Nov 12, 2009

सरकार आदिवासियों से माफी मांगे

हिमांशु कुमार

छत्तीसगढ़ में मजदूर आंदोलन के प्रमुख नेता रहे शंकर गुहा नियोगी कहा करते थे छत्तीसगढ़ के बाद कोमा लगाकर बस्तर के बारे में सोचा करो। मैं भी मानता हूं कि छत्तीसगढ़ और बस्तर दोनों अलग-अलग हैं। यह अंतर मैं व्यक्तिगत तौर पर इसलिए भी मानता हूं कि बस्तर के लोगों ने मुझपर उस समय भरोसा किया है जब सलवा जुडूम की वजह से भाई-भाई दुश्मन बने हुए हैं। एक भाई सलवा जुडूम के कैंप में है तो दूसरा गांव में रह रहा है। सलवा जुडूम वाला यह सोचने के लिए अभिषप्त है कि गांव में रह रहा भाई माओवादियों के साथ मिलकर उसकी हत्या करा देगा तो,गांव वाला इस भय से त्रस्त है कि पता नहीं कब उसका भाई सुरक्षा बलों के साथ आकर गांव में तांडव कर जाये।

मैं बस्तर में 17 साल से रह रहा हूं और इस भूमि पर मेरा अनुभव आत्मीय रहा है। उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर से सर्वोदयी आंदोलन की सोच को लेकर मैं बस्तर उस समय आया जब मेरी शादी के महीने दिन भी ठीक से पूरे नहीं हुए थे। तबसे मैं बस्तर के उसी पवलनार गांव में रह रहा था जिसे छत्तीसगढ़ सरकार ने हाल के महीनों में उजाड़ दिया है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जंगलों के बीच मेरी अकेली झोपड़ी थी। कई बार ऐसा होता था कि मैं पांच-छह दिनों के लिए गावों में निकल जाया करता था और पत्नी अकेली उस बियाबान में होती थी। लेकिन हमने जंगलों के बीच जितना खुद को सुरक्षित और आत्मीयता में पाया उतना हमारे समाज ने कभी अनुभव नहीं होने दिया। आज आदिवासियों के बीच इतने साल गुजारने के बाद मैं सहज ही कह सकता हूं कि शहरी और सभ्य कहे जाने वाले नागरिक इनकी बराबरी नहीं कर सकते।
याद है कि हमने पत्नी के सजने-संवरने के डिब्बे को खाली कर थोड़ी दवा के साथ गांवों में जाने की शुरूआत की थी। डाक्टरों से साथ चलने के लिए कहने पर वह इनकार कर जाते थे। हां डॉक्टर हमसे इतना जरूर कहा करते थे कि आपलोग ही हमलोगों से कुछ ईलाज की विधियां सीख लिजिए। आज भी हालात इससे बेहतर नहीं है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद गांवों में सरकारी मशीनरी की सुविधाएं पहुंचाने के बजाए लूट की योजनाएं बनायीं। जो चौराहे के नेता थे वे राज्य के हो गये, छोटे व्यापारी खदानों के बड़े ठेकेदार-व्यापारी बन गये और लूट के अर्थशास्त्र को विकासवाद कहने लगे। छोटा सा उदाहरण भिलाई स्टील प्लांट का है जिसके लिए हमारे देश में कोयला नहीं बचा है, सरकार आस्ट्रेलिया से कोयला आयात कर रही है। जाहिर है लूट पहले से थी लेकिन राज्य के बनने के बाद कू्रर लूट की शुरूआत हुई जिसके पहले पैरोकार राज्य के ही लोग बने जो आज सलवा जुडूम जैसे नरसंहार अभियान को जनअभियान कहते हैं।

छत्तीसगढ़ में जो लूट चल रही है उसने क्रूर रूप ले लिया है। क्रुर इसलिए कि आदिवासी अगर जमीन नहीं दे रहे हैं तो बकायदा फौजें तैनात कर उन्हें खदेडा जा रहा है, कैंपों में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है। सरकार अपने ही बनाये कानूनों को ठेंगे पर रख ओएमयू कर रही है। बंदरबाट के इतिहास में जायें तो भारत सरकार जापान को 400 रूपये प्रति क्विंटल  के भाव से लोहा बेचती है तो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के छोटे व्यापारियों को 6000 हजार रूपये प्रति क्विंटल। अब जब आदिवासी राज्य प्रायोजित लूट का सरेआम विरोध कर रहा है तो भारतीय सैनिक उसका घर, फसलें जला रहे हैं, हत्या बलात्कार कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में अशांति नहीं होगी तो क्या होगा।
सरकार बार-बार एक शगुफा छोड़ती है कि माओवादी विकास नहीं होने दे रहे हैं, वह विकास विरोधी हैं। मैंने राज्य सरकार से सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी कि वह बताये कि पिछले वर्षों में स्वास्थ कर्मियों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, शिक्षकों और हैंडपंप लगाने वाले कितनों लोगों की माओवादियों ने हत्याएं की हैं, सरकार का जवाब आया एक भी नहीं। वनवासी चेतना आश्रम बीजापुर और दंतेवाड़ा के जिन गांवों में काम करता है उनमें से गांवों के लोगों ने बार-बार शिकायत किया कि फौजें और एसपीओ उनकी फसलें इसलिए जला रहे हैं कि लोग भूख से तड़प कर कैंपों में आयें। जबकि इसके उलट माओवादियों की ओर से संदेश आया कि 'हिमांशु कुमार 'वनवासी चेतना आश्रम' की ओर से जो अभियान चला रहे हैं हम उसका स्वागत करते हैं।' देश जानता है कि वनवासी चेतना आश्रम सरकार और माओवादी हिंसा दोनों का विरोध करता है क्योंकि इस प्रक्रिया में जनता का सर्वाधिक नुकसान होता है। लेकिन एक सवाल तो है कि सरकार अपने ही बनाये कानूनों को ताक पर रख कर देशी-विदेशी  कंपनियों के साथ मिलकर लूट का विकासवाद कायम करना चाहेगी तो जनता, अंतिम दम तक लड़ेगी।
हमें सरकार इसलिए दुश्मन मानती है कि हमने समाज के व्यापक दायरे में बताया कि सलवा जुडूम नरसंहार है और कैंप आदिवासियों को उजाड़ने वाले यातनागृह। फिलहाल कुल 23 कैंपों में दस से बारह हजार लोग रह रहे हैं। पंद्रह हजार लोगों को हमने कैंपों से निकालकर उनको गांवों में पहुंचा दिया है। इस दौरान राज्य के एक कलेक्टर द्वारा धान के बीज देने के सिवा, सरकार ने कोई और मदद नहीं की है।


अगर सरकार सलवा जुडूम के अनुभवों से कुछ नहीं सिखती है तो मध्य भारत का यह भूभाग कश्मीर और नागालैंड के बाद यह भारत के मानचित्र का तीसरा हिस्सा होगा जहां कई दशकों तक खून-खराबा जारी रहेगा। सरकारी अनुमान है कि सलवा जुडूम शुरू होने के बाद माओवादियों की ताकत और संख्या में 22 गुना की बढ़ोतरी हुई है। अब ऑपरेशन ग्रीन हंट की कार्यवाही उनकी ताकत और समर्थन को और बढ़ायेगी। सरकार के मुताबिक फौजें माओवादियों का सफाया करते हुए पुलिस चौकी स्थापित करते हुए आगे बढ़ेगीं। जाहिर है लाखों की संख्या में लोग वनों में भागेंगे। उनमें से कुछ की हत्या कर तो कुछ को बंदी बनाकर फौजें पुलिस चौकियों के कवच के तौर पर इस्तेमाल करेंगी। हत्या, आगजनी, बलात्कार की अनगिनत वारदातों के बाद थोड़े समय के लिए सरकार अपना पीठ भी थपथपा लेगी। लेकिन उसके बाद अपनी जगह-जमीन और स्वाभिमान से बेदखल हुए लोग फिर एकजुट होंगें, चाहे इस बार उन्हें संगठित करने वाले माओवादी भले न हों।
मैं सिर्फ सरकार को यह बताना चाहता हूं कि अगर वह अपने नरसंहार अभियान ऑपरेशन ग्रीन हंट को लागू करने से बाज नहीं आयी तो हत्याओं-प्रतिहत्याओं का जो सिलसिला शुरू होगा मुल्क की कई पीढ़ियां झेलने के लिए अभिषप्त होंगी। यह सब कुछ रूक सकता है अगर सरकार गलतियां मानने के लिए तैयार हो। सरकार माने और आदिवासियों से माफी मांगे कि उसने बलात्कार किया है, फसलें जलायीं है, हत्याएं की हैं। आदिवासियों की जिंदगी को तहस-नहस किया है। सरकार तत्काल ओएमयू रद्द करे, बाहरी हस्तक्षेप रोके और दोषियों को सजा दे। जबकि इसके उलट सरकार पचास-सौ गुनहगारों को बचाने के लिए लोकतंत्र दाव पर लगा रही है.

(लेखक दंतेवाडा में गाँधीवादी संस्था 'वनवासी चेतना आश्रम' से जुड़े हैं )