Apr 18, 2011

अन्ना हजारे और इरोम शर्मिला


अपनी वैधता बनाये रखने के लिए कारपोरेट जगत विरोध के सीमित और नियंत्रित स्वरूपों को तैयार करता है ताकि कोई उग्र विरोध न पैदा हो सके जो उनकी बुनियाद और पूंजीवाद की संस्थाओं को हिला दे...

आनंद स्वरूप वर्मा

मणिपुर की इरोम शर्मिला 4 नवंबर 2000 से भूख हड़ताल पर हैं। पिछले साल उनकी भूख हड़ताल के 10 वर्ष पूरे हुए। उनकी मांग है कि आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर्स ऐक्ट समाप्त किया जाय जिसने मणिपुर को एक सैनिक छावनी का रूप दे दिया है। इस ऐक्ट की आड़ में मानव अधिकारों का अंतहीन हनन तो हो ही रहा है इसने सेना,पुलिस और नौकरशाही के स्तर पर जबर्दस्त भ्रष्टाचार को जन्म दिया है। इस अर्थ में देखें तो इरोम शर्मिला की लड़ाई अन्ना हजारे की लड़ाई से किसी मायने में कम नहीं है।

आज अन्ना हजारे के अनशन को कवर करने में लगे अराजनीतिक राजदीप सरदेसाई से लेकर किसी जमाने के धुर वामपंथी पुण्य प्रसून वाजपेयी की कैमरा टीम जो गला फाड़-फाड़ कर ‘दूसरी आजादी’का जश्न मना रही थी और जिसे अन्ना हजारे में गांधी से लेकर भगत सिंह के दर्शन हो रहे थे, वह उस समय कहां थी जब इरोम शर्मिला अपने बेहद कमजोर शरीर लेकिन फौलादी संकल्प के साथ जंतर मंतर में लेटी हुई थीं। आर्यसमाज से नक्सलवाद और जनता पार्टी से आर्यसमाज तथा फिर आर्यसमाज से माओवाद तक के घुमावदार रास्तों से चढ़ते उतरते किसी अज्ञात मंजिल की तलाश में भटक रहे स्वामी अग्निवेश को क्या कभी महसूस हुआ कि इरोम शर्मिला जिस मकसद के लिए लड़ रही हैं उसमें भी वह अपना योगदान कर सकते   हैं  ।

अन्ना हजारे और इरोम शर्मिला
बेशक अगर 2006 में टेलीविजन कैमरों की बटालियन वहां तैनात होती तो ढेर सारे कैमरोन्मुखी आंदोलनकारी वहां नजर आते। हिंसात्मक आंदोलनों की व्यर्थता को रेखांकित करने के मकसद से जो लोग यह प्रचारित करने में सारी ताकत लगा रहे हैं कि शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन के जरिए सरकार को झुकाया जा सकता है,जो अन्ना हजारे ने महज चार दिन में कर दिखाया. उनकी पीलियाग्रस्त आंखों से इरोम शर्मिला का 10 वर्षों से चलाया जा रहा शांतिपूर्ण आंदोलन क्यों नहीं दिखायी दे रहा है।

प्रख्यात बुद्धिजीवी नोम चोम्स्की ने काफी पहले अपने महत्वपूर्ण लेख ‘मैन्यूफैक्चरिंग कांसेंट’में बताया था कि किस प्रकार मीडिया जनमत को अपने ढंग से हांकता और आकार देता है। किस तरह से वह अपने वर्णनों, आख्यानों, झूठों और फरेबों को सच मानने के लिए जनमत को प्रेरित करता है। पिछले कुछ वर्षों से जब से भारत में टेलीविजन चैनलों की बाढ़ आ गयी है,हम इसकी मनमानी को देख और झेल रहे हैं। नोम चोम्स्की ने जहां मीडिया के इस पहलू को उजागर किया वहीं एक दूसरे बुद्धिजीवी,ओटावा विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर माइकेल चोसुदोवस्की ने ‘मैन्युफैक्चरिंग डिसेंट’ के जरिए बताया कि किस प्रकार आज के पूंजीवाद के लिए जरूरी है कि वह जनतंत्र के भ्रम को बनाये रखे।

उनका कहना है कि ‘कारपोरेट घरानों के एलीट वर्ग के हित में है कि वे विरोध और असहमति के स्वर को उस हद तक अपनी व्यवस्था का अंग बनाये रखें जब तक वे बनी बनायी सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरा न पैदा करें। इसका मकसद विद्रोह का दमन करना नहीं बल्कि प्रतिरोध आंदोलनों को अपने सांचे में ढालना होता है। अपनी वैधता बनाये रखने के लिए कारपोरेट जगत विरोध के सीमित और नियंत्रित स्वरूपों को तैयार करता है ताकि कोई उग्र विरोध न पैदा हो सके जो उनकी बुनियाद और पूंजीवाद की संस्थाओं को हिला दे।’दूसरे शब्दों में कहें तो ‘डिसेंट’ (असहमति) को मैन्युफैक्चर (निर्माण) करने का मकसद अपनी व्यवस्था को बचाये रखने के लिए सेफ्टी वॉल्व तैयार करना है।

अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के जिस मुद्दे को उठाया वह निश्चित तौर पर एक ऐसा मुद्दा था जिसके लिए आंदोलन की वस्तुगत स्थितियां पूरी तरह तैयार थीं और जिससे हर तबके के लोग घुटन महसूस कर रहे थे। फिर भी यह मुद्दा ऐसा नहीं था जो व्यवस्था की चूलें हिला देता और जिसे चैनलों ने इस तरह पेश किया गोया कोई मुक्ति आंदोलन चल रहा हो। क्रिकेट वर्ल्ड कप के दौरान अंधराष्ट्रवाद फैलाने की होड़ में लगे मीडिया बांकुरों ने अचानक एक ऐसा मुद्दा पा लिया जिस पर वे चौबीसो घंटे शोर कर सकें।

सैकड़ों की भीड़ को हजारों की भीड़ बताकर और लोकपाल विधेयक  के बरक्स जनलोकपाल विधेयक को नये संविधान निर्माण जैसा दिखा कर इन्होंने अन्ना हजारे के कद को इतना ऊंचा करना चाहा जितना कि खुद उन्होंने भी कल्पना नहीं की थी। पूरे देश में तो नहीं लेकिन दिल्ली और बंबई सहित प्रमुख शहरों में जहां इन चैनलों को देखा जा रहा था लोगों के अंदर इस ‘दूसरे स्वतंत्रता आंदोलन’में भाग लेने की होड़ पैदा की गयी और इसमें  चैनलों को सफलता भी मिली।

इस पूरे प्रकरण में कुछ बातें, जो अब तक धुंधले  रूप में सामने आती थीं बहुत खुलकर दिखायी देने लगीं। देश की 80 प्रतिशत आबादी के प्रति उपेक्षा का भाव रखने वाले इन कारपोरेटधर्मी चैनलों ने किन लोगों को सबसे ज्यादा उद्वेलित किया। अन्ना हजारे के समर्थन में जिन लोगों ने आवाजें उठायीं उनके नामों को देखें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के स्वर में स्वर मिलाने वालों का पाखंड खुद ही सामने आ जाएगा। ये नाम हैं अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन, रितिक रोशन, फरहान अख्तर, प्रियंका चोपड़ा, मधुर  भंडारकर, अनुपम खेर, रितेश देशमुख, शाहिद कपूर, बिपासा बसु, जूही चावला, राहुल बोस, विवेक ओबेराय, दिया मिर्जा, प्रतीश नंदी, आदि आदि।

ये बंबई के फिल्म जगत के लोग थे जिन्हें इतना तो पता है कि बॉलीवुड में काले धन की क्या भूमिका है पर जिनमें से 90प्रतिशत लोगों को मालूम ही नहीं होगा कि लोकपाल विधेयक /जन लोकपाल विधेयक है क्या। इन लोगों पर चैनलों द्वारा पैदा किए गए हिस्टीरिया का प्रभाव था। जेल में सजा काट रहे बिहार के माफिया पप्पू यादव ने अन्ना के समर्थन में अनशन शुरू किया। गजब का समां था- नरेंद्र मोदी की बिरादरी से लेकर भाकपा-माले (लिबरेशन) सब अन्ना के समर्थन में बदहवास जंतर मंतर पहुंचे।

लेकिन अन्ना हजारे को समर्थन देने वालों में जब देश के कॉरपोरेट घरानों की सूची पर निगाह गयी तो लगा कि सारा कुछ वैसा ही नहीं है जैसा दिखायी दे रहा है। कॉरपोरेट घरानों से जो लोग अन्ना के समर्थन में खुलकर सामने आये वे थे बजाज ऑटो के चेयरमैन राहुल बजाज,गोदरेज ग्रुप के चेयरमैन आदि गोदरेज,महिंद्रा एंड महिंद्रा के ऑटोमोटिव ऐण्ड फार्म इक्विपमेंट सेक्टर के अध्यक्ष पवन गोयनका,हीरो कारपोरेट सर्विसेज के चेयरमैन सुनील मुंजाल,फिक्की के डायरेक्टर जनरल राजीव कुमार, एसोचाम के अध्यक्ष दिलीप मोदी तथा अन्य छोटे मोटे व्यापारिक घराने।

हो सकता है कि यह अनशन कुछ और दिनों तक चलता तो भ्रष्टाचार विरोधी इस महायज्ञ में आहुति डालने मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी भी पहुंच जाते। जो लोग यह सवाल करते हैं कि अन्ना के आंदोलन के लिए पैसे कहां से आ रहे हैं या कहां से आयेंगे अथवा एनजीओ सेक्टर की क्या भूमिका है, उनकी मासूमियत पर तरस आता है। अन्ना से पूछो तो उनका यही जवाब होगा कि जनता पैसे देगी लेकिन इस विरोध का निर्माण करने वाली शक्तियां इनकी फंडिंग की भी व्यवस्था करती हैं।

एक बार फिर हम माइकेल चोसुदोवस्की के लेख की उन पंक्तियों को देखें जिसमें उन्होंने कहा है कि विरोध की ‘फंडिंग’का मतलब है ‘विरोध आंदोलन के निशाने पर जो लोग हैं उनसे वित्तीय संसाधनों को उन तक पहुंचाने की व्यवस्था करना जो विरोध आंदोलनों को संगठित कर रहे हैं। किसी व्यापक जनआंदोलन की आशंका का मुकाबला करने के लिए ‘मुद्दा आधारित’ विरोध आंदोलन को बढ़ावा दिया जाता है और इसके लिए धनराशि जुटायी जाती है।’अपने इस लेख में उन्होंने यह भी बताया है कि किस तरह सत्ता के भीतरी घेरे में ‘सिविल सोसायटी’ के नेताओं को शामिल किया जाय।

पिछले कुछ वर्षों से इस व्यवस्था को चलाने वाली ताकतें इस बात से बहुत चिंतित हैं कि भारत के मध्य वर्ग और खासतौर पर शहरी मध्य वर्ग का रुझान तेजी से रेडिकल राजनीति की तरफ हो रहा है और उसे वापस पटरी पर लाने के लिए देश के स्तर पर कोई ऐसा नेतृत्व नहीं है जिसकी स्वच्छ छवि हो और जिसे राजनीतिक निहित स्वार्थों से ऊपर उठा हुआ चित्रित किया जा सके। अन्ना हजारे के रूप में उसे एक ऐसा व्यक्ति मिल गया है जिसके नेतृत्व को अगर कायदे से प्रोजेक्ट किया जाय तो वह तेजी से रेडिकल हो रही राजनीति पर रोक लगा सकता है। इसमें सत्ताधारी वर्ग, जिसमें देश के कारपोरेट घराने तो हैं ही, मध्य वर्ग का ऊपरी तबका भी है, का हित पूरी तरह जुड़ा हुआ है।

अन्ना हजारे के मंच पर दिखने वाले प्रतीक पहली नजर में हिंदुत्ववाद का एहसास कराते हैं। एक समाचार के अनुसार आर एस एस के महासचिव सुरेश जोशी ने अन्ना हजारे को अपना समर्थन व्यक्त करते हुए एक पत्र लिखा जिसे संगठन के प्रवक्ता राम माधव ने उन तक पहुंचाया। यह अनायास ही नहीं है कि 24 मार्च को भाजपा नेता वेंकैया नायडू ने एक वक्तव्य में कहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद के लिए आज जेपी जैसे एक नेता की जरूरत है। जंतर मंतर से उत्साहित अन्ना की योजना है पूरे देश में सभाएं करने और किसी बड़े आंदोलन की भूमिका तैयार करने की। ऐसे में चार दिनों के अनशन और उससे पैदा सवालों पर गंभीरता से विचार करना बहुत जरूरी है।



जनपक्षधर पत्रकारिता के महत्वपूर्ण स्तंभ और मासिक पत्रिका 'समकालीन तीसरी दुनिया' के संपादक. यह लेख वहीं से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.