Feb 9, 2011

सुकुमार माओवादियों के लिए विश्वरंजन की तड़प


अमूमन ऐसे नाजुक कोमल माओवादी आम जनता,बुद्धिजीवियों, न्यायविदों को गफलत तथा ऊहापोह की स्थिति में ला देता है- अरे यह तो अच्छा आदमी दिखता है,कोमल, नाजुक और सुकुमार ! यह कैसे माओवादी हो सकता है? पर...

विश्वरंजन,  डीजीपी छत्तीसगढ़

नक्सली माओवादियों के गुप्त शहरी संगठनों में आपको बड़े तादाद में ऐसे माओवादी मिल जाएंगे,जिन्हें हम नाजुक,कोमल माओवादी कह सकते हैं। उन्हें सुकुमार माओवादी भी कहा जा सकता है। यदि आप उनका चेहरा-मोहरा,कद-काठी देखें तो आप जल्दी मानने को तैयार नहीं होंगे कि यह नाजुक सा-कोमल सा लगने वाला व्यक्ति एक ऐसे संगठन को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता कर रहा है,जो बुनियादी तौर पर सत्ता एक हिंसात्मक युद्ध के जरिए हासिल करना चाहता है और ऐसा करके भारत में माओवादी तानाशाही को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है।

अमूमन ऐसे नाजुक कोमल माओवादी आम जनता, बुद्धिजीवियों, न्यायविदों को गफलत तथा ऊहापोह की स्थिति में ला देता है- अरे यह तो अच्छा आदमी दिखता है, कोमल, नाजुक और सुकुमार! यह कैसे माओवादी हो सकता है?पर माओवादी गोपनीय दस्तावेजों पर जाएं तो ऐसे ही व्यक्तियों की उन्हें अपने "अरबन" या शहरी कामों के लिए जरूरत होती है।

यह भी जाहिर है कि ज्यादातर ये कोमल-नाजुक शहरी माओवादी बीहड़ जंगलों में बंदूक उठाकर नहीं चल सकते,परंतु वे वह सब काम करेंगे जिससे गुप्त माओवादी गिरोह धीरे-धीरे जंगल क्षेत्र,ग्रामीण क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करते जाएं और ऐसा करने के लिए उन्हें छोटे-छोटे हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। बस।

मसलन कि माओवादी हिंसा पर अमूमन उनका मुंह बंद ही रहेगा। यदि हिंसा इतनी घिनौनी है कि मुंह बंद करना मुश्किल हो जाए तो एक पंक्ति में अपना विरोध जताने के बाद इस बात को समझाने के लिए कि आखिर माओवादी इस तरह की घिनौनी हिंसा करने पर क्यों बाध्य हुए,वे पृष्ठ रंग देंगे?माओवादियों के हिंसात्मक गतिविधियों को रोकने के लिए जो कृतसंकल्प है,उन्हें बार-बार न्यायालयों में खींच कर तब तक ले जाने का उपक्रम ये नाजुक कोमल माओवादी करते रहेंगे जब तक पुलिस के अफसर तंग आकर लड़ना न छोड़ दें और माओवादी धीरे-धीरे भारत के गणतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सत्ता पर काबिज न हो जाएं।

नाजुक-कोमल माओवादियों ने दूर देखती रूमानी आंखों और कोमलता से लबरेज चेहरा-मोहरा के बूते पर लोगों को तो गफलत में डाल रखा है। आम व्यक्ति सोचता है,ठीक ही बोल रहे होंगे ये लोग। इतने नाजुक,कोमल और सुकुमार दिखने वाले लोग गलत कैसे हो सकते हैं?

पर एक समस्या और भी है। यदि आपने गलती से उंगली उठा दी एक नाजुक, कोमल और सुकुमार माओवादी पर तो उनके कोमल,नाजुक और सुकुमार माओवादी दोस्त न कोमल,न नाजुक, न सुकुमार रह जाएंगे और असभ्यता की हदें पार कर गाली-गलौच पर उतर आएंगे,मिथ्या प्रचार पर उतर आएंगे और यह वे साइबर-स्पेस के जरिए करेंगे, धरना-प्रदर्शन देकर करेंगे। यदि आप गूगल में मेरे नाम पर क्लिक करेंगे तो पाएंगे कि मेरे फोटो को विकृत कर छापा गया है,मुझे गालियां दी गई हैं।

मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता पर बहुतों पर असभ्य गाली-गलौच का असर होता है। खास कर यदि साइबर-स्पेस के माध्यम से वह पूरे विश्व में फैलाया जा रहा हो। चुप ही रहना अच्छा है। नाजुक,कोमल माओवादी के साथ सुर मिलाना और भी श्रेयस्कर है और माओवादियों को चाहिए ही क्या?"भूल गलती बैठी है जिरह-बख्तर पहन कर तख्त पर दिल के /चमकते हैं खड़े हथियार उसके /आँखें चिलकती हैं सुनहरी तेज पत्थर सी ..!है सब खामोश /इब्ने सिन्ना,अलबरूनी दढ़ियल सिपहसलार सब ही खामोश हैं।

बुद्धिजीवी, न्यायविद, अंग्रेजी मीडिया के लोग सभी तो हैं खामोश।" या फिर सुकुमार, कोमल, नाजुक माओवादी के साथ तो साहब जैसा मुक्तिबोध ने लिखा है हम अक्सर खुदगर्ज समझौते कर लेते हैं और माओवाद को पनपने देते हैं,अपने देश के गणतांत्रिक शरीर में विष की तरह। साथ ही आवाज में आवाज मिलाने लगते हैं।

माओवादी शहरी संगठन के साथ एक और समस्या भी है। यह एक खगोलशास्त्रीय "ब्लैक होल" की तरह होता है। खगोलशास्त्र के अनुसार आप "ब्लैक होल"को देख नहीं सकते। उसमें से रोशनी ही बाहर नहीं निकलती। हां "ब्लैक होल" के आसपास होती हुई गतिविधियों से हम भाँप जाते हैं कि अमुक जगह "ब्लैक होल" है।

मसलन कि डायरेक्ट "साक्ष्य"नहीं होता,इनडायरेक्ट या "सरकम्सटैन्शियक" साक्ष्य का ही सहारा लेना पड़ता है। वैसे भी गोपनीय माओवादी दस्तावेज इन लोगों के विषय में कहता है कि ये वो लोग होते हैं जो "दुश्मन" (राज्य) के सामने उघारे नहीं गए हों। यानी कि यह लोग कभी नहीं कहेंगे कि ये माओवादी हैं...।

जरा सोचिए कि यदि माओवादी तानाशाही भारत में स्थापित हो गया तो क्या होगा?हो सकता है आपका लड़का पूरी जन्म जेल में यातनाएँ झेलता रहे और कहीं कोई सुनवाई न हो। चीन का राष्ट्रपति लियोशाओ ची जब माओ का विरोध करने लगा तो उसके बाल नोचे गए और यातनाएँ देकर उसे मारा डाला गया। उसकी पत्नी वांग को पीटा गया,यातनाएँ दी गईं। यह आपके साथ भी हो सकता है एक माओवादी भारत में ।

जुंग चैंग के पिता माओ के दोस्त थे,परंतु जब माओ से उनका मतभेद हुआ तो न सिर्फ उन्हें यातनाएँ देकर मारा डाला गया परंतु उनके पूरे परिवार को यातनाएँ दी गई। एक अन्य चीनी लेखिका की माँ को यातनाएँ दी गई और उसके बाल नोच डाले गए जब उसने माओ से असहमति दिखाई।

मासूम और कोमल दिखने वाले माओवादी के साथ खड़े बुद्घिजीवियों, न्यायविदों तथा अन्य लोगों को यह समझना चाहिए कि एक माओवादी भारत में उनके साथ भी वैसा ही सलूक हो सकता है, जैसा चीन के लोगों के साथ माओ के जमाने में झेला।

मुश्किल यह है कि कोमल,नाजुक, सुकुमार तथा मासूम सा दिखता माओवादी भोली सूरत बना कर कहता रहेगा,वह माओवादी नहीं है और हम ऊहापोह,गफलत और बेचारगी का चश्मा लगा या तो कुछ नहीं करेंगे या उन्हें ही गाली देने लगेंगे जो भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखने के लिए जान पर खेल रहे हैं।



लेखक विश्वरंजन छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक हैं.उनसे dgp_chhattisgarh@yahoo.co.in के जरिए संपर्क  किया जा सकता है. यह लेख www.bhadas4media.com  से  साभार  प्रकाशित   किया   जा   रहा  है.