May 11, 2010

प्रेम की कोटियाँ


विस्यारियन ग्रिगोरीयेविच बेलिंस्की.   बेलिंस्की (1811-1848) उन्नीसवीं शताब्दी में जन्में रूस के उन महान लेखकों में से एक रहे जिनकी प्रतिष्ठा जनता के लेखक और जारशाही  की किरकिरी के रूप में  रही. उनके लेखों ने रूसी समाज के सभी प्रगतिशील तत्वों को हमेशा उत्साहित किया. जबकि इसके उलट 'शाही विज्ञान अकादमी' के एक सदस्य फ्योदोरोव ने ओतेचेस्त्वेंनिये जापिस्की में छपे उनके सभी लेखों को काटकर सात टोकरियों में भरा और प्रत्येक पर 'ईश्वर  के विरुद्ध', 'सरकार के विरुद्ध', 'नैतिकता के विरुद्ध' आदि लिखकर ख़ुफ़िया पुलिस में पहुंचा दिया था. 



बेलिंस्की के इस संक्षिप्त परिचय के साथ उनकी  'प्रेम की कोटियाँ'  टिप्पणी पढ़िये.



 प्रेम को आमतौर पर अनेक कोटियों और खानों में विभाजित किया जाता है, लेकिन ये विभाजन अधिकांशतः बेहूदा होते हैं. कारण  कि यह सब कोटियाँ और खाने उन लोगों के बनाये हुए हैं जो प्रेम के सपने देखने या प्रेम के बारे में बातें बघारने में जितने कुशल होते हैं, उतने  प्रेम करने में नहीं.

सर्वप्रथम वे प्रेम को  दुनियावी या वासनाजन्य और आध्यात्मिक  में विभाजित करते हैं. इनमें पहले  -वासनाजन्य से वे घृणा करते हैं और दूसरे -आध्यात्मिक  से प्रेम करते हैं। बिला शक, ऐसे जंगली लोग भी हैं जो प्रेम के केवल पाशविक आनंद पर मरते हैं। न उन्हें सौंदर्य की चिंता होती है, न यौवन की। लेकिन प्रेम का यह रूप-अपने पाशविक रूप के बावजूद-आध्यात्मिक प्रेम से फिर भी अच्छा है। कम से कम यह प्राकृतिक तो है।

 आध्यात्मिक प्रेम  तो केवल पूरबी रनिवासों-हमसाराओं के रक्षकों के लिए ही मौजूं हो सकता है।..... मानव न तो वहशी है और न देवता। उसे न तो पशुवत प्रेम करना चाहिए,न आध्यात्मिक। उसे प्रेम करना चाहिए मानव की तरह। प्रेम का चाहे आप  कितना ही दिव्यीकरण करें, मगर साफ है कि प्रकृति ने मानव को इस अद्भुत भावना में जितना अधिक उसके आनंद के लिए सज्जित किया है, उतना ही अधिक प्रजनन तथा मानव जाति को बनाये रखने के लिए भी। और प्रेम की किस्में- उनकी संख्या उतनी ही है जितने कि इस दुनिया में आदमी हैं। हर आदमी अपने अलग ढंग से- अपने स्वभाव, चरित्र और कल्पना आदि के हिसाब से- प्रेम करता है। हर किस्म का प्रेम, अपने ढंग से सच्चा और सुंदर होता है।



लेकिन रोमांटिस्ट- हमारे चिरंतन प्रेमी-दिमाग से प्रेम करना ज्यादा पसंद करते हैं। पहले वे अपने प्रेम का नक्शा बनाते हैं, फिर उस स्त्री की खोज में निकलते हैं जो उस नक्शे में फिट बैठ सके। जब वह नहीं मिलती तो शार्टकट अपनाते हुए कहीं अस्थायी जुगाड़ लगाते हैं। इस तरह कुछ लगता भी नहीं, कोई दिक्कत भी नहीं होती, क्योंकि उनका  मस्तिष्क ही सब करता है, हृदय नहीं।



वे प्रेम की खोज करते हैं, खुशहाली या आनंद के लिए नहीं, बल्कि प्रेम संबंधी अपनी दिव्य धारणा को अमल में पुष्ट करने के लिए। ऐसे लोग किताबी प्रेम करते हैं,अपने प्रोग्राम से जौ भर भी इधर-उधर नहीं होते। उन्हें एक ही चिंता होती है कि प्रेम में महान दिखाई दें, कोई भी चीज उनमें ऐसी न हो, जिससे साधारण लोगों में उनका शुमार किया जा सके।