Apr 15, 2017

वो कौन लोग हैं जो अंबेडकर का नापतोल कर रहे हैं

असली काम तो संविधान सभा के अध्यक्ष  डॉ राजेंद्र प्रसाद का था। संविधान की रचना में अम्बेडकर के योगदान का नापतोल किया जा रहा है। गोया डॉ अम्बेडकर महज एक सदस्य भर थे.... 

नारायण बारेठ, राजनीतिक विश्लेषक


क्या वे संविधान  के मुख्य शिल्पी थे? उन्हें श्रेय क्यों दें? डॉ भीमराव अम्बेडकर की 126वीं जयंती पर यह सवाल रह रह कर उठाया गया है।

किसी ने पूछा 'फिर और लोग क्या कर रहे थे /किसी की दलील है असली काम तो संविधान सभा के अध्यक्ष  डॉ राजेंद्र प्रसाद का था। इसमें संविधान की रचना में अम्बेडकर के योगदान का नापतोल किया जा रहा है। गोया डॉ अम्बेडकर महज एक सदस्य भर थे।

काश हम इतिहास के पन्नों से रहगुजर होते तो ऐसा नहीं सोचते। क्योंकि उन पन्नों में उस दौर की हकीकत और हालात दर्ज है। संविधान सभा के सदस्य स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों से ओतप्रोत थे। वे हमारी तरह बंटे हुए नहीं थे। उनकी आँखों में हमारे लिए आज़ाद भारत के सुनहरे ख्वाब थे। 

खुद डॉ राजेंद्र प्रसाद ने संविधान पर मुहर लगने के बाद अपने भाषण में अम्बेडकर को माननीय कहकर सम्बोधित किया और सविंधान निर्माण  में उनके अहम किरदार को रेखांकित किया। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा डॉ अम्बेडकर ने प्रारूप समीति के अध्यक्ष के रूप में उल्लेखनीय काम किया है। 'डॉ अम्बेडकर ने अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं की, उनके प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष बनने से उस समीति की आभा बढ़ी.' डॉ  राजेंद्र प्रसाद।

डॉ अम्बेडकर संविधान सभा के लिए कितने महत्वपूर्ण और उपयोगी थे, इसका पता तब चला जब बंगाल विभाजित हो गया और डॉ अम्बेडकर संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे। क्योंकि वे बंगाल के उस भाग से चुने गए थे जो उधर चला गया। उस वक्त मुंबई के एम आर जयकार ने संविधान सभा में सीट खाली की / डॉ राजेंद्र प्रसाद ने तुरंत मुंबई प्रान्त  के मुख्यमंत्री बी जी खेर को चिठ्ठी लिखी और डॉ अम्बेडकर को मुंबई से सविंधान सभा प्रतिनिधि बनाने को कहा। चिट्ठी में लिखा—

'और बातों को छोड़िये। डॉ अम्बेडकर ने सविंधान सभा और उसकी बहुत सी कमेटियों में जोरदार काम किया है। हमें उनके इस योगदान की जरूरत है। आपको पता है वे बंगाल से चुने गए थे। बंगाल के बंटवारे से वे संविधान सभा के मेंबर नहीं रहे। लिहाजा उन्हें तुरंत मुंबई से चुना जाये. '

Apart from any other consideration we have found Dr. Ambedkar’s work both in Constituent Assembly and the various committees to which he was appointed to be of such an order as to require that we should not be deprived of his services. As you know, he was elected from Bengal and after the division of the province he was ceased to be a member of the Constituent Assembly commencing from the 14th July 1947 and it is therefore necessary that he should be elected immediately.”

सरदार पटेल भी इसी तर्ज पर सक्रिय हुए और बी जी खेर और जी पी मावलंकर पर अपना प्रभाव इस्तेमाल किया/ताकि अम्बेडकर मुंबई से सविंधान सभा के प्रतिनिधि के रूप में चुन कर आ सके। क्योंकि जयकार की जगह इन दोनों की दावेदारी मानी जा रही थी।

अमेरिका के स्व. प्रोफेसर ग्रैनविल ऑस्टिन को भारतीय संविधान का विद्वान माना जाता है। उन्होंने संविधान  पर किताबें लिखी है। भारत ने भी उनके इस योगदान को सलाम किया और पदम्श्री से सम्मानित किया। प्रोफेसर ऑस्टिन ने संविधान  में अम्बेडकर के योगदान की सराहना की और कहा, 'अम्बेडकर द्वारा प्रारूपित भारतीय संविधान सबसे अहम और सबसे पहले एक सामाजिक दस्तावेज  है  (first and foermost a social document) जिसके बहुतेरे प्रावधान सामाजिक क्रांति की मंजिल तक पहुंचने का मकसद रखते हैं।

क्या अब भी हम उस हस्ती को श्रेय देने में संकोच करेंगे?

वैसे वही संविधान आपको भी अधिकार देता है चाहे तो अम्बेडकर को उनके अहम योगदान पर श्रेय दो या ख़ारिज कर दो।
editorjanjwar@gmail.com 

दलितों को बेइज्जत कर 'इज्जत' देने की परंपरा कब बंद होगी

जनज्वार। अक्सर ऐसा होता है कि जब कोई सवर्ण नेता किसी दलित के घर में या साथ में खाना खाता है तो खबर बनती है। अखबार और टीवी वाले उस न्यूज को प्राथमिकता से फ्लैश करते हैं? साथ में बैठे खाना खाने वाले दलित की फोटो को वह तरह—तरह से हाईलाइट करते हैं। बकायदा जोर देकर बताते हैं कि यह ऐतिहासिक है कि फलां बड़े नेता ने आज दलित के साथ बैठकर खाना खाया। 



गोया दलित इंसान नहीं जानवर हों! इक्कीसवीं सदी में भी दलित के साथ खाना एक प्रचार, एक आश्चर्य और सबसे बढ़कर जातिगत अहसान की तरह है। 

हद तो तब हो गयी जब 14 अप्रैल को आंबेडकर जयंती के मौके पर भी जब यही अहसान मीडिया और भाजपा ने गाया—गुनगुनाया।

कल 14 अप्रैल को डॉ आंबेडकर का 126वां जन्मदिन था। देश के सभी इलाकों में आंबेडकर के अनुयायियों और समर्थकों द्वारा उनका जन्मदिन मनाया गया। अनुयायियों ने आंबेडकर का जन्मदिन इस संकल्प के साथ मनाया कि वे उनके बताए राजनीतिक सिद्धांतों और मुल्यों को जीवन में अपनाएंगें और दूसरों को प्रेरित करेंगे। 

आंबेडकर की जन्मस्थली मध्यप्रदेश में महू में भी एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में हुए भोज के दौरान प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, राज्य सरकार के कुछ मंत्री और मुंबई की सांसद व भारतीय जनता युवा मोर्चा की अध्यक्ष पूनम महाजन भी शामिल हुईं।

कार्यक्रम के भोज की एक तस्वीर छपी जिसको भाजपा ने अपने आधिकारिक ट्वीटर हैं​डल पर शेयर किया।

इस तस्वीर में दलितों के यहां खाने का नाटक एक कदम और आगे बढ़ा है। अबकी भाजपा सांसद पूनम महाजन ने दलित के हाथ से खाना खाया और अखबार में कैप्शन छपा है, 'द​लित के हाथों सांसद ने खाना खाया, मुख्यमंत्री—मंत्री भी थे साथ में।'

गौर करने वाली बात यह है कि पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को दलित ने खाना नहीं खिलाया बल्कि ब्राम्हण पूनम महाजन को खिलाया। 

बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच संयोजक कुलदीप बौद्ध कहते हैं, 'अखबार में छपा कैप्शन जहां पत्रकारिता में पसरी जातीय भावना को साफ करता है, वहीं भाजपा द्वारा उस तस्वीर को ट्वीटर के जरिए प्रसारित करना बताता है कि भाजपा दलितों की बराबरी की बात चाहे जितनी कर ले उसकी मानसिकता गैर—बराबरी वाली ही है।'

बसपा प्रवक्ता रितु सिंह की राय में, 'इस तरह की खबरें दलितों को बेइज्जत कर न सिर्फ इज्जत देने का दिखावा करती हैं, बल्कि यह दलित अस्मिता पर हमला भी है। ऐसी खबरों का ढोल—नगाड़ों के साथ छपना बंद होना चाहिए। मोदी जी को सबसे पहले मन की बात अपने कार्यकर्ताओं के लिए करना चाहिए कि वह जातिगत मानसिकता से उबरें, सिर्फ फोटो न खिचाएं।'

गौरतलब है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने 2013 में महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्टूबर के दिन कांग्रेसी नेताओं के साथ तीन सौ दलित परिवारों के घर रात बिताई और सहभोज का लुत्फ उठाया था तो पिछले वर्ष भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दलित के यहां भोजन कर सुर्खियां बटोरी थीं।  

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी : दलित के घर दावत

कश्मीरियों की जान ले सकती हैं बंदूकें पर उनका दिल नहीं जीत सकतीं

श्रीनगर के हालातों पर सुनील कुमार की रिपोर्ट

जिस तरह एक कश्मीरी नौजवान को सुरक्षाबल गाड़ी के बोनट पर बांध कर घुमा रहे हैं उससे साफ है कि सरकार श्रीनगर के 7 फीसदी वोट से अभी चेती नहीं। ऐसे में सवाल यह है कि वहां के किशारों में भारत के प्रति नफरत भरने का काम सरकार खुद क्यों कर रही है? 



यह सवाल श्रीनगर में हुए उपचुनाव के बाद और महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि इतना कम वोट तो उस समय भी नहीं पड़ा था जब वहां आतंकवादी गतिविधियां चरम पर थीं और अतिवादियों का जमीनी स्तर पर जनता के बीच व्यापक असर था।

कश्मीर घाटी में दो लोकसभा सीटों श्रीनगर और अनंतनाग पर उपचुनाव होना था। एक सीट महबूबा मुफ्ती के अनंतनाग सीट पर इस्तीफा देने से खाली हुई थी और दूसरी श्रीनगर बड़गाम लोकसभा की थी। श्रीनगर की सीट इसलिए खाली हुई कि सांसद तारिक हामिद कारा ने अपनी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और संसद सदस्यता दोनों से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने इस्तीफा पार्टी के जनविरोधी नीतियों से तंग आकर दिया था। 

श्रीनगर लोकसभा सीट पर 9 अप्रैल को चुनाव हुआ तथा अनंतनाग सीट पर 12 अप्रैल को चुनाव होना था। यह चुनाव इसलिए महत्वूपर्ण था कि राज्य में संयुक्त मोर्चे की सरकार को ढाई साल हो चुके हैं और कश्मीर घाटी में होने वाले प्रदर्शनों के बाद पहला चुनाव था।

एक तरह से कश्मीरी जनता और सरकार दोनों के लिये यह परीक्षा की घड़ी थी। कश्मीर में हो रहे प्रदर्शन को भारत सरकार कहती थी अलगाववादियों द्वारा राज्य में पैसे बांट कर प्रदर्शन कराये जा रहे हैं। यहां तक की नोटबंदी के दौरान उस समय के रक्षा मंत्री रहे मनोहर पार्निकर ने कह दिया कि नोटबंदी से कश्मीर में पत्थरबाजी बंद हो गई है।

लेकिन श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव में ​​करीब 7 फीसदी ​के वाटिंग सरकार के मुंह पर करारा तमाचा है जो जनता की भावनाओं को समझ नहीं पाई। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है।

श्रीनगर लोकसभा चुनाव के आंकड़े पर नजर डालें तो 1998 में 30.1 प्रतिशत, 1999 में 11.9 प्रतिशत, 2004 में 18.6 प्रतिशत, 2009 में 25.6 प्रतिशत, 2014 में 25.9 प्रतिशत ही मतदान हुये हैं यानी बहुसंख्यक जनता ने भारत के ‘लोकतंत्र’ में आस्था नहीं दिखाई है।

इस बार के उपचुनाव में भारतीय ‘लोकतंत्र’ में आस्था रखने वाले लोगों में और कमी आई है और मतदान का प्रतिशत 6.5 प्रतिशत तक सिमट कर रह गया।

इसके उलटे वहां के विधानसभा चुनाव में लोगों ने मतदान किया है 1996 के विधानसभा चुनाव में 53.9 प्रतिशत, 2002 में 45.0 प्रतिशत, 2008 में 60.6 प्रतिशत तथा 2014 के चुनाव में 65.23 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि दिल्ली की संसद में लोगों की उतनी दिलचस्पी नहीं है जितना उनकी अपनी विधानसभा में।

यह चुनाव राजनीतिक दलों, भारत सरकार और राज्य सरकार के लिये भी महत्वपूर्ण है जहां सरकार की तीन साल की कार्यशैली के लिये जनादेश माना जा सकता है वहीं विपक्षी पार्टी कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिये भी महत्वपूर्ण था कि इन दोनों पार्टी के साझा उम्मीदवार भूतपूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला स्वयं थे; यानी जो भी भारत की संसदीय पार्टी है इस चुनाव में अपनी आस्था प्रकट किया था फिर भी करीब 12 लाख 60 हजार मतदाताओं में से करीब 80 हजार मतदाताओं ने ही वोट डाले। लोगों ने साफ संदेश देने की कोशिश की है कि बुलेट और बैलेट साथ साथ नहीं चल सकता है।

गृह मंत्रालय अभी भी समस्याओं से मुंह छिपाते हुये इस स्थिति के लिए चुनाव आयोग जिम्मेदार मान रहा है। उन गालियों, हत्याओं और सरकार के खिलाफ बनते झुकाव को नहीं।

मंत्रालय के अनुसार उपचुनाव पंचायत चुनाव के बाद किया जाना चाहिये लेकिन चुनाव आयोग ने उसके सुझाव को अनदेखी करते हुये श्रीनगर और अनंतनाग का उपचुनाव 9 और 12 अप्रैल की घोषणा कर दी। गृहमंत्रालय ने 9 अप्रैल का चुनाव सम्पन्न कराने के लिये तीस हजार, अतिरिक्त अर्धसैनिक बल दिये थे फिर भी इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हुई जिसमें 8 लोगों की जानें गई और 150 से ज्यादा लोग घायल हुये।

गृहमंत्रालय के अुनसार 1500 मतदान केन्द्र बनाए गये थे जिसमें से 120 पोलिंग बूथ में तोड़-फोड़ हुई और 24 ईवीएम मशीन लूटी गई, 190 जगह पत्थर फेंकने की हिंसक वादरात हुई। हिंसा की वजह से 38 पोलिंग बूथ पर दुबारा 13 अप्रैल को चुनाव कराया गया जिसमें 35169 मतदाता में से 709 मतदाताओं यानी दो प्रतिशत लोगों ने ही वोट डाला।

इसका मतलब है कि 10 फीसदी से भी कम जगहों मतदाता हिंसक हुए लेकिन ज्यादातर जगहों पर लोगों ने शांतिपूर्वक तरीके से इस उपचुनाव को नकार दिया।

मिलिटेंसी के दौर में भी कश्मीर में मत प्रतिशत इतना कम नहीं रहा है। चुनाव के बाद 10 अप्रैल को भी घाटी में बाजार, स्कूल व सरकारी दफ्तरें बंद रहें। वहां तैनात एक अफसर के अनुसार पिछले पन्द्रह सालों में इतनी हिंसा की वारदात एक दिन में नहीं हुई है। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि बीस साल की राजनीतिक जीवन में चुनाव की इससे बदतर हालत उन्हांने देखा है इसके साथ ही वह केन्द्र व राज्य सरकार के साथ-साथ चुनाव आयोग को फेल बताया।

श्रीनगर के उपचुनाव के हालात को देखते हुये चुनाव आयोग अनंतनाग उपचुनाव को 12 अप्रैल से टालकर 25 मई कर दिया है। यह सीट महबूबा मुफ्ती के लिये भी नाक का सवाल है, इस सीट से महबूबा के भाई तसादुक हुसैन मुफ्ती चुनाव लड़ रहे हैं और इसी के सहारे दिल्ली के पार्लियामेंट तक पहुंचना चाहते हैं।

अब देखना होगा कि सरकार, चुनाव आयोग की क्या रणनीति होती है। इस चुनाव का फैसला चाहे जो भी आये लेकिन कश्मीरी जनता ने यह साफ संदेश देने की कोशिश की है कि बातचीत की जगह अगर बंदूक से उनकी आवाज को दबाया जायेगा तो वह इसका जवाब अपने तरीके से देने के लिये तैयार हैं।
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