पूरी ट्रेन के सभी डिब्बों में यहां तक कि वातानुकूलित कोच में भी कांवड़ यात्रियों द्वारा कहीं-कहीं एक-एक और कहीं 2-3 साइकिलें ट्रेन के डिब्बे के प्रवेशद्वार पर खड़ी कर दी गई थी। इतना ही नहीं खिड़कियों के बाहर भी कांवड य़ात्रियों द्वारा अपनी साइकिलें रसिस्यों और तारों से बांधकर लटका दी गई थीं...
विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों, धर्मों, जातियों व विश्वासों को अपने में समाहित रखने वाला भारत दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहां हर कोइ सदियों से पूरी श्रद्धा एवं विश्वास के साथ अपने सभी धार्मिक त्यौहारों, रीति-रिवाजों और परंपराओं का अनुसरण करता चला आ रहा है। इनमे से शायद ही कोई परंपरा या रीति-रिवाज कम हुआ हो, परंतु तमाम नए रीति-रिवाज ज़रूर जुड़ते जा रहे हैं।
हमारे यही धर्म और इनकी शिक्षाएं हमें सीख देती हैं कि जहां हम अपने रीति-रिवाजों व परंपराओं पर चलें, वहीं इस बात का भी खयाल रखें कि हमारे धार्मिक कार्यकलापों या कारगुज़ारियों के चलते किसी दूसरे व्यक्ति को किसी प्रकार का कोई दु:ख या तकलीफ न पहुंचने पाए।
आज कई धार्मिक यात्राओं अथवा आयोजनों से धार्मिक समर्पण तथा गहन श्रद्धा के समाचार आने के साथ-साथ तफरीह, ख़ानापूर्ति, मनोरंजन, धनार्जन, नशाखोरी, मारपीट-हंगामा तथा दूसरों से लडऩे-झगडऩे जैसे समाचार प्राप्त हो रहे हैं। परिणामस्वरूप धार्मिक रीति-रिवाज और परंपराएं बदनाम होने लगी हैं। चंद अवांछित तत्वों की अशोभनीय हरकतों के चलते पूरा का पूरा तीर्थयात्री समाज ही बदनाम होने लगा है।
उदाहरण के तौर पर प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के अवसर पर शिवभक्तों द्वारा विभिन्न पवित्र नदियों का पवित्र जल लाकर शिवजी का जलाभिषेक किया जाता है। उत्तर भारत में प्रचलित इस त्यौहार के दौरान लाखों की तादाद में शिवभक्तों के जत्थे जिन्हें ‘कांवडिय़ों’ के नाम से भी जाना जाता है, पूरे उत्तर भारत में एक ओर से दूसरी ओर आते-जाते देखे जा सकते हैं। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग इस दौरान जहां हरिद्वार की ओर गंगाजल लाने के लिए भारी संख्या में कूच करते हैं, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के लाखों शिवभक्त बैजनाथ धाम की ओर प्रस्थान करते हैं।
कांवड़ यात्रा में पैदल कांवड़ यात्रियों से लेकर मोटर साईकिल, बस, कार, ट्रक-टैंपो, ट्रैक्टर अथवा रेलगाड़ी आदि सभी साधनों के माध्यम से लोग जल लेने के लिए हरिद्वार अथवा बैजनाथ धाम जाते हैं। यहां से गंगाजल ले जाकर अपने-अपने गावों या मोहल्लों के मंदिरों में शिवजी का जलाभिषेक करते हैं। बरसात के दिनों में पडऩे वाली इस समर्पित, कष्टदायक तथा चुनौतीपूर्ण यात्रा के दौरान निश्चित रूप से कांवडिय़े अपने व्यक्तिगत् शारीरिक कष्ट से रू-बरू होते हैं। यात्रा के दौरान आने वाली कई यातायात संबंधी परेशानियां भी अक्सर कांवडिय़ों को संकट में डाल देती हैं।
हमारे देश की सड़कों की क्षमता वर्तमान समय में सड़कों पर पडऩे वाले यातायात के दबाव से कहीं कम है। यही वजह है कि सड़क निर्माण के क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व स्तर की तरक्क़ी के बावजूद अभी भी सड़क दुर्घटनाएं होती रहती हैं। ऐसे में यदि कांवडिय़ों की लाखों की संख्या लगभग एक माह के लिए सड़कों पर उतर आए तो दैनिक यातायात पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इस बात का अंदाज़ा सहज लगाया जा सकता है।
शिवभक्तों को 'कांवडिय़ा' इसीलिए भी कहकर संबोधित किया जाता है, क्योंकि उनके कंधों पर शिव कांवड़ सजी होती है, जिसे वे अपने साथ पैदल अथवा संबद्ध साधनों के माध्यम से लेकर हरिद्वार अथवा अन्यत्र ले जाते है और् वहां से इसी कांवड़ में जल लटकाकर वापस भी लाते हैं। बांस द्वारा आमतौर पर बनाई गई यह कावड़ भी रास्ते में अच्छी ख़ासी जगह घेरती है। चूंकि कांवड़ यात्री भी आमतौर पर मुख्य मार्गों का ही इस्तेमाल अपनी पैदल यात्रा में करते हैं इसलिए पूरे देश में कई जगहों से किसी न किसी शिवभक्त की दुर्घटना का भी दुर्भाग्यपूर्ण समाचार प्राप्त होता है।
हालांकि दिल्ली, गुडग़ांव, हरिद्वार तथा ग़ाजि़याबाद जैसे क्षेत्रों में कांवडिय़ों के लिए कई जगह विशेष मार्ग भी इस दौरान निर्धारित कर दिए जाते हैं, मगर ऐसा कर पाना पूरे देश में संभव नहीं है। नतीजतन जब यातायात के भारी दबाव और कांवडिय़ों की बड़ी तादाद के टकराव के मध्य कोई हादसा पेश आता है, तो अक्सर यह देखा गया है कि यही कांवडि़ए अपना आपा खो बैठते हैं। उस समय शिवभक्त अपने धार्मिक होने का प्रदर्शन करने के बजाए पूरी तरह आक्रामक हो जाते हैं। कई बार तो कांवडिय़ों, आम लोगों अथवा पुलिसवालों के मध्य ऐसे भयंकर संघर्ष की खबरें तक आ चुकी हैं जिनमें कइ लोगो को अपनी जानें तक गंवानी पड़ी हैं।
अब तो कांवडिय़ों द्वारा हंगामा करने, दुकानों, बाज़ारों और मार्गों में तोड़फोड़ करने व नुक़सान पहुंचाने की खबरें गोया प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में प्राप्त होने वाले समाचार बनकर रह गए हैं। जहां पूरे देश में जगह-जगह इनके रहने-सहने, खाने-पीने, नहाने-धोने, आराम करने और दवाईयों- डाक्टरों द्वारा इलाज की सुविधा मुहैया कराने तक का प्रबंध आम नागरिकों द्वारा किया जाता है, वहीं कई जगह तो आम लोग कांवड़ यात्रा के दौरान हुड़दंग के डर से सहमे हुए तथा दहशत की अवस्था में भी दिखाई देते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमारी धार्मिक परंपराएं हमें यही शिक्षा देती हैं कि हम जब और जहां चाहें अपना आपा खो बैठें और दूसरों के साथ धक्कामुक्की, ज़ोर-ज़बरदस्ती, हिंसा के साथ पेश आएं?
पिछले दिनों मुझे गंगानगर हरिद्वार एक्सप्रेस ट्रेन में एक दृश्य देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। इस पूरी ट्रेन के सभी डिब्बों में यहां तक कि वातानुकूलित कोच में भी कांवड़ यात्रियों द्वारा कहीं-कहीं एक-एक और कहीं 2-3 साइकिलें ट्रेन के डिब्बे के प्रवेशद्वार पर खड़ी कर दी गई थी। इतना ही नहीं खिड़कियों के बाहर भी कांवड य़ात्रियों द्वारा अपनी साइकिलें रसिस्यों और तारों से बांधकर लटका दी गई थीं। साइकिलों के अतिरिक्त उनकी कांवड़ भी पूरी ट्रेन में दोनों ओर खिड़कियों पर बंधी हुई थी।
पिछले दिनों मुझे गंगानगर हरिद्वार एक्सप्रेस ट्रेन में एक दृश्य देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। इस पूरी ट्रेन के सभी डिब्बों में यहां तक कि वातानुकूलित कोच में भी कांवड़ यात्रियों द्वारा कहीं-कहीं एक-एक और कहीं 2-3 साइकिलें ट्रेन के डिब्बे के प्रवेशद्वार पर खड़ी कर दी गई थी। इतना ही नहीं खिड़कियों के बाहर भी कांवड य़ात्रियों द्वारा अपनी साइकिलें रसिस्यों और तारों से बांधकर लटका दी गई थीं। साइकिलों के अतिरिक्त उनकी कांवड़ भी पूरी ट्रेन में दोनों ओर खिड़कियों पर बंधी हुई थी।
एक बार तो उस ट्रेन को देखकर ऐसा ही प्रतीत हो रहा था कि गोया यह कांवड़ स्पेशल ट्रेन हो। कांवड़ यात्रियों द्वारा डिब्बों में इस प्रकार साईकिल खड़ी किए जाने के कारण रेलयात्रियों को बेहद तकलीफ और परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। बातचीत के दौरान सभी रेलयात्री कांवडिय़ों की इस ज़ोर-ज़बरदस्ती और धक्कामुक्की पर नाराज़ थे। सभी उनकी आलोचना कर रहे थे। उधर यात्रियों को कष्ट देने के बावजूद कांवड़ यात्रियों का अपना व्यवहार भी रेल यात्रियों के साथ अच्छा नहीं था। लगभग प्रत्येक यात्री इसी आश्चर्य के साथ एक-दूसरे से यहां तक कि कांवडिय़ों से भी बार-बार यह सवाल कर रहा था कि क्या इसी को धर्म कहते हैं? क्या यही है शिवभक्ति है? क्या यही है धार्मिक कारगुज़ारियों को अंजाम देने का तरीक़ा और सलीक़ा?
दरअसल, धर्म तो यही सिखाता है कि प्रत्येक सामाजिक प्राणी में सदभाव, सदाचार और नैतिकता का होना बहुत ज़रूरी है। परंतु धर्म के नाम पर तथा धर्म की राह पर चलने वाले धर्मावलंबियों तथा भक्तजनों को तो कम से कम इस बात की न केवल कोशिश बल्कि संकल्प करना चाहिए कि वे व्यक्तिगत तौर पर अथवा सामूहिक रूप से ऐसा कोई कार्य न करें जिससे उनके धार्मिक कार्यकलापों, यात्राओं अथवा अन्य पारंपरिक आयोजनों को धर्म के बजाए ‘अधर्म’ की श्रेणी में रखा जाये।
लेखिका उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भी लिखती हैं.