Nov 19, 2010

प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक

हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील तबके का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न संस्थानों में  है। इनमें से कई दिग्गजों का वेतन एक लाख रूपए प्रति महीने है। ये वही साहित्यकार हैं जो जनवादी लेखक संगठनों में हाय जनवाद करते रहते हैं और अपनी रचना में जनवाद की दावेदारी करते हैं।

अंजनी कुमार

हिन्दी साहित्य में उभर चुकी जिन प्रवृतियों के बारे में वरिष्ठ लेखक आनंद प्रकाश ने चिंता जाहिर की है उसके राजनीतिक अर्थशास्त्र की बात करते हुए, स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह उत्पादन की व्यवस्था के भीतर अन्य साधनों की तरह ही माल उत्पादक और संस्थागत हो चुका है।

अधिरचना का यह हिस्सा आधार के साथ सिर्फ अन्तरक्रिया ही नहीं कर रहा बल्कि हिन्दी को एक टूल की तरह प्रयोग में लाया गया और शिक्षण संस्थानों के बाहर बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संस्थानों में राजभाषा कार्यालय खोले गए। इन सार्वजनिक संस्थानों की अपनी हिन्दी पत्रिका होती थी लेकिन इन कार्यस्थलों पर हिन्दी की उपस्थिति साहित्य सृजन के उद्देश्य से नहीं थी। यह भाषा सिर्फ बाजार को विस्तारित करते हुए बेचने की प्रक्रिया का हिस्सा बनी।

निश्चय ही इसके लिए पूंजी निवेश किया गया। इन संस्थानों को आपस में मिलाया गया। एक प्रक्रिया के तहत उसे साहित्य के अकादमिक जगत तक ले जाया गया। इस तरह के हिन्दी संस्थानों के चलते ही आज अनुवाद एक उद्योग बन चुका है जहां उत्पादन हमारी इच्छा से नहीं उनकी जरूरत के हिसाब से हो रहा है।

हिन्दी भाषा के इस कथित विकास में अंग्रेजी समानार्थी चयन के साथ ही वह सांस्कृतिक परिवेश निर्मित होना शुरू हुआ जहां से जनपदीय या राष्ट्रीय भाषाओं-व्यवहारों का निष्काशन लगातार जारी रहा। यह निष्काशन वहां के परिवेश व लोगों के प्रति भी बनता गया। अपने ही देश के विविध जीवन, समाज व राजनीति का यह निष्काषन इस हद तक गया कि राष्ट्रभाषा हिन्दी उलटकर हिन्दी भाषी राष्ट्र हो गया।

यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि वैश्वीकरण के ठीक आरम्भिक दौर में ही जनपदीय भाषा के प्रयोग के आधार पर चमत्कार पैदा करने वाले साहित्यकारों की बाढ़ आ गयी। शोध के संस्थान और हिन्दी अकादिमिशियनों की भरमार हो गई। जबकि उसके ठीक पहले के दशकों में स्थानियता का आरोप लगाकर उभर रहे रचनाकारों की मिट्टी पलीत की गयी। बहरहाल हिन्दी के इस राष्ट्रीय समाज के चिंतन के पीछे इस बाजार के इस अर्थशास्त्र के बारे में बात करना जरूरी था।

आमतौर पर यह स्वीकृत है कि साहित्य समाज का दर्पण है और इसके आगे चलने वाली मशाल है। इसके वर्गीय अवधारणा के आधार पर प्रगतिशील,जनवादी,जनसंस्कृति जैसे नाम देकर साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन बनाए गए। ये सांस्कृतिक संस्थान इस बात की स्वीकृति थे कि वे समाज को आगे ले जाने वाली सामुहिक चेतना,निर्णय व कार्यवाई के अगुआ हैं। कह सकते हैं कि ये ज्ञान की उस दोहरी प्रक्रिया के केन्द्र थे जहां से समाज की सामुहिक इच्छा को गतिशील और हालात को बदलने की वस्तुगत स्थितियां निर्मित होनी थीं, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।

ये एक ऐसे जड़ निर्णय के केन्द्र बनते गए जहां सारा जोर सरकारी साहित्य संस्थानों,हिन्दी विभागों और हिन्दी अखबारों पत्रिकाओं को प्रभावित करना बन गया। सारा जोर साहित्य,संस्थान व सम्मान के घालमेल से व्यक्ति व संगठन को मजबूत कर लेना बन गया। नए लेखकों का जमाव घनत्व प्रगतिशीलता की आड़ में विभिन्न संगठनों के बाजार में पहुंच के आधार पर बनने लगा। और सारा झगड़ा इसी के आसपास होने या रचा जाने लगा। यह भटकाव है,यह कहना सरलीकरण और इसे दुरूस्त करने की राह में दिवार खड़ा करने जैसा होगा।

हाल ही में उभरकर आए कथित रूप से चर्चित एक कवि का एक संकलन आया हैं। इस कवि ने सायास इराक, अमेरीका व वैश्वीकरण का जिक्र अपनी कविताओं में कई जगह किया है। वह जानता है कि इनका विरोध प्रगतिशीलता है। वह इस तरह प्रगतिशील युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कवि हो जाता है। वह प्रलेस से लेकर जलेस तक का हिस्सा बनता है और साथ ही विभिन्न रचनाकारों के लेख संपादित कर न केवल उन लेखकों का दिल जीतता है साथ ही वह रचनाकार व चिंतक के बतौर अपने नाम किताबों की एक लंबी फेहरिस्त हासिल कर लेता है।

वह एक ऐसा योग्य साहित्यकार है जो हिन्दी विभाग में प्रोफेसर, साहित्य संस्थान का सदस्य, किसी अखबार पत्रिका का साहित्य सलाहकार और प्रगतिशील चिंतन का अगुआ बन सकता है। उदाहरण के तौर पर उद्धृत कवि जितनी आसानी से वर्गीय अवधारणा से परे साहित्य संस्थानों में तैरते हुए आरपार जाता है उसके पीछे सिर्फ उसका अवसरवाद नहीं है। यह संस्थानों की वह भूमिका भी है जहां से बाजार के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन भी किया जा रहा है। और जिसके लिए साहित्यकार सृजन व जोड़तोड़ की होड़ लगाए हुए हैं कि विभाग के कोर्स में उसकी किताब लग जाय या प्र्र्र्रस्तावित पुस्तक सूची में उसका नाम आ जाय।

हिन्दी साहित्य के संस्थान मुख्यतः विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग,सरकारी साहित्य व समाज शोध संस्थान व प्रकाशन समूह एक ऐसे तंत्र को निर्मित करते हैं जिसके केन्द्र में राज्य व सरकार है और जिसका क्षेत्र वैश्वीकृत बाजार है। यहां मूल मसला लेखक व वर्गीय राजनीति का दावा करने वाले लेखक संगठनों का है कि वह इस बाजार और राज्य के तंत्र के बारे में क्या रवैया रखते हैं। इसे देखने के लिए उनके प्रकाशनों को देख सकते हैं। 1990 के बाद हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं व संगठनों ने समय समय पर वैश्वीकरण पर विशेषांक व लेख छापते रहे हैं। एक दो लेखकों को छोड़कर अधिकांश लेखकों ने वैश्वीकरण की तीखी आलोचना करते हुए विश्व बंधुत्व की अवधारणा पर जोर दिया और यह जताने का प्रयास किया कि प्राचीन भारतीय अवधारणा अमेरीका से श्रेष्ठ थी।

ज्ञान, चिंतन व संस्कृति के विकास में इसके अवदान पर सकारात्मक बातें की गई। विकास के लिए सही पूंजी निवेश के तर्क को रखा गया। और यह बड़े बड़े आंकड़ों व पूरे पेज के चार्ट से बताया गया कि वैश्वीकरण से किसान,दलित व मजदूर तबाह हो रहे हैं। साहित्य के गैर सरकारी व सरकारी संस्थान इस प्रचलित अवधारणा को स्वीकार करने, इस आधार पर सम्मानित करने व इसे बेचते हुए उस मानस को निर्मित कर रहे थे जो बाजार में रहते हुए उत्पादकों से अलगाव बनाए रखें। यह चिंतन की एक ऐसी खंडित प्रक्रिया थी जिसमें वस्तुगत स्थितियों का दुहराव व टिप्पणियां तो थी लेकिन ज्ञान व संवेदन के आपसी रिश्ते व प्रक्रिया का निष्काषन या अभाव था।

वैश्वीकरण की संपूर्ण व्यवस्था का नकार आम जन,उसकी सामुहिक चेतना,उसकी इच्छा व निर्णय और विश्व व राष्ट्रीय इतिहास को आगे ले जाने की पहलकदमी की मशाल बन जाने के लिए जिस संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञानात्मक संवेदन की दोहरी प्रकिया की जरूरत थी उसे ये संगठन या तो उसे बाजार के बर्फिले पानी में डुबो दिए या एक ऐसे अवसरवाद में फंस गए जहां उनका एक पैर सरकारी संस्थान में धंस चुका है जबकि दूसरे पर गांव की थोड़ी गर्द बाकी है।

इन्हीं हालातों के चलते किसान आदिवासी मजदूर दलित स्त्री बच्चे और गांव व शहर के बदलते जीवन को चित्रित करने वाली कविताओं,कहानियों उपन्यासों का अभाव होता गया। पूंजीवाद व इससे जनित युद्ध की तबाही से निकाल कर समाजवाद-साम्यवाद की मार्क्सवादी चिंतन को त्याग देने वालों की संख्या में लगातार इजाफा होता गया।

अंत में,आज हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील तबके का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न संस्थानों में है। ये आमतौर पर बड़े पदों पर हैं। वे तनख्वाह के बतौर मोेटी रकम उठाते हैं। इन संस्थानों का पदानुक्रम निश्चय ही जनवादी नहीं है-हो भी नहीं सकता। वेतन भी जनवादी तरीके का नहीं है-यह भी नहीं हो सकता। जीविका व संगठन के इस गैरजनवादी व्यवस्था में ये प्रगतिशील लेखक अपने निचले क्रम में काम करने वाले लोगों के प्रति इस ज्यादती के बारे में बोलना तो दूर एक लेख लिखना भी गवारा नहीं रखते। वेतन के इस जमीन आसमान के फर्क के बारे उन्हें कभी बोलते हुए नहीं सुना गया।

साहित्य के कई दिग्गजों का वेतन एक लाख रूपए प्रति महीने है। ये वहीं साहित्यकार हैं जो न सिर्फ जनवादी लेखक संगठनों हाय जनवाद करते हैं,बल्कि अपनी रचना में जनवाद की दावेदारी करते हैं और दूसरे के साहित्य में इसके अभाव पर टिप्पणी करते हैं। हिन्दी साहित्य में यह एक नई स्थिति है। जो निश्चय ही जटिल है। साहित्यकारों के बीच न केवल विचार का साथ ही भौतिक हालातों का फर्क भी तेजी से बढ़ रहा है। देखना है आवाज किधर से उठती है!



लेखक राजनितिक कार्यकर्त्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.उनसे anjani.dost@yahoo.co.inपर संपर्क किया जा सकता है.