कात्यायिनी के संगठन की कार्यप्रणाली और तरीके पर रिवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत) से जुड़े रहे पार्टी कार्यकर्ताओं ने सवाल उठाये थे और कहा था कि वामधारा की यह पार्टी पारिवारिक कुनबा बन गयी है. प्रमाण के तौर पर कहा भी गया था कि सात सदस्यीय केंद्रीय समिति में एक ही परिवार से पांच लोग हैं जिनका असली मकसद पैसा इकठ्ठा कर पारिवारिक पूंजी खड़ा करना है.
सवाल उठाने वाले कार्यकर्ताओं और पार्टी सदस्यों को उन्होंने जवाब भिजवाना शुरू किया है. तीन चिट्ठियों के पहले क्रम में कात्यायिनी ने भिजवाया जवाब,विरोधियों को कहा 'हिज़डा' लेख में जनचेतना के संचालक और रिवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत) के सचिव शशिप्रकाश ने पार्टी प्रवक्ता और अरविन्द सिंह न्यास के सदस्य जय सिंह उर्फ़ जयपुष्प के माध्यम से, अपनी पार्टी का स्टैंड भिजवा दिया है,जिससे पाठक परिचित हैं. इस पार्टी के प्रवक्ता जयपुष्प उर्फ़ जय सिंह ने इस बहस को शुरू करने वाले विवेक कुमार के लेख 'वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर' पर प्रतिक्रिया में 'मऊगा' कहा है और जोर कम होता देख उन्होंने खुद के नाम से एक कमेन्ट भी किया है.
विवेक कुमार
आपके पत्र में एक रवानगी है। कई बार पढ़ा। कतई बोरियत नहीं हुई। कई सारे पेंच खुलते हुए नजर आये। खड़खड़ाती कार के भीतर के मंजर को तो हमने जनज्वार पर आयी पिछली पोस्टों में देखा था, अब आपके माध्यम से बाहरी शक्ल की हकीकत का कुछ खुलासा होता दिख रहा है।
जयपुष्प उर्फ़ जयसिंह आप जिसके हिस्सेदार व तरफदार हैं उससे आपकी वाकिफियत कम दिखती है। बहरहाल, मेरा लिखना उस संगठन से आपको वाकिफ कराना नहीं है। मैं उस दरार को दिखाना चाहता हूँ जहाँ आप खड़े हैं और खतरनाक निष्कर्ष व आकलन निकालने में कतई कोताही नहीं बरत रहे हैं। आपकी रौ में जो मर्दानगी है (जो कात्यायिनी और शशिप्रकाश की कविताओं में है), आपके निष्कर्षों व आकलन के साथ मिलकर जो शक्ल निर्मित करती है वह काफी डरावनी है।
आप 'हिजड़ा' नहीं हैं, आप 'मऊगा' नहीं हैं इसलिए आप नीलाभ को इनकी संगत से बच निकलने की सलाह देते हैं। आप स्त्री नहीं हैं, पुरूष हैं। एक ऐसा पुरूष जो स्त्री पर दंड भेद इत्यादि का तरफदार है। शायद इसीलिए बीबी से डरने वालों के प्रति आपमें सख्त धिक्कार है। प्रबुद्ध सांस्कृतिक मर्दवादी साथी- समय बदल गया है। इस पोपली जमीन पर खड़े होने से शंकराचार्य भी बचने लगे हैं। मगर आप और आपके भाई साहब (शशिप्रकाश) इस जमीन पर जिस तरह खड़े हैं उससे यह मसला कुछ खतरनाक दिशा संकेत करता है। ठीक वैसे ही जिस तरह आप और आपके भाईसाहब के निष्कर्ष व आकलन। आइए, इनके भीतर की दरारों के बारे में बात करें:
|
दूसरे प्रकाशकों से मूल और अनुवाद के चोरी आरोप |
आपने जनज्वार पर लिखने वालों को 'हिजड़ा' और बहस ले आने की कार्यवाई को 'नंगई' की संज्ञा दी है। साथ ही पूछा है कि क्या 'फैसला करने का सबसे उपयुक्त मंच ब्लाग ही है।' आप निष्कर्ष निकालते हैं कि 'कोई भी व्यक्ति ब्लॉग पर गरमागरम बातें लिखकर और पैसिव रैडिकलिज्म की लीद फैलाकर बुद्धिजीवी होने का तमगा हासिल कर सकता है।' आप जमीनी आदमी हैं। ठोस बात करने का आपका दावा है।
कृपया ऐसे बुद्धिजीवी का नाम बतायें जिन्होंने लीद फैलाकर तमगा हासिल किया हो। आपको क्यों लगता है कि आप इस टूल का प्रयोग क्रांति के लिए कर रहे हैं और दूसरे लीद फैलाने के लिए कर रहे हैं? अजय प्रकाश जनज्वार के माध्यम से बस्तर,बुंदेलखंड,आजमगढ़, हरियाणा के आम हालात तथा राजेन्द्र यादव, विश्वरंजन और वीएन राय की साहित्यिक हकीकत को जिस तरह सामने लाये उसकी हमारे समाज में क्या कोई उपयोगिता नहीं है?
यानी आपके साथ जो नहीं है उसका लेखन लीद है। आपके ब्लॉग पर पसंदीदा किताबों की लिस्ट में सिवाय कात्यायिनी और शशिप्रकाश के दूसरा कोई भारतीय लेखक शामिल नहीं है,यह कैसा साहित्यिक दायरा है. यह मर्दवादी अमेरिकी तर्क ही है जिसके तले आप 'विरोधी लाइन वाले संगठनों' को चिन्हित करते हैं और षडयंत्र का फरेब रचते हैं। आपके संगठन ने इंटरनेट टूल का प्रयोग किस क्रांतिकारी काम में किया है? आपकी सारी किताबें व पत्रिकाएं ठीक उसी तरह इंटरनेट पर क्यों नहीं उपलब्ध हैं जिस तरह हजारों संगठनों और लोगों ने ऑनलाइन कर रखा है?
पार्टी सचिव शशिप्रकाश का ब्लॉग 'बात दूर तलक जायेगी' चुप है और सत्यम वर्मा अपने ब्लॉग से अनुवाद के फलक पर दूर तक फैले हुए हैं। सत्यम वर्मा टाइप लिंकलिडेन जॉब प्रोफाइल वेबसाइट देखिये तो पता चलेगा की असल एनजीओ कहा है और फिर 'एनजीओ एक खतनाक साम्राज्यवादी' के कुचक्र का असली दर्शन कामरेड की कोठरी में ही होगा. तब जाकर आपको पता चलेगा कि छटे -छमासे किसी कार्यक्रम में दिखने वाले सत्यम कार्यक्रम ख़त्म होने से पहले ही टिकट कटाकर कितना तेज कम्प्यूटरी आन्दोलन चलाते हैं। अन्य प्रयोगों में आपके प्रेस रिलीज़ और चंदा उगाहने वाले अभियान से हर कोई वाकिफ है।
आपने ब्लॉग को बहस के लिए मंच के प्रयोग पर सवाल उठाया है। इससे महत्वपूर्ण बात है कि आप इसके लिए किस तरह के मंच का प्रयोग करते हैं। आपने सरकारी संस्थान से रजिस्टर्ड पत्रिका व प्रकाशन से लगातार न केवल चारू मजूमदार व अन्य नेतृत्व के खिलाफ बल्कि नक्सलबाडी से निकली धाराओं के खिलाफ भी लगातार मुहिम छेड़ रखी है। सीपीआई माओवादी के खिलाफ 'आतंकवाद विभ्रम व यथार्थ' पुस्तिका लिखकर आपने बंटवा दी, वह भी तब, जबकि बुर्जुआ सरकार ने भी पार्टी को आतंकवादी नहीं कहा था, आखिर आपके सचिव को चिलमन में छुपने की इतनी बेसब्री क्यों थी। फिर क्या यह बहस के लिए उपयुक्त तरीका व मंच था ?
|
फोटो कट पेस्ट : संगठन में भी काम का यही तरीका |
दरअसल, जनज्वार पर आपके संगठन की आलोचना सामने आई। इस तरह की सार्वजनिक आलोचना व आत्मालोचना कोई नई बात नहीं है। माध्यम बदलते गये हैं। आज इस संदर्भ में ब्लॉग व इंटरनेट का प्रयोग खूब हुआ है और हो रहा है। कुछ उदाहरण पेश हैं। इपीडब्ल्यू में सीपीआई माओवादी पार्टी पर बहस व आजाद का रीज्वाइंडर। संहति में लालगढ़ पर विभिन्न संगठनों की बहस। सीजीनेट,ए वर्ल्ड टू वीन इत्यादि ढेरों उदाहरण हैं। तब आपकी आपत्ति क्या है, जनज्वार, अजय प्रकाश या हिन्दी?
आपने नीलाभ को समझाया है कि संगठन से निकले लोग फिसड्डी साबित हो चुके हैं। साथ ही आपने अपने गुप्तकाम के प्रकट रूप के तीन उदाहरण दिये हैं- लुधियाना, करावल नगर और गोरखपुर। क्या आप यह स्वीकार कर रहे हैं कि जब ये फिसड्डी आपके संगठन में थे उनके सारे काम इतिहास से बेदखल कर देने हैं? मैंने अपने पिछली पोस्ट में इसी बात की शंका जाहिर करते हुए लिखा था कि कामरेड अरविन्द को न्यास व मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान के तले उनके जन आंदोलनकर्ता के रूप को भुला दिया जायेगा।
उत्तराखंड में हीरो होंडा का मजदूर आंदोलन, नोइड़ा में झुग्गी बस्ती बचाने का आंदोलन, मर्यादपुर के मल्लाह समुदाय का आंदोलन इत्यादि को आप किस श्रेणी में रखते हैं? डॉ. विश्वनाथ व डॉ. दूधनाथ से लेकर जनार्दन तक को फिसड्डी साबित करते हुए, इतिहास पर पोछा मारते हुए आप दरअसल आप अपने भाईसाहब की कारस्तानियों के इतिहास को ही दुहरा रहे हैं। उन्होंने भी नेतृत्व व सहयोगी साथियों को फिसड्डी घोषित कर इतिहास पर पोछा मारने के काम को अभियान के तौर पर लिया था। यह अनुभव देवब्रत,रामनाथ और गैरी से जान लीजियेगा और न समझ में आये तो कुछ और का नाम पूछ लीजियेगा.
आपने जिन तीन आंदोलनों का जिक्र किया है उसके अंत के बारे में भी आपको जरूर बताना चाहिए। मसलन, गोरखपुर में मजदूर आंदोलन फैक्टरी बंद होने के ठप पड़ गया। उसके आगे की योजना जाहिरा तौर पर फैक्टरी को मजदूर अपने हाथ में लेकर चलाने की होनी चाहिए। यह काम हीरो होंडा, उत्तराखंड में एक हद तक हुआ। क्या यह गोरखपुर में हुआ? नहीं। करावल नगर में सिर्फ आप नहीं थे। एटक की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही, जिसके खिलाफ आप लोगों ने प्रचार अभियान चलाया।
बादाम मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने में आपकी सराहनीय भूमिका है। आपके पर्चों, लेखों के हिसाब से यह अर्थवाद की मंजिल है। इन मजदूरों को संबोधित पर्चें में आवास कब्जेदारी से लेकर फैक्टरी प्रबंधन की कब्जेदारी के नारे क्यों गुम हैं?आपके पर्चें दिल्ली जनवादी अधिकार मंच के पर्चों से किस तरह भिन्न हैं? लुधियाना के हाल मैं नहीं जानता। इतना जानता हूँ कि सारा मामला राष्ट्रीयता के तनाव के बीच सुलझाया गया, जिसमें नेता व फैक्टरी मालिक ही निर्णायक बने। यह चुनौतीपूर्ण व दुखद घटना है। बहरहाल, मुझे यह बताना था कि आप संगठन के इतिहास में कहां खड़े हैं।
आप जिस आधार पर संगठन से निकले साथियों को फिसड्डी घोषित कर रहे हैं उस आधार पर आपके यहां फिसड्डियों की भरमार है। मसलन, कात्यायनी ने आज तक कितने लेखकों व साहित्यकारों को तैयार किया। सत्यम वर्मा ने कितने साहित्यकार पत्रकार बनाये। शशिप्रकाश ने अपने बेटे अभिनव को छोड़ कितने लोगों को 'क्रांतिकारी मार्क्सवादी' बनाया। बहरहाल,बात इससे इतर है। संगठन से निकलने के बाद इन साथियों ने अभी तक कोई और संगठन ज्वाइन नहीं किया। इनकी मार्क्सवाद में आस्था है। ये नक्सलबाडी की धारा को मानते हैं। यह वह आधार है जहॉ से आलोचना आत्मालोचना करते हुए एक नई शुरूआत हो सकती है।
लेकिन यहाँ तो गति ही भिन्न है। इन्हें झूठा, फरेबी, मक्कार, चुगलखोर, षडयंत्रकारी और आपके पार्टी सचिव के लिखित शब्दों में 'पेटीकोटजीवी' घोषित कर आप अपने को इस कदर विद्रूप बना रहे हैं कि लम्पटों के सरदार भी आपसे मुआफी मांग लें। क्या यह कुछ वैसा ही नहीं है जैसा एक सरमाएदार मजदूर के प्रति रवैया अपनाता है। यह तर्कशैली आपने कहां से उधार ले रखी है?उम्मीद है आप इस पर जरूर सोचेगें। नई शुरूआत परम्परा तोड़ने से होती है। फिसड्डियों की हकीकत से रू-ब-रू होइए।
आपने लिखा है, 'आज के हमारे प्रगतिशील लेखक, कवि और बुद्धिजीवी भारत की गरीब जनता के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात कर चुके हैं।' आइए, कात्यायनी की कविता पर थोड़ी चर्चा करें। इनके चार संग्रह का समय 80 के दशक के अंत से आज तक का है। इस दौर में मजदूर, किसान, दलित, स्त्री, मुसलमान व अन्य अल्पसंख्यक, राष्ट्रीयताएं, आदिवासी व युवा समुदाय के खिलाफ सरकार ने एक के बाद एक अपराधों को अंजाम दिया।
इस पूरे दौर में साम्प्रादायिकता पर कुल चार कवितायेँ हैं। वर्ष 1992 में एक और 2002 में तीन। सबसे अधिक प्रेम पर, उसके बाद कवियों पर और फिर स्त्रियों पर। शेष समुदाय कविता से निर्वासित है। मजदूर कविता से नदारद है। उनके प्रेम के सार्वजनिक पक्ष के पार्श्व में कार्यकर्ता हैं, बेनाम। यह ऐतिहासिक विश्वासघात की श्रेणी में आता है या नहीं?
|
किसकी कवयित्री कात्यायिनी |
आपकी यह क्रांतिकारी कवियत्री लिखती हैं: 'बदला जमाना,पर बदले नहीं रामधनी, गुजरा समय उनका, वे भी गुजर गये।' उत्तर प्रदेश में कहार, धोबी, बुनकर, मुसहर जैसी सैकड़ों जातियां मौत व भूखमरी की तरफ ठेल दी गयीं। सांप्रदायिकता व जातिवाद की राजनीति में यह प्रदेश उबलता रहा। इस हालात के प्रति इस कवियत्री की काव्यात्मक संवेदना निष्ठुर उदासीनता में अभिव्यक्त होती है।
ठीक इसी तरह की रचनाएं आपकी पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं में आयीं। जिसका निष्कर्ष था कि धनी किसान मर रहा है तो यह उसकी नीयति है, आदिवासी उजड़ रहा है तो यह उसकी नीयति है। यह सचमुच कोहेकॉफ में सिम्फनी जैसा है, मौत-उजाड़ के प्रति निष्ठुर उदासीनता पर अहमन्यता की लंबी तान। यदि आप इस लंबी तान से उबरेगें तो पाएंगे कि इन विश्वासघातों से बाहर जन के कवि, लेखक और बुद्धिजीवी हैं। जिनके गीत गाये जाते हैं। जिन्होंने जन के लिए मौत का वरण किया।
बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि राज्यों के सांस्कृतिक आंदोलन को गौर से देखिये। यहां नाम गिनाना जरूरी नहीं लगता, लेकिन यह बताना जरूरी लगता है कि यूपी में हाल में हुई गिरफतारियों के खिलाफ बुद्धिजीवियों ने ही धरना-प्रदर्शन और अन्य सहयोग किया। बुद्धिजीवी ही थे जो हेम पांडे और आजाद की हत्या के खिलाफ खड़े हुए। यही लोग थे जिन्होंने सलवा जुडुम के खिलाफ अभियान चलाया। यही हैं जिन्होंने पोस्को नर्मदा से लेकर डाभोल परियोजना के खिलाफ खड़े होकर संघर्ष चलाया।
यही वह बुद्धिजीवी समुदाय है जिसके खिलाफ सरकार षड़यंत्र कर उन्हें सलाखों के पीछे डाल देना चाहती है या मार डालना चाहती है। इसी ने एक पीढ़ी भी तैयार की है जो विभूतीनारायण, आलोक मेहता या विश्वरंजन को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। राजनीतिक कार्यकर्ता महोदय! एक बार आप अपने संगठन के गिरेबान में झांककर देखिये कि वहां लेखक, कवि और बुद्धिजीवियों के प्रति रवैया क्या था?
आपके लिए रामकृष्ण पांडेय जी ने अनुवाद किया। बदले में आपने उन्हें क्या दिया? उनकी कविताएं पढ़ी जाती हैं, लेकिन आपने नहीं छापा। उनका संग्रह कहीं और से छपा। उन्होंने न्गुगी व थ्यांगो की पुस्तक पेन प्वाइंट गन प्वाइंट का अनुवाद किया। आप उसे दबाकर बैठ गये क्योंकि यह आपके लिए उपयुक्त नहीं है। उनके अनुवादित किताबों की कितनी रायल्टी उनके घर पहुँचायी गयी? जबकि उनके परिवार में कोई कमाने वाला नहीं रहा।
ऐसी कई कहानियां हैं। मूल मसला यह देखना है कि विश्वासघात किधर से हुआ है, गोरख पांडे की ओर से या दूसरी ओर से, रामकृष्ण पांडे की ओर से या आपकी ओर से, रामधनी की ओर से या कवियत्री कात्यायनी की ओर से। आप किन लेखकों, बुद्धिजीवियों, कवियों, संस्कृतिकर्मियों के बीच रहते हैं जो उच्च मध्यवर्ग जीवनशैली जी रहे हैं। यदि आप ऐसों के बीच हैं तो मुझे कुछ नहीं कहना। हां,यह जरूर कहना है कि आज भी इसी दिल्ली में आलू और सोयाबीन पर, मठठी और चाय पर जिदंगी गुजारते हुए सांस्कृतिक कर्म करने वालों की जमात काफी है और जिनके सृजन से एक उम्मीद बनती है।
|
अनुवाद ही आन्दोलन |
इस संदर्भ में आप यह जरूर बताएं कि आपका संगठन अस्तित्व में आने के साथ ही लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों के पीछे गालियों के भंडार के साथ क्यों पिल पड़ा? सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे बुद्धिजीवियों ने आपकी लाइन का मार्ग प्रशस्त किया है, उन्हें हिलफर्डिंग का तमगा आपने पकड़ाया है,फिर भी आप छाती पीटे जा रहे हैं। यह तो अदभुत उलटबासी है। यदि बात साफ नहीं है तो साम्राज्यवाद पर दायित्वबोध क लेख और अपने प्रकाशन की पुस्तिका जरूर देखें।
आपने जिन नखादा बुर्जुआ प्रकाशकों से नाउम्मीदी जाहिर की है उसी में से एक राजकमल ने आपकी संपादित पुस्तकों को छापा है। आकार प्रकाशन बड़े पैमाने पर मार्क्सवाद की मौजूं किताबें छाप रहा है। दानिश भी लगा हुआ है। गार्गी, अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन, रेडिकल पब्लिकेशन जैसे ढेरों प्रकाशक इस काम में लगे हुए हैं। कृपया बताये कि 'मां' जैसी कौन सी किताब है जिसे कोई छापने के लिए कोई तैयार नहीं है और वितरण के लिए तैयार नहीं है। यदि यह कल्पना में है तो उसे जल्द से जल्द हकीकत में उतारिये।
अपने देश में हर साल हजारों किताबें बिना रजिस्टर्ड प्रकाशन के छपती और बिकती हैं। आपकी 'मां' जैसी किताब भी जरूर छपेगी और वितरित होगी। लेकिन अभी तो आप वही छाप रहे हैं जो दूसरे प्रकाशनों ने छाप रखी है। मसलन, तरुणाई का तराना -यांग मो उपन्यास एआईआरएसएफ नाम के छात्र संगठन ने छापी थी और इसकी पच्चीस हजार प्रतियां उस समय अत्यंत कम दाम पर वितरित हुईं। इसे आप युवा के गीत के नाम से छापकर बेच रहे हैं। आपके प्रकाशन का 90 प्रतिशत हिस्सा दूसरे प्रकाशन का पुनर्मुद्रण ही है।
चंद हेरफेर से आप मूल अनुवादक बन जाते हैं। आप पूर्ववर्ती प्रकाशकों, अनुवादकों को धन्यवाद भी ज्ञापित करने से बच निकलते हैं। आपसे यह बताने की गुजारिश है कि डाइसन कार्टर की पुस्तक पाप और विज्ञान का अनुवाद अन्य प्रकाशनों से किस तरह भिन्न है और गार्गी व पीपीएच के द्वारा इसके प्रकाशन के बावजूद आपने इसे क्यों छापा? आप यह बताएं कि आप और गार्गी प्रकाशन से छपी टर्निंग प्वाइंट इन चाइना के बीच अनुवाद में गुणात्मक फर्क क्या है और छपे होने के बावजूद आपने इसे क्यों छापा? इसी तरह पीपीएच व आपके प्रकाशन से छपे अन्ना करेनिना के अनुवाद के फर्क के बारे में जरूर बताएं। और यह भी बताएं कि इससे भारत की क्रांति में कौन सी अड़ंगेबाजी आ रही थी। वह कौन से शब्द व व्याकरण की गलतियां हैं जिसके होने से भारतीय क्रांति के कार्यक्रम में फर्क आ जाता?
आप भाषा और व्याकरण को जिस सांस्कृतिक प्रबोधन की जमीन को रच रहे हैं वह मूलतः यूरोपीय और लातिनी है। इसकी हिन्दी बनावटी व आत्मा से हीन है। जब राजेन्द्र यादव ने आपकी इस हिन्दी के अनुवाद का आग्रह किया तो निश्चय ही वे गलत नहीं थे। आपकी यह हिन्दी जनपदीय भाषा के विस्तार व पहुँच का निषेध करती है। आपकी भाषा वर्चस्व के मूल्य से प्रस्थान करती है। यह मर्दवादी तर्कशैली से काम करती है। फुसफुसाहट व व्याख्या के सहारे संवाद कायम करती है। एक संकुचित घेरे को निर्मित करती है।
दरअसल,समस्या यहां नहीं है जहां आप उलझते हुए नीलाभ को समझा रहे हैं। समस्या न्यास, प्रकाशन और संगठन के ऐसे गठनजोड़ की है जिसके केन्द्र में सांस्कृतिक प्रबोधन की राजनीति और उसके शीर्ष पर एक परिवार की कब्जेदारी है। यह कब्जेदारी राजनीतिक, सांगठनिक और सांस्कृतिक स्तर पर है। जो छपी पुस्तकों का पुनर्मुद्रण कर रहा है। इस बारे में काफी कुछ पिछले पोस्ट में लिखा जा चुका है। दुहराना ठीक नहीं लग रहा।
इतना लिखना जरूरी लग रहा है कि आपके संगठन ने प्रकाशन व न्यास वगैरह का काम मजबूरी में नहीं, बल्कि संगठन की मूल योजना के तहत लिया हुआ है। सांस्कृतिक प्रबोधन के दस्तावेज को आप जरूर पढ़ें, ताकि कम से कम आप प्रकाशन के काम में 'मजबूर' न रहें। आप हथियार खरीदने और किताब खरीदने के बीच लेखकों को खड़ा कर एक ऐसी कल्पना में मशगूल हैं जिसमें सिर्फ तरंगें हैं, जमीन नदारद है। बहरहाल,आपको एक ठोस जमीन मयस्सर हो।
मैं आपके संगठन की दलित, स्त्री, मुसलमान, आदिवासी मुददों पर पोजीशन जानने का इच्छुक हूँ। आपका संगठन हिजड़ों व समलैंगिकता पर क्या विचार रखता है, यह जरूर बतायें। हिजड़ा शारीरिक श्रम कर सकता है और करता है। मसला अवसर का है। शारीरिक आधार पर भेदभाव करना, उसे गाली में बदल देना ठीक वैसे ही है जैसे स्त्रियों के मामले में किया गया। आप यह जरूर मानते होंगे कि स्त्री पुरूष बराबर हैं। ऐसे में आपके द्वारा पति से पत्नी पर दबंगई की मांग उपरोक्त का निषेध नहीं है। यह मसला सिर्फ आपका नहीं है। आपका नेतृत्व इससे भी गंदी भाषा का प्रयोग करता है। सांस्कृतिक प्रबोधन का अभियान चलाने वाले संगठन की यह भाषा, व्यवहार उसके भीतर की हकीकत को ही दिखाता है। उम्मीद है कि कुछ सार्थक हस्तक्षेप करने वाले हाथ जरूर आगे आयेंगे।