में गिलानी को मंच दे दिया.तुर्रा यह कि गिलानी जैसे पाकिस्तान के गुलाम आज़ादी की बात करते रहे और बुद्धि के अजीर्ण से ग्रस्त लोग उसे सुनते रहे.दुर्भाग्य यह है कि अपने देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कश्मीरी अवाम की आज़ादी की भावना को समझता ही नहीं.


गिलानी : व्यापक जनाधार का नेता

एक बात अगर सबकी समझ में आ जाय तो कश्मीर संबंधी चिंतन का बहुत उपकार होगा और वह यह कि जब १९४७ में जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया तो कश्मीरी अवाम ने अपने आपको आज़ाद माना था.यानी भारत के साथ रहना कश्मीर वालों के लिए आज़ादी का दूसरा नाम है.शेख अब्दुल्ला ने राजा की हुकूमत को ख़त्म करके कश्मीरी अवाम की आज़ादी की बात की थी और जब राजा ने विलय की बात मान ली और कश्मीर भारत का  हिस्सा बन गया तो कश्मीर आज़ाद हो गया.

यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि राजा ने विलय के कागजों पर अक्टूबर १९४७ में दस्तखत किया था .दस्तखत करने की प्रक्रिया इसलिए भी तेज़ हो गयी थी कि कश्मीर पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा करने के उद्देश्य  से पाकिस्तानी फौज़ ने कबायलियों को साथ लेकर हमला कर दिया था और राजा ने कहा कि आज़ादी की बात तो दूर,पाकिस्तानी सरकार और उसके मुखिया मुहम्मद अली जिन्ना तो कश्मीर को फौज के बूटों तले रौंद कर गुलाम बनाना चाहते हैं.भारत के साथ विलय का फैसला पाकिस्तानी हमले के बाद हो गया था.

राजा ने कहा कि कश्मीर,भारत के साथ जा रहा है क्योंकि भारत ने उसकी आज़ादी की रक्षा की है जबकि पाकिस्तान हमेशा के लिए गुलाम बनाना चाहता है.उसी पाकिस्तान के गुलाम और उसी के खर्चे पर ऐश कर रहे गिलानी के मुंह से आज़ादी की बात समझ में नहीं आती है.हाँ यह भी सच है कि शेख अब्दुल्ला को परेशान करके भारत सरकार ने अपना एक बेहतरीन दोस्त खो दिया था लेकिन अब वह सब कुछ इतिहास की बातें हैं वरना अगर प्रजा परिषद् ने शेख साहेब से राजा का बदला लेने की गरज से तूफ़ान न मचाया होता तो कश्मीर की समस्या ही न पैदा होती.

कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी को समझने के लिए इतिहास के कुछ तथ्यों  पर नज़र डालनी ज़रूरी है .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था .उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था.और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना.इस बीच मुसलमानों,सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा,हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुई  उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे.  शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.


पाकिस्तान समर्थित होने का आरोप

इस आन्दोलन को जिन्ना  ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए.इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था.वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे.लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे.उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया.और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू.१ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है.

अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है .शेख ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे.पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया.महात्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था.

इसके बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे.इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी.उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी.

वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह दिल्ली से निकलने वाले उर्दू अख़बार 'शहाफत' से जुड़े हैं.उनसे sheshji@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है)

हस्तक्षेप.कॉम से साभार

Oct 22, 2010

AZADI: THE ONLY WAY

दिल्ली के मंडी हाउस स्थित एलटीजी सभागार में कल कमिटी फॉर द  रिलीज़  ऑफ़ पोलिटिकल   प्रिजनर्स  की ओर से आयोजित सम्मलेन 'AZADI: THE ONLY WAY' में लगातार सरगर्मी बनी रही. जम्मू-कश्मीर की जनता को  आत्मनिर्णय  का अधिकार मिले, के समर्थकों और विरोधियों के बीच सपन्न हुए सम्मलेन में ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के प्रमुख सैयद अली शाह गिलानी ही नायक थे. अपने नायक को सुनने को बेताब  देश के विभिन्न हिस्सों से आये युवा, खासकर कश्मीर से ताल्लुक रखने वालों  के लिए  गिलानी का संबोधन सुनिए...






Oct 21, 2010

मुकदमा मालिकाने का था जज साहब !


विवादित स्थल पर राम मंदिर बने या न बने,इस पर न्यायालय को कोई निर्णय ही नहीं करना था। जिन बिन्दुओं पर न्यायालय से निर्णय की अपेक्षा थी,उन पर कोई निर्णय न देकर वह अपने कार्यक्षेत्र ये बाहर जाकर कुछ निर्णय सुना रही है।

 
संदीप पाण्डेय

 
अयोध्या मामले पर फैसला आ चुका है। चारों तरफ सराहना हो रही है कि बहुत अच्छा फैसला है। किसी को निराश नहीं किया। सबसे बड़ी बात कि जो शांति व्यवस्था भंग होने का खतरा था व शासन-प्रशासन की किसी भी स्थिति से निपटने की पूरी तैयारी थी,वैसी कोई अप्रिय घटना नहीं घटी। शांति व्यवस्था बनी रही। लोगों ने बड़ी संजीदगी से फैसले को सुना और मामले की नजाकत को समझते हुए जिम्मेदारी का परिचय दिया।

सभी मान रहे हैं कि फैसला आस्था के आधार पर हुआ है। न्यायाधीशों की यह मंशा थी कि विवाद का हल निकल आए। यह फैसला सभी पक्षकारों को समाधान हेतु प्ररित करने की दृष्टि से तो बहुत अच्छा है, किंतु यदि संविधान की भावना या कानून की दृष्टि से देखेंगे तो इस फैसले में दोष हैं। इस फैसले का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि भविष्य में इस किस्म के नए विवाद खड़े होने की सम्भावना पैदा हो गई है।

 
भारत के संविधान में भारत को स्पष्ट रूप से एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में परिभाषित किया गया है। हम किसी एक धर्म को मानने वालों की भावनाओं को किसी अन्य धर्म को मानने वालों की तुलना में अधिक महत्व नहीं दे सकते,किंतु अयोध्या विवाद फैसले में ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दुओं की आस्था,कि भगवान राम ठीक बाबरी मस्जिद की बीच वाली गुम्बद के नीचे पैदा हुए थे, को ही फैसले का आधार बना लिया गया है।


कानून की दृष्टि से तथ्य हमेशा महत्वपूर्ण होता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में खड़ी बाबरी मस्जिद जिसको 6 दिसम्बर, 1992, को सबने ढहते देखा और जिसमें 1949 तक नमाज अदा की जाती रही हो, को हिन्दुओं की आस्था के मुकाबले कम महत्व दिया गया है।

एक तरफ प्रत्यक्ष बाबरी मस्जिद थी तो दूसरी तरफ आस्था के अलावा न्यायालय के आदेश पर 2003 में विवादित स्थल पर करवाई गई खुदाई में निकले एक मंदिर के कुछ अवशेष। वैसे पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिर्पोट में मंदिर के अवशेषों के अलावा भी खुदाई में पाई गई तमाम चीजों का जिक्र है। किंतु निष्कर्ष में मस्जिद निर्माण के पहले इस स्थल पर एक मंदिर होने की बात कही गई है, जो पूर्वाग्रह से ग्रसित लगती है।

वैसे यदि मान भी लिया जाए कि बाबरी मस्जिद बनाए जाने के पहले उस स्थल पर एक मंदिर था,फिर भी ठीक यही जगह राम जन्मभूमि ही है,इस बात का क्या प्रमाण हो सकता है?न्यायालय ने भी इस बात को आस्था के आधार पर ही माना है। किन्तु सवाल यह है कि क्या किसी न्यायालय का फैसला आस्था के आधार पर हो सकता है?

                                                                                                               साभार: बीबीसी
 अपने देश में यह व्यवस्था है कि आजादी के दिन जो धार्मिक स्थल जैसा था,उसे वैसा ही स्वीकार किया जाए। लेकिन अयोध्या विवाद के फैसले में करीब 500वर्षों से भी पहले बने एक मंदिर, जिसके सबूत अस्पष्ट ही हैं, को हाल तक अस्तित्व में रही मस्जिद की तुलना में ज्यादा तरजीह दी गई है

एक न्यायाधीश महोदय ने तो अपने फैसले में यहां तक कह दिया है कि अब विवादित भूमि पर राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। ज्ञात हो कि मूल विवाद स्वामित्व का है। न्यायालय को २२-23 दिसम्बर, 1949, की रात जो रामलला की मूर्तियां राम चबूतरे से मस्जिद के अंदर रखी गईं, उस पर भी निर्णय सुनाना था।

विवादित स्थल पर राम मंदिर बने या न बने,इस पर न्यायालय को कोई निर्णय ही नहीं करना था। वैसे भी राम मंदिर बनाने की बात तो अस्सी के दशक में पहली बार की गई थी। यह कितनी मजेदार बात है कि जिन बिन्दुओं पर न्यायालय से निर्णय की अपेक्षा थी,उन पर कोई निर्णय न देकर वह अपने कार्यक्षेत्र ये बाहर जाकर कुछ निर्णय सुना रही है।

विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने की बात कर न्यायाघीश महोदय ने 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की कार्यवाही, जिस पर अभी एक आपराधिक मुकदमा चल रहा है, को एकाएक जायज ठहरा दिया है। क्योंकि यदि न्यायालय यह मानती है कि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार विवादित स्थल ही राम जन्म भूमि है तथा एक न्यायाघीश को यह लगता है कि वहां राम मंदिर भी बनना चाहिए तो यह राम मंदिर वहां से बाबरी मस्जिद को बिना हटाए तो बन नहीं सकता। यह रोचक होता,यदि बाबरी मस्जिद अभी भी खड़ी होती तो न्यायाघीश महोदय क्या फैसला देते?
इस फैसले से भविष्य में नए विवाद खड़े हो सकते हैं।आस्था के आधार पर कोई गैरकानूनी कार्यवाही कर किसी जगह पर दावा कर सकता है। ऐसी कार्यवाही सामूहिक हो और विशेषकर बहुसंख्यक सामाज का समर्थन उसे हासिल हो तो न्यायालय के लिए उचित निर्णय लेना मुश्किल हो जाएगा। फिर अयोध्या फैसला तो एक नजीर बन जाएगा।

इस विवाद ने देश की राजनीति को बहुत पीछे ढकेल दिया है। महंगाई,खाद्य निगम के गोदामों में सड़ता अनाज, कृषि मंत्री का यह कहना कि भले ही यह अनाज सड़ जाए, किंतु गरीबों को नहीं दिया जा सकता, पहले आई.पी.एल. घोटाला, फिर राष्ट्रमण्डल खेलों में शर्मनाक घोटाला,जम्मू-कश्मीर में लोगों का असंतोष और भारत सरकार की स्थिति से निपटने में नाकामी,कॉरपोरेटीकरण के दौर में जगह-जगह छिड़े लोगों के अपनी जमीनों को बचाने के संघर्ष,सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों का भ्रष्टाचार-ऐसे सारे मुद्दे जिनसे इस देश की जनता का सरोकार है दब गए। जनमानस में अयोध्या फैसले कर भय व्याप्त रहा। यह तथ्य कि फैसला आने से ही शांति भंग की आशंका थी, साबित करता है कि इस मुद्दे में हिंसा के बीज छुपे हैं। पहले ही देश इस मुद्दे की वजह से हुई हिंसा से काफी खामियाजा भुगत चुका है।

असल में बाबरी मस्जिद के बीच वाले गुंबद के ठीक नीचे राम जन्मभूमि बताना ही झगड़ा खड़ा करने वाली बात है। यदि आम हिन्दू जिसकी आस्था के नाम पर फैसला हुआ है,से पूछा जाए तो शायद वह यह कहे कि उसका कोई ऐसा दुराग्रह नहीं है और न ही वह कोई झगड़ा चाहेगा। यदि हिन्दुत्ववादी संगठन राम मंदिर बनाने को इतना ही इच्छुक हैं तो वे इस मंदिर को अयोध्या स्थित विश्व हिन्दू परिषद् के स्वामित्व वाली कारसेवकपुरम की भूमि पर क्यों नहीं बना लेते?क्या भगवान राम को इस बात का मलाल रहेगा कि उनका भव्य मंदिर ठीक जन्मभूमि वाले स्थान पर नहीं बना? या इसे हिन्दुओं की आस्था, जो फिलहाल हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपहृत कर ली है, में कोई कमी माना जाएगा?मुख्य सवाल यह है कि धर्म के नाम पर राजनीति को भारत के आधुनिक लोकतंत्र में कितनी जगह दी जाएगी? यह बात हम कब कहेंगे कि धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए।
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संविधान के धर्मनिरपेक्षता के मूल्य और कानून तथा न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इससे भारत के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।


(लेखक  मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं,उनसे  ashaashram@yahoo.com पर संपर्क किया जा  सकता  है.) 

बिहार की चुनावी सरगर्मी दिल्ली में

पंकज कुमार
विधानसभा चुनाव बिहार में है,लेकिन इससे हजारों किलोमीटर दूर इसकी सरगर्मी राजधानी दिल्ली में भी महसूस की जा सकती है। राजधानी दिल्ली में कहने का मतलब अलग-अलग पार्टी के मुख्यालयों और नेताओं की जोड़तोड़ से नहीं,बल्कि उन प्रवासी बिहारवासियों से है,जो रोजगार और बेहतर भविष्य की तलाश में राजधानी और दूसरे राज्यों की ओर पलायन कर गए।

प्रवासी बिहारी भले ही अपनी मिट्टी से दूर हो गए हैं लेकिन उनका जुड़ाव अभी भी कम नहीं हुआ है। उनकी आंखों में अपने बिहार को समृद्ध और विकसित राज्य बनते देखने की ललक है। ऐसे में जब प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं तो चुनावी हलचल दिल्ली में भी है। इसी संदर्भ में दिल्ली के मालवीय स्मृति भवन में परिचर्चा का आयोजन किया गया जिसका विषय था ‘बिहार विमर्श‘। बिहार विमर्श का मुख्य मकसद बिहार से बाहर गए लोगों को बिहार से जोड़ना,साथ ही वोट की ताकत के जरिए सही हाथों में नेतृत्व सौंपना।
यह कोई राजनीतिक मंच या फिर किसी पार्टी विशेष की ओर से आयोजित परिचर्चा नहीं थी बल्कि दिल्ली में रहकर बिहार के दर्द को समझनेवालों की जमात थी। इस मौके पर मुख्य अतिथि के तौर पर बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने प्रवासी बिहारियों से आह्वान किया कि वो वोट देने जरूर जाएं। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में आपको पांच साल में एक बार मौका मिलता है और इसे चूकना नहीं है।

‘‘चलो बिहार‘‘ का नारा देते हुए संजय पासवान ने किसी राजनीतिक दल का नाम लिए बगैर लोगों को सावधान भी किया। उन्होंने कहा कि वह वोट देने बिहार जरुर जाएं,लेकिन तीन बलियों से सावधान रहें। तीन बालियों  के कहने का मतलब-बाहुबली,धनबली और परिवारबली। इन तीन बलियों के खिलाफ मतदाताओं को एकजुट होकर अपने आत्मबल से चोट करने को कहा। इस चुनाव में अगर हम बाहुबली,धनबली और परिवारबली को पटखनी दे देंगे तो बिहार में हालात बदलने से कोई नहीं रोक सकता।

इस मौके पर ‘यूथ यूनिटी फॉर वाइब्रेन्ट एक्शन’संगठन के संयोजक विनय सिंह ने प्रवासी बिहारवासियों को वोटर आइकार्ड नहीं होने की बात उठाई। विनय सिंह ने कहा कि जो लोग पलायन कर दूसरे राज्य चले गए उनकी न तो गृह क्षेत्र में अब कोई पहचान है और न ही बाहर। ऐसे लोगों की संख्या लाखों में हैं जो बिहार जाकर वोट डालना तो चाहते हैं लेकिन अपने ही घर में बेगाने हैं। जबकि करीब 10लाख बांग्लादेशियों को पहचान पत्र हासिल हो चुके हैं।
ऐसे में बिहार को बदलते हुए देखने वाले लोग क्या करें और उन्हें बिहार क्यों जाना चाहिए?इस पर फिजीकल फाउंडेशन ऑफ इंडिया के पीयूष जैन ने कहा कि वह बिहार के वोटरों के उत्साहवर्द्धन के लिए जाएंगे। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रवासी बिहारवासी जो वोट भले ही न डाल पाएं,लेकिन सकारात्मक माहौल बनाने का प्रयास करेंगे।

अच्छी सरकार के लिए मतदान को अनिवार्य बताने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रतन लाल ने कहा कि चुनाव के समय वोटरों को दो काम करना चाहिए-चुनाव लड़े या वोट दें। दोनों में से कोई काम नहीं करने पर बिहार की दुर्दशा पर बोलने का कोई अधिकार नहीं। प्रोफेसर के मुताबिक‘एक्सरसाइज फ्रेंचाइजी फॉर गुड गवर्नेंस’संगठन के जरिए वह वोटरों को जागरूक करने में जुटे है और विधानसभा चुनाव के लिए वोटरों को जागरूक करने का काम कर रहे है।
वहीं बिहार विमर्श विषय पर बोलते हुए एसके झा ने राज्य के प्रत्यक्ष और अप्रत्क्ष दोनों रूप से बदहाली के लिए नेताओं को जिम्मेदार ठहराया। उनके मुताबिक नेताओं ने बिहार को भारत का उपनिवेश बना दिया है जहंा जनता सरकार तो चुनती है लेकिन फायदा दूसरे राज्यों को मिलता है।
बिहार में 243सीटों के लिए पांच चरणों में चुनाव होने वाले हैं और राज्य के पांच करोड़ 50 लाख 88 हजार वोटर इस विचार विमर्श में जुटे है कि किसे अगले पांच के लिए राज्य की तकदीर सौंपे। बिहार में इन दिनों चौक-चौराहे राजनीतिक मंच में तब्दील होना समझ में आता है।

दिल्ली में रहने वाले प्रवासी बिहारवासियों के बीच चुनाव को लेकर कौतूहल को समझने के लिए अलग नजरिया चाहिए। ऐसा नजरिया जिसमें  पलायन का दर्द,अपनों से दूर होने की कसक,अपनी मिट्टी से जुड़ी यादें,दूसरे राज्यों में हो रही उपेक्षा और इन सबके बीच 21वीं सदी में संपन्न बिहार को देखने का सपना शामिल है।


लेखक 'शिल्पकार टाइम्स'  हिंदी पाक्षिक अख़बार में  सहायक संपादक है इनसे kumar2pankaj@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.