अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन के लिए मुआवजे की राशि को थोड़ा ज्यादा बढ़ाकर उसे बाजार की मौजूदा दरों पर आधारित ‘उचित मुआवजा’कह देने भर से यह समस्या हल नहीं होने वाली...
एस. पी. शुक्ला
भारत की राजनीति पर इस वक्त जमीन का सवाल छाया हुआ है। इसे धुँधला करने,वाग्जाल में उलझा कर अस्पष्ट करने और इससे पीछा छुड़ाने की केन्द्र और राज्य की हर कोशिश बेकार साबित हुई है। देश में अनेक जगहों पर और ठेठ राजधानी की सरहदों पर ये सवाल बा-बार सिर उठा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमीन के सवाल पर होने वाले हिंसक विरोध भी तेजी से फैल रहे हैं।
भट्टा में तैनात रही पुलिस फोटो -जनज्वार |
विभिन्न परियोजनाओं के लिए अधिग्रहीत की गई जमीन के अनुचित मुआवजे का मसला; एसईजेड के खिलाफ जमे हुए मोर्चे और विभिन्न राज्यों में बड़ी औद्योगिक या खनन या ऊर्जा परियोजनाओं के खिलाफ एकजुट लोग; छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल में बड़े पूँजीपतियों द्वारा किए जा रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ उबलता जनविरोध;सारे देष में गरीब ग्रामीणों की एकमात्र आजीविका के साधन,जमीन से बड़े पैमाने पर की जा रही उनकी बेदखली और उसके खिलाफ जमा होता उनका असंतोष;ग्रामीण इलाकों से आजीविका छीन लिए जाने के बाद शहरों की झुग्गियों में जमा हो रहे गरीबों का गुस्सा; लंबे वक्त से खेती के क्षेत्र में जारी ठहराव की वजह से विस्थापन के लिए मजबूर और इन स्थितियों के खिलाफ एकजुट होते लोग; और बड़े पैमाने पर हुई किसानों की आत्महत्या व हर तरफ फैला कुपोषण-खासतौर से बच्चों और माँओं में -ये सारी चीजें जमीन के बुनियादी सवाल से जुड़ी हुई हैं और उसी सवाल को विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करती हैं।
इतने बड़े पैमाने पर लोग असंतुष्ट हैं और सरकार की प्रतिक्रिया इन मसलों पर न के बराबर रही है। जिन पहलुओं पर सरकार ने काफी देर बाद कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की भी,तब भी जमीन के व्यापक सवाल के आंशिक हिस्से से वो आगे नहीं बढ़ी। इसका सबसे ताजा और ज्वलंत उदाहरण 1894 के बने हुए भूमि अधिग्रहण कानून पर सरकार का प्रस्तावित संषोधन का कदम है। इस बारे में कोई दो राय नहीं कि यह कानून सिर्फ और सिर्फ हमारे गुलाम अतीत की एक धरोहर है।
अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन के लिए मुआवजे की राशि को थोड़ा ज्यादा बढ़ाकर उसे बाजार की मौजूदा दरों पर आधारित ‘उचित मुआवजा’ कह देने भर से यह समस्या हल नहीं होने वाली, न ही कॉरपोरेट सेक्टर के लिए अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन पर 30:70 का फॉर्मूला कामयाब होने वाला है। इस पूरे मसले की जड़ ’सार्वजनिक उद्देष्य‘ की ढीली-ढाली परिभाषा में छिपी है। इस ’सार्वजनिक उद्देष्य‘ को बहुत ही अस्पष्ट रखा गया है, जैसे कि ’देश की अधोसंरचना के विकास‘ को रखा गया था। इस सार्वजनिक उद्देष्य का दायरा इतना व्यापक है कि इसमें भूमि अधिग्रहण के तमाम प्रस्ताव वैधता पा सकते हैं।
वो भी इसलिए, क्योंकि इन प्रस्तावों को सुनियोजित तरीके से पब्लिक प्राइवेट पार्टिसिपेषन के तहत आगे बढ़ाया गया है। इससे गरीब किसानों की आजीविका का जो नुकसान होगा,उसे मुआवजे की कितनी भी ऊँची रकम या पुनर्वास के कितने भी कानूनी प्रावधान से पूरा नहीं किया जा सकता। इन छोटे और गरीब किसानों की आजीविका का एकमात्र सहारा जमीन ही रही है। ऐसा ही हाल ग्रामीण भारत के उन तबकों का भी है,जिनकी आजीविका का मुख्य जरिया या तो खेती है,या चरनोई की जमीन है, जिन पर बाजार की गिद्ध दृष्टि पड़ चुकी है।
पूरे देष में जोत की जमीन 1992-93 से लेकर 2002-03तक 12.5करोड़ हैक्टेयर से 10.7 करोड़ हैक्टेयर रह गई है। सबको याद होगा कि यह दौर नवउदारवादी आर्थिक सुधारों का पहला चरण था। यह अपने आप में सरकार द्वारा अपनाई जाने वाली किसान विरोधी नीति की एक सच्ची तस्वीर थी। और यह भी कि इसी दौर में सरकार ने किसानों के हितों के खिलाफ नीतियाँ बनाने और लागू करने की शुरुआत की थी। यह स्वीकार करने में दुःख होता है कि देष में लोगों को बेदखल करके अपना घर भरने की इस कारुणिक कहानी को लिखने और खेलने वाले हमारी अपने देष की सरकार और बाजार की ताकतें हैं। यह छोटे किसानों के दृष्य से गायब हो जाने की प्रक्रिया ही नहीं थी,बल्कि खाद्य सुरक्षा के मसले पर चेतावनी का उतना ही बड़ा संकेत भी थी।
जमीन के सवाल को असल में इसकी सारी पेचीदगियों के साथ हल करने के लिए हमारी अर्थव्यवस्था में कुछ बुनियादी बदलाव जरूरी हैं। यह जरूरी है कि 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून से उठे सवालों और उसमें प्रस्तावित संषोधन के कुछ पहलुओं पर विचार किया जाए,ताकि इस मसले पर एक ठोस और सही समझ कायम की जा सके। उसी समझ के आधार पर तात्कालिक कार्रवाई के पक्ष में जनसमर्थन जुटाया जा सकता है। ऐसी ठोस और सही समझ के जो बुनियादी बिंदु हमारी समझ से हो सकते हैं, वे निम्नलिखित हैं-
सन् 1894 का भूमि अधिग्रहण कानून और उसी जैसे अन्य कानून इसलिए गलत हैं, क्योंकि उनकी बुनियाद राज्य के संपूर्ण स्वामित्व यानी एमिनेंट डोमेन पर आधारित है;क्योंकि उनमें उल्लेखित सार्वजनिक उद्देष्य की परिभाषा बेहद ढीली-ढाली हैं; और इसलिए इन कानूनों की वजह से सरकार की वह भूमिका सवालों से परे हो जाती है, जब वह निजी कंपनियों और व्यापारिक हितों के लिए एजेंट का काम करने लगती है; क्योंकि यह कानून आदिवासियों और वन-भूमि पर आश्रित लोगों के लिए की गई संवैधानिक और कानूनी सुरक्षा का उल्लंघन करते हैं और उन प्रावधानों के आड़े आते हैं, जिससे आदिवासियों को अपनी जमीन ओर जीवन का हक मिलता है; क्योंकि यह कानून ग्राम सभा की उस सहमति की भी कोई अहमियत नहीं रखते, जो जमीन के हस्तांतरण या अधिग्रहण की एक बुनियादी शर्त बनाई गई है;और यह कानून उन लोगों की बेहतर जिंदगी और आजीविका के लिए किए गए उन प्रावधानों का भी कोई ध्यान नहीं रखते, जिनकी आजीविका जमीन के अधिग्रहण या हस्तांतरण से खतरे में पड़ सकती है। इसलिए होना ये चाहिए कि -
- 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून और उस जैसे अन्य कानूनों को पूरी तरह खत्म किया जाए
- खेती, जंगल, खनन और सामुदायिक जमीनों के कॉरपोरेट क्षेत्र को हस्तांतरण पर पूरी तरह रोक घोषित की जाए।
- कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग पर रोक लगाई जाए और कृषि भूमि का हस्तांतरण विदेषियों तथा अप्रवासी भारतीयों के लिए भी निषिद्ध किया जाए।
साथ ही यह भी कि एक मुकम्मल, जनकेंद्रित, पर्यावरणहितैषी और क्षेत्र विशेष के लिए उपयुक्त भूमि उपयोग का निर्धारण करने के लिए वैज्ञानिक आधारों वाली भूमि उपयोग नीति बनाने के लिए एक राष्ट्रीय भूमि उपयोग आयोग का गठन किया जाए। यह समिति जमीन को बाजार के खरीद-फरोख्त के दायरे से बाहर लाने के मकसद से काम करे। ऐसा करके ही उन सभी के लिए खाद्य सुरक्षा, जैव विविधता और बेहतर जिंदगी सुनिष्चित की जा सकती है, जिनकी आजीविका जमीन है।
(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी एनालिसिस के अध्यक्ष, भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव व वाणिज्य सचिव तथा योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं)
अनुवाद-विनीत तिवारी