Mar 23, 2010
मैं चाहता हूँ, बेटा इस्लामिक स्कूल में पढ़े !
पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक "डान" में हर बुधवार को 'स्मोकर्स कार्नर' के नाम से नदीम एफ़ पारचा कॉलम लिखते हैं. इस बार बुधवार को उन्होंने एक बेहद जरूरी मसले को बड़े नायाब तरीके से पेश किया है. हमें उम्मीद है कि मसला और उसे बताने का तरीका दोनों ही आप सबको पसंद आएगा.
नदीम एफ़ पारचा
कुछ दिन पहले की बात है, मैं ट्रैफिक सिग्नल पर लाल बत्ती के हरा होने का इंतजार कर रहा था। तभी एक बच्चा मुझे एक पर्चा पकड़ा गया। आम तौर पर ऐसे पर्चों को मैं फेक दिया करता हूं लेकिन उस दिन मैंने यह सोच कर रख लिया कि देखता हूं इसमें छपा क्या है।
पर्चा एक मान्टेसरी स्कूल ‘मॉडल इस्लामिक मॉन्टेसरी’ के दाखिले के विज्ञापन का था। घर पहुंचकर मैंने तय किया कि क्यों न इसके प्रिंसिपल से बात की जाये और जाना जाये कि यह किस तरह का स्कूल है।
मैंने प्रिंसिपल को फोन लगाया और कहा ‘हेलो, अस्सलामालेकुम’।
सामने से किसी महिला ने जवाब दिया-‘वालेकुमअस्सलाम’।
मैने पूछा, ‘क्या मैं मॉडल इस्लामिक मान्टेसरी की प्रिंसीपल से बात कर रहा हूं।’
‘जी हां, बोल रही हूं, क्या मदद कर सकती हूं।’
‘मेरा एक तीन साल का बेटा है जिसका मैं आपके स्कूल में दाखिला दिलाना चाहता हूं।’ - मैंने कहा
‘जी हां, उसका स्वागत है’- उन्होंने जवाब दिया।
फिर मैंने कहा, ‘लेकिन मेरे कुछ सवाल हैं’।
‘जरूर, आप हमसे कुछ भी पूछ सकते हैं’- प्रिंसिपल ने कहा।
मैंने सवाल किया, ‘आपका स्कूल गैर-इस्लामिक स्कूलों से अलग कैसे है?’
‘क्या मतलब?’- उन्होंने पूछा।
यही कि आपका स्कूल एक इस्लामिक मॉन्टेसरी है न ?- मैंने पूछा
कुछ हिचकते हुए उन्होंने जवाब दिया, ‘जी हां।’
‘तो हमें आप ये बतायें कि एक इस्लामिक मॉन्टेसरी, गैर इस्लामिक मॉन्टेसरी से अलग कैसे है’ - मैंने जानना चाहा।
‘हां, हमारे यहां इस्लाम की परंपरा और तहजीब जैसे कि रोजा, सलात आदि की शिक्षा दी जाती है।’
मैंने प्रिंसिपल की बात काटते हुए पूछा कि ‘आप नमाज की बात कर रही हैं।’
‘जी.....नमाज.....एक ही बात है’- उन्होंने समझाया।
‘अच्छा ठीक है, लेकिन ये बतायें कि आप लोग बच्चों और क्या-क्या पढ़ाते क्या हैं’- मैंने पूछा।
उनका जवाब था, ‘हम बच्चों को अच्छी आदतें सिखाते हैं.....।’
मैं उन्हें बीच में रोककर पूछ पड़ा, ‘इस्लामिक आचरण’।
‘जी........बिल्कुल’- प्रिंसिपल दुबारा हिचकीचाते हुए बोलीं।
‘बहुत अच्छा। मगर आप ये बतायें कि क्या इस्लामिक आचरण, गैर इस्लामिक आचरण के मुकाबले ज्यादा अच्छा और सभ्य है?’
इतना सुनते ही प्रिंसिपल ने बहुत विनम्र होकर पूछा, -‘सर.......मैं आपसे क्या एक सवाल कर सकती हूं।’
‘जरूर.... मैडम।’
‘आखिर आप इस्लामिक-गैर इस्लामिक बहस में क्यों उलझ रहे हैं’- उन्होंने ऐतराज उठाया।
मैंने जवाब में कहा,- ‘मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा इस्लामिक स्कूल में पढ़े। इसलिए संतुष्ट हो लेना चाहता हूं कि आपका ‘मॉडल इस्लामिक मॉन्टेसरी’ दूसरे इस्लामिक स्कूलों जैसा तो नहीं।’
तब उन्होंने पूछा- ‘आपका बेटा कितने साल का है।’
‘तीन साल का’
‘तो फिर आप खुद स्कूल में ही आकर सबकुछ क्यों नहीं देख लेते’- उन्होंने राय दी।
‘क्या आप उन्हें अल्लाह के लिए गाये जाने वाले गीत (नात) सिखाती हैं- मैंने पूछा
उन्होंने कहा, ‘जी हां, क्यों नहीं?’
‘तो आप बच्चों को अंग्रेजी के वे बालगीत सिखाती हैं जिसमें यहूदीवाद के क्रुर सन्देश दिये होते हैं? - मैंने पूछा
हल्के अंदाज में हंसते हुए प्रधानाध्यापिका बोलीं, ‘सर इस बारे में मैं नहीं जानती, लेकिन शिक्षकों को हम जरूर इसकी मनाही करते हैं कि ऐसी कविताएं नर्सरी में न पढ़ायी जायें।’
‘इस बारे में आपका ऐसा सोचना अच्छा लगा,....... बतायेंगी कि कव्वाली के बारे में आपका क्या ख्याल है।’ वैसे मुझे तो कव्वालियां बेहद पसंद हैं। इतना कहने के साथ मैं गुनगुनाने लगा- 'भर दो झोली मेरी।’
मुझे रोकते हुए उन्होंने कहा, ‘नहीं सर..........यह सब नहीं.....सिर्फ इस्लामियत की बुनियादी चीजें।’
‘लेकिन क्या बच्चे आमतौर पर एक गैर इस्लामी स्कूल में भी यह सब नहीं सीखते। फिर आपका स्कूल इस्लामिक कैसे हुआ।’- मैंने पूछा
प्रिंसिपल ने जोर देकर आग्रह किया, ‘सर आप खुद ही स्कूल में आकर क्यों नहीं देख लेते। हमें विश्वास है कि हमारे सांस्कृतिक परिवेश से आप जरूर प्रभावित होंगे। आपको बता दूं कि शहर का यह इकलौता मॉन्टेसरी है जहां छोटी लड़कियां भी हिजाब करती हैं और लड़के परंपरागत इस्लामिक ड्रेस पहनते हैं।’
मैंने खुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘लेकिन ये बताइये लड़कियां तो हिजाब में आती है मगर लड़के।’
‘उन्हें स्कूल में सिर्फ शलवार-कमीज और इस्लामी टोपी पहनकर आने की ही इजाजत है।’- उन्होंने कहा
‘मगर शलवार-कमीज तो हमारे मुल्क का राश्ट्रीय पहनावा है, न कि इस्लामी पोशाक। आप ऐसा करें कि लड़कों को अरबी चोगा पहनायें। मैं आपको भरोसा दिलाता हूं उनमें से एक मेरा बेटा भी होगा।’
तभी उन्होंने बात बदलते हुए पूछा- आपके बेटे का नाम क्या है?’ ‘पॉल नील फर्नांडिस जूनियर’- बेटे का नाम बताते ही फोन की दूसरी तरफ चुप्पी छा गयी।
‘हेलो....हेलो.......प्रिंसिपल साहिबा ....आप हैं.........।’- उधर से सख्त आवाज आयी,.....‘आप मजाक कर रहे हैं क्या.....।’
‘नहीं साहिबा.......मैं गंभीरता से कह रहा हूं’- मैंने जवाब दिया
‘लेकिन आप तो क्रिष्चियन हैं। फिर क्यों चाहते हैं कि आपके बेटे का नाम इस्लामिक स्कूल में दर्ज किया जाये।’- उन्होंने पूछा
‘सीधी सी बात है। ऐसा में इसीलिए चाहता हूं कि मैं एक इस्लामिक गणतंत्र का क्रिश्चियन हूं। साहिबा क्या आप जानती हैं कि एक इस्लामिक गणतंत्र में धार्मिक अल्पसंख्यक होने का एहसास क्या होता है।’
फिर चुप्पी......... मैं अपनी बात जारी रखते हुए कहता हूं, ‘इसलिए मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा सभी इस्लामिक कायदे सीखे जिससे कि वह समाज में बेमेल होने से बच सके।’
‘तो फिर आप धर्म परिवर्तन क्यों नहीं कर लेते’- उधर से यह ठोस सुझाव मुझे सुनायी दिया।
तो मैंने पूछा, ‘मैं ही क्यों?’
‘इसलिए कि आप ऐसा महसूस कर रहे हैं’- उन्होंने कहा।
‘लेकिन आप ही क्यों नहीं बदल जातीं’- मैंने जानना चाहा।
‘हम बदल जायें?’- इसमें जवाब और सवाल दोनों मिलाजुला था।
मैंने कहा, ‘हां जो सलूक हमारे साथ यहां होता है कभी आप भी महसूस किजीए।’
‘देखिये सर, मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहती। रही बात आपके बच्चे का हमारे यहां प्रवेश पाने की तो, यह संभव नहीं लगता।’- प्रिंसिपल ने कहा।
मैंने पूछा,- ‘सिर्फ इसलिए कि वह क्रिश्चियन है।’
‘ऐसा ही लगता है’- उधर से जवाब मिला।
मैने विरोध किया, ‘लेकिन पाकिस्तानी मुसलमानों के तमाम बच्चे क्रिश्चियन स्कूलों में पढ़ते हैं। तो फिर मेरे बच्चे के साथ भी आप एक पाकिस्तानी की तरह क्यों नहीं व्यवहार कर रही हैं। मैं तो चाहता हूं कि आप इससे भी आगे बढ़कर एक इंसान के तौर पर पेश आयें।’
मेरे इस सवाल पर प्रधानाध्यापिका ने कहा, ‘सर माफ कीजिए, हम आपकी कोई मदद नहीं कर सकते।’
मैंने उन्हें सुझाया, - ‘अगर मैं आपको स्कूल की फीस दोगुनी दूं तो आप मेरे बेटे को दाखिला देंगी?’
उनका जवाब था-‘सर....यह तो घुसखोरी मानी जायेगी।’
फिर मैंने सुझाव दिया, ‘अरे नहीं, इसे जजिया मानकर रख लिजियेगा।’
अनुवाद- अजय प्रकाश
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