आदियोग
शेर अर्ज़ है—‘कल इक महल देखा तो देर तक सोचा/इक मकां बनाने में कितने घर लुटे होंगे.’दिसंबर के दूसरे पखवाड़े से एक तरफ़ बहन जी की सालगिरह की योजनाएं बनने लगी थीं तो दूसरी तरफ़ बदन गलाती सर्दी से होनेवाली बेघरों की मौत का खाता भी खुलने लगा था. ऊंचे महलों में बड़ों का जश्न और फ़ुटपाथ पर मातम. दूर क्यों जायें,राजधानी लखनऊ की बात करें और उससे अंदाज़ा लगायें कि सूबे के दूसरे बड़े शहरों में फ़ुटपाथ की ज़िदगी जी रहे लोगों को सर्दी का निवाला बनने से बचाने के लिए ‘सर्व जन सुखाय,बहुजन हिताय’का नगाड़ा बजानेवाली राज्य सरकार कितना और किस तरह मुस्तैद रही.
|
दिनभर लोगों को ढोता है,रात में जिंदगी इसे ढोती है
|
सरकार बहादुरों की मेहबानी से आलम यह है कि जन हित में जारी किये गये तमाम आदेश या तो काग़ज़ी दौड़भाग में उलझ कर ठहर जाते हैं या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं. दिसंबर 2009 में देश की राजधानी में हुई बेघरों की मौत की ख़बरों के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि लोगों को मौत से बचाने के लिए फ़ौरन ज़रूरी क़दम उठाये जायें. इस आदेश पर बस कहने भर को अमल हुआ.2010शुरू हुआ कि पीयूसीएल ने देश की सबसे बड़ी अदालत में गोहार लगायी. इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने 27 जनवरी को दिल्ली सरकार समेत सभी राज्य सरकारों को दिशा निर्देश जारी किया कि दिसंबर 2010तक स्थाई रैन बसेरे बना दिये जायें और जिसमें पीने के साफ़ पानी, स्वच्छता, स्वास्थ्य, सस्ते दरों पर राशन, सुरक्षा आदि की भी व्यवस्था हो.
उत्तर प्रदेश सरकार ने मई 2010को अदालत में अपना जवाब दाख़िल किया कि सूबे के पांच बड़े शहरों मेरठ, कानपुर, इलाहाबाद, आगरा और बनारस में आठ स्थाई रैन बसेरे चल रहे हैं. लेकिन यह दर्ज़ नहीं किया गया कि वे किस जगह पर हैं और किस हाल में हैं.मसलन,इलाहाबाद में संगम किनारे बाक़ायदा रैन बसेरा है लेकिन उस पर हमेशा साधुओं का डेरा रहता है.बताया गया कि तीन महानगरों में एक-एक स्थाई रैन बसेरा बनाये जाने का फ़ैसला हो चुका है.ज़मीन और धन की व्यवस्था होते ही उसे पूरा कर दिया जायेगा.यह अपनी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही से कन्नी काटने की ज़ुबान थी. वैसे, जिन्हें स्थाई रैन बसेरों के तौर पर पेश किया गया, वे तो असल में सामुदायिक केंद्र हैं और सभी जानते हैं कि उनका उपयोग सामुदायिक गतिविधियों के लिए नहीं, भाड़े पर उठाने के लिए किया जाता है. लखनऊ में नगर निगम के कम से कम 20 स्थाई रैन बसेरे हैं, लेकिन उनका ज़िक्र अदालत को दिये गये सरकारी जवाब से नदारद है.
हो भी तो कैसे.एक को छोड़ कर बाक़ी रैन बसेरे या तो शादी और माल बेचने की प्रदर्शनियों के लिए बुक हो जाते है या फ़िर उन पर अवैध कब्ज़े हैं.हद की बानगी देखें कि निशातगंज में लखनऊ-फ़ैज़ाबाद रोड पर बना एक रैन बसेरा अब रैन बसेरा कामप्लेक्स के नाम से जाना जाता है और फ़िलहाल दूकानों-गोदामों के काम आता है.दूसरा रैन बसेरा इंदिरानगर कालोनी के सेक्टर 16में अमीरों के एक रिहायशी इलाक़े के बीच है और उसके बड़े हिस्से को सामुदायिक केंद्र का नाम दिया जा चुका है.इस बेहतरीन परिसर के बाहर लगा ‘आवश्यक सूचना’का बोर्ड ही ख़ुलासा करता है कि यह जगह बेघरों की कोई पनाहगाह नहीं है.यह सूचना रैन बसेरे के ‘सम्मानित ग्राहकों’के लिए है, उसके लाभार्थियों के लिए नहीं. वैसे, ब्याह के इस मौसम में यह रैन बसेरा अगली मार्च तक बुक है. चारबाग़ शहर का मुख्य रेलवे स्टेशन है और उसके नज़दीक बना रैन बसेरा केवल सर्दियों में खुलता है और जिसके दरवाज़े शाम ढलते ही बंद होने लगते हैं.
तारीफ़ की जानी चाहिए कि जब सरकारी अमला सो रहा था,विज्ञान फ़ाउंडेशन नाम का सामाजिक संगठन जाग रहा था.23दिसंबर से उसके कार्यकर्ता टोलियों में बंट कर कड़ाके की सर्दी में देर रात तक शहर की गश्त पर निकले. 14 जनवरी तक चले तीन हफ़्ते के इस अभियान में कोई 18हज़ार बेघरों की गिनती निकली और उनके छह सौ बड़े ठिकाने मिले जहां उनकी रात ओस बरसाते आसमान के नीचे या बंद दूकानों के बाहर खुले गलियारों में गुज़रती है. बेघरी की यह तसवीर शहर की केवल अहम सड़कों से गुज़र कर उभरी.इसमें गली-मोहल्लों में पसरी बेघरी शामिल नहीं हैं. झुग्गी-झोपड़ियों की नरक जैसी झांकियां भी इससे बाहर हैं.
ख़ैर,31 लाख की आबादीवाले इस शहर में जिला प्रशासन ने जनवरी में जाकर अलाव समेत 30 अस्थाई रैन बसेरों का इंतज़ाम किया. इनमे से आठ रैन बसेरों को चलाने की ज़िम्मेदारी विज्ञान फ़ाउंडेशन ने ली और बाकी रैन बसेरों का जायज़ा भी लिया.पता चला कि रैन बसेरों के इर्द-गिर्द बसेरा डालनेवाले मेहनतकशों को इसकी ख़बर ही नहीं और अगर ख़बर है भी तो वे उसका इस्तेमाल करने से कतराते हैं. अव्वल तो उन्हें यक़ीन नहीं होता कि यह सुविधा वाक़ई उनके लिए है. दूसरी बात यह कि चार दिन की चांदनी के चक्कर में वे मुश्किल से बनायी गयी अपनी जगह छोड़ना नहीं चाहते.
उस पर किसी दूसरे बेघर के काबिज़ हो जाने का ख़तरा बना रहता है. उन्हें अपने से ज़्यादा अपने रिक्शे या ठेलिया की हिफ़ाज़त की चिंता भी होती है और चार दिन की चांदनी भी कैसी ? पतली चादर से बनायी गयी चारदीवारी की यह सुविधा भी तो बस लिफ़ाफ़ा होती है जो बदन चीरती ठंड से मामूली बचाव भी नहीं कर पाती. रही बात अलाव की तो लकड़ियां भी कम और वह भी गीली.कुल मिला कर हालत यह रही कि रैन बसेरे अमूमन वीरान बने रहे और वहां आवारा कुत्तों और छुट्टा जानवरों ने डेरा डाल दिया.सरकारी मदद से शुरू किये गये अस्थाई रैन बसेरों की सूची में तीन फ़र्ज़ी भी निकले.
कहते हैं कि ‘अस्थाई रैन बसेरे बेघरों की समस्या का हल नहीं हो सकते. 95 फ़ीसदी बेघर मेहनतकश हैं, फ़क़ीर या निराश्रित नहीं. वे अपनी मेहनत का सौदा करते हैं, गरिमा का नहीं. सोचना चाहिए कि उन्हें सर पर छत की ज़रूरत केवल सर्दियों में ही नहीं, गर्मी और बरसात में भी होती है.संविधान ने देश के सभी नागरिकों को जीने का अधिकार दिया है. शहरी बेघर भी इस देश के नागरिक हैं और उन्हें भी जीने का अधिकार है. इसके लिए सरकारों की घेराबंदी होनी चाहिए कि कम से कम हर बड़े शहर में सालों साल चलनेवाले स्थाई रैन बसेरों की व्यवस्था हो और जहां बिजली, पानी और शौचालय से लेकर स्वास्थ्य और सस्ते राशन तक की सुविधा हो.
तीन हफ़्ता चली विज्ञान फ़ाउंडेशन की इस मुहिम में एक ह्फ़्ते के लिए मैं भी हमसफ़र रहा.इस दौरान जो देखा और समझा,उसके हवाले से यही सवाल उभरा कि भाईचारे की तहज़ीब और इनसानी रवायतों की उम्दा मिसाल रहा यह शहर क्या सचमुच इतना ज़ालिम भी हो सकता है. महसूस किया कि क़ुदरत की बेरहम ठंडी मार जिन मुफ़लिसों की आंख से नींद चुरा लेती है, उनके लिए ऐसी रात काटना किस तरह क़यामत से गुज़रना होता है, कि पूरी रात करवटें बदलते रहने और बदन सिकोड़ कर ठंड को चकमा देने की फिज़ूल क़वायद का नाम हो जाती है.गहराते कोहरे के दरमियान कैमरे में क़ैद किये गये इस मंज़र की तसवीरें जैसे पूछती हैं कि यह गठरी है या कोई लेटा है.
सात रात की इस आवारगी में मुझे इनसानियत की मिसालें भी दिखीं और अहसान जताती फ़र्ज़ अदायगी का नाटक भी.यह वाक़या भी सुनने को मिला-ठिठुरन से भरी रात में कोई छुटभय्या नेता पैरों को पेट से सटा कर फुटपाथ पर सो रहे लोगों की मदद के लिए निकला.सांता क्लाज़ की तरह वह दबे पांव उन्हें कंबल उढ़ाता गया और पीछे से उसके शागिर्द उन कंबलों को वापस समेटते गये. लेकिन हां, पहले सीन की फ़ोटू ज़रूर खिंच गयी. इस तरह उसने दो साल बाद होनेवाले पार्षदी के चुनाव के मद्देनज़र अपना चेहरा चमकाने की शुरूआत ज़रूर कर दी.
इसी चक्कर में किसी दूसरे उभरते नेता ने अपने इलाक़े में फ़ुटपाथ पर रहनेवालों के बीच एक शाम पूड़ी-सब्ज़ी बंटवा दी गोया कि बेघर कोई भिखमंगे हों, किसी मंदिर के बाहर बैठे हों. पता यह भी चला कि तीन-चार संस्थाएं हर साल अस्थाई रैन बसेरों का ढांचा खड़ा करती हैं और उस पर अपना बैनर टांग कर बाक़ी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेती हैं और फिर झांकने के लिए भी नहीं लौटतीं.आराम से पुण्य लूटनेवालों की इस कतार में व्यापारिक संगठन और टेंट हाउस भी शामिल रहते हैं.
|
लखनऊ विधानसभा के सामने : यह गठ्हर नहीं जिन्दा इन्सान है |
लेकिन ख़ैर,इस तस्दीक से सुकून मिला कि बेघरों के बीच जाति-धर्म का कोई झमेला लगभग नहीं है. नाम से भले ही वे हिंदू-मुसलमान या बाभन-चमार हों, लेकिन यहां सब केवल परदेसी मज़दूर हैं— सबसे पहले और सबसे आख़ीर में बस मुसीबत के मारे हैं जिन्हें पेट की आग शहर का रास्ता सुझाती है और उन्हें मजबूरन बेघर बनाती है.उनके बीच दिखे सहयोग,विश्वास और साझेदारी की यही बुनियाद है. और हां, यह आम लोगों की भलमनसाहत का ‘क़ुसूर’ है कि ठंड से होनेवाली बेघरों की मौत अक़्सर दर्ज़ नहीं हो पाती. इसलिए कि लाश के अंतिम संस्कार के लिए चंदा जुटने में देर नहीं लगती और उसे कांधा देनेवाले मिल जाते हैं.प्रशासन लाश फूंकने-गाड़ने की तकलीफ़ उठाने से बच जाता है.
इस कड़ी में राकेश नाम के रिक्शा चालक का ज़िक्र किया जा सकता है. उनकी अपनी झुग्गी है यानी कहने भर को वे बेघरों की जमात से बाहर हैं लेकिन अपने आसपास के दूसरे मेहनतकशों की बेघरी के दर्द के अहसास से जुड़ कर उन्होंने चंदा बटोर कर सड़क किनारे 10-12 लोगों के सोने लायक़ छोटा सा रैन बसेरा खड़ा करने की क़ाबिले तारीफ़ पहल की.क्या पता कि हमदर्दी और साझी पहल की यह गरमाहट शहर की दूसरी जगहों पर भी उपजी हो जहां तक हमारी नज़रें नहीं पहुंच सकीं.ज़ाहिर है इसलिए कि वहां रैन बसेरे का कोई बैनर नहीं था.
इसलिए कि वहां अपनी पीठ ठोंकने की चाहत नहीं थी,उसकी कोई ज़रूरत ही नहीं थी.कितना अच्छा होता अगर शहर के ऐसे राकेशों की पहचान होती और उन्हें अस्थाई रैन बसेरे बनाने और चलाने का ज़िम्मा सौंप दिया जाता.लेकिन यह तो तभी होता जब सरकारी महकमे में बेघरों पर आनेवाले जानलेवा संकट को लेकर कोई बेचैनी होती. बेचैनी होती तो उससे निपटने की मुकम्मल तैयारी होती.लेकिन सरकारी अमले को महारानी की सालगिरह की तैयारी से ही फ़ुर्सत कहां थी.
इसी हज़रतगंज के कोने में उन नवाब आसफ़ुद्दौला का मक़बरा है जो अपनी रियाया के लिए इतना दरियादिल थे कि यह कहावत आम फ़हम हो गयी कि—‘जिसको ना दे मौला,उसको को दे आसफुद्दौला.’लखनऊ का इमामबाड़ा अकाल में राहत देने के लिए लागू की गयी उनकी रोजगार की योजना से बना,किसी शग़ल में नहीं.उन्हीं आसफ़ुद्दौला के मक़बरे के सामने की लंबी-चौड़ी जगह कभी विक्टोरिया पार्क नाम से जानी जाती थी.आज़ादी के बाद उसे उन बेगम हज़रत महल के नाम से जाना गया जिन्होंने गोरी हुक़ूमत के सामने घुटने टेकने से इनकार कर दिया था और जिसकी क़ीमत नवाबी शानो-शौक़त से हाथ धो कर चुकाई थी.लेकिन बसपा की पहली सरकार ने इसे परिवर्तन मैदान बना दिया.
ताजमहल यक़ीनन ख़ूबसूरत है लेकिन साहिर की इस नज़्म के चश्मे से देखिये तो फ़ालतू और ग़ैर ज़रूरी दिखता है कि ‘इक शंहशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल/हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़.’ और जब पता चलता है कि यह बेमिसाल इमारत कोई बीस हज़ार मज़दूरों की कुर्बानी से तामीर हुई तो बदसूरत और भुतहा नज़र आती है.तो दिन में गुलज़ार रहनेवाले और अब नये रंग-रोगन से दमकते हज़रतगंज की सड़कें कड़ाके की ठंडी रात में वीरान थीं, लेकिन उसके फ़ुटपाथ और खुले गलियारे बेघरों से उतने ही आबाद दिखे.
मशहूर मर्सियागो मीर अनीस साहब ख़ालिस लखनवी थे और अपने शहर पर जान छिड़कते थे.लेकिन न जाने क्यों और किस आलम में उन्होंने यह शेर भी कहा कि ‘कूफ़े से नज़र आते हैं किसी शहर के आदाब/डरता हूं वो शहर कहीं लखनऊ न हो.’(कहा जाता है कि कूफ़े में पैग़म्बर मोहम्मद साहब के ख़िलाफ़ साज़िश रची गयी थी और जिसने कर्बला को शहादतों का मैदान बना डाला)लगा कि गोया यह गुमनाम सा शेर आम फ़हम हो गया और चीख़ने लगा. लखनवी तहज़ीब के कुर्ते फाड़ने लगा. काश कि इस शेर की टीस मायूसी और बेबसी की तंग गलियों से निकले और दूर तलक पहुंचे. आमीन.
उम्र 53 साल. कोई दो दशक पहले अख़बारी नौकरी से छुट्टी. तब से वैकल्पिक मीडिया के क्षेत्र में सक्रियता और नये प्रयोगों की आज़माइश. न्याय और अधिकार के मोर्चों पर साझेदारी. उनसे awazlko@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.