Jul 26, 2010

शशि प्रकाश का पूंजीवादी मंत्र 'यूज एंड थ्रो'



पाठकों,वामपंथी पार्टी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया(रिवोल्यूशनरी)के सचिव की तानाशाह वाली कार्यशैली और संगठन में पारदर्शिता के अभाव के बारे में अब तक आपने पढ़ा,वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर,सांगठनिक क्रूरता ने अरविंद की जान और जनचेतना के मजदूर,बेगार करें भरपूर अब इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अपने अनुभव साझा कर रहे हैं पार्टी की ओर से मज़दूरों के लिए निकाले जाने वाले अख़बार ‘बिगुल’ के प्रकाशक, संपादक और मुद्रक डॉक्टर दूधनाथ।

डॉक्टर दूधनाथ, संपादक 'बिगुल' 

 काफी समय से हम लोग विचित्र मानसिक स्थिति में थे और पार्टी नेतृत्व का अरहाया (आदेशित)गया काम भार महसूस हो रहा था। पिछले 20वर्षोंसे हम देख रहें हैं कि बड़े जोर-शोर से कोई काम शुरू होता है और अचानक बंद कर दिया जाता है। फिर कोई नया अभियान या काम शुरू होता है और फिर ठप्प हो जाता है।

दूसरी तरफ बेहद बेशकीमती साथी संगठन से समय-समय पर बाहर होते रहे। इस वजह से स्थानीय कार्यकर्ता भी निराश होकर,एकके बाद एक बैठते रहे। लेकिन शशि प्रकाश के नेतृत्व वाले इस संगठन में या कहें पार्टी में तकनीकी जवाब ही हमेशा मिला,कभी कोई राजनीतिक कारण स्पष्ट नहीं हुआ। यह स्थिति हम सबके लिए तकलीफ देह बनी रही।

इस मसले पर जब भी संगठन के नेतृत्वकारी साथी से चर्चा की जाती थी और समझने का हमलोग प्रयास करते थे,तो कभी दूसरी कमेटी का हवाला देकर या निकले या निकाले गये साथियों को भगोड़ा कह कर बात खत्म कर दी जाती थी। अन्त में परेशान होकर हमलोगों ने संगठन के सचिव शशि प्रकाश को प़त्र भेजा। मगर हम जैसे संगठन के पुराने लोगों को भी, जो कि मजदूर, भूमिहीन और सर्वहारा हैं, पार्टी सचिव ने बात करना या जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। इसके उलट गोरखपुर से भेजे गये प्रतिनिधी और स्थानीय संगठनकर्ता तपीश ने कूतर्क करते हुए प्रश्नों को दबा दिया। हमारे सवालों के जवाब में तपीश ने अतिजनवाद की अराजकता कहकर मुंह बंद कराना चाहा।

ऐसी स्थिति में हमें मजबूरन आप सब साथियों,जनपक्षधर बुद्धिजीवियों और सहोदर संगठनों से अपने सवालों को साझा करना पड़ रहा है।

सचीव को भेजे गये पत्र में हम लोंगो ने संगठन में जनवाद की कमी,नेतृत्व की तानाशाह कार्यपद्धति,दो लाइनों का संघर्ष, संगठनिक ढांचा और कमेटी गठन समेत कुछ और सवाल उठाये थे। हमने कहा कि पिछले 20 वर्षों में इनमें से कोई सवाल हल नहीं हुआ, बल्कि चीजें और बुरी स्थिति में गईं।

हमरा दूसरा प्रश्न साथियों को निकाले जाने को लेकर था। पिछले 20 वर्षों में संगठन से एक के बाद एक साथी निकाले तो जाते रहे (जिनकी संख्या पार्टी में मौजूद तादाद से बहुत ज्यादा है),लेकिन उन्हें बाकी सदस्यों के बीच अपनी बात रखने और कतारों को निर्णय लेने का अवसर कभी क्यों नहीं दिया गया?

तीसरे सवाल के तौर हमने रखा कि नेतृत्व यानी शशिप्रकाश और उनके परिवार को बाकी संगठन सदस्यों पर निगरानी रखने का अधिकार है लेकिन सदस्यों को नेतृत्व पर निगरानी का कोई तरीका क्यों नही है? खासकर वैसे में जबकि संगठन सदस्यों के बीच नेतृत्व भूमिगत है और व्यवस्था के लिए पूरी तरह खुला है।

अन्त में हम लोंगो ने यह मांग की थी कि निकले और निकाले गए सभी महत्वपूर्ण साथियों को बुलाकर कार्यकर्ता सम्मेलन करके प्रश्नों को हल किया जाए,नहीं तो हम लोंगो का संगठन में काम करना संभव नहीं है।

इस बीच हम लोंगो को पता चला कि दिल्ली में काम कर रहे दो साथी मानसिक पीड़ा झेल रहे हैं और उनका संगठन से ढेरों सवाल हैं। जब हमने यह सवाल भी उठाया तो शशि प्रकाश के भेजे गये प्रतिनिधि तपीश ने मउ के मर्यादपुर में हमारे साथ एक बैठक की। तपीश ने हमारे प्रश्नों पर टालू रवैया अख्तियार किया और शान्त कराने की कोशिश की। तपीश और नेतृत्व के रवैये से असंतुष्ट हो संगठन के बहुत पुराने मजदूर साथी हरिहर भाई ने तपीश के उत्तर से जब असन्तुष्टता जाहिर की और सोचने का समय मांगा, तो उन्हें संगठन से निकाल दिया गया।

हरिहर भाई का निकाले जाने की प्रक्रिया हमारे लिए आश्चर्यजनक थी। उस समय हमसे थोड़ी दूरी बनाकर तपीश ने सीधे शशि प्रकाश से मोबाइल से बाती की थी और वहां मिले आदेश के आधार पर हरिहर भाई को संगठन से निकाल दिया गया। बुर्जुआ नेताओं की कार्यशैली से दो कदम आगे बढ़कर मालिक और मजदूर की तरह हरिहर भाई के साथ किया गया यह व्यवहार हमारे कई प्रश्नों का जवाब दे रहा था।

अब बारी थी संगठन से दिल्ली में दो असंतुष्ट साथियों जनार्दन और समीक्षा की। मैं और तपीश मर्यादपुर से साथ आए और सत्यम वर्मा के यहां मीटिंग की। सचिव शशि प्रकाश यहां भी गायब रहे। सत्यम और तपीश ने यह मीटिंग ली। यह एक भयावह मीटिंग थी। मीटिंग में जनार्दन और समीक्षा ने जैसे ही अपने सवाल रखे तो यहां भी सवालों को दबाते हुए सत्यम वर्मा ने उनका ही चरित्र चित्रण शुरू कर दिया।

मीटिंग में जनार्दन और समीक्षा ने बताया कि वे काफी दिनों से अपने छोटे बच्चे के साथ आर्थिक, मानसिक व शारिरिक रूप से परेशान चल रहे हैं। कई बार हमने अपनी तरह से इत्तला भी किया मगर संगठन ने कोई खोज खबर नहीं ली। वहीं संगठन के भीतर एक ऐसा पारिवारिक रिश्ता (शशि प्रकाश, कात्यायनी, अभिनव, अभिनव की पत्नी और उसका बेटा) भी है जहां के लोंगो को छींक भी आ जाये तो पूरा संगठन लगा दिया जाता है।

जनार्दन ने दूसरे सवाल के तौर पर सीधे कहा कि आखिर क्यों है कि वामपंथी आंदोलन के ज्यादातर संगठन,हमारी पार्टी और संगठनों को अपराधी और क्रान्ति के नाम धन्धेबाज मानते हैं ?क्या यह सच नहीं है कि संगठन के कार्यकर्ताओं का ज्यादे समय लांक्षित, अपमानित होते हुए चन्दा मांगने में खर्च होता है। संगठन किताबें छापने, बेचने, मकान-दुकान खड़ा करने, ट्रªस्ट-सोसाइटी बनाने में लगा रहता है। यह कैसी माया है कि कोई वेतन भोगी (लेबी पाने वाला) कार्यकर्ता न होने और लाखों का चंदा इक्कठा होने के बावजूद संगठन की संस्थाएं हमेशा घाटे में रहती हैं?

जनार्दन ने इस मसले पर बात रखी कि संगठन में नेतृत्व यानी शशि प्रकाश और उसके कुनबे की परिवरिश तो शाही अन्दाज में होती है,लेकिन कार्यकर्ताओं को वेज तक नहीं दिया जाता और सर्वहाराकरण के नाम पर अमानवीय हालत में जीने को मजबूर कर दिया जाता है?इसे विडंबना कहकर टाल दिया जाता है और कहा जाता है कि समाज में वर्ग हैं तो पार्टी उससे अछूती तो नहीं रहेगी।

क्या कारण है कि संगठन बीस साल में दो पेज का दस्तावेज भी नहीं लिख पाया, जबकि इस बीच सचिव शशि प्रकाश पत्नी को पोथन्ना लिखवाने और पुस्तकों की भूमिका लिखने में व्यस्त रहे। संगठन गोपनीय और अदृश्य कामों में कितना व्यस्त रहता है इसके लिए एक ही उदाहरण काफी है। 2005में तराई क्षेत्र के होंडा मजदूर आन्दोलन में चार साथी सात दिन तक जेल में सामूहिक भूख हड़ताल पर रहे और संगठन का कोई जिम्मेदार साथी उनसे मिलने तक नहीं गया।

इन सवालों के साथ ही दोनों असन्तुष्ट साथियों ने ढेरों उदाहरण देकर यह बात रखी कि कैसे संगठन की जिम्मेदार साथी मीनाक्षी फुटपाथ की चोरी और साथियों की जासूसी करना सीखाती हैं। निकृष्ट हरकत करने वाली इस संगठनकर्ता साथी को महज इसलिये मान मर्यादा मिलती है क्योंकि वे संगठन के सबसे अधिक धन-कमाऊ पूत हैं(मीनाक्षी का गोरखपुर से लेकर दिल्ली तक में सबसे ज्यादा चंदा इकठ्ठा करने का रिकॉर्ड है।) कई वरिष्ठ साथी (कात्यायनी बहनों के अलावा कोई और नहीं है), नये कार्यकर्ताओं से नौकरानी जैसा व्यवहार करती हैं।

यह भी सवाल रखा कि क्यों सारी गलतियों का ठिकरा केवल संगठनकर्ताओं के सर पर ही फोड़ा जाता है और क्या 20 साल में सारे संगठनकर्ता फिसड्डी साबित हुए तो सचिव शशि प्रकाश की रत्ती भर इसमें कोई गड़बड़ी नहीं है? बीस साल में संगठन ऐसा दहन पात्र क्यों नहीं बना सका जिसमें ढलकर इस्पाती कार्यकर्ता पैदा हो सकें? क्यों बार-बार लंबे समय तक काम करने के बाद संगठन पर सवाल उठाने वाले साथी भगोड़े करार दिए जाते रहे? क्या कारण है कि पार्टी कमेटी से लेकर ट्रस्ट सोसाइटी तक रक्त संबंधियों की ही बहुलता है?

साथियों,हमारे एक वरिष्ठ कार्यकर्ता साथी अरविंद सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। अब हमारा संगठन उनके नाम पर एक और ट्रस्ट बनाने जा रहा है। मौत के बाद इतनी तत्परता जबकि साथी छहः महीने से बीमार था,डेढ़ महीने से बहुत तकलीफ के साथ बीमारी में समय बीता रहा था,और लड़ भी रहा था जिसके हम स्थानीय साथी गवाह हैं जबकि शीर्ष नेतृत्व को इसकी जानकारी मौत के बाद होती है, क्या यह नेतृत्व की संवेदनहीनता और कर्तव्यविहिनता नहीं है?

दोनों बैठकों में इनमें से किसी भी सवाल का कोई सही जवाब तो नहीं मिला। उल्टे गाली-गलौज और धमकियां देने का पुराना सिलसिला यहां भी दुहराया जाता रहा। स्थानीय इकाई के सवालों को भी दरकिनार कर दिया गया। सचिव शशि प्रकाश ने हम लोगों से बात करने की जगह स्थानीय इकाई के पास मौजूद किताबों की पैकिंग कर वापसी का फरमान जारी करवा दिया। अन्ततः हमारे पास संगठन से अलग होने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा।

आज हम लोग काफी सोच विचार के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि हमारा संगठन क्रान्तिकारी नहीं रह गया। बल्कि धन उगाही का केंद्र बन गया है। विचारधारा और संगठन महज आवरण बन कर रह गए हैं। यही कारण है कि जो भी साथी थोड़ा पुराना होता है और जब उसे ये बाते समझ में आने लगती हैं व उसके मन में सवाल उठते हैं और जैसे ही उस पर (संगठन) सवाल खड़ा करता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। जैसा कि हम लोग के साथ हुआ। लेकिन तबतक संगठन पुराने साथियों की काफी ऊर्जा निचोड़ चुका होता है और उसके लिए नए युवा साथी क्रान्ति के नाम पर जुगाड़ लिए जाते हैं।

साथियों सोचिए हमारे नेता कब तक इंकलाब से मुंह मोड़ कर नई जनता चुनते रहेंगे।


क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ
पूर्वी उत्तर प्रदेश की इकाई और राजधानी क्षेत्र के असंतुष्ट साथियों की ओर से
डॉ दूधनाथ, जनार्दन, इन्द्रदेव, समीक्षा, हरिहर, अशोक कुमार



कार्यकर्ता हताश-परेशान, नेता का परिवार मालामाल


पाठकों, वामपंथी पार्टी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया(रिवोल्यूशनरी) के सचिव की तानाशाह वाली कार्यशैली, संगठन में पारदर्शिता के अभाव और कार्यकर्ताओं के साथ की जाने वाली ज्यादतियों के बारे में अब तक आपने पढ़ा,वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर, सांगठनिक क्रूरता ने ली अरविन्द की जान,जनचेतना’ के मजदूर, बेगार करें भरपूर, शशि प्रकाश का पूंजीवादी मंत्र 'यूज एंड थ्रो' और 'जब एक कम्युनिस्ट पतित होता है...'.
इसी कड़ीमें यह आलेख भेजा है मुकुल ने,जो ‘दिशा छात्र संगठन’के संयोजक,‘जनचेतना’ के निदेशक,‘राहुल फाउण्डेशन’ के संस्थापक सचिव, ‘अनुराग ट्रस्ट’ के ट्रस्टी और ‘आह्वान कैम्पस टाइम्स’और ‘बिगुल’के सम्पादक समेत तमाम महत्वपूर्ण पदों पर रहने के साथ-साथ इन संगठनों के सक्रिय कार्यकर्ता रह चुके हैं।

मुकुल, सामाजिक कार्यकर्त्ता  

र प्रयास का कोई न कोई तात्पर्य होता है। यदि हम समाज परिवर्तन के हिमायती हैं,तो हमारा सार्थक प्रयास विजातीय प्रवित्तियों-विभ्रमों का खुलासा और छंटाई के लिए होगा, जिससे सही राह की बाधाएं हटाई जा सकें। अन्यथा यह कवायद बनकर रह जाएगा। इस रूप में ‘जनज्वार’ने एक ऐसे समय में सार्थक बहस शुरू की है, जब कॉमरेड अरविन्द के नाम पर ट्रस्ट बनाने और आयोजन के बहाने लंबी-चौड़ी कथित घोषणाओं की त्रासदी घटित हो रही है। चूँकी अरविन्द और संगठन से मेरा लंबा जुड़ाव रहा है,इसलिए चन्द बातें साझा करना समयाचीन है।

वैसे हमारे पूर्ववर्ती संगठन के बारे में ढेरों बातें छप चुकी हैं, इनमें कुछ बातें तथ्यात्मक रूप से गलत हो सकती हैं,लेकिन इनकी मूल भावना सही है। तथ्यों के साथ और भी ढ़ेरों बातें की जा सकती हैं, लेकिन यहाँ मैं महज दो मुद्दों पर बात केंद्रित कर रहा हूँ।

पहली बात कॉमरेड अरविन्द के बारे में। हमारे पूर्ववर्ती संगठन, राहुल फाउण्डेशन, बिगुल, दिशा, नौजवान भारत सभा,जनचेतना आदि के घुटन भरे माहौल में एक समय तक काम करने के बाद प्रायः तीन स्थितियां बनती हैं,साथी डिप्रेशन का शिकार बने अथवा बगावत कर संगठन छोड़े या फिर मौत को प्यारा हो जाए। हमने बगावत की राह चुनी,मानसिक यंत्रणा से मुक्त हुए और तभी आज हमलोग स्वस्थ रूप से अपने सरोकारों के प्रति बेहत योगदान कर पा रहे हैं। अरविन्द लंबे समय तक मानसिक-शारीरिक पीड़ा झेलते हुए इस दुनिया से चले गए। इस पीड़ा भरी त्रासदी को उनके साथ काम किया हुआ कोई भी साथी समझ सकता है।

तिगड़म का बोलबाला

विडंबना देखें कि 1990से पूर्व हमारी युवा टीम में जो अरविन्द सबसे अच्छे संगठनकर्ता के रूप में जाने जाते थे,लेकिन बाद के दौर में उन्हें बार-बार फिसड्डी,असफल,काम डुबोने वाला आदि-आदि साबित किया जाने लगा.इसके बावजूद कि ढ़ेरों जिम्मेदारियाँ भी उनपर ही रहती थीं। स्थिति की बानगी 2005की एक केंद्रीय बैठक में अरविन्द के ही शब्दों में ‘‘उन्हें दिल्ली से तिगड़म करके हटाया गया है’’। गौरतलब बात है कि उस वक्त दिल्ली में संगठन के साथियों ने विस्फोटक अंदाज में सवाल खड़ा किया था कि संगठन की 80 फीसदी ताक़त चन्दा जुटाने, किताबें छापने-बेचने में खर्च होती है, आदि-आदि। ऐसी स्थिति में यहाँ से अरविन्द को साजिशन तराई के एक आन्दोलन में भेज दिया गया और कामों की समीक्षा करके असफलता का ठीकरा उनके मत्थे फोड़ दिया गया। बाद में सवाल उठाने वाले भी ज्यादातर साथी किनारे लगा दिए गए। वैसे ऐसा संगठन में बार-बार होता है और संगठनकर्ताओं-कार्यकर्ताओं का गर्दन मरोड़ कर ‘सुपर संगठनकर्ता’अपनी वाकपटुता से छा जाता है और अपनी ‘श्रेष्ठता’कायम करता रहता है।

घोषणाओं का दौर

ब बात मरणोपरांत अरविन्द के नाम पर घोषणओं की जाए तो यह अतीत की ‘‘उन्नत” मंजिल है। ऐसी लंबी-चौड़ी घोषणाएँ कई बार हो चुकी हैं और परिणाम सचेतन धन उगाही और पुस्तकें छापने-बेंचने का उदृम बनकर रह जाना होता है। याद ताजा करने के लिए 1993में राहुल जन्मशती के बहाने प्रकाशन से लेकर स्कूल खोलने तक ढ़ेरों घोषणाएँ हमने कीं.राहुल फाउण्डेशन बना और काम महज एक किया गया क्रान्ति के नाम पर बिन वेतन कर्मकारों के धन संग्रह और प्रकाशन उद्योग की ओर बढ़ते जाना। अतीत का घिसटता घोड़ा अब सरपट दौड़ने लगा है। 1990की सर्वहारा पुनर्जागरणवादी-प्रबोधनवादी कथित थीसिस की आड़ में शुरू शफर 1992में हमारा मीड़िया अभियान,1993में राहुल जन्मशती आयोजन व राहुल फाउण्ड़ेशन का गठन, 1994 में लोकस्वराज अभियान से लेकर 2005-08 में तीन साला स्मृति संकल्प यात्रा आदि पड़ावों से होकर आज अरविन्द आयोजन तक पहुँचा है। इस दौरान एक के बाद एक पंजीकृत सोसायटी और ट्रस्ट तो बनते रहे लेकिन सचेतन एक भी औपचारिक जनसंगठन नहीं बना, कार्यकर्ता लुटता-पिटता और हताश होता रहा लेकिन नेतृत्व परिवार के साथ फलता-फूलता रहा।

सरोकारों से दूर

दूसरी बात, पूरे आंदोलन के संदर्भ में। हमारा मुख्य सरोकार इसी बिंदु से है, बाकी बातें तो इसी का हिस्सा है। बात की शुरुआत शशि प्रकाश के शब्दों से ‘‘एक मार्क्सवादी के पास ईश्वर का भी डर नहीं होता इसलिए जब वह नीचे गिरता है तो पतन की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है’’और ‘‘आंदोलन के ठहराव के दौर में भांति-भांति के पंथ पैदा होने लगते हैं।”आइना सामने है। सच्चाई यह है कि हमारा पूरा आन्दोलन अति वाम से लेकर संशोधनवाद तक के दो छोरों के बीच झूल रहा है।चौतरफा विभ्रम व्याप्त है। दुश्मन वर्ग को ठीक से न समझ पाने से स्थितियाँ और जटिल बन गई हैं। ऐसे  में क्रान्ति के नाम पर धन्धेबाजों तक के पनपने की पूरी जमीन तैयार है।

आज तमाम हलकों में मार्क्सवाद गतिशील विज्ञान की जगह जड़ बनता गया है। स्थिति यह है कि तमाम संगठनों में नेतृत्व के चकाचौंध में कार्यकर्ता तर्क और विवके को किनारे रख देता है,उसकी पहलकदमी-श्रृजनशीलता कुंद होती जाती है। एक जटिल भारतीय समाज में मौजूद प्रच्छन्न सामन्ती मूल्य-मान्यताओं की इसमें एक अहम भूमिका है। ऐसे में पूँजीवादी विचारधारा का मौजूदा वर्चस्व, सचेतन तौर पर वह माहौल पैदा करता है, वह भौतिक परिस्थिति बनाता है, ऐसी मानसिकता निर्मित करता है, जो विभ्रम का धुंध खड़ा कर देती है।

वैज्ञानिक विचारधारा की मजबूत पकड के साथ स्थितियों को समझने और तर्क की कसौटी पर उतार कर ही यथास्थिति को तोड़ा जा सकता है। यह आज के दौर का सबसे जरूरी कार्यभार है।